Sunday 28 August 2011

सेल: और विश करो

सेल: और विश करो

 
"लूट और समृद्धि का स्रोत सामाजिक संबंधों के मानवीय स्वरूप में नहीं, बिकाऊ माल या सिर्फ़ माल का दबदबा कायम करने वाले बाजार में है।"[1]   अजय तिवारी

आज दुनिया बाजारवाद की गिरफ़्त में है। हम चाहे इसकी जितनी आलोचना कर लें, इस तथ्य से आँख नहीं मूँद सकते हैं कि बाजार सब ओर छाया हुआ है। हम उसमें जीने के लिए शापित हैं। इसके जादू से बच पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। बाजार सदा से था मगर यह इतना अमानवीय कभी न था जितना कि आज है। आज यह मनुष्य-मनुष्य के बीच अलगाव पैदा करता है। मानवीया मूल्यों को निरस्त्र करता है। आज की सच्चाई यह कि जिसे हम संस्कृति के नाम पर जान रहे हैं, अपना रहे हैं वह असल में लोट-खसोट, मुनाफ़े, मतलब और अमानवीयता की संस्कृति है। सोचना होगा क्या इसे संस्कृति के नाम से अभिसिक्त किया जा सकता है? आज न केवल बाजार ने हमारे घर में अपनी पैठ बना ली है वरन वह हमारे रिश्तों में भी सेंध लगा रहा है। बाजारवाद मानवीय संवेदना को सोख रहा है।

अमेरिका में रह रही हिन्दी कहानीकार इला प्रसाद की एक छोटी-सी कहानी है 'सेल', मगर इसके निहितार्थ बड़े हैं। यह कहानी एक भारतीय प्रवासी स्त्री के अमेरिका में रहते हुए मानसिक ऊहापोह को स्पष्ट करती है। यह स्त्री अभी अमेरिकी रंग-ढंग में पूरी तरह से नहीं डूबी है। जब-तब उसके भारतीय मूल्य उसे निर्देशित करते रहते हैं, साथ ही उस पर अपने तत्कालीन समाज का दबाव भी है। उसके बच्चे जो वहीं पैदा हुए हैं, उसी समाज की उपज हैं, उन्हें वह अपने भारतीय मूल्य नहीं दे पा रही है। वह जानती है कि बच्चों को उसी समाज में रहना है अत: वह इस मामले में सजग है और नहीं चाहती है कि वे कुंठित जीवन प्रारंभ करें। मगर इस बात को लेकर भी उसके मन में बार-बार संशय उत्पन्न होता है। एक ओर उसके अपने संस्कार हैं, दूसरी ओर अमेरिकी जीवन शैली है। उसके संस्कार कहते हैं कि जितनी चादर हो उतना ही पैर फ़ैलाना चाहिए और अमेरिकी जीवन पद्धति कर्ज को सामान्य मानते हुए कर्ज से लदा हुआ है। वह अपने चारों ओर समृद्धि का साम्राज्य देखती है। उसे शुरु में असलियत का पता नहीं होता है। सुमि के घर होजे नामक जो व्यक्ति घास काटने आता है, सुमि को वह बहुत अमीर लगता है, वह सोचती है, "होजे इतनी बड़ी गाड़ी कैसे चलाता है। वह गाड़ी तो उसकी अपनी है। नई भी है। वह इतने बड़े घर में रहता है।"[2] तुलना नरक का द्वार है। सुमि इसी नरक में प्रवेश करती है। उसका मन तुरंत तुलना करता है, "सुमि का अपना घर तो उससे छोटा है।"[3] यह कैसे संभव है, इस बात को वह समझ नहीं पाती है। उसका पति रवीश उसे बताता है, "बस इतनी है कि तुम्हारा घर अपना है। कोई लोन नहीं है और वह अगले कई सालों तक लोन भरेगा।"

"घर का?"

"घर का, कार का, सब कुछ का। आम अमेरिकी गले तक कर्ज में डूबा हुआ होता है।"[4] अमेरिका में लोग शादियों के सूट तक भाड़े पर ले आते हैं। "लोग लोन लेकर पढ़ाई करते हैं। लोन में घर, कार और जरूरत की तमाम चीजें मसलन, सोफ़ा, पलंग, टी.वी. वगैरह खरीदते हैं। लोन लेते हैं शादी करने के लिए, बच्चे पैदा करने के लिए। फ़िर बच्चों के खर्चे। यों समझ लो एक अंतहीन सिलसिला, जो दिवालिया होकर सड़क पर आ जाने पर ही खतम होता है। सुमि इनके जैसा नहीं बनना चाहती।"[5] सुमि ऐसा सोचती है कि वह इन लोगों जैसा नहीं बनेगी पर सोचने की बात है कि क्या वह ऐसा कर पाती है? कहानी में हम आगे देखते हैं कि वह खुद को अमेरिकी जीवन पद्धति से नहीं बचा पाती है, भले ही इसके लिए वह अपनी बुद्धिमता का बहाना बनाय या फ़िर बच्चों का मन रखने की बात सोचे। अमेरिकी समाज उपभोक्तावाद का सर्वोत्तम उदाहरण है। सुमि अंतत: इसकी चपेट से नहीं बच पाती है।

बाजार उपभोक्ता को लुभाने के तरह-तरह के हथकंडे अपनाता है। कभी रंगीन, आकर्षक विज्ञापन तो कभी भारी छूट और तो और एक खरीदने पर एक मुफ़्त ले जाने का आकर्षक जाल। सड़क किनारे की होर्डिंग, टीवी, रेडियो, अखबार पटे पड़े होते हैं ऐसे विज्ञापनों से। और अब तो आपके मोबाइल पर हर पाँच मिनट पर कोई न कोई ऑफ़र हाजिर है। आदमी बच नहीं सकता है इन लुभावने-मनभावन खिंचावों से। 'सेल' कहानी का प्रारंभ भी कुछ इसी तरह से होता है। कहानी की शुरुआत एक सुबह सुमि के अखबार उलटने-पलटने से होती है। उनके इलाके में केवल वे ही लोग अखबार लेते हैं औसत अमेरिकी अखबार नहीं पढ़ता है। कोई आश्चर्य नहीं कि औसत अमेरिकी का सामान्य ज्ञान भारतीयों के अनुपात में बहुत कम होता है। सुमि भी अखबार को कचरा समझती है, जब टी.वी., इंटरनेट हैं ही खबरों के लिए तब अखबार में पैसे क्यों जाया किए जाएँ। भारत में भी जब मध्यम वर्ग के लोगों को पैसे बचाने होते हैं तो सबसे पहले तलवार अखबार पर ही गिरती है। और सच पूछो तो अखबार में क्या होता है सिवाय हत्या, लूटपाट और पेज थ्री की खबरों के और उसमें होते हैं अनावश्यक विज्ञापन। जब टीवी, मोबाइल पर सारी खबरें उपलब्ध हैं तो क्यों खरीदे कोई अखबार। मगर अखबार में कूपन होते हैं। न सही खबरों के लिए कूपन के लिए तो अखबार खरीदा ही जाएगा। सुमि भी इसीलिए अखबार देख रही है क्योंकि उसमें 'थैंक्स गिविंग सेल' के कूपन निकले हैं। वैसे "सच पूछो तो साल भर यहाँ साल सेल लगी रहती है। हर चीज की। मिट्टी से लेकार टेलीविजन तक, सब बिकाऊ है यहाँ। कभी-कभी सुमि को लगता है पूरा अमेरिका एक बहुत बड़ा बाजार है। हर चीज बिकाऊ है यहाँ और सेल पर है। फ़िफ़्टी परसेंट ऑफ़, सेवेंटी फ़ाइव परसेंट ऑफ़, बाई वन, गेट वन फ़्री।"[6]

आधुनिकता की एक विशेषता है लोग बहुत जल्दी ऊब जाते हैं और ऊब को दूर करने के लिए बाजार की ओर भागते हैं। सोचते हैं बाजार उनकी ऊब दूर करेगा, बाजार ऐसा आभास देता भी है। मगर वास्तविकता में वह और ज्यादा ऊब पैदा करता है। सुमि का पति रवीश बताता है, "यहाँ लोग बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। थोड़े-थोड़े समय पर नई चीजें खरीदते रहते हैं। पाँच साल में कार बदल ली। दस साल में घर।"[7] कहानी बताती है कि यह सुमि के अमेरिकी समाज में हो रहा है। असलियत यह है कि यह आज पूरी दुनिया में हो रहा है। भारत जैसा गरीब देश भी इसकी चपेट में है। मेरे अपने शहर में यह है। मेरा शहर एक औद्योगिक शहर है। यहाँ साल में एक बार दुर्गा पूजा (दशहरे) के समय कंपनियाँ अपने कर्मचारियों को बोनस बाँटती हैं। बोनस बाद में बँटता है बाजार को पहले हवा लग जाती है। नतीजन ग्राहकों को लुभाने की योजना अपना नंगा नाच दिखाने लगती है। बोनस बैंक या घर की बजाय बाजार की भेंट चढ़ जाता है। लोग जरूरत न हो तब भी खरीददारी करते जाते हैं।

सुमि के इस समाज में लोग नई चीजें खरीदते जाते हैं और पुरानी चीजों को गराज सेल लगा कर बेचते जाते हैं। हर व्यक्ति बाजार की चपेट में है और दूसरों को खुद बाजार बन कर उसकी चपेट में ला रहा है। बाजार और विज्ञापन का चोली दामन का साथ है। "सुमि को पता है। गराज सेल यानि अपने घर के गराज के बाहर दुकान लगा कर बैठ जाओ। पूरे सबडिवीजन में नुक्कड़ों पर, हो सके तो सबडिवीजन की बाहर खुलती मुख्य सड़क पर और तमाम मित्रों-परिचितों के बीच अग्रिम लिखित-अलिखित सूचना चिपका दो, बाँट दो।"[8] शुरु में सुमि को यह सब विचित्र लगता था मगर अब वह इन सबकी आदी हो गई है। अब सब सामान्य लगता है। यह दिखाता है कि वह अपने प्रवासी परिवेश में ढ़लने लगी है। आदमी बहुत देर तक अपने परिवेश से निरपेक्ष नहीं रह सकता है।

प्रारंभ में अमेरिकी जीवन सुमि को चकित करता था उसे वहाँ की हर बात जादू की तरह लगती थी। कूपन भर कर भेज दो और ढ़ेर सारी मुफ़्त की चीजें अनायास आपके पास आ जाती हैं। जरूरत की चीजों के साथ बहुत सारी गैर जरूरी वस्तुएँ भी। मुझे एक चीनी कहावत याद आ रही है, कहावत है कि एक दंपत्ति ने बाजार में एक छोटी सी मेज देखी उन्हें वह अच्छी लगी उन्हें उसकी जरूरत न थी उसके बिना भी उनका काम बखूबी चल रहा था। उन्होंने उसे खरीद लिया। घर ले आए, कुछ दिन बाद लगा इस पर एक मेजपोश होता तो कितना सुंदर लगता। जल्दी ही मेजपोश आ गया। फ़िर लगा कि इसके साथ कुर्सियाँ भी होती तो सेट पूरा हो जाता। दोनों बाजार गए और एक सेट कुर्सियाँ खरीद लाए। फ़िर उनपर कवर चढ़ा। कमरे में रखी खाट खटकने लगी। मेज-कुर्सी के साथ उसका मेल न था। खाट हटी वहाँ दीवान आ गया। खिड़कियों-दरवाजों के मैचिंग परदे लगे। दीवान पर गद्दा-चादर बिछा। अब सब कुछ नया था मगर दीवालों का रंग जम नहीं रहा था। नया रंग रोगन हुआ। इसी बीच एक साइड टेबल आ गई। अब कमरा छोटा लगने लगा। सो विचार बना कि क्यों न एक नया बड़ा घर खरीदा जाए। पति-पत्नी जो कुछ दिन पहले तक आराम से प्रेमपूर्वक जिस घर में रह रहे थे उसे बेचने और नए घर की तलाश में परेशान रहने लगे। और जब उन्होंने नया घर लिया तो... और इस तरह खरीददारी का सिलसिला न चाहते हुए भी बिना आवश्यकता के चलता रहता है।

हाँ तो हम लौटते हैं इला प्रसाद की सेल पर। वह कूपन भर-भर कर जरूरत बेजरूरत की चीजें जमा करती है। "ढ़ेर सारी अनाप-शनाप चीजें, जिनकी उसे बिलकुल जरूरत नहीं थी। बस, मुफ़्त में पाने का मजा! केवल लिपस्टिक, नेलपॉलिश वगैरह ही ढ़ेर सारे जमा करने पर भी बेकार नहीं होने वाले थे। जब वह भारत जाएगी तो अपने मित्रों-परिचितों को बाँट देगी।"[9] रिश्तेदार सोचेंगे कि कितने पैसे खर्च करके उनके लिए उपहार लाई है। उन्हें क्या पता मुफ़्त में जमा की हैं।

"नई विश्व-व्यवस्था में मंडीतंत्र ही मूल आधार है और सूचना-संचार की क्राँति ऊपरी ढ़ाँचा है।"[10] क्यों देते हैं बाजार वाले मुफ़्त का सामान? भला व्यापारी क्यों देने लगा मुफ़्त का सामान। वह अपने गोदाम का पुराना माल सधाता है। क्लियरेंस सेल के नाम पर और चस्का लगाता है अपने माल का जिसे बाद में वह मनचाहे दाम पर बेचता है। यदि कोई चीज पसंद आ गई तो बाद में सेल न होने पर भी लोग खरीदेंगे ही। आलोचक अजय तिवारी अपने निबंध 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और आधुनिकता' में कहते हैं, "उपभोक्तावाद बाजार का ऐसा संगठन है जहाँ हमारे उपभोग का स्वरूप हमारी आवश्यकताएँ नहीं, व्यावसायिक हित निर्धारित करते हैं। वस्तु (कमॉडिटी) हमारी मानवीयता को स्थानांतरित कर देती है और विच्छन्नताबोध (फ़्रैग्मेंटेशन) हमारी चेतना को।"[11]

और क्या होता है हमारी चेतना को इससे? इसे स्पष्ट करते हुए वे अपने इसी निबंध में बताते हैं, "मन में पहला प्रत्यय – कमॉडिटी – बाजारतंत्र से संबद्ध है और दूसरा – फ़्रैग्मेंटेशन – उत्तर-आधुनिकता से। दोनों एक- दूसरे के पूरक हैं और वे एक ही लक्ष्य पूरा करते हैं – हमें अचेतन बना कर 'उपभोक्ता' में बदलना।"[12] इसी का नतीजा है सुमि वही सीरियल खाती है जिसकी उसे लत पड़ गई है और सेल हो या न हो वही सीरियल खरीदती है चाहे जिस भी दाम में मिले।

वह अपने घर में छोटे टीवी पर प्रोग्राम्स देख कर खुश थी मगर उसकी बेटियाँ खुश नहीं थीं उन्हें पड़ोसी का ४२ इंच स्क्रीन का टीवी अच्छा लगता है, उस पर "हैरी पॉटर देखने में बड़ा मजा आया। हम भी वैसा खरीदेंगे। है न मॉम?"[13] सुमि नहीं चाहती है कि उसके बच्चे हीन भावना के शिकार हों अथवा रोज-रोज पड़ोसी के घर जा कर टीवी देखें। सो वह हथियार डालती हुई कहती है, "हाँ बेटे, अभी थैंक्सगिविंग की सेल है न। खरीदेंगे।"[14] बेटियों की आँख की चमक और उनका प्रेम से उसके गले में बाहें डालना सुमि को बहुत अच्छा लगता है। अब रिश्तों की गर्माहट चीजें तय करती हैं। आलोचक अजय तिवारी कहते हैं, "बढ़ता हुआ वस्तुमोह छीजती हुई मनुष्यता का स्त्रोत बन जाता है।"[15]

इस तरह सुमि बच्चों की खुशी का वास्ता देकर पति को सूचित करती है कि वह कल सुबह सेल में बदए स्क्रीन का टीवी खरीदने जा रही है। पति समझाने का प्रयास करता है, "तुम उन्हें समझाती क्यों नहीं? इस तरह तुलना करने की आदत पड़ गई तो कल को सब कुछ बड़ा चाहिए होगा इन्हें। बड़ा घर, बड़ी कार। और अपने सिर पर बड़ा लोन। यहाँ शिक्षा कितनी मँहगी है, जानती तो हो। इनकी पढ़ाई का खर्च जुटाना मुश्किल हो जाएगा।"[16] पति खीजा हुआ है। सवाल उठता है क्या बच्चियों को समझाने का काम केवल माँ का है? । "तुमुल नौ की होने को आई। तनुज छह की। इनके लिए जब वह कपड़े खरीदने जाती है और सेल के बावजूद उनकी ऊँची कीमत देख कर रुक जाती है, तब बहुत खलता है।

और बच्चों को कहाँ समझ है।

तनु को रोली की लेक्सस कार अच्छी लगती है।"[17] वह उसे समझाती है कि अपनी कोरोला भी तो अच्छी है। हम सब कितने आराम से बैठते हैं। इस पर बेटी की निगाहें स्पष्ट कर देती हैं कि माँ झूठ मत बोलो।

पहले सुमि सोचती थी कि वह इन सब चक्करों में नहीं पड़ेगी। "सुमि को नहीं चाहिए यह सब। न ही उसे चार बजे उठ कर लाइन में लगना है। न ही गैस स्टेशन से अखबार के कूपन जमा करने हैं। वह अपने छोटे से घर में, छोटे स्क्रीन का टीवी देखकर खुश है।"[18] पर क्या वह वास्तव में खुश है? क्योंकि अगला ही वाक्य उसकी मन:स्थिति को दिखाता है। वाक्य है, "लेकिन तब भी कुछ खलता है।"[19]

वह तो अपने मन को समझा ले पर  बच्चियों का क्या करे? "बेटियाँ बड़ी हो रही हैं

कहानी प्रवासी की परेशानियों को भी दर्शाती है। अमेरिका में लोगों की नौकरी में स्थायित्व नहीं होता है। न मालूम कब नौकरी से हाथ धोना पड़ जाए। और जब तक नौकरी रहती है गधे की तरह खटना पड़ता है। अमेरिका में भारत की तरह घरेलू कामों के लिए नौकर नहीं मिलते हैं सारा काम खुद ही करना होता है। पति-पत्नी दोनों नौकरी न कर रही हों तब भी पत्नी को चकरघिन्नी सा घूमते रहना होता है। सुमि और उसका पति रवीश भारतीय हैं अत: उन्होंने "जोड़-जोड़ कर इतना जुटा लिया है तो वह कम नहीं है। घर अपना, कार अपनी। सब कुछ तो है और सारे लोन चुक चुके हैं। इसके आगे चाहिए क्या।"[20] मगर क्या सुमि रुक सकी? नहीं उसकी खरीददारी नहीं रुकती है। अब वह अपने लिए नहीं बच्चों की आड़ में खरीददारी करती है। "अब बस इन दोनों की चिंता है। लेकिन इन बच्चों को कौन समझाए। अमेरिका की उपभोक्ता संस्कृति में पल-बढ़ रही उसकी बच्चियाँ रोज ही कुछ देख आती हैं, कुछ सुन आती हैं। अमेरिकी हो रही हैं ये, सुमि सोचती है, रोके तो कैसे! और रोकना मुनासिब है क्या! कहीं हीन भावना की शिकार न हो जाएँ उसकी बच्चियाँ। इतनी बड़ी भी नहीं हैं कि समझ सकें, इतनी बड़ी-बड़ी बातें सोच सकें उस तरह, जिस तरह सुमि सोचती है।"[21]

खैर सुमि पति को बताती है कि वह दुकान से खरीदने नहीं जा रही है सेल में लेने जा रही है। भले ही इसके लिए उसे आधी रात को उठ कर दुकान के सामने लाइन में लगना पड़े। पुराने टीवी का क्या करना है यह भी उसने सोच लिया है वह उसे बेड-रूम में ले लेगी। मतलब,अब बच्चे अलग टीवी देखेंगे और वे लोग अलग। परिवार का रहा-सहा सह-निवास का समय भी बँट जायेगा। माता-पिता और बच्चों के बीच दूरी बढ़ेगी। वे चूँकि पुराने छोटे टीवी का उपयोग कर्रेंगे और बच्चे नए और बड़े टीवी का अत: बच्चों के मन में यह विचार घर करना स्वाभाविक है कि माता-पिता पुराने विचारों के हैं वे बीते जमाने के लोग हैं, ये लोग शीघ्र ही पुराने जमाने की वस्तु में परिवर्तित हो जाएँगे। माता-पिता और बच्चों का मानसिक अलगाव यहीं से प्रारंभ हो जाएगा। आगे चलर जिसकी परिणति बच्चों द्वारा माता-पिता की उपेक्षा और उन्हें ओल्ड-एज होम में भेजने में होगी। मानवीय संबंध जिनकी दुहाई देकर सुमि चीजें खरीदना चाहती है वही मानवीय संबंधों के छीजने का कारण हैं।

"सुमि अखबार देख चुकी है। सीयर्स में सबसे पहले आने वाले पाँच ग्राहकों को बयालीस इंच स्क्रीन वाला टीवी ड़ेढ़ सौ डॉलर में मिलेगा। ड़ेढ़ सौ डॉलर तो वे खर्च कर ही सकते हैं।"[22] और सुमि नवंबर की ठंड की परवाह न करते हुए सुबह चार बजे से सीयर्स के सामने लाइन में लग कर टीवी खरीद लेती है। वह काँपती रहती है मगर लाइन छोड़ कर गर्म कॉफ़ी खरीदने भी नहीं जाती है। जिन बातों के लिए वह दूसरों पर तरस खाया करती थी उन्हीं बातों को जब वह खुद करती है तो जस्टीफ़ाई करती है, न्यायसंगत ठहराती है, "कोई बात नहीं। अभी सुबह हो जाएगी। इतना भी क्या सोचना। वह क्या रोज-रोज आने वाली है।"[23] जिस काम के लिए आदमी दूसरों की हँसी उड़ाता है, आलोचना करता है जब वही काम आदमी खुद करता है तो वह उस काम को जायज ठहराने के लिए दूसरों को तो गढ़-गढ़ कर तर्क देता ही है खुद को भी गढ़ कर तर्क देने लगता है। खुद को और दूसरों को सान्त्वना  देता है, सफ़ाई देता है।

लोग ठंड से बचने के लिए तरह-तरह के उपाय कर रहे हैं। किसी ने मफ़लर से कान-मुँह लपेटा हुआ है किसी ने मोटे कोट की जेब में हाथ डाले हुए हैं। कोई गर्म कॉफ़ी से सर्दी दूर भगा रहा है। कोई एक दूसरे से चिपक कर गर्माहट पाने की कोशिश कर रहा है। कॉफ़ी वालों की भी बन आई है। जहाँ सेल लगती है वहीं "सुबह पाँच बजे से कॉफ़ी और ऐसी ही नाश्ते की कई दुकानें खुल जाती हैं, इस सेल के मद्देनजर। उन दुकानों में काम करने वाले ओवरटाइम कमा लेते हैं। सबका फ़ायदा।

और जो इस तरह सेल लगाते हैं ये, उससे इनका अच्छा-खासा विज्ञापन भी तो होता है। उसे याद आया जब आइकिया फ़र्नीचर का शोरूम उसके शहर में खुला था तो उन लोगों ने पहले पाँच ग्राहकों को कुछ हजार के फ़र्नीचर मुफ़्त में देने की घोषणा की थी और लोग सप्ताह भर पहले से खुले में टेंट गाड़ कर बैठ गए थे।"[24] इन लोगों पर पहले सुमि तरस खाया करती थी और आज सुबह चार बजे से वह स्वयं सर्दी की परवाह न करते हुए लाइन में खड़ी है।

वह अपने मन को समझा रही है कि वह बहुत होशियार है और कम पैसे में थोड़ी-सी मुश्किल उठा कर इतना फ़ायदा उठा लाई है। काश ऐसा होता। मगर ऐसा नहीं हुआ है। वह "टीवी लेकर यों घर लौटी जैसे जंग जीत कर आई हो। बेटियाँ खुशी से नाच उठीं। रवीश भी मुस्कुराए। सुमि ने संतोष की सांस ली।"[25] काश वह संतोष की लंबी सांस ले पाती। सेल चलती रही, जल्द ही थैंक्सगिविंग से शुरु हुई सेल क्रिसमस की सेल में बदल गई। सेल वहीं नहीं रुकी उसे साल भर चलना है। क्रिसमस सेल आफ़्टर क्रिसमस सेल में बदल गई। इस दौड़, इस हवश का कहीं अंत नहीं है। बाजार आपको कहता है, 'थोड़ा और विश करो', थोड़ा और माँगो, थोड़ा क्यों खूब माँगो। बाजार पटा पड़ा है। बाजार का मकसद ही है आपके घर को फ़ालतू की चीजों का गोदाम बनाना। सारे विज्ञापन लालच पैदा, दिमाग में जरूरत उत्पन्न करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। दिमाग पर कब्जा करके ही उनकी दुकान चल सकती है। अजय तिवारी कहते हैं, "प्रवृधि और संचार के उपयोग, खासकर उन समाजों में जहाँ उत्तर-आधुनिकता का विकास हुआ, सीधे तौर पर व्यापारी हितों के लिए और परोक्ष रूप में वैचारिक नियंत्रण के लिए किया जाता है।"[26]

नए टीवी को लेकर पूरा परिवार खुश है मगर कितने दिन? उनकी खुशी बड़ी क्षणिक है। आखीर वह कुछ दिन में पुराना हो जाएगा। असल में जिस दिन बाजार में एक नया टीवी लॉन्च होगा उसी दिन उनका टीवी पुराना हो जाएगा। और बाजार तो रोज कुछ न कुछ लॉन्च करता ही रहता है। साल बीतते न बीतते बेटियाँ अखबार दिखाते हुए बताती और फ़रमाइश करती हैं, "मॉम, पता है आजकल फ़्लैट स्क्रीन एच.डी.टी.वी. की सेल चल रही है। पचास इंच स्क्रीन वाला।"[27] दूसरी बेटी क्यों पीछे रहती वह जोड़ती है, "मॉम पता है, कार की भी सेल होती है,"[28] यह दूसरी बेटी तनुज थी, "थैंक्सगिविंग में खरीद सकते हैं, है न मॉम!"[29] और पिछले साल जिसे सुमि अपनी जीत सोच रही थी उसमें अब उसे अपनी हार का अहसास होने लगता है।

आज एक नए तरह के साम्राज्यवाद का उदय हो चुका है जो लोगों को नहीं उनके दिमाग को गुलाम बनाता है। पहले साम्राज्यवाद का अर्थ था देश को गुलाम बनाना। आज उसका रूप बदल चुका है। अजय तिवारी के अनुसार, "साम्राज्यवाद का रूप भी बदल रहा है। अब वह देशों को नहीं, दिमागों को उपनिवेश बना कर अपने हित सिद्ध करता है।"[30] आज उसका उद्देश्य व्यक्ति को उपभोक्ता बना कर ही पूरा हो सकता है। उत्पादन मशीनों से होता है, मानव श्रम की कोई कीमत नहीं है। जब मशीने उत्पादन करती हैं तो बेशुमार उत्पादन होता है और इस उत्पादन के लिए बाजार चाहिए। बाजार सेचुरेट न हो जाए इसके लिए आवश्यक है कि हर दिमाग को उपनिवेश बना लिया जाए, हर दिमाग गुलाम होगा तो वह वही सोचेगा जो बाजार के हित में होगा अर्थात हर व्यक्ति अधिक से अधिक खरीददारी करता जाएगा।

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संदर्भ:

[1]               तिवारी, अजय, 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और उत्तर-आधुनिकता' आलोचना के सौ बरस भाग २, शिल्पायन, 

दिल्ली ३२, पृष्ठ संख्या २९३ 

[2]               प्रसाद, इला, सेल, इस कहानी का अंत नहीं, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली – २, पृष्ठ संख्या ५८

[3]               वही, पृष्ठ संख्या ५८

[4]               वही, पृष्ठ संख्या ५९

[5]               वही, पृष्ठ संख्या ५८

[6]               वही, पृष्ठ संख्या ५६-५७

[7]               वही, पृष्ठ संख्या ५७

[8]               वही, पृष्ठ संख्या ५७

[9]               वही, पृष्ठ संख्या ५७

[10]             तिवारी, अजय, 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और उत्तर-आधुनिकता' आलोचना के सौ बरस भाग २, शिल्पायन, 

दिल्ली ३२, पृष्ठ संख्या २९३ 

[11]             वही, पृष्ठ संख्या २९४ 

[12]             वही, पृष्ठ संख्या २९४ 

[13]             प्रसाद, इला, सेल, इस कहानी का अंत नहीं, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली – २, पृष्ठ संख्या ६०

[14]             प्रसाद, इला, सेल, इस कहानी का अंत नहीं, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली – २, पृष्ठ संख्या ६०

[15]             तिवारी, अजय, 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और उत्तर-आधुनिकता' आलोचना के सौ बरस भाग २, शिल्पायन, 

दिल्ली ३२, पृष्ठ संख्या ३०७ 

[16]             प्रसाद, इला, सेल, इस कहानी का अंत नहीं, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली – २, पृष्ठ संख्या ६०

[17]             वही, पृष्ठ संख्या ५९

[18]             वही, पृष्ठ संख्या ५९

[19]             वही, पृष्ठ संख्या ५९

[20]             वही, पृष्ठ संख्या ५९-६०

[21]             वही, पृष्ठ संख्या ६०

[22]             वही, पृष्ठ संख्या ६१

[23]             वही, पृष्ठ संख्या ६२

[24]             वही, पृष्ठ संख्या ६२

[25]             वही, पृष्ठ संख्या ६२                                                                     

[26]             तिवारी, अजय, 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और उत्तर-आधुनिकता' आलोचना के सौ बरस भाग २, शिल्पायन, 

दिल्ली ३२, पृष्ठ संख्या ३०६ 

[27]             प्रसाद, इला, सेल, इस कहानी का अंत नहीं, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली – २, पृष्ठ संख्या ६३

[28]             वही, पृष्ठ संख्या ६३

[29]             वही, पृष्ठ संख्या ६३

[30]             तिवारी, अजय, 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और उत्तर-आधुनिकता' आलोचना के सौ बरस भाग २, शिल्पायन, 

दिल्ली ३२, पृष्ठ संख्या २९३ 

 

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Saturday 20 August 2011

natoor

नातूर : रिश्तों की अमानवीयता

कहानीकार शून्य में रचना नहीं रचता है। वह किसी समाज का अंग होता है, उसी समाज से वह अपने पात्र उठाता है, वहीं से उसे भाषा, संस्कृति, मूल्य, रीति-रिवाज प्राप्त होते हैं। उसकी अनुभव और अनुभूति का उत्स उसका समाज होता है। आज के विश्वग्राम के समय में रचनाकार भी विश्वग्राम का एक हिस्सा है। अबू धाबी में रह रहे प्रवासी कहानीकार कृष्ण बिहारी ने अपनी कहानी 'नातूर' का प्रमुख पात्र बादशाह खान अबू धाबी से उठाया है। अबू धाबी  एक ऐसा देश है जहाँ साठ के दशक में तेल निकलने के कारण विश्व के कई देशों खासकर एशिया के विभिन्न देशों से रोजी-रोटी की खोज में बहुत से लोग जा बसे। यहाँ का समाज बहुभाषीय तथा बहुसांस्कृतिक है। यह एक मुस्लिम देश है। मध्य पूर्व का देश होने के कारण यहाँ पहले समूहवादी संस्कृति रही है, मगर आज व्यापारिक देश होने के कारण भौतिक सुख-सुविधाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है नतीजन अब यहाँ व्यक्तिवादी संस्कृति का बोलबाला है। आज मुसलमानों के अलावा यहाँ अन्य धर्मावलम्बी भी रहते हैं। भारत, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, फ़िलिस्तीन और तो और रूस के लोग भी प्रवास पर यहाँ हैं। यहाँ प्रवास के नियम अन्य अमेरिकी और यूरोपीय देशों से भिन्न हैं। बाहर का आदमी काम करने का वीजा प्राप्त होने पर यहाँ आता है और सदा अस्थायी तौर पर ही रहता है, उसे कभी भी यहाँ की नागरिकता प्राप्त नहीं होती है। इस देश में वह सदैव एक विदेशी के रूप में ही रहता है। इस देश में प्रत्येक व्यक्ति को असीमित भौतिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं।

व्यक्तित्व के निर्माण में संस्कृति का प्रमुख हाथ होता है। अपनी संस्कृति से व्यक्ति  मूल्य ग्रहण करता है। व्यक्तिवादी संस्कृति और समूहवादी संस्कृति में जमीन-आसमान का फ़र्क होता है। अत: इनमें पले-बढ़े मनुष्य का व्यक्तित्व भी भिन्न होता है। समूहवादी संस्कृति में "एक सुगठित सामाजिक ढाँचे पर बल होता है जिसमें लोग जिस समूह के होते हैं उस समूह के अन्य लोगों द्वारा अपनी देखभाल और सुरक्षा की अपेक्षा करते हैं।" (Collectivism emphasizes a tight social framework in which people expect others in groups of which they are a part to look after them and protect them) इसी बात को और समझा कर फ़्रेड लूथांस बताते हैं। वे कहते हैं, "दुनिया के कुछ देशों के सांस्कृतिक मूल्य व्यक्तिवाद को बढ़ावा देते हैं। द यूनाइटेड स्टेट्स, ग्रेट ब्रिटेन, और कनाडा इसके उदाहरण हैं। दूसरे देशों में समूहवाद, या समूह अनुकूलन, महत्वपूर्ण है। जापान, चीन, तथा इजरायली समूह सुसंगति, संगठन, प्रतिबद्धता और स्वामीभक्ति पर बल देते हैं।... उच्च समूहवादी संस्कृतियों में कर्मचारी अपनी संस्था के प्रति काफ़ी निष्ठा दिखाते हैं।" (Some countries of the world have cultural values that encourage individualism. The United States, Great Britain, and Canada are examples. In other countries collectivism, or group orientation, is important. Japan, China, and the Israeli kibbutzim emphasize group harmony, unity, commitment, and loyalty…in highly collectivistic cultures, employees tend to show considerable commitment to their organization…) समूहवादी समाज के लोगों का लक्षण बताते हुए मनोवैज्ञानिक सौंड्रा तथा ग्लेन का कहना है, "समूहवादी संस्कृति में लोग जन्म से ही समूह से मजबूती से बँधे होते हैं, खासकर विस्तृत परिवारों जिसमें बाबा-दादी, चाचा-चाची और तमाम भाई-बहन आते हैं। परिवार के प्रति निष्ठा को बहुत महत्व दिया जाता है, परिवार की चिंता को व्यक्ति की चिंता से पहले स्थान दिया जाता है।... कर्तव्य, प्रबंध, परम्परा, बड़े बुजुर्गों का आदर सम्मान, समूह सुरक्षा तथा समूह की प्रतिष्ठा और उत्तराधिकार का सम्मान इस तरह की संस्कृति के मूल्य होते है।" (In a collectivistic culture, people are from birth deeply tied into very strong in-groups, typically extended families that include grandparents, aunts and uncles, and cousins. Loyalty to the family is highly stressed, and the care of the family is placed before the care of the individual… The values of this kind of culture are duty, order, tradition, respect for the elderly, group security, and respect for the group status and hierarchy.)

अबू धाबी का समाज भौतिक रूप से एक वैश्विक समाज है मगर सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से यह समाज द्वीपों में विभक्त है। यहाँ हर आदमी अपने आप में एक द्वीप है। ऐसा नहीं है कि वे एक दूसरे से मिलते नहीं हैं। ऐसा संभव ही नहीं है कि लोग एक दूसरे से न मिलें। मनुष्य हैं तो एक दूसरे से काम पड़ता है। लोग एक दूसरे से मिलते हैं मगर केवल जरूरत पड़ने पर, अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए। मतलब पर मिलते हैं, कोई भाईचारा नहीं है। जरूरत पूरी होते ही वे फ़िर अपने-अपने खोल में लौट जाते हैं, अपने वृत में सिमट जाते हैं। सारा संबंध उपयोगिता पर कायम है। अधिकतर सारा संबंध आर्थिक है। ऐसी स्थिति में सामजिक, सांस्कृतिक, मानसिक या आध्यात्मिक संबंध कायम होने का सवाल नहीं उठता है। लोग अपने काम से काम रखते हैं, एक दूसरे की जिंदगी में सहभागिता करने की न तो उनके पास फ़ुरसत है, न ही रूचि।

ऐसे व्यक्तिवादी समाज में अगर समूहवादी प्रवृति का एक आदमी आ जाए तो वह वहाँ हरहाल में मिसफ़िट होता है, वहाँ समाजोजित नहीं हो पाता है। 'नातूर' का बादशाह खान एक ऐसा ही व्यक्ति है। कहानीकार स्पष्ट कहता है, "कहानी बादशाह खान की है। उसके सपनों की है। उसके पैसा कमाने और अपने वतन लौट जाने की है।...कहानी तो बादशाह खान जैसे किसी एक की होती है जो अपने जैसे हजारों में से कोई एक बिल्कुल अलग होता है...और शायद तभी वह बादशाह खान होता है...अपनी मर्जी का मालिक..." कौन है बादशाह खान? क्या हैं उसके सपने? कैसे वह औरों से भिन्न और विशिष्ट है? क्या है उसकी मर्जी? कहानीकार प्रारम्भ में बता देता है कि पागल हो जाने के पहले तो उसने कभी अपना जिद्दीपन न खुद देखा था और न ही किसी को दिखाया था। इसका मतलब वह बहुत जिद्दी है और वह पागलपन की अवस्था को पहुँचता है। क्या और कैसी थी उसकी जिद्द? क्यों वह पागलपन की अवस्था तक पहुँचा? तमाम सवाल कहानी की शुरुआत में ही पाठक के मन में उठने स्वाभाविक हैं। अर्थात प्रारंभ में ही कहानीकार अपनी कहानीकला से पाठक की उत्सुकता जगाता है, उसका ध्यान कहानी की ओर आकर्षित करने में कामयाब हो जाता है। वह धीरे-धीरे बड़े विस्तार से कहानी खोलता है।

खान अफ़गानी है और उसका काम एक बहुमंजिला इमारत की देखभाल करना है। अरबी में चौकीदार को नातूर कहते हैं। अरबी भाषा का शब्द है 'नाज़ूर' जिसका अर्थ होता है रक्षक, देखरेख करने वाला। शायद यही नाज़ूर शब्द घिस-घिस कर नातूर हो गया है। बादशाह खान अपनी समूहवादी संस्कृति के कारण मात्र एक नौकर नहीं है। वह बिल्डिंग को एक नौकर की नजर से नहीं देखता है। वह उस मिट्टी का बना है जो काम को मात्र काम न मान कर पूजा मानते हैं। जिनके लिए निष्ठा, कर्तव्यपरायणता जीवन मूल्य हैं। वह बिल्डिंग को अपना मान कर प्रेम करता है। उसे इस पर नाज है क्योंकि यह उस देश की एक बेहतरीन इमारत है। करीब दो सौ फ़्लैट वाली इस इमारत में किसको फ़्लैट मिलेगा, किसको नहीं यह काफ़ी हद तक खान पर निर्भर था। जब वह स्लिप बना कर देता तभी मैनेजर टेनेंसी कॉन्ट्रैक्ट बनाता, जिसके लिए छ: महीने का किराया नगद और छ: महीने का अग्रिम किराया चेक के रूप में देना होता था। खान आने वाले किराएदार को परखता और संतुष्ट होने पर ही स्लिप देता था।

खान नमाजी है, हराम की कमाई से दूर रहता है। मेहनत की कमाई पर विश्वास मरने वाला, उसूलों का पक्का आदमी है। अपनी छोटे भाई शादाब की हरकतों पर भी वह सख्त लहजा अपनाता है। भीतर से वह अभी तक नहीं बदला है हालाँकि समय के साथ उसके पहनावे में परिवर्तन आया है, "पहले वह पठानी सलवार और लम्बा कुर्ता पहनता था लेकिन अब उसने यूनीफ़ॉर्म बनवा ली थी। सफ़ारी सूट। बिल्डिंग के रिसेप्शन काउंटर पर उसने टेलीफ़ोन लगवा लिया था और मोबाइल अलग से ले लिया था। जब यूनीफ़ॉर्म में बैठता तो लम्बा-चौड़ा, गोरा-चिट्टा खान खूब जमता। उसकी तराशी हुई दाढ़ी उसके चौड़े माथे पर नूर ले आती और वह बड़ा पुर असर दिखता।" रहने के लिए उसे भी इसी बिल्डिंग में एक आरामदेह, सुविधाओं से लैस फ़्लैट मिला हुआ है।

कृष्ण बिहारी कोई आदर्शवादी कहानी नहीं बता रहे हैं वरन वे यथार्थ की बात कर रहें हैं। वे दिखाते हैं कि नातूर की उचित बात का समर्थन न तो पुलिस करती है, न ही मैनेजर यासर करता है, न उसका मालिक या फ़िर किराएदार रामकृपाल करता है और न ही दर्शक बनी भीड़ उसका साथ देती है। और तो और रवाब (स्पांसर) उसे उसकी औकात दिखा देता है। वह उसे धमकी भरे शब्दों में स्पष्ट कह देता है, "तुम नातूर हो। तुम्हारा काम किसी फ़्लैट में हुई समस्या को ठीक कराना है किसी फ़्लैट में बिजली-पानी की या बाथरूम-किचेन या दरवाजे में कोई समस्या है तो उसे देखना तुम्हारा काम है। बिल्डिंग को साफ़ रखना तुम्हारा काम है... तुम नौकर हो...यही तुम्हारी नौकरी है...लेकिन,,,किसके फ़्लैट में कौन आता-जाता है...यह देखना तुम्हारा काम नहीं है...आज जो तुमने किया वह किसी भी तरह से ठीक नहीं...इससे बिल्डिंग का नाम खराब होगा...लोग फ़्लैट छोड़ कर चले जाएँगे...तुम पुराने आदमी हो इसलिए मैं तुम्हें माफ़ करता हूँ...आगे से ध्यान रखना..."

क्या किया है खान ने आज ऐसा कि उसे ऐसी हिदायत और धमकी मिली है? खान के जीवन की विड्मबना है कि वह समय के साथ बदला नहीं है। वह पुराने मूल्यों के साथ जीना चाहता है। सच्चाई, ईमानदारी, निष्ठा, कर्तव्यपरायणता जैसे मूल्य एक समय बहुत महत्वपूर्ण माने जाते थे। उनकी कद्र होती थी, उनको मान दिया जाता था। बदलते समय के साथ इन मूल्यों को महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है। इनका पालन करने वाले को सम्मान नहीं मिलता है। यह एक निराशाजनक दुनिया है जहाँ आदमी की स्वामीभक्ति को कुत्ते या गुलाम की स्वामीभक्ति का दर्जा मिलता। गुलाम या कुत्ते ने अपनी स्वामीभक्ति की सीमा जरा-सी पार की कि उसे नष्ट कर दिया जाता है। नातूर को उसकी लगन, सच्चाई, निष्ठा के लिए पुरस्कार के स्थान पर दंड मिलता है। उसे पागल करार देकर नौकरी से निकाल कर पहली फ़्लाइट से वापस भेजने की बात तय की जाती है। खान किसी और मिट्टी का बना है, वह यह सुन कर भी बिना किसी की ओर देखे बिल्डिंग से बाहर निकल जाता है। असल में वह पहले ही यह काम छोड़ने का निर्णय और घोषणा कर चुका है। वह बहुत संवेदनशील व्यक्ति है। "उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि बरसों की खिदमत के बाद रवाब उसे ऐसा पल दिखाएगा। उसे लगा कि रंडी की जूतियों से वह जितना आहत नहीं हुआ था उससे कहीं ज्यादा तो उसे रवाब ने अपमानित कर दिया। कितने विश्वास के साथ उसने रवाब को फ़ोन किया था। वही रवाब उसे औकात बता रहा है कि बादशाह खान नौकर है।...कमरे से बाहर निकलते ही वह चीख पड़ा, "रवाब...यह मेरा गर ता...मेरा गर...मेरा इबादतखाना...मैं इसमें नमाज पढ़ता था...मैंने इसमें कोई गलत काम नई ओने दिया...मैंने इसे अमेशा....पाक रखा अमें मालूम तो ओ गया कि ये अमारा नई...तुमारा गर अय...तुम अपने गर को रंडीखाना बनाना चाअता...बनाओ...बनाओ रंडीखाना...मगर अम इदर नई रएगा...अम अबी से जाता...खुदा तुमको गारत करेगा...मेरा पासपोरत दो...बस..." यह मालिक के मुँह पर तमाचा है। मालिक बाद में उसे निकालने की सोचता है, मैनेजर से उसे वापस भेजने की बात करता है, नातूर उसे पहले ही छोड़ चुका है, वह ऐसी गंदी जगह में नहीं रहना चाहता है। जो व्यक्ति स्वयं ही काम छोड़ चुका है उसे दोबारा काम से कैसे निकाला जा सकता है? कहानीकार कहता है कि नातूर के निर्णय से सब काँप उठता है। सत्य पर जब-जब आघात होता है तब पूरी कायनात काँप उठती है। ऐसे ही किसी पल में सीता के लिए धरती फ़ट पड़ी थी। यहाँ भी न केवल खान का पूरा शरीर काँप उठता है वरन जो लोग खड़े थे वे भी हिलने लगे थे।

यह सारा फ़साद आर्थिक और शारीरिक माँग से खड़ा होता है। बिल्डिंग का एक किराएदार रामकृपाल अपने फ़्लैट में एक वेश्या को बुलाता है। रामकृपाल की नई-नई शादी हुई है। उसके अनुसार वह एक इंजीनियर है और अभी उसकी पत्नी का वीजा नहीं बना है इसलिए वह अकेला रह रहा है। नातूर परिवार वालों को ही फ़्लैट देता था। वह अकेले पुरुष को किराएदार नहीं रखना चाहता था। फ़्लैट लेते समय रामकृपाल ने वायदा किया था कि वह यहाँ किसी तरह का गलत काम नहीं करेगा। सबूत के रूप में उसने अपनी पत्नी के पासपोर्ट की कॉपी भी दिखाई थी। यही रामकृपाल अपनी दमित वासना के भरपूर दबाव के आगे तनावग्रस्त होकर एक लड़की को फ़्लैट पर बुलाता है। खान पहली नजर में लड़की की असलियत ताड़ लेता है और उसे भीतर जाने से रोकता है। लड़की का पहनावा, उसका मेकअप स्पष्ट रूप से बता रहा था कि वह कोई शरीफ़ लड़की नहीं वरन एक हुकर है। "डायना के कपड़ों लत्तों के साथ मेकअप ही ऐसा था जो उसे बिकने वाली लड़कियों में अपने आप खड़ा कर देता। उसने ऊपर से खुला अबाया (बोरका) डाल रखा था जो पिंडलियों तक था। बोरका के नीचे डिजाइनर मैक्सी थी जो बिना बाँहों के गाउन जैसा अधिक लगता था। झीने अबाया के अगणित छेदों से डायना का एक भरा-पूरा जिस्म पूरी तरह नुमाया हो रहा था। गोरे गालों पर लगी सुर्खी और गहरी मैरूनी लिपिस्टिक की कई परतों ने उसके ओठों को सेंसुअस दिखाने के बदले सेक्सुअल लुक दे दिया था। सिर पर फ़ूला हुआ भूरा जूड़ा था जो उसने विग से बनाया था। दुनियादारी की समझ रखने वाला कोई भी एक दृष्टि में उसे हुकर कह सकता था।" खान अपनी बात पर अड़ा रहता है। उसका कहना है कि वह अपने जीते जी यहाँ कोई गलत काम नहीं होने देगा। लड़की भीतर जाने की जिद करती है। इस पर बात बढ़ जाती है। लड़की अपनी जूती से उसे पीट देती है। रामकृपाल, मैनेजर सब लड़की का पक्ष लेते हैं और नातूर को समझाते हैं कि उसे किसी के व्यक्तिगत मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

खान पहले मैनेजर को बुलाता है मगर जब देखता है कि मैनेजर भी सत्य के पक्ष में नहीं है तो अभिमान से भरकर मालिक को फ़ोन कर देता है। मालिक आता है मगर पूरी बात सुन कर वह भी नातूर को उसकी हैसियत याद दिलाता है। इस पर जब खान भड़क उठता है तो वह उसे पागल करार देकर मैनेजर से उसको डिपोर्ट कराने की बात करता है। कहानीकार यहीं नहीं रुकता है वह पाठक को समाज का क्रूर और अमानवीय असंवेदनशील चेहरा दिखाता है। क्योंकि इतनी बड़ी घटना के बाद भी दुनिया को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। दुनिया पल भर को हिलती है फ़िर वह अपनी रफ़्तार से चलने लगती है, चलती रहती है। मैनेजर और मालिक अपनी ओर से खान के भाग्य का निपटारा करके अपने काम पर चल देते हैं। भीड़ उसे कितनी देर देखती रहती, वह तमाशा देखने रुकी थी, तमाशा खतम होते वह अपना रास्ता लेती है। दोनों शुरते (पुलिस) और अकेली शुरती अपनी गाड़ी में बैठ कर चल देते हैं। रामकृपाल डायना को लेकर अपने फ़्लैट में उसी काम के लिए चल देता है जिसे रोकने के लिए खान ने जी-तोड़ प्रयास किया था। सारे कार्य बदस्तूर चलते रहते हैं। केवल खान अब वह नहीं रहता है जो वह पहले था और पाठक के सामने तमाम प्रश्न मुँह बाए खड़े रह जाते हैं।

खान के बरबक्स राम कृपाल कितना ओछा सिद्ध होता है यह बताने की जरूरत नहीं है। कृष्ण बिहारी ने उसके चरित्र को दिखाया है। अनुभवी खान पहली नजर में रामकृपाल को ताड़ कर कहता है, "डिरेबर अय...?...देखने में तुम पक्का डिरेबर लगता...एनजीनयर ओ तो बड़ा प्लात लो...खाली अय..." हो सकता है वह इंजीनियर है मगर उसके लक्षण, उसकी मानसिकता एक सुसंस्कृत व्यक्ति की नहीं है। उसमें नैतिक दृढ़ता नहीं है। वह अपनी शारीरिक भूख के हाथों फ़िसलता है और यह भी नहीं सोचता है कि उसकी नई-नई शादी हुई है। खुद को बहलाने के लिए वह बड़े ओछे और लचर तर्क देता है। शादी के पहले भी वह पाक साफ़ न था, "विदेश आने से पहले वह तीन साल तक मुंबई में रहा था। वहाँ काम करते हुए कभी दोस्तों के साथ तो कभी स्वयं वह आंटियों के मालिकाना हक वाले अड्डों पर जा चुका था। कुछेक बार कॉलगर्ल्स के संपर्क में भी आया था।" वह कायर है क्योंकि नैतिकता के कारण नहीं वरन कानून के भय से इस देश में अब तक ऐसा काम नहीं कर पाया है, "सख्त कानून के बारे में सुनकर ही उसकी हिम्मत जवाब दे गई थी।" उसके चरित्र का पता उसके विचारों से चलता है, मुंबई के "उन अनुभवों को जवानी में अनायास हो गई भूलें समझ कर उसने खुद को माफ़ कर दिया था। यह सब तो जिंदगी में होता रहता है और सबकी जिंदगी में होता है।" वह अपने मापदंड से सबको तौलता है मानो सब धान बाइस पसेरी हों। पाप पुण्य की उसकी अपनी परिभाषा है, "नैतिकता और अनैतिकता के द्वंद्व से वह बहुत पहले निकल चुका था जरूरत की पूर्ति बगैर किसी को क्षति पहुँचाए, बिना किसी का दिल दुखाए कर ली जाए तो इसमें पाप कहाँ है?" मगर उसने तो पाप किया है। जब उसकी जरूरत पूर्ति के कारण खान को पागल बता कर काम से निकालने का निर्णय लिया जाता है और खान पागल होकर नौकरी छोड़ देता है, तब उसका यह तर्क कहाँ चला जाता है? क्या तब उसने पाप नहीं किया है? क्या वह अपनी इच्छा पूर्ति के लिए पत्नी का दिल दुखाने का अपराध नहीं कर रहा है? यदि पत्नी को पता न चले तो क्या ऐसे काम किए जाने चाहिए? यदि पत्नी भी इसी तरह के विचार रखे तो? उसने एक बार भी नहीं सोचा कि उसकी नवोढ़ा भी उससे दूर अकेली रह रही है। उसकी भी जरूरतें होंगी। रामकृपाल मर्दवादी संस्कृति का प्रतिनिधि है जो अपने लिए एक नियम और स्त्रियों के लिए दूसरे नियम बनाते और मानते हैं।

शादी के बाद पत्नी संगीता से विश्वासघात करने में उसे तनिक भी देर नहीं लगती है, "रामकृपाल ने अपनी दैहिक जरूरत के आगे समर्पण कर दिया। शादी के पहले औरत की देह उसकी जरूरत कम उत्सुकता ज्यादा थी मगर शादी के बाद तो औरत एक हकीकत थी। वह संगीता को अपने पास बुलाने की जुगत भिड़ा रहा था। शादाब ने केवल उत्प्रेरक का काम किया था और डायना तो वह सामग्री थी जिससे जरूरत पूरी हो सकती थी।" उसके लिए स्त्री मात्र एक सामान है, जरूरत पूर्ति का। इसी डायना को जब वह दूसरे पुरुषों के पास देखता है तो उसके अहं को तमाचा लगता है। डायना को प्राप्त करना उसके अहं की जरूरत बन जाती है। अत: वह एक दिन डायना को अपने फ़्लैट पर बुलाता है। डायना जब इमारत में प्रवेश करती है तो उसका सामना नातूर से हो जाता है और उसी समय सारा बखेड़ा खड़ा होता है। जिसमें नातूर के अलावा किसी और का कुछ नहीं बिगड़ता है। असल में यह सोचना ठीक नहीं कि किसी और का कुछ नहीं बिगड़ा। क्या रवाब का कुछ नहीं बिगड़ा? ऐसा वफ़ादार, निष्ठावान कर्मचारी खोने का मूल्य जिसे नहीं पता चलता है, वह क्या कम अभागा है?

कृष्ण बिहारी एक इस्लामी देश की वास्तविकता से हमें परिचित कराते हैं। इस्लाम में वेश्यावृति नाजायज है। मगर इससे क्या होता है। सऊदी अरब और उसके आसपास के कुछ देशों को छोड़ कर यह मुस्लिम देशों में भी खूब धडल्ले से चलती है। अबू धाबी में कानूनन यह जुर्म है, बड़े सख्त कानून हैं इससे निपटने के। पर जब पकड़े जाओगे तब न। जब तक पकड़े न जाओ तब तक मजे करो। और पकड़े न जाने के सौ तरीके हैं। रामकृपाल देखता है, "लेकिन जो कुछ उसने विदेश में आकर देखा वह सुनी हुई बातों से सर्वथा विपरीत निकला। वेश्यावृति आम थी और सख्त कानूनों का उलंघन ऐसे हो रह था कि जैसे कानून ने अपनी आँखें सचमुच ढ़ाँप ली हों। किसी भी देश की लड़की या औरत को खोजने की भी जहमत उठाने की जरूरत नहीं थी। वे खुद ही वो नजर रखती थीं जो उसकी जरूरतें तलाशती थीं। उनकी जरूरत थी पैसा। उनकी जरूरत थी रंगीन लाइफ़ स्टाइल। उनकी जरूरत थी लपलपाती इच्छाएँ। वे वेश्याएँ कम और शौकिया ज्यादा थीं। उनके लिए अन्य व्यवसायों की तरह यह भी एक व्यवसाय था और विशेषता यह कि इसमें लगभग पूर्ण स्वतंत्रता थी। जिसे इजी मनी कहते हैं वह इस व्यवसाय के अलावा किसी और में नहीं थी।"  भौतिक सुख-सुविधाओं ने लोगों को अंधा बना दिया है। पैसा सब जगह बोलता है, नैतिकता, प्रतिबद्धता की कोई पूछ नहीं है। सो रामकृपाल अपनी नई-नई बीवी संगीता से किए सारे वायदे भूल कर डायना को निमंत्रित करता है अपने फ़्लैट पर। डायना बादशाह खान नातूर जैसे अदना कर्मचारी को अपने ठेंगे पार रखती है। वह उसके मना करने का न केवल बुरा मानती है वरन अपने लिए खान द्वारा कचरा शब्द कहे जाने पर खान को अपनी सैंडल से पीट भी देती है। यह जिन्दगी की विडंबना है कि खान जैसे उसूलों वाले आदमी को एक वेश्या पीट सकती है, उसका भरी भीड़ के सामने अपमान कर सकती है और वह अपनी मूल्यों और सामाजिक दर्जे से लाचार है। इस अप्रत्याशित घटना से वह आहत होता है परंतु फ़िर भी उसे होश है, "खान को इसका अंदाजा तक नहीं था कि ऐसी घटना कभी उसके साथ होगी। अपमान बोध का ऐसा हादसा उसे कभी सहने को नहीं मिला था। उसकी आँखों से चिंगारी फ़ूट रही थी। उसे देखकर लगता था कि अगर जगह के कायदे कानून का लिहाज न होता तो वह अब तक डायना को फ़ाड़ कर टुकड़ों में तब्दील कर चुका होता। वह आपे से बाहर हो गया, "तुम अमको जुत्ती से मारा...तुम कुत्ता का बच्ची...गउआद (गउआद का अर्थ मैं नहीं जानता) का बच्चा...अमको मारा...हरपोश (रंडी)...तुम अउरत अय...अउरत न ओता तो अब तक तुम दफ़्न ओने के लिए तरसता...अम बुलाएगा शुरता (पुलिस) को..." यह विडंबना नहीं तो और क्या है डायना जिसे कानून का डर होना चाहिए वह नातूर को पीट रही है और नातूर जो कानूनन सही है कानून की चिंता कर रहा है। डायना निडर खड़ी रहती है, वह रामकृपाल को भी पट्टी पढ़ा देती है। पुलिस आती है मगर सब देखते हुए भी कुछ नहीं करती है। हाँ, डायना धमकी देती है कि वह इस देश में विजिट पर है इस बात की वह अपने देश में शिकायत करेगी कि इस देश में पर्यटकों के साथ कैसा दुर्व्यव्हार किया जाता है। उल्टा चोर कोतवाल को डाँट रहा है और सब खड़े तमाशा देख रहे हैं यह है समाज का यथार्थ। जो लोग बाजार के बीच, बाजार के साथ होते हैं उनका जमीर मर चुका होता है। जिनका जमीर जिंदा होता है बाजार उसे निकाल बाहर करता है।

कृष्ण बिहारी की इस कहानी में स्त्री सैक्स का एक उपकरण मात्र है। वह वस्तु है, पुरुष की शारीरिक भूख मिटाने की वस्तु मात्र। 'नातूर' में स्त्री पुरुष का रिश्ता मतलब का है, सैक्स का है, पैसे का है। औरतें शहर के होटलों के इर्द-गिर्द शाम होते ही टहलने लगती थीं। पुरुष उसके लिए बस एक शिकार है, बस एक मुर्गा है जिसे फ़ंसाने की फ़िराक में वे रहती हैं। "मुर्गा सड़क पर या होटल के बाहर फ़ँस गया तो ठीक, वरना सीधे और धड़ल्ले से बार में चली आती थीं। किसी भी टेबल पर गुंजाईश देखते ही उसमें अपनी घुसपैठ बना लेती थीं। मौज-मस्ती लेने की नीयत से पहुँचे लोग एक पेग पिलाते हुए बार के नीम अंधेरों में उनकी देह का जुगराफ़िया तो जान ही लेते। लड़कियाँ और औरतें भी टेबल के नीचे से उनके वे द्वार खोल देतीं जो जिप से बंद होते। कुछ के लिए इतना ही काफ़ी होता। स्खलित होने के बाद पुरुष के पास बचता ही क्या है!" मानो पुरुष मात्र सैक्स के ही योग्य है।

यह दुनिया पैसे की है और व्यापार से पैसा आता है। फ़िर भला व्यापारिक घराने, संस्थाएँ अपने लोगों का ध्यान क्यों न रखें? सब सरकार और कानून की नाक के नीचे आराम से चलता रहता है। "कुछ बड़ी कंपनियों ने अपने उन कर्मचारियों के लिए शहर के होटलों में साल भर के लिए कमरे एडवांस में ही बुक कराए होते जो ऑफ़ शोर पर काम करते और एक महीना काम के बदले एक महीना छुट्टी पाते। छट्टी पर वतन जाने वाले ऑफ़ शोर से शहर आते और फ़्लाइट पकड़ने से पहले कम-से-कम चौबीस घंटे तो होटल के कमरे में रुकते ही और उन चौबीस घंटों में दिन भी होते और रात भी होती। तब बार में आई स्ट्रीट-गर्ल्स में से किसी को दारू पिला कर वे अपने कमरे में ले जाते। लंच या डिनर रूम-सर्विस से पहुँचता और उसके बाद वे तभी बाहर होतीं जब कमरे का हकदार अपनी फ़्लाइट के लिए निकलता या उन्हें जाने के लिए कहता।" पूरी कहानी में कोई अन्य स्त्री प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं है। दो अन्य स्त्रियों का जिक्र भर है। खान की बीवी है मगर वह उसके साथ नहीं है। "लेकिन कभी-कभी एक बात उसे जरूर सालती थी कि वह अपनी बीवी सायरा और सात बच्चों को अपने साथ विदेश में नहीं रख पाया। इस देश का कानून ही ऐसा था जिसमें हाड़तोड़ मेहनतकश के लिए रात भी तनाव में गुजारनी होती। उन्हे फ़ैमिली वीजा पाने लायक समझा ही नहीं जाता। बात भी सही थी। जब वेतन इतना कम हो कि अकेले का जीवन-यापन बामुश्किल संभव हो तब सरकार किसी को फ़ैमिली वीजा कैसे दे! सरकार तो फ़ैमिली वीजा उसी को स्वीकृत करती थी जिसका मासिक वेतन क से कम-से-कम तीस हजार पाकिस्तानी रुपए हों। कोई ऊपर से कितना कमा लेता है, इसे सरकार क्या जाने। वह भी तब जब कि ऊपरी कमाई पर कानूनी बंदिश हो।" कहानीकार भी मानो सरकार की इस नीति को जस्टीफ़ाई कर रहा है। खान लोगों की कार धोकर काफ़ी ऊपरी कमाई करता है मगर परिवार नहीं ला सकता है। शहर में हर देश की औरतें खुलेआम बिकने के लिए हर समय और हर कहीं मौजूद थीं। खुद खान भी यह सब अपनी आँखों के सामने देखता और लाहौलविलाकूवत बोलता हुआ खामोश हो जाता था। वह हजारों मील दूर रहने वाली अपनी बीवी के प्रति वफ़ादार है, उससे बेवफ़ाई नहीं करता है। दूसरी ओर रामकृपाल है जिसे अपनी नई विवाहिता पत्नी से किए वायदे तोड़ने में कोई झिझक नहीं है। उसकी पत्नी संगीता का भी कहानी में मात्र जिक्र है।

'नातूर' में स्त्री-पुरुष का केवल एक ही रिश्ता है, केवल सैक्स का रिश्ता। और ये सैक्स के रिश्ते भी आत्मीयता, निकटता, संवेदनपूर्ण संबंध बनाने के लिए नहीं स्थापित किए जाते हैं। वे मात्र और मात्र पैसे के आधार पर शारीरिक भूख मिटाने के लिए स्थापित किए जाते हैं। इनमें कोई गर्माहट, कोई अपनापन, कोई सहानुभूति नहीं है। आर्थिक संबंधों में मानवीयता, वफ़ाई, ईमानदारी की आशा करना दुराशा मात्र है। ऐसे संबंध अमानवीय होते हैं, क्षणिक होते हैं। इनसे स्थायित्व की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। ऐसे रिश्ते मानवता के नाम पर कलंक होते हैं, एक मतलबी दुनिया का हिस्सा होते हैं। अर्थ पर आधारित रिश्ते बनते-बिगड़ते-टूटते रहते हैं। इतना ही नहीं ये रिश्ते दूसरे रिश्तों को भी बेमानी कर देते हैं। आदमी रिश्तों की पवित्रता, वफ़ाई को मिनटों में भुला बैठता है। उसे अपनों से किए गए कसमे-वादे तोड़ने में पल भर भी नहीं लगता है। यहाँ मानवीय भावनाओं, संवेदनाओं की कोई कीमत नहीं रह जाती है। यह दुनिया सोचने पर मजबूर करती है कि किस युग में रह रहे हैं हम? क्या हम ज्यादा सभ्य हुए हैं? क्या हमारे मानवीय गुणों का विकास हुआ है? जिंदगी की हरियाली को सेहरा में हम खुद बदल देते हैं। जिंदगी केवल शारीरिक जरूरतों की पूर्ति का नाम नहीं है। स्व-अंवेषण करना, स्व के पार जाना भी इसी जिंदगी की आवश्कताएँ हैं। इसका केवल आर्थिक पक्ष ही नहीं होता है। उपनिषद कहते हैं, 'न वित्तेन तर्पणीयो  मनुष्य:।'

'हंस' के मार्च २००३ अंक में कृष्ण बिहारी की 'नातूर' नाम से प्रकाशित यह एक लम्बी लेकिन मानीखेज कहानी है, जो कई प्रश्न खड़े करती है। कई बातें सोचने-विचारने के लिए प्रेरित करती है। यह जीवन का अर्थ खोजने, उसका लक्ष्य जानने की ओर ध्यान देने के लिए उकसाती है। उनके एक कहानी संग्रह का नाम भी 'नातूर' है जिसमें यह कहानी भी संकलित है।

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