Wednesday, 15 August 2018

हीरे की अंगूठी

ऋतुपर्ण घोष बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे एक साथ फ़िल्म निर्देशक, पटकथा लेखक, अभिनेता, क्रियेटिव आर्टिस्ट, टीवी शो संचालक, संपादक और बहुत कुछ थे। ३१ अगस्त १९६३ को जन्में ऋतुपर्ण घोष ने पढ़ाई तो इकोनॉमिक्स (जादवपुर युनिवर्सिटी) विषाय ले कर की लेकिन उन्होंने अपने पेशे का प्रारंभ विज्ञापन फ़िल्मों में काम करने से किया। शुरु में वे विज्ञापन एजेंसी (एइस्पॉन्स इंडिया एडवर्टाइजिंग एजेंसी) में क्रियेटिव आर्टिस्ट के रूप में काम कर रहे थे। अपने जमाने में वे कलकत्ता के जाने-माने कॉपीराइटर थे। विज्ञापनों में वे अपनी सफ़ल एक लाइनों तथा स्लोगन के लिए जाने जाते थे। पिछली सदी के अस्सी के दशक में बंगाल पूरे भारत के इंग्लिश और हिन्दी के विज्ञापनों के बांग्ला अनुवाद का चलन था। उन्होंने ‘शरद सम्मान’, ‘बोन्गो जीबोनेर अन्गो’, ‘बोरोलीन’, ‘फ़्रूटी’ पर काम किया। १९९० में उन्होंने अपनी ऐड एजेंसी, टेले-रिस्पॉन्स कायम की, यह रिस्पॉन्स एजेंसी का ही एक अंग था। और इसके तहत उन्होंने दूरदर्शन के लिए वंदे मातरं वृतचित्र बनाया। कला की दुनिया में वे अद्भुत थे। कला उन्हें विरासत में मिली थी। उनके पिता सुनील घोष स्वयं डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाने वाले तथा पेंटर थे। मुख्य रूप से बांग्ला भाषा में सिनेमा बनाने वाले इस कुशल फ़िल्म निर्देशक ऋतुपर्ण घोष ने बॉलीवुड में भी अपनी प्रतिभा के लोहे मनवाए। ओ हेनरी की प्रसिद्ध कहानी ‘गिफ़्ट ऑफ़ द मैजाई’ को हिन्दी में रूपांतरित कर २००४ में मात्र १७ दिन में शूट कर ‘रेनकोट’ जैसी बेहतरीन फ़िल्म उन्होंने दर्शकों को दी। यह उनकी पहली हिन्दी फ़िल्म है। एश्वर्या राय, अजय देवगन की जोड़ी के अभिनय को समीक्षकों की भी भूरि-भूरि प्रशंसा मिली। कुल जमा तीन अभिनेता (अजय देवगन, एश्वर्या राय तथा अन्नु कपूर) और एक कमरे में चलती इस फ़िल्म को सर्वोत्तम फ़ीचर फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। बाद में इसका इंग्लिश रूपांतरण भी हुआ। आज के युग में प्रेम और उसकी यातना का इतना सुंदर चित्रण कदाचित ही देखने को मिलता है। बिना मेकअप, गानों-नाच के बिना भी ऐश्वर्या राय प्रभावित करती हैं। जीवन में यातना का फ़िल्मांकन ऋतुपर्ण घोष की एक विशेषता है। ऋतुपर्ण घोष बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। उन्होंने विज्ञापन एजेंसीमें काम किया अपनी विज्ञापन एजेंसी बना कर डॉक्यूमेंट्रीज बनाई। टीवी पर ‘ईबंग ऋतुपर्ण तथा ‘घोष एंड कं. चैट शो चलाए, ‘गनेर ऑपेरा की स्क्रिप्ट लिखी। फ़िल्में बनाई। वे १९९७ से २००४ तक ‘आनंदलोक’ पत्रिका के संपादक थे साथ ही एक अन्य पत्रिका ‘रोबर’ (संगबाद प्रतिदिन) के २००६ से अपनी मृत्यु तक संपादक रहे। उन्होंने न केवल फ़िल्में बनाई बल्कि फ़िल्मों में अभिनय भी किया। ऋतुपर्ण घोष ने सर्वप्रथम २००३ में एक उड़िया फ़िल्म में भूमिका की। फ़िल्म का नाम है, ‘कथा दैथिली मा कु’ जिसका निर्देशन हिमांशु परिजा ने किया है। उन्होंने २०११ में दो बांग्ला फ़िल्मों, “अरेक्ति प्रेमेर गल्प (निर्देशक कौशिक गांगुली) तथा ‘मेमोरीज इन मार्च’ (निर्देशक संजय नाग) में अभिनय किया। दोनों ही फ़िल्में समलैंगी संबंधों को चित्रित करती हैं। २०१२ में उन्होंने दो अन्य बांग्ला फ़िल्मों, ‘चित्रांगदा’ तथा ‘जीवन स्मृति’ में काम किया। दोनों फ़िल्में रवींद्रनाथ टैगोर से जुड़ी हुई हैं। टैगोर की कहानी ‘चित्रांगदा’ पर उनकी इसी नाम से बनाई फ़िल्म को उनकी मृत्योपरांत नेशनल फ़िल्म एवार्ड प्राप्त हुआ। बच्चों के लिए बहुत कम फ़िल्में बनती हैं। बहुत कम फ़ीचर फ़िल्म निर्देशक बच्चों के लिए फ़िल्म बनाते हैं। ऋतुपर्ण घोष ने सर्वप्रथम १९९२ में बच्चों के लिए एक फ़िल्म ‘हीरेर अंगटी’ (हीरे की अंगूठी) बनाई। अपनी विज्ञापन प्रसिद्धि के कारण वे बंगाल में एक जाना पहचाना नाम थे। अत: उनकी इस फ़िल्म को खूब सराहा गया मगर विडम्बना यह हुई कि इसे वितरक न मिले और यह सिनेमाघरों में नहीं दिखाई गई। आज इसे कल्ट का दर्जा दिया जाता है। आज इसे लोग देखते-दिखाते हैं। इस फ़िल्म की कहानी शीर्षेंदु मुखोपाध्याह की इसी नाम की कहानी पर आधारित है। पूरी फ़िल्म रंगों का इंद्रधनुष है। दुर्गा की प्रतिमा के चमकीले रंग, बंगाल की प्रकृति का हरा-भरा रंग, स्त्री-पुरुष-बच्चों की पोशाक के रंग। एक आदमी जो धोखा देने आया है, बच्चों के प्रेम में पड़ कर अपना मूल उद्देश्य भूल कर परिवार की सहायता करता है। रतनलाल बाबू के घर दुर्गा पूजा की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही हैं, उनका छोटा बेटा विदेश से परिवार सहित आया है। हबुल और तिन्नी उनके पोता-पोती घर को गुलजार किए हुए हैं। तभी गंधर्व कुमार नाम का एक व्यक्ति उनके घर आता है। यह आदमी बच्चों को अपने करतबों से लुभाता है। बच्चे उसके मुरीद बन जाते हैं। गंधर्व कुमार जादू जानता है, कागज से तरह-तरह की चीजें बनाता है, मुँह से आवाज निकाल कर बत्तखों को पास बुला सकता है, बाजा बजाता है। यह व्यक्ति खुद को रतन बाबू की संपत्ति का वारिस कहता है, जिससे घर के बड़े लोगों के जीवन में तो भूचाल ही आ जाता है। ऋतुपर्ण घोष ने बराबर स्वीकार किया कि वे सत्यजित राय के प्रशंसक हैं, भला कौन नहीं होगा! उन्होंने सत्यजित राय से खूब प्रेरणा भी ली। इस फ़िल्म ‘हीरेर अंगटी’को देखते हुए मुझे ठीक एक साल पहले (१९९१) अपनी ही कहानी पर बनाई सत्यजित राय की फ़िल्म ‘आगंतुक’ की याद हो आई। दोनों फ़िल्मों में अतिथि घर के लोगों को बेचैन कर देता है। दोनों में बच्चे अतिथि से खूब प्रभावित हैं। ऋतुपर्ण घोष की फ़िल्म चोरों से संबंधित है जबकि सत्यजित राय विश्व और आदिवासियों को मुद्दा बनाते हैं। ऋतुपर्ण घोष के यहाँ बनावटी लोग हैं जबकि सत्यजित राय के यहाँ एक जेनुइन व्यक्ति है। दोनों फ़िल्मों में बहुत समानता होते हुए भी ये दो भिन्न फ़िल्में हैं। बच्चों के लिए बनाई गई यह फ़िल्म बड़ों को भी भाती है। फ़िल्म कथारस से भरपूर जो है। ०००