Sunday 1 May 2011

अरुन्धति को पुन: पढ़ते हुए



अरुन्धति राय का गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स एक ऐसा उपन्यास है जिसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए. मैं खुद तीसरी बार पढ़ रही हूँ. बहुत ही संवेदनशील उपन्यास. यह कहानी है जीवन की. प्रेम, घृणा, द्वैष, जलन, स्वार्थ, बिट्रेयल की और बार-बार घर वापस आने की. यह कहानी है बचपन की मासूमियत की तथा उस मासूमियत के लूटे जाने और चकनाचूर होने की. बचपन के कुचले जाने के रिसते, मूक नासूर की. यह सवर्ण और अवर्ण की भी कथा कहता है. भले ही ईसाई समुदाय में जात पाँत न हो मगर सामाजिक छूआछात तो ज्यों का त्यों बरकरार है. धनी-गरीब का भेदभाव तो बना ही हुआ है. छद्म मार्क्सवाद कितना घिनौना, कितना गलीच हो सकता यह भी उपन्यास बड़े खूबसूरत तरीके से बुनता है.
उपन्यास रैखिक गति से नहीं चलता है. समय खूब आगे पीछे आता जाता है. वैसे पूरी कहानी १९६९ से प्रारंभ होकर १९९३ तक यानि २४ साल को समेटती है. बीच के समय का बहुत विस्तार से वर्णन नहीं मिलता है. पूरा उपन्यास राहेल की दृष्टि से लिख गया है मगर यह भी पता चलता रहता है कि और लोग क्या सोच रहे हैं उनके मन में क्या चल रहा है.
एक से एक चरित्र उभारे हैं अरुन्धति ने. उनका सूक्ष्म और गहन अवलोकन काबिले तारीफ़ है. इस उपन्यास में पापाची जैसा ईर्ष्यालू और क्रूर पिता और पति है जो बेटी राहेल के गमबूट्स को कैंची से दस मिनट तक कतर कर नष्ट करता है, पत्नी को रोज रात को पीतल के फ़ूलदान से मारता है. दूसरी ओर वेलुता है जिसकी संवेदनशीलता उसे ले डूबती है. बिना किसी अपराध के बेबी कोच्च्मा के कहे पर पुलिस उसे पीट-पीट कर मार डालती है. मरते वक्त भी उसकी आँखों में एस्था के लिए प्रेम और करुणा है. एस्था बचपन के अनुभवों से इतना आहत हो गया है, इतना हिल गया है कि उसने बोलना बन्द कर दिया है. राहेल और एस्था की माँ अम्मू अपने पिता-पति के हाथों अपमानित होती है. भाई चाको जब चाहे उसे घर से निकाल बाहर कर सकता है. बेबी कोच्च्मा जैसा श्याम चरित्र रचना बड़े कौशल की माँग करता है. लेखिका इसमें पूरी तरह सफ़ल रही है.
सारा घटनाचक्र चाको की बेटी सोफ़ी मोल की मृत्यु इर्दगिर्द घूमता है. सोफ़ी की मौत दुर्घटना है जिसे अपराध में परिवर्तित कर दिया जाता है. सब कुछ राहेल के जीवन से जुड़ा हुआ है. कल्पना और यथार्थ ऐसा घुला-मिला है जैसे दूध-पानी. इंग्लिश भाषा पर लेखिका की गजब की पकड़ है और वे भाषा से खूब खेलती हैं. अनुवाद में खोल रह जाता है आत्मा नष्ट हो जाती है. फ़ूल रह जाता है खुशबू उड़ जाती है. मूल भाषा में ही इसका सही आस्वादन किया जा सकता है. वैसे मैंने अभी तक अनुवाद नहीं देखा-पढ़ा है. सुना है नीलाभ ने बहुत अच्छा अनुवाद किया है.
उपन्यास पढ़ कर मन में कसक होती है कि ऐसा क्यों होता है. काश ऐसा न होता. पात्र और घटनाएँ बहुत लम्बे समय तक साथ बनी रहती हैं, मेरे अनुसार रचना की सफ़लता की एक कसौटी. एक और अफ़सोस होता है इतनी संवेदनशील लेखिका ने एक उपन्यास के पश्चात रचनात्मक साहित्य से क्यों मुँह मोड़ लिया. क्या वे पाठकों की अपेक्षाओं से डर गईं?
०००

1 comment:

  1. अब इन की शक्ल अच्छी नहीं लगती.....

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