Saturday 4 May 2013

कॉलरा की चपेट में प्रेम

किसी साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना एक बहुत बड़ा जोखिम है। किसी विश्वप्रसिद्ध साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना और बड़ा जोखिम है। कोलम्बियन नोबेल पुरस्कृत लेखक गैब्रियल गार्षा मार्केस इस बात से परिचित थे कि अक्सर फ़िल्म बनते ही साहित्यिक कृति का सत्यानाश हो जाता है। इसी कारण उन्होंने काफ़ी समय तक निश्चय किया हुआ था कि वे अपनी कृतियों पर फ़िल्म बनाने का अधिकार भूल कर भी किसी को नहीं देंगे। उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड' पर फ़िल्म बनाने के लिए उन्हें एक बहुत बड़ी रकम की पेशकश की गई। काफ़ी समय तक वे टस-से-मस नहीं हुए, अपनी जिद पर अड़े रहे। उनका एक और प्रसिद्ध उपन्यास है 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा'। इसके फ़िल्मीकरण के लिए निर्देशक उनके चक्कर लगा रहे थे। वे इसके लिए भी सहमत न थे। इस विश्व प्रसिद्ध उपन्यास में फ़रमीना डाज़ा और फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का प्रेम तब प्रारंभ हुआ था जब वह १३ साल की और वह १८ साल का था। मगर जैसा कि अक्सर होता है लड़की के नवढ़नाढ्य पिता को लड़के का स्टेट्स अपने बराबर का नहीं लगा। उसने अपनी बेटी को काफ़ी समय के लिए दूर अपने कस्बे में भेज दिया। लड़की लौटती है और अपने पिता की मर्जी के डॉ. जुवेनल उर्बीनो से शादी करती है। दोनों का दाम्पत्य ऊपर से देखने पर बड़ा सुखी नजर आता है। अंदर उसमें तमाम विसंगतियाँ है। यह एक अनोखे प्रेम की अनोखी कहानी है जिसे मार्केश ने अपने माता-पिता के जीवन के आधार पर रचा है। (विस्तार के लिए विजय शर्मा का कथाक्रम प्रेम विशेषांक में प्रकाशित लेख देखा जा सकता है)

फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा फ़रमीना डाज़ा को भूला नहीं है। हाँ, इस गम को भुलाने के लिए वह कई लड़कियों, स्त्रियों से शारीरिक संबंध बनाता है। वह इन संबंधों का रिकॉर्ड भी रखता है जिसकी संख्या ६२२ तक पहुँचती है। आधी सदी बीत चुकी है जब डॉ. उर्बीनो की एक दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। यह फ़रमीना डाज़ा के वैध्व्य की प्रथम रात्रि है जब फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा अपने प्रेम का पुन: इजहार करने पहुँचता है। वह वियोग के एक-एक दिन का हिसाब रखे हुए है और बताता है कि ५१ साल नौ महीने और चार दिन के बाद उसे यह अवसर मिला है। उपन्यास बताता है कि अब तक फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा रिवर बोट कम्पनी का मालिक बन चुका था और वह अपनी प्रेमिका को लेकर जलयात्रा पर निकलता है।

प्रोड्यूसर स्कॉट स्टेनडोर्फ़ ने तय किया कि वे मार्केस के उपन्यास 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलेरा' पर फ़िल्म बनाएँगे। इसके लिए उन्होंने मार्केस को घेरना शुरु किया। मार्केस राजी न हों। तीन साल तक मार्केस से अनुनय-विनय करते रहने के बाद अंत में स्कॉट स्टेनडोर्फ़ ने साफ़-साफ़ कह दिया कि जैसे फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा ने फ़रमीना डाज़ा का पीछा नहीं छोड़ा था वैसे ही वे भी मार्केस का पीछा नहीं छोड़ने वाले हैं। हार कर मार्केस ने अपने उपन्यास पर फ़िल्म बनाने की अनुमति स्कॉट स्टेनडोर्फ़ को दे दी। निर्देशन का काम किया एक जाने-माने फ़िल्म निर्देशक माइक नेवेल ने। और इस तरह १९८८ में लिखे गए उपन्यास पर २००७ में फ़िल्म रिलीज़ हुई। फ़िल्म पूर्व प्रदर्शन के समय मार्केस उपस्थित थे। फ़िल्म की समाप्ति पर उन्होंने चेहरे पर मुस्कान लिए हुए केवल एक शब्द कहा "Bravo!"  

उपन्यासकार ने फ़िल्म देख कर 'ब्रावो!' कहा, लेकिन फ़िल्म देख कर दर्शकों पर क्या प्रभाव पड़ता है? यदि आपने पुस्तक पढ़ी है तो पहली बार में फ़िल्म जीवंत और तेज गति से चलती हुई लगती है। अगर पुस्तक नहीं पढ़ी है तो बहुत सारी बातें बेसिर-पैर की लगती हैं। दर्शक उपन्यास की गूढ़ बातों से वंचित रहता है। नायिका की मुस्कान उसका लावण्य दर्शकों को लुभाता है। उसकी डिग्निटी देख कर उसके प्रति मन में आदर का भाव उत्पन्न होता है। प्राकृतिक दृश्य बहुत कम हैं मगर सुंदर हैं, आकर्षित करते हैं। फ़िल्म का रंग संयोजन मन भावन है। फ़िल्म देखने में आनंद आता है। कारण फ़िल्म की गति और उसकी जीवंतता है। पर जब दूसरी बार आप समीक्षक की दृष्टि से इसे देखते हैं तो यह आपको उतनी प्रभावित नहीं करती है।

यह सही है कि साहित्य और फ़िल्म दो भिन्न विधाएँ हैं और उनके मानदंड भी भिन्न है। चलिए इस वजह से 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा' उपन्यास और 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा' फ़िल्म की तुलना नहीं करते हैं। जब सिर्फ़ फ़िल्म को लें तो पाते हैं कि जिस दर्शक ने पुस्तक नहीं पढ़ी है उसके पल्ले क्या पड़ेगा? उसके पल्ले पड़ेगा एक ऐसा हीरो जो कहीं से कंविंसिंग नहीं लगता है। उसका हेयर स्टाइल, उसका झुका हुआ बॉडी पोस्चर, उसकी मुस्कान एक कॉमिक इफ़ैक्ट पैदा करती है। वैसे यह कोई नया एक्टर नहीं है। जेवियर बारडेम को इसके पहले 'नो कंट्री फ़ॉर ओल्डमैन' के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का ऑस्कर पुरस्कार मिल चुका है मगर यहाँ कुछ तो गड़बड़ हो गई है। दोष किसे दिया जाए उनके मेकअप मैन को या जिसने उनकी विग डिजाइन की या उसको जिसने उनकी मूछें और ड्रेस बनाई, या फ़िर निर्देशक को जिसने उनकी ऐसी कल्पना की, आखीर फ़िल्म तो उसी की आँख से बनती है। ठीकरा किसी के सिर फ़ोड़ा जा सकता है लेकिन बारडेम की एक्टिंग और मुस्कान फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा के रूप में प्रभावित नहीं करती हैं। ठीक है वह एक निम्न आर्थिक स्तर, क्लर्क ग्रेड के लड़के के रूप में जीवन प्रारंभ करता है। बाद में जब वह रिवर बोट कम्पनी का मालिक बन जाता है तब भी उसकी चाल-ढ़ाल में कोई परिवर्तन नहीं आता है, वह वैसा ही झुक कर रहता है। सबसे खराब प्रभाव डालती है उसके चेहरे पर चिपकी उसकी मुस्कान। इस मुस्कान के चलते वह एक क्लाउन नजर आता है, डाई हार्ट प्रेमी नहीं, जैसा कि मार्केस ने उसे दिखाने का प्रयास किया है। वैसे उपन्यास में वह ठीक इसी रूप में चित्रित है। (फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का रूप-रंग-बाना देखने योग्य है, मौसम कोई हो मगर उसकी पोषाक तय है। एक उपयोगी और गंभीर बूढ़ा, उसका शरीर हड्ड़ीला और सीधा-सतर, त्वचा गहरी और क्लीन शेवन, रुपहले गोल फ़्रेम के चश्मे के पीछे उसकी लोलुप आँखें, रोमांटिक, पुराने फ़ैशन की मूँछें जिनकी नोंक मोम से सजी हुई। गंजी, चिकनी, चमकती खोपड़ी पर बचे-खुचे बाल बिलक्रीम की सहायता से सजाए हुए। उसकी मोहक और शिथिल अदा तत्काल लुभाती, खासकार स्त्रियों को। अपनी छियत्तर साल की उम्र को छिपाने के लिए उसने खूब सारा पैसा, वाक-विदग्धता और इच्छाशक्ति लगाई थी और एकांत में वह विश्वास करता कि उसने किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा लम्बे समय तक चुपचाप प्रेम किया है। उसका पहनावा भी उसकी तरह विचित्र है। वेस्ट के साथ एक गहरे रंग का सूट, सिल्क की एक बो-टाई, एक सेल्यूलाइड कॉलर, फ़ेल्ट हैट, चमकता हुआ एक काला छाता जिसे वह छड़ी के रूप में भी प्रयोग करता। – पुस्तक के अनुसार ) लेकिन लिखित शब्दों में पढ़े वर्णन के साथ आपकी, पाठक की कल्पना जुड़ी होती है, वहाँ उसका यह रूप गबता है। वही रूप-रंग जब परदे पर रूढ़ हो जाता है तो खटकता है। यही अंतर है साहित्य और सिनेमा का। सिनेमा चाक्षुक है अत: अधिक सावधानी की आवश्यकता है। यहीं निर्देशक चूक गया है।

पूरी फ़िल्म में एक बात बड़ी शिद्दत से नजर आती है और दर्शकों पर उतना अच्छा प्रभाव नहीं डालती है वह है हर स्त्री – चाहे वह किशोरी अमेरिका हो या फ़िर बूढ़ी फ़रमीना डाज़ा – का अपना वक्ष दिखाने को तत्पर रहना। हाँ, शुरु से अंत तक फ़रमीना डाज़ा के रूप में जिवोना मेजोगिओर्नो अपनी सुंदरता से, अपने अभिनय से लुभाती है। उसकी स्मित मन में गहरे उतर जाती है। उसके बैठने, चलने और खड़े रहने का अंदाज उसकी उच्च स्थिति और उसके आंतरिक गर्व को प्रदर्शित करता है। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा की माँ ट्रांसिटो अरीज़ा के रूप में ब्राज़ील की अभिनेत्री फ़र्नांडा मोंटेनेग्रो का अभिनय प्रभावित करता है। फ़रमीना डाज़ा की कजिन हिल्डेब्रांडा सेंचेज के रूप में सुंदरी काटालीना सैडीनो को देखना अपने आप में एक भिन्न अनुभव है। यह किशोरी एक शादीशुदा व्यक्ति के प्रेम में है। उसकी मासूमियत पर फ़िदा होने का मन करता है। डॉ. जुवेनल उर्बीनो के रूप में बेंजामिन ब्राट के लिए कुछ खास करने को न था। द विडो नजरेथ के रूप में एंजी सेपेडा जरूर परदे (स्क्रीन) को हिलाती है।

सिनेमेटोग्राफ़ी अवश्य प्रभावित करती है। घर, बोट की आंतरिक साज-सज्जा और बाह्य प्राकृतिक सौंदर्य को कैमरे की आँख से इतनी खूबसूरती से पकड़ने के लिए सिनेमेटोग्राफ़र एफ़ोंसो बीटो बधाई के पात्र हैं। मेग्डालेना नदी और सियेरा नेवादा डे सांता मार्टा की पर्वत शृंखला बहुत कम समय के लिए दीखती है पर अत्यंत सुंदर है। फ़िल्म की शूटिंग के लिए कोलम्बिया के ऐतिहासिक पुराने शहर कार्टाजेना के लोकेशन का प्रयोग हुआ है। घर और बोट की साज-सज्जा पात्रों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति के अनुरूप है।

फ़िल्म की शुरुआत में जब क्रेडिट चल रहे होते हैं बहुत खूबसूरत ऐनीमेशन है। चटख रंगों में फ़ूलों का खिलना उनके प्ररोहों (टेंड्रिल्स) का सरसराते हुए आगे बढ़ा, विकसित होना और साथ में चलता संगीत। इसी तरह फ़िल्म की समाप्ति का ऐनीमेशान। दक्षिण अमेरिका के पर्यावरण और अरंगों का विशेष रूप से ध्यान रखते हुए, उनसे प्रेरित होकर इसे लंदन के एक ऐनीमेशन स्टूडियो वूडूडॉग' ने तैयार किया है। संगीत इस फ़िल्म की जान है। क्यों न हों। संगीत लैटिन अमेरिका की प्रसिद्ध गायिका शकीरा ने दिया है। वे गैब्रियल गार्षा मार्केस की बहुत अच्छी दोस्त है। उन्होंने एक गाना लिखा भी है और गाया भी है। फ़िल्म को संगीत देने में शकीरा के साथ हैं अंटोनिओ पिंटो। क्रेडिट का ऐनीमेशन फ़िल्म के मूड को सेट कर देता है। दर्शक तभी जान जाता है कि वह एक रोमांटिक फ़िल्म देखने जा रहा है। फ़िल्म लैटिन अमेरिकन खास कर कोलम्बियन जीवन को बड़े मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत करती है। स्पैनिश लोग हॉट ब्लडेड होते हैं। लड़ने, मरने-मारने को जितने उतारू उतना ही प्रेम करने को उद्दत। भारत के पंजाब प्रांत के लोगों की तरह वे जो भी करते हैं खूब शान-बान और आन से करते हैं।

'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा' फ़िल्म का स्क्रीनप्ले रोनांड हार्वुड ने तैयार किया है। स्क्रीनप्ले ठीकठाक है। साढ़े तीन सौ पन्नों के उपन्यास में पात्रों का जो मनोवैज्ञानिक चित्रण और विकास है उसे १३९ मिनट की फ़िल्म में समेटना संभव नहीं है। उपन्यास के कई महत्वपूर्ण अंशों को बिल्कुल छोड़ दिया गया है, जैसे लियोना कैसीयानी का प्रसंग, जैसे फ़रमीना डाज़ा का अपने पति की कब्र पर जाकर उसे एक-एक बात बताना, जैसे डॉ. जुवेनल उर्बीनो और फ़रमीना डाज़ा का गैस बैलून में पत्र लेकर उड़ना, बुढ़ापे में फ़रमीना डाज़ा का पति की सेवा करना, प्रकृति का मनुष्य द्वारा दोहन, प्रकृति का उजाड़ होते जाने, पर्यावरण प्रदूषण आदि, आदि। माइक औड्स्ले की एडीटिंग अच्छी है। फ़िल्म में एक बात और खटकती है वह है इसके पात्रों द्वारा बोली गई भाषा। फ़िल्म इंग्लिश भाषा में बनी है। यह फ़िल्म स्पैनिश भाषा में नहीं बनी है, इंग्लिश में डबिंग नहीं हुई है। फ़िर पात्र स्पैनिश लहजे (एक्सेंट) में इंग्लिश क्यों बोलते हैं? अगर फ़िल्म स्पैनिश भाषा मेम होती तो क्या पात्र किसी खास लहजे में बोलते या सहज-स्वाभिक स्पैनिश भाषा का प्रयोग करते?

१८८० से १९३० तक की अवधि को समेटे हुई 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा' फ़िल्म के विषय में मेरे मित्र कथाकार सूरज प्रकाश का कहना है कि यह उनकी पसंदीदा फ़िल्मों में से एक है। मेरा भी यही कहना है कि मुझे यह फ़िल्म बहुत अच्छी लगी। अगर ऊपर गिनाई गई कमजोरियाँ इसमें न होती तो यह अवश्य मेरी पसंदीदा फ़िल्मों की सूची में काफ़ी ऊपर स्थान पर होती जैसे कि मार्केस मेरे पसंदीदा लेखकों की सूची में पहले नम्बर पर आते हैं। यह मार्केस के उपन्यास पर हॉलीवुड स्टूडियो में बनी पहली फ़िल्म है जिसे लैटिन अमेरिकन या इटैलियन निर्देशकों ने नहीं बनाया है।

हॉलीवुड के निर्देशक बहुत कुशल होते हैं। इसके साथ ही उनकी एक सीमा है। एक खास तरह की सभ्यता-संस्कृति से ये निर्देशक बखूबी परिचित हैं। मगर इस खास दायरे के बाहर की सभ्यता-संस्कृति की या तो उन्हें पूरी जानकारी नहीं है या फ़िर वे उसे महत्व नहीं देना चाहते हैं। लैटिन अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति से बहुत भिन्न है। यह बहुत समृद्ध है, इसकी बहुत सारी विशेषताएँ हैं। मार्केस का साहित्य इसकी बहुत ऑथेंटिक झलक देता है। 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा' फ़िल्म इस सभ्यता-संस्कृति की खुशबू को समेटने में समर्थ नहीं हो सकी है। हॉलीवुड के श्वेत निर्देशक अपने ही देश की अश्वेत सभ्यता-संस्कृति को पकड़ने में कई बार चूक जाते हैं। स्टीफ़न स्पियलबर्ग जिन्होंने बहुत उत्कृष्ट फ़िल्में बनाई हैं लेकिन जब वे एफ़्रो-अमेरिकन साहित्य से लेकर 'द कलर पर्पल' पर फ़िल्म बनाते हैं तो उसके साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। एलिस वॉकर का यह उपन्यास जिस संवेदनशीलता से रचा गया है स्टीफ़न स्पियलबर्ग ने यह फ़िल्म उतनी ही असंवेदनशीलता से बनाई गई है।

क्यों करते हैं हॉलीवुड के माइक नेवेल या स्टिफ़न स्लीयलबर्ग ऐसा खिलवाड़? क्यों दूसरों को कमतर दिखाते हैं? क्या यह हॉलीवुड श्वेत निर्देशकों का अहंकार है अथवा उनकी समझ की कमी? क्या यह उनकी अज्ञानता है या फ़िर उनका दंभ? यह शोध का विषय हो सकता है। अगर यह नासमझी है तो आज के जागरुक और वैश्विक युग में इस तरह की नासमझियाँ स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। अगर यह झूठा दंभ है तब तो इसे कतई स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

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Monday 11 March 2013

Tuesday 1 January 2013

Film review

बिलवड : एक अनोखी-हॉन्टिंग फ़िल्म

 
फ़िल्में तो बहुत देखीं, तरह-तरह की फ़िल्में देखीं। मगर बिलवड जैसी न देखी। ऐसी फ़िल्में रोज-रोज नहीं बनती हैं। टोनी मॉरीसन मेरी एक पसंदीदा उपन्यासकार हैं, उनका पुलित्ज़र पुरस्कार प्राप्त उपन्यास 'बिलवड' कई बार पढ़ा। कई बार पढ़ना ही बताता है कुछ विशेष है इसमें। अन्यथा क्योंकि पढ़ती इसे बार-बार। मगर फ़िल्म देखने का अवसर अब जा कर मिला। आश्चर्य होता है फ़िल्म विधा पर और फ़िल्म निर्देशक जोनाथन डेम की समझ तथा उपन्यास के प्रति उनकी ईमानदारी पर। अक्सर जब किसी उपन्यास-कहानी पर फ़िल्म बनती है तो वह बहुत अलग होती है। ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि दोनों अलग माध्यम है। विरले ही कोई फ़िल्म बिलवड जितनी सुंदर बनती है। पता नहीं चलता है किसकी अधिक तारीफ़ की जाए, उपन्यासकार की, निर्देशक की, अभिनेताओं की। सबकी करनी पड़ेगी। अभिनेताओं में निश्चय करना कठिन है कि किसका अभिनय बेहतर है। सेथे के रूप में ओफ़्रा विन्फ़्रे का, पॉल डी के रूप में डैनी ग्रोवर का अथवा बिलवड के रूप में थेंडी न्यूटन का। ओफ़्रा विन्फ़्रे ने स्वाभाविक अभिनय कर उपन्यास की नायिका के दु:ख-तकलीफ़, उसके मानसिक द्वंद्व, अपराधबोध सबको परदे पर साकार कर दिया है।

असल में इस फ़िल्म बनने के पीछे ओफ़्रा विन्फ़्रे का बहुत बड़ा हाथ है। ओफ़्रा विन्फ़्रे ने जबसे 'बिलवड' पढ़ा वे उसे परदे पर लाने के लिए बेताब थीं। १९९६ में उन्होंने अपना प्रसिद्ध और लोकप्रिय बुक क्लब प्रारंभ किया और तभी घोषणा कर दी कि उनके क्लब के दूसरे महीने का चुनाव टोनी मॉरीसन का उपन्यास 'सॉन्ग ऑफ़ सोलोमन' होगा। तुरंत मॉरीसन की किताबों की बिक्री बढ़ गई। ओफ़्रा के बुक क्लब की यह खासियत है उनके यहाँ नाम आते ही रचनाकार का सम्मान बढ़ जाता है, उसकी किताबों की बिक्री तेज हो जाती है। मॉरीसन के प्रकाशक ने भी चमत्कार दिखाया, उसने सजिल्द प्रतियों का दाम कम कर दिया ताकि ज्यादा-से-ज्यादा पाठकों तक किताब की पहुँच हो सके। काश भारत में भी ऐसी कोई योजना बनती, होती। ओफ़्रा और मॉरीसन का एक साझा और लम्बा संबंध कायम हुआ। १९९८ में इस क्लब ने 'पैराडाइज' को चुना, २००० में 'द ब्लूएस्ट आई' और २००२ में इस क्लब ने 'सूला' को अपने टॉक शो में रखा। हर बार टोनी मॉरीसन ओनलाइन चुने हुए स्टूडिओ में उपस्थित अपने पाठकों से विमर्श करतीं।

ओफ़्रा ने 'बिलवड' पर अपने क्लब में विमर्श नहीं किया बल्कि इस पर फ़िल्म बनाने का निश्चय किया। खुद को उन्होंने प्रमुख भूमिका में तय किया,  डैनी ग्लोवर को पॉल डी की भूमिका में रखा। ओफ़्रा ने टोनी के साथ मिलकर स्क्रिप्ट तैयार की और कई फ़िल्म निर्देशकों के पास भेजी। वे सेथे और गुलामी की कहानी वृहतर दर्शकों तक ले जाना चाहती थीं। अकादमी पुरस्कृत निर्देशक जोनाथन डेम ने फ़िल्म बनाने की हामी भरी। ओफ़्रा विन्फ़्रे की फ़िल्म कम्पनी ने इस फ़िल्म को प्रड्यूस किया। अकोसुआ बुसिया, रिचर्ड लाग्रेवेंस, एडम ब्रुक्स तीन लोगों ने मिल कर फ़िल्म की कहानी लिखी। दस साल के एक लम्बे समय के बाद फ़िल्म बन कर तैयार हुई। फ़िल्म की शूटिंग के समय एकाध बार टोनी मॉरीसन सेट पर गई फ़िर उन्हें लगा कि वहाँ उनका कोई खास काम नहीं है। उन्होंने निर्देशक और विन्फ़्रे पर सारा काम छोड़ दिया। सुपरनेचुरल कहानी के लिए प्रयोग किए गए स्पेशल इफ़ैक्ट कहानी को आधिकारिक बनाते हैं। संगीतकार रेचल पोर्टमैन का काम फ़िल्म को विशिष्टता प्रदान करता है। फ़िल्म प्रदर्शन के पूर्व इसकी खूब पब्लिसिटी की गई थी। 'टाइम' तथा 'वोग' मैगज़ीन ने इसे अपनी कवर स्टोरी बनाया, ओफ़्रा ने अपने टॉक शो में इसे चर्चित किया।

अभिनेता डैनी ग्लोवर पॉल डी की भूमिका में पूरी तरह उतर गए हैं। वे कमाल के एक्टर हैं उन्होंने एलिस वॉकर के उपन्यास 'द कलर पर्पल' पर इसी नाम से बनी में मिस्टर अल्बर्ट की भूमिका की है। वहाँ भी वे कमाल करते हैं, हालाँकि निर्देशन स्पीयलबर्ग का है, शायद इसी कारण फ़िल्म काफ़ी कमजोर है। 'बिलवड' फ़िल्म में डैनी के चेहरे की रेखाओं का उतार-चढ़ाव कई बातें बिना बोले स्पष्ट कर देती हैं। पॉल डी और सेथे एक दूसरे को 'स्वीट होम' के गुलामी के दिनों से जानते थे। बाद में जब वे १२४ ब्लूस्टोन के घर में मिलते हैं तो अतीत एक बार फ़िर से वर्तमान बन कर उन्हें घेर लेता है। १८ साल के बाद भी गुलामी के शारीरिक, भावात्मक और मानसिक घाव भरे नहीं हैं।

फ़िल्म एक साथ इतिहास, रहस्य, गुलामीगाथा और रोमांस सब समेटे हुए है। फ़िल्म शुरु होती है भूत की कारस्तानियों से घबरा कर सेथे के दो किशोर बेटों के घर छोड़ कर भागने से। सेथे अपनी बेटी डेनवर (किम्बरले एलिस) के साथ रह रही है। भूत का कहर सेथे को परेशान नहीं करता है क्योंकि वह इसका कारण जानती है। पॉल डी घर में घुसते इसके विषय में पूछता है। वह कुछ समय के लिए उसे भगा पाने में सफ़ल होता है। सेथे, पॉल डी और डेनवर एक सुखी परिवार की तरह रहने लगते हैं। जल्द ही सब कुछ फ़िर से बिखर जाता है। बच्ची जैसी भूखी-प्यासी, थकी-हारी एक युवती सेथे के दरवाजे पर आती है। उसे लेकर सबका अलग-अलग रवैया है। सेथे उसे जानने-समझने को उत्सुक है, पॉल डी उस पर अविश्वास और संदेह करता है। डेनवर उसे बहन मान कर उसकी सेवा-सुश्रुषा करती है, खिलाती-पिलाती है। लड़की अपना नाम बिलवड बताती है, उसकी जरूरतें – भूख, प्यार, अधिकार – सब बेहिसाब हैं। वह पॉल डी को घर से निकाल बाहर करती है। सेथे को डेनवर के लिए एक पल को नहीं छोड़ती है। सेथे उसके चंगुल में कसती जाती है, मानसिक संतुलन खोने लगती है। बिलवड उसे लगातार उसके एक जघन्य कार्य की याद दिलाती है। अंत में डेनवर परिवार को फ़िर से सामान्य बनाती है।

बिलवड के रूप में ब्रिटिश अभिनेत्री थेंडी न्यूटन शरीर से किशोरी मन से शिशु का व्यक्तित्व उसी तरह निभाती है जैसे एक शिशु की हत्या होने पर आत्मा एक किशोरी के शरीर में प्रवेश कर आए। ऐसा ही हुआ है। बिलवड दो साल की थी जब सेथे ने उसको गुलामी के शिकंजे से बचाने के लिए मार डाला था। १८ साल के बाद वह आई है। आसान नहीं है यह चरित्र, बहुत कठिन है इस जटिल चरित्र को निभाना। न्यूटन ने इसे भरसक निभाया है, बिलवड को सजीव कर दिया है। वह किशोरी दीखती है, शिशु जैसा व्यवहार करती है। दर्शक अनुभव करता है, विश्वास करता है कि बिलवड एक किशोरी के शरीर में एक शिशु का मन है। भूल नहीं सकता है दर्शक इस भूत को, इस हॉन्टिंग चरित्र को। टोनी मॉरीसन को बधाई देनी चाहिए ऐसा चरित्र रचने के लिए और न्यूटन बधाई की पात्र है ऐसा चरित्र इतनी कुशलता से निभाने के लिए। कुछ दृश्य इतने पॉवरफ़ुल हैं कि सदैव याद रहेंगे। बिलवड का पॉल डी के पास जाकर उससे कहना, "मुझे यहाँ स्पर्श करो, मुझे भीतर स्पर्श करो, मेरा नाम लो।" इसी तरह उसका अंत भी नहीं भूला जा सकता है। वह जैसे रहस्यमय तरीके से अवतरित हुई थी वैसे ही रहस्यमय ढ़ंग से गायब हो जाती है।

फ़िल्म की कहानी उपन्यास की भाँति समय में आगे-पीछे चलती रहती है। कभी गुलामी का हादसा होता है, कभी स्वतंत्र जीवन का रोमांस फ़लता-फ़ूलता है। अमानवीय क्रूरता को स्मरण करते हुए सेथे और पॉल डी का प्रेम करना बहुत मर्मस्पर्शी फ़िल्मांकन है। इसी तरह सेथे की सास बेबी शुग्स (बीच रिचर्ड्स) का प्रकृति के बीच प्रवचन देता रूप एक अलौकिक अनुभव देता है।

सेथे ने जो किया वह क्यों किया यह तो स्पष्ट है पर क्या वह जायज है? क्या सही है, क्या गलत है, बताना बहुत कठिन है। बड़ा आसान है पॉल डी की तरह सेथे से कह देना तुम दोपाया हो, चौपाया नहीं। सेथे को उसका समाज सजा से बचा लेता है पर वह खुद को निरंतर सजा देने से रोक नहीं पाती है। ऊपर से शांत और सामान्य दीखती सेथे के भीतर जो घुट रहा है, जो चल रहा है, वह बहुत जटिल है। यह जटिलता फ़िल्म में दीखती है। यह जटिलता दर्शक की अनुभूति का अंग बनती है। बिलवड का अवतरण इसे और बढ़ाता है। फ़िल्म दिखाती है कि मनुष्य कितना ऊपर उठ सकता है और कितना नीचे गिर सकता है। क्या हो सकता है और क्या होता है।

मानसिक-भावात्मक यंत्रणा, रूपकों को साकार करने के लिए निर्देशक डेम और कलाकारों ने जो मशक्कत की है, वह अपनी पूर्णता को पहुँचा है। पात्रों की जिजीविषा, उनका मानसिक-शारीरिक संघर्ष, गुलामी की क्रूरता, मातृत्व की पराकाष्ठा, क्षण में लिया गया जीवन उलट-पुलट करने वाला निर्णय, उस निर्णय का प्रतिफ़ल, क्या कोई अन्य निर्णय लिया जा सकता था, अतृप्त आत्मा, अपराधबोध, पारिवारिक संबंध सब फ़िल्म समाप्त होने के बाद भी दर्शक को छोड़ते नहीं हैं। दोबारा फ़िल्म देखने को बाध्य करते हैं। दोबारा देखने पर और खूबसूरत-मार्मिक अर्थ खुलते हैं। कुछ किताबें बार-बार पढ़ने की माँग करती हैं, कुछ फ़िल्में बार-बार देखे जाने की माँग करती हैं। बिलवड उनमें से एक है। दस साल लगे बनने में पर जो कलात्माक फ़िल्म बन कर तैयार हुई उसका एक-एक पल सार्थक है। कुछ चमत्कार होते हैं, कुछ चमत्कार किए जाते हैं। बिलवड के कथानक में चमत्कार हुए हैं, निर्देशक डेम ने फ़िल्म में चमत्कार किए हैं। हो सके तो अवश्य देखें, संजोने योग्य एक अनोखी अनुभूति पाएँ।

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