Wednesday 1 October 2014

द पियानिस्ट: होलोकास्ट, संगीत और जिजीविषा

स्पीयलबर्ग की मंशा थी कि रोमन पोलांस्की ‘शिंडलर्स लिस्ट’ का निर्देशन करें। होलोकास्ट के भुक्तभोगी पोलांस्की ने इस प्रस्ताव को नकार दिया। उनका तर्क था कि होलोकास्ट से जो बच रहे हैं वे भाग्य और संयोग से बच रहे हैं न कि किसी ऑस्कर के हृदय परिवर्तन से। पोलांस्की ऑस्कर जैसे एकाध लोगों की भूमिका को बहुत महत्व नहीं देते हैं। कारण है उन्होंने खुद इस पीड़ा को भोगा है, एक बार नहीं कई बार। उनकी माँ यातना शिविर के गैस चेंबर में भुन कर धूँआ बना कर उड़ा दी गई थीं। इस हादसे से वे कभी नहीं उबर पाएँगे। उनके अनुसार यह कष्ट उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त होगा। यह तो उनके पिता की होशियारी के फ़लस्वरूप रोमन पोलांस्की का जीवन बचा। जब यह सब चल रहा था वे निरे बालक थे और यहूदी होने के कारण अपने माता-पिता के साथ नात्सियों द्वारा धर लिए गए थे। पिता ने नात्सी सैनिकों की आँख बचा कर बालक को कंटीले तारों के पार ढकेल दिया था। भयभीत, निरीह, एकाकी बालक काफ़ी समय तक क्रोकावा और वार्सा में भटकता रहा था। भाग्य और कुछ अनजान, मानवीय गुणों से युक्त संवेदनशील लोगों की कृपा के कारण वह जीवित बच रहा। ‘शिंडलर्स लिस्ट’ बनाने से उन्होंने इंकार किया परंतु जब उन्हें अपने जैसे ही बचे हुए एक आदमी की कहानी मिली तो उन्होंने ‘द पियानिस्ट’ फ़िल्म बनाई। ‘द पियानिस्ट’ कहने से इस फ़िल्म का वास्तविक महत्व, इसकी असल गहराई का भान नहीं होता है। यह फ़िल्म सच के जीवनानुभव पर आधारित है और इतिहास के इस काले अध्याय का कच्चा चिट्ठा है। इस फ़िल्म का मुख्य पात्र, १९३९ में पोलैंड का एक महान पियानोवादक जर्मनी द्वारा अधिकृत वार्सा में सारे समय अकेला भटकता रहा था। कुछ लोगों की कृपा से उसका जीवन बचता है। वह एक संयमी, निर्लिप्त व्यक्ति है, जिसका जीवन इस दुर्घष समय में भाग्य से बचा रहता है। यह फ़िल्म इसी महान पियानोवादक ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन के लिखित संस्मरण पर आधारित है। वार्सा पर जब पहली बार १९३९ में बम वर्षा होती है स्पीलमैन पोल रेडियो स्टेशन कर लाइव संगीत प्रस्तुत कर रहा था। वह प्रसिद्ध गैरपरम्परागत संगीतकार चोपिन का संगीत बजा रहा है। खिड़की के शीशे, छत का पलस्तर सब बम से उड़ रहे हैं, लोग स्टूडियो छोड़ कर जान बचाने के लिए भाग रहे हैं। वह संगीत बजाता रहता है। अंतत: पूरा रेडियो स्टेशन उड़ जाता है। इसी समय एक सेलोवादक से उसकी क्षणिक मुलाकात होती है। उसे किसी स्त्री को सेलो बजाते देखना बहुत अच्छा लगता है। इस इच्छा की पूर्ति फ़िल्म में बहुत बाद में एक त्रासद स्थिति में होती है। कला और युद्ध का रिश्ता शायद ही जुड़ता है। स्पीलमैन का समृद्ध, सुशिक्षित परिवार, भाई-बहन, माता-पिता सब सुरक्षा की दृष्टि से समय रहते वार्सा से निकल जाना चाहता है। भारतीयों की तरह ही उसका परिवार बहसबाजी में कुशल है, उसमें काफ़ी समय उलझा रहता है। ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन का कहना है कि वह कहीं नहीं जा रहा है। उसे विश्वास है कि शीघ्र यह नात्सी अत्याचार समाप्त हो जाएगा और सब कुछ पहले की तरह सामान्य हो जाएगा। क्या ऐसा होता है? काश ऐसा होता। नहीं, ऐसा कुछ नहीं होता है। दर्शक देखता रहता है कैसे यहूदियों पर नात्सी शिकंजा कसता जाता है। रोज एक नया फ़रमान जारी करके उनका, वहाँ के सारे यहूदियों का सब कुछ छीन लिया जाता है। यहाँ तक कि उनकी अस्मिता भी। वार्सा के यहूदी पीछे ढ़केले जा कर घेटो में सिमटते जाते हैं, अमानवीय जीवन जीने को लाचार हो जाते हैं। दीवार चिन कर उन्हें दुनिया से काट दिया जाता है। अल्पकाल के लिए दिखाए ईटों की चिनाई के दृश्य भुलाए नहीं भूलते हैं। जैसे अंग्रेज भारतीयों से ही भारतीयों पर अत्याचार करवाते थे वैसे ही नात्सी ऑफ़ीसर यहूदियों से यहूदियों पर अत्याचार करवाते हैं। नात्सी नियमों को लागू करने के लिए यहूदी पुलिस को बाध्य किया जाता है। ब्लैडीस्लाव और उसके परिवार को गिरफ़्तार करके यातना शिविर जाने वाली ट्रेन पर चढ़ने का आदेश दिया जाता है। भाग्य से एक मित्र उसकी सहायता करता है और ट्रेन पर चढ़ने और मृत्यु के मुँह में जाने के स्थान पर वह बच निकलता है। मगर बच निकलना क्या इतना आसान है। इस बच निकलने के बाद का जीवन कैसा है इसके लिए फ़िल्म ‘द पियानिस्ट’ देखनी होगी। परिवार मृत्यु के मुँह में जा चुका है और वह बच रहा है, उसके भीतर की अपराध ग्रंथी उसका लगातार पीछा करती है। जीवित रहने के लिए उसे तरह-तरह की कठिनाइयों से गुजरना होता है, भय-दहशत, भूख-प्यास-बीमारी का लगातार सामना करना पड़ता है। एक ओर नात्सी अत्याचार चल रहा था वहीं दूसरी ओर कुछ पोल प्रतिरोध दस्ते भी सक्रिय थे। लम्बे, खूबसूरत, शांत आशावादी ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन की भूमिका में एड्रियन ब्रोडी का चुनाव बहुत सटीक है। वह प्रतिरोध दस्ते की सहायता से जीवित रहता है मगर जीवन आसान न था। उसके इस जीवन को यह फ़िल्म विस्तार से दिखाती है। चाक्षुष रूप से यह फ़िल्म दर्शक को स्तंभित करती है। नायक एक सहज विश्वास के तहत जीता है। उसका विश्वास है कि जैसा पियानो वह बजाता है वैसा जो भी बजाएगा, उस व्यक्ति के साथ सब ठीक होगा। उसे पूरा विश्वास है कि जल्द ही सब ठीक हो जाएगा, सामान्य हो जाएगा। यही विश्वास वह दूसरों को भी दिलाता है। उसका यह विश्वास किसी खबर, किसी तथ्य पर आधारित नहीं है। बस वह स्वभाव से आशावादी है, यह उसका सहज विश्वास है। फ़िल्म के अंत की ओर आते हुए चोपिन का संगीत उसके बचे रहने का बायस बनता है। एक जर्मन ऑफ़ीसर उसकी जान बचने का कारण बनता है। किसी समूह के सारे लोग दुष्ट हों यह आवश्यक नहीं है, क्रूर-से-क्रूर दल में कोई मानवीय अनुभूति से पूर्ण हो सकता है। यह जर्मन ऑफ़ीसर कैप्टन विल्म होसेनफ़ेल्ड भी न केवल संगीत प्रेमी है वरन मनुष्यता के गुणों से भी पूर्ण है। वह सही मायनों में धार्मिक व्यक्ति है। थॉमस क्रेसचमान ने यह भूमिका बहुत आधिकारिक तरीके से की है। वास्तविक आत्मकथा में भी ऐसा ही हुआ है। बाद में यह ऑफ़ीसर युद्धबंदी है और स्पीलमैन उसकी सहायता करना चाहता है। समय ऐसा था कि वह कैदी की सहायता नहीं कर पाता है। होसेनफ़ेल्ड की मौत रूस के यातना शिविर में होती है। वास्तविक स्पीलमैन सदा उसके परिवार के संपर्क में रहता है। इस फ़िल्म की सेट डिजाइनिंग उजाड़ वार्सा में एकाकी पियानोवादक को एक ऐसे स्थान पर स्थापित करती है जहाँ से वह पियानो पर बैठा अपनी ऊँची खिड़की से बाहर के सारे कार्य-व्यापार देख सकता है, देखता है मगर वह खुद इन सबसे दूर है। वह सुरक्षित है, भूखा-बीमार है, एकाकी और बुरी तरह से भयभीत है। उसकी आँखों के सामने लोगों को लाइन से खड़ा करके गोलियों से भून दिया जाता है। वक्त-बेवक्त बम से इमारतें, दीवाल उड़ती रहती हैं, जलती रहती हैं। यहाँ तक कि अस्पताल भी इस कहर से नहीं बचता है। स्पीलमैन के प्राण पियानो में बसते हैं, विडंबना है उसने ऐसे स्थान में शरण ली हुई है जहाँ पियानो है मगर वह उसे बजा नहीं सकता है। कैसे बजाए, कैसे बजाने का साहस करे। पियानो बजाते ही न केवल उसके प्राण खतरे में पड़ जाएँगे वरन और कई जीवन नष्ट हो जाएँगे। वह काल्पनिक रूप से पियानो बजाता है उसके मन-मस्तिष्क में पियानो की ध्वनि गूँजती रहती है। उसकी अँगुलियाँ थिरकती रहती हैं। जिसमें कला की तनिक-सी भी समझ है वह उसकी बेबसी से द्रवित हुए बिना नहीं रह सकता है। एक बार जब वह अपनी जान बचाने के लिए किसी तरह दीवार फ़ाँद कर दूसरी ओर कूदता है और अपना पैर तोड़ बैठता है, उस समय उजाड़ घेटो और एकाकी स्पीलमैन का दृश्य दुनिया से उसके कटे होने और नात्सी द्वारा तहस-नहस दुनिया को फ़िल्म बड़ी खूबसूरती (!) से दिखाती है। नात्सी अमानवीय काल में कई लोगों ने अपने दिन परछत्ती पर छिप कर गुजारे, एन फ़्रैंक की डायरी इसका गवाह है। बाद में टूटी एड़ी के साथ स्पीलमैन भी एक परछत्ती पर अपने दिन गुजारता है। फ़िल्म के अंत तक स्पीलमैन कैसे बचा रहता है, कौन उसकी सहायता करता है, उसके बच रहने में पियानो की क्या भूमिका है। ये सारी बातें लिख कर बताने की नहीं है और न ही पढ़ कर समझने की हैं। इन्हें तो देख कर ही जाना-समझा-महसूसा जाना चाहिए। पोलांस्की ने फ़िल्म के अंतिम हिस्से को जैसे फ़िल्माया है वह फ़िल्म इतिहास में संजोने लायक है। अधिकतर होलोकास्ट की फ़िल्में प्रदर्शित करती हैं कि जो इस अमानवीय काल से बच रहे वे अपने साहस और बहादुरी से बचे। वे लोग बहादुर थे। पोलांस्की के अनुसार जो बच निकले वे सब-के-सब बहादुर नहीं थे। सब लोग बहादुर हो भी नहीं सकते हैं मगर फ़िर भी कुछ व्यक्ति बहादुर न होते हुए भी बच रहे। कई फ़िल्म समीक्षक उनके इस नजरिए से सहमत नहीं हैं। क्या सबको सहमत किया जा सकता है, क्या फ़िल्म निर्देशक का उद्देश्य सबको सहमत करना होता है? समीक्षकों को लगता है कि फ़िल्म बहुत अधिक उदासीन है। उसमें उकसाने, आग्रह करने का अभाव है। पियानोवादक प्रचलित अर्थ में हीरो नहीं है, वह एक कलाकार है, जुझारू या लड़ाकू नहीं है। फ़िर भी वह बच निकलता है। वह कायर नहीं है, जीवन बचाने के लिए जो वह कर सकता था उसने किया। वह कभी नहीं बच सकता था यदि उसका भाग्य साथ नहीं देता। वह बच नहीं सकता था यदि संयोग से उसे कुछ गैर यहूदी लोग न मिलते, जो उस पर दया न करते, जो उसकी सहायता न करते। ये लोग अपनी जान जोखिम में डाल कर उसकी रक्षा करते हैं, उसका जीवन बचाते हैं, उसे यथासंभव सहायता देते हैं। मानवीयता किसी धर्म या नस्ल की बपौती नहीं होती है। इन्हीं में ऐसे लोग भी हैं जो उसके नाम पर चंदा जमा करके खुद हड़प जाते हैं। पूरी फ़िल्म में पियानोवादक मात्र एक दर्शक, एक साक्षी रहता है, जो वहाँ था जहाँ यहूदियों पर नात्सी शिकंजा कसता जा रहा था। असल स्पीलमैन ने सब कुछ अपनी आँखों से देखा था, उसे स्मरण रखा। बाद में शब्दों में पिरोया। पोलांस्की वास्तविक व्यक्ति स्पीलमैन से तीन बार मिले थे। फ़िल्म के विषय में उसने कोई विशेष सुझाव नहीं दिए पर वह खुश था कि उसके जीवन पर फ़िल्म बनाई जा रही है। फ़िल्म बन कर समाप्त होने के कुछ पूर्व ८० वर्ष की उम्र में उसकी मृत्यु हुई। उसकी आत्मकथा नात्सी अत्याचार समाप्ति के तत्काल बाद प्रकाशित हुई थी। इस आत्मकथा में कुछ यहूदियों को गलत और एक जर्मन को दयालु दिखाया गया है इसलिए अधिकारियों ने इसे उस समय प्रतिबंधित कर दिया था। ९० के दशक में यह पुन: प्रकाशित हुई इसी समय पोलांस्की ने इसे देखा और इसे अपनी फ़िल्म का विषय बनाया। यह एक गंभीर फ़िल्म है, होलोकास्ट पर बनी फ़िल्म ‘लाइफ़ इज ब्यूटीफ़ुल’ की तरह हास्य और त्रासदी का मिश्रण नहीं है, न ही ‘शिंडलर्स लिस्ट’ की तरह होलोकास्ट को डायल्यूट करके प्रस्तुत करती है। इसका अप्रोच ‘शिंडलर्स लिस्ट’ से बिल्कुल भिन्न है। ‘शिंडलर्स लिस्ट’ ऑस्कार के जटिल व्यक्तित्व में आए परिवर्तन पर ध्यान देती है जबकि ‘द पियानिस्ट’ का नायक अपने भीतर अपराध बोध से लड़ते हुए जीवित रहता है। उसके भीतर अपराध बोध है क्योंकि वह जीवित है और उसके परिवार के लोग मारे जा चुके हैं। उसकी जिजीविषा उसे बुरी-से-बुरी परिस्थिति में जीवित रखती है। चूँकि स्पीलमैन नात्सी शिविर नहीं जाता है अत: वहाँ के मौत गृहों को फ़िल्म में नहीं दिखाया गया है। वहाँ की हैवानियत का चित्रण फ़िल्म नहीं करती है। मगर नात्सी का सिस्टेमेटिक दमन-शोषण शिविरों के बाहर भी जारी था। उस दमन का बड़ी बारीकी, कुशलता और विस्तार से चित्रण इस फ़िल्म में मिलता है। दमन इतना भयंकर है कि दर्शक के रोंये खड़े हो जाते हैं। वार्सा के यहूदियों से उनकी सारी संपत्ति छीन ली जाती है और उन्हें घेटो में डाल कर उनके चारो ओर दीवार चुन दी जाती है। यहूदी पुलिस ऑफ़ीसर से ही नात्सी नियम-कायदे उन पर लागू करवाए जाते हैं। कितना दर्दनाक दृश्य है जब एक बच्चा खाने की चीजें ले कर नाली से आते हुए उसमें फ़ँस जाता है। स्पीलमैन उसे सँकरी नाली से खींच कर निकालने का प्रयास करता है। नतीजन बच्चा जब नाली से निकलता है उसकी मौत हो चुकी है। फ़िल्म में यह दृश्य बीच में आता है जबकि किताब में यह एक शुरुआती दृश्य है। प्रतिरोधी दस्ते की सहायता से नायक बचता है, मगर प्रतिरोधी दस्ते की कार्यवाहियों को भी फ़िल्म नहीं दिखाती है। बस उनके कारनामों की एकाध झलक फ़िल्म में मिलती है। फ़िल्म के अंत में स्पीलमैन पुन: पियानो बजाता है और दर्शक-श्रोता खड़े हो कर उसक सम्मान करते हैं। वास्तविक स्पीलमैन भी युद्धोपरांत पियानो बजाता रहा था। दर्शक वही देखता है जो नायक को दीखता है, दर्शक उन ध्वनियों को सुनता है जो नायक के दिमाग में सुनाई देती हैं। उसकी लाचारी, उसकी बेबसी दिल में कचोट उत्पन्न करती है। उसकी खूबसूरत अंगुलियाँ पियानो बजाने को तरसती हैं, उसका यह दु:ख दर्शक को बेचैन करता है। उसके चेहरे और उसकी आँखों का भाव सब मिल कर फ़िल्म को दर्शक के लिए अनुभव नहीं, अनुभूति बना देते हैं। निर्देशक नायक से मौखिक (वर्बल) से अधिक भावात्मक (नॉनवर्बल) तरीके से अपना कथ्य संप्रेषित करवाने में सफ़ल रहा है। शारीरिक मुद्राओं, चेहरे की भाव-भंगिमा और आँखों की अभिव्यक्ति से पूरी फ़िल्म संप्रेषित होती है। नायक बहुत कम बोलता है। वह एक कलाकार है, पियानो बजाने में जितना कुशल है अन्य कामों के उतना ही अकुशल (क्लमसी)। यह असावधानी, बेढ़ंगापन उसकी मुसीबतों को बढ़ाता है या इससे उसे कुछ फ़ायदा होता है यह निर्णय फ़िल्म देख कर खुद करना होगा। फ़िल्म की समाप्ति के बाद भी दर्शक फ़िल्म के साथ रहता है। भूखे, प्यासे, बीमार और भयभीत व्यक्ति का इतना सटीक और आधिकारिक अभिनय देखना अपने आप में एक उपलब्धि है। हद तो तब हो जाती है जब नलके में पानी भी खत्म हो जाता है, एक प्यासे व्यक्ति की हताशा का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। इसी तरह कई अन्य दृश्य बहुत त्रासद और भयंकर हैं। नात्सी ऑफ़ीसर का स्पीलमैन के पिता को थप्पड़ मारना, एक अन्य ऑफ़ीसर का व्हीलचेयर में बैठे एक बूढ़े को बाल्कनी से गिराना, गार्ड्स का यहूदियों को सड़क पर नचवाना। भूखे आदमी का बुसे हुए, जमीन पर गिरे सूप को पाने के लिए लपकना। कुत्ते से भी बद्तर स्थिति में उसे चाटना। जीवन में सामान्य बातों जैसे खाना-पानी, परिवार, स्वतंत्रता का मूल्य इस फ़िल्म को देख कर पता चलता है, अन्यथा हम इन बातों को कभी महत्व नहीं देते हैं। हमें अनुग्रहीत होना चाहिए कि हम स्वतंत्र है। फ़िल्म स्वतंत्रता के मूल्य को स्थापित करती है, मानवीयता को जाग्रत करती है। रोनाल्ड हारवुड ने स्पीलमैन की आत्मकथा से फ़िल्म का इतना सटीक स्क्रीनप्ले तैयार किया जिसने उन्हें पुरस्कार के मंच तक पहुँचाया। पोलांस्की पुस्तक के प्रति ईमानदार है, साथ ही उन्होंने अपने अनुभव इसमें पिरोए हैं। पोलांस्की का कहना है कि वे सदा जानते थे कि एक दिन वे पोलिश इतिहास के इस दर्दनाक दौर पर अवश्य फ़िल्म बनाएँगे मगर वे इसे अपने जीवन पर आधारित करके नहीं बनाना चाहते थे। अत: जब उन्हें १९४६ में लिखी यह आत्मकथा पुनर्प्रकाशन पर मिली, पहला अध्याय पढ़ते ही उन्होंने तय किया कि वे इस पर फ़िल्म बनाएँगे। यह भयंकर होते हुए भी आशा का संचार करने वाली फ़िल्म है। इस आत्मकथा में अच्छे-बुरे पोल लोग हैं, अच्छे-बुरे यहूदी हैं, अच्छे-बुरे जर्मन हैं। निर्देशक हॉलीवुड स्टाइल की फ़िल्म नहीं बनाना चाहता था। जब वे लोकेशन के लिए क्राकाऊ गए तो उनकी स्मृति पुन: जीवित हो गई। फ़िल्म की शूटिंग प्रारंभ करने से पहले उन्होंने इतिहासकारों और घेटो के बचे लोगों से संपर्क साधा और उनकी सलाह ली। उन्होंने अपनी टीम को वार्सा घेटो के फ़ुटेज भी दिखाए। नायक के रूप में उनका ध्यान अभिनेता की शारीरिक साम्यता पर उतना नहीं था। वे अपनी कल्पना के अनुसार चरित्र चाहते थे। उन्हें एक युवा की तलाश थी भले ही वह प्रोफ़ेशनल और नामी एक्टर न हो। चूंकि वे फ़िल्म इंग्लिश में बना रहे थे अत: ऐसा व्यक्ति चाहते थे जो यह भाषा भलीभाँति जानता-बोलता हो। अभिनेता ब्रोडी की संभावनाओं और प्रतिभा का फ़िल्म में पूरा-पूरा उपयोग निर्देशक ने किया है। उसके चुनाव के पहले नायक की खोज के लिए पोलांस्की ने कई हजार लोगों का साक्षात्कार किया। पहले उन्होंने लंदन में खोज की, १४०० लोग ऑडीशन के लिए आए पर कोई पोलांस्की के मानदंड पर खरा नहीं उतरा। इस खोज में वे ब्रिटेन से अमेरिका जा पहुँचे। जब उन्होंने अनुभवी एड्रियन ब्रोडी का काम देखा तो उन्हें मनलायक नायक मिल गया, यही अमेरिकी अभिनेता उनका पियानिस्ट बना। फ़िल्म में कई नॉन प्रोफ़ेशनल लोगों ने भी अभिनय किया है। अधिकाँश कलाकार जर्मन और पोलिश हैं। अभिनेता ने भी किरदार निभाने के लिए खूब परिश्रम किया। अपने खाने-पीने पर नियंत्रण करके कमजोर होने-दीखने का काम किया। पहले भी ब्रोडी को संगीत से लगाव था मगर उसने पियानो बजाने का प्रशिक्षण लिया, अभ्यास किया, चोपिन बजाना सीखा, संगीत के उन हिस्सों को बजाना सीखा जो फ़िल्माए जाने थे। वह अभी भी संगीत पढ़ नहीं सकता है परंतु फ़िल्म के लिए जब उसने संगीत बजाया तो वे उसके मनपसंद पल बन गए। उसके मन में इच्छा है कि वह संगीत कलाकारों से जुड़े और संगीत की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कार्य करे। उसने पोलिश भाषा का सीखने का अभ्यास किया। बीबीसी की लौरा बुशेल के अनुसार यह फ़िल्म ब्रोडी की प्रतिभा को प्रदर्शित करने के लिए सबसे अधिक स्मरणीय है। दर्जनों फ़िल्म में काम कर चुके ब्रोडी का कहना है कि पियानिस्ट का अभिनय करने के लिए वे खुद को १२ से १७ घंटे एकाकी रखते, किसी से मिलते-जुलते नहीं थे। जिंदगी में जो भी आरामदायक, सकून भरा है, उससे दूर रहते थे। लोगों, भोजन, कला-संगीत सबसे दूर एक ऐसे व्यक्ति का अनुभव करते जिसका सब कुछ छिन गया है, जिसे अपने प्यारे लोगों, अपनी लगन से वंचित कर दिया गया है। उन्होंने स्पीलमैन के अनुभवों को आत्मसात करने के लिए यह सब किया। उसकी सच्चाई को अपना यथार्थ बनाया। प्रोडक्सन शुरु होने के छ: सप्ताह पूर्व उन्होंने अपना वजन ३० पौंड कम कर लिया था, मित्रों-रिश्तेदारों से मिलना छोड़ दिया था, अपना घर और अपनी कार, भौतिक सुख-साधन त्याग दिए थे। अभिनय की ऊँचाई तपस्या माँगती है, ब्रोडी ने यह किया। उनका कहना है कि जिन परिस्थितियों से स्पीलमैन या उन जैसे लोग होलोकास्ट के दौरान गुजरे, उन्होंने जो अनुभव किया, जो कष्ट उठाए इससे उनके अनुभवों की कोई तुलना नहीं हो सकती है । लेकिन उनका कहना है कि अपने अनुभव से उन्होंने गहन बोध पाया है। उन्होंने ऐसा किया क्योंकि वे अपने काम को बहुत गंभीरता से लेते हैं। निर्देशक के रूप में रोमन पोलांस्की अपने अभिनेताओं को कोई रियायत नहीं देते हैं। एक बार उन्होंने ब्रोडी से कहा कि तुम्हें बिल्डिंग पर चढ़ना है, छत तक जाना है और खिड़की से चढ़ना है, वहाँ लटके रहना है ताकि शूटिंग की जा सके। फ़िर बिल्डिंग से सरकते हुए उतरना है, गटर पर लटके रहना है और फ़िर गिरना है। ब्रोडी ने पोलांस्की से कहा, “क्या पहले किसी ने यह किया है?” पोलांस्की ने कहा, “हॉलीवुड एक्टर्स आओ मैं तुम्हें दिखाता हूँ।” और ६८ साल के पोलांस्की दौड़ कर बिल्डिंग तक गए, खिड़की से चढ़े, वहाँ लटके रहे, छत पर गए, वहाँ से सरकते हुए गटर पर झूलते रहे और फ़िर वहाँ से नीचे जमीन पर कूद पड़े, उनके अंग छिल गए। पोलांस्की ने ब्रोडी से कहा, “लो किसी ने यह किया है, अब तुम करो।” फ़िल्म में ब्रोडी भावना की विभिन्न छटाओं की अभिव्यक्ति में कुशल हैं। उनका अभिनय स्तंभित करता है। फ़िल्म की शूटिंग वार्सा, प्राग तथा स्टूडियो में हुई है। पॉवेल एडलमैन की फ़ोटोग्राफ़ी स्तंभित करती है। फ़िल्म के अधिकाँश भाग में धूसर-भूरे रंग का प्रयोग मनचाहा प्रभाव डालता है। शुरु में कुछ रंगीन दृश्य हैं, जब फ़िल्म आगे बढ़ती है तो भूरा प्रमुख बन बैठता है। जब नात्सी वार्सा छोड़ने लगते हैं तब फ़िर से सूर्य की रौशनी नजर आती है। जब स्पीलमैन जर्मन कमांडर के लिए पियानो बजाता है तब पियानो पर रौशनी पड़ती है, इस समय रौशनी नायक पर भी पड़ती है और जीवन की थोड़ी उम्मीद बँधती है। पोलांस्की ने एक सैनिक स्थल पर सेट का निर्माण कर उसे डायनामाइट से उड़ा कर भग्न घेटो का दृश्य तैयार किया था। कोई आश्चर्य नहीं कि इस फ़िल्म को सारे उत्तम पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। सर्वोत्तम निर्देशक, सर्वोत्तम अभिनेता, सर्वोत्तम स्क्रीनप्ले, सर्वोत्तम सेट डिजाइनिंग... लिस्ट बड़ी लंबी है। गर्व की बात है कि स्पीलमैन के पुत्र एंड्रेज स्पीलमैन पुरस्कार समारोह में उपस्थित थे। अभिनेता ब्रोड़ा के माता-पिता भी समारोह में आए थे और सब खुशी से रो रहे थे। ये सम्मान द्वितीय विश्वयुद्ध के शिकार हुए लोगों के लिए समर्पित थे। सर्वोत्तम फ़िल्म सूचि में इसका नाम सदा के लिए दर्ज है। स्पीलमैन के बेटे ने पत्रकारों को बताया कि हमारा परिवार मेरे पिता की कहानी को अकादमी द्वारा सपोर्ट करने से बहुत सम्मानित और गदगद हैं। हम लोग यह सम्मान रोमन पोलांस्की और फ़िल्म की असामान्य कास्ट और क्रू के साथ साझा करने में गर्वित हैं। आगे उन्होंने कहा कि यह पोलिश यहूदियों के साहस और मानवता को स्मरण करना है जिसे हमने द्वितीय विश्व युद्ध में खो दिया था। उन्होंने बताया कि साठ साल बीत चुके हैं मगर हम कुछ भूले नहीं हैं। समीक्षकों ने फ़िल्म प्रदर्शन के तत्काल बाद सर्वोत्तम शब्दों में इसकी प्रशंसा की। एक समीक्षक ने तो यहाँ तक कहा कि फ़िल्म का अंत इंद्रियातीत (ट्रांसिडेंटल) के निकट है। लोग खुश थे कि पोलांस्की दोबारा फ़िल्म जगत में स्थापित हो गए हैं, इसके पहले उनकी कुछ फ़िल्में असफ़ल रहीं थीं। उनके लिए यह फ़िल्म बनाना आसान नहीं था। वार्सा जा कर उनकी स्मृतियाँ पुन: जाग्रत हो गई थीं। फ़िल्म की शूटिंग के दौरान वे कई बार अपसेट हो जाते थे। इस पूरे समय उन्होंने खुद को बहुत लो प्रोफ़ाइल में रखा। मीडिया में बढ़-चढ़ कर कोई बयान नहीं दिया। कला की जड़े अक्सर बहुत दु:ख में गड़ी होती हैं। पोलांस्की १९६१ में कम्युनिस्ट शासन के दमन से निकल भागे थे। दु:ख उनका पीछा बचपन से कर रहा है बाद में भी उसने उनका पीछा नहीं छोड़ा। १९६९ में उनकी पत्नी अभिनेत्री शरोन टेटे और उनके अजन्मे बच्चे की हत्या कर दी गई। इसके बाद उन्होंने ‘मैकबेथ’ बनाई, इसके पहले वे ‘रिपल्सन’ और ‘कल-डे-सेक’ बना चुके थे। उनकी अन्य फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म के प्रड्यूसर उनके पुराने मित्र जेने गटोवस्की हैं जो खुद जर्मनी द्वारा अधिकृत वार्सा से बचे हुओं में से एक हैं। फ़िल्म के वार्सा प्रीमियर के समय पोलांस्की खुद अभिनेता के साथ उपस्थित थे। वहाँ के राष्ट्रपति और तमाम बड़े लोग इस अवसर पर फ़िल्म देखने जमा थे। दर्शकों ने बीस मिनट तक खड़े हो कर तालियाँ बजाते हुए फ़िल्म, निर्देशक और अन्य तकनीशियन्स और कलाकारों को सम्मान दिया था। भले ही यह फ़िल्म एक व्यक्ति के नजरिए से बनी है मगर इसमें युद्ध की भयावहता, एक व्यक्ति की असहायता पूरी तरह से उभरी है। यह बहुत प्यारी-सुंदर फ़िल्म नहीं हैं, अधिकतर दृश्य उजाड़ परिदृश्य और वीराने तथा जनहीन कमरे के हैं। फ़िर भी एक बार इसे अवश्य देखा जाना चाहिए। एक बार देख कर दोबारा देखने की तलब यह फ़िल्म खुद ही जगाती है। फ़िल्म देखने के बाद प्रतिकार की भावना नहीं जगती है, वरन मानवता पर विश्वास जमता है। संगीत की शक्ति और जिजीविषा को सलाम करने का मन करता है। यह फ़िल्म संगीत की शक्ति, जिजीविषा और दुष्टता-बुराई के समक्ष डट कर खड़े रहने का दस्तावेज है। पोलांस्की ने एक साक्षात्कार में बताया कि वे फ़िल्म को बहुत तड़क-भड़क वाला नहीं बनाना चाहते थे मगर दूसरी ओर वे उस काल की डॉक्यूमेट्री भी नहीं बनाना चाहते थे। उनके अनुसार यह उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म है। भावात्माक रूप से यह ऐसा काम है जिसकी तुलना उनके किसी अन्य कार्य से नहीं की जा सकती है। यह उन्हें उस काल में ले जाता है जिसे वे आज भी स्मरण करते हैं। देखने के पश्चात फ़िल्म ‘द पियानिस्ट’ सदा-सदा के लिए दर्शकों की स्मृति का हिस्सा बन जाती है। 000

द पियानो टीचर: स्त्री की दमित इच्छाओं का उच्छास

पियानो एक यूरोपीय वाद्य है जो वहाँ प्रत्येक कुलीन परिवार का हिस्सा होता है। भारतीय वाद्य न होते हुए भी यह भारतीय संस्कृति का अंग बना हुआ है। जब अंग्रेज यहाँ आए तो जाहिर-सी बात है वे अपने साथ अपनी सभ्यता-संस्कृति भी लेते आए। भारत के उच्च और उच्च मध्य वर्ग ने अपने आकाओं से काफ़ी कुछ ग्रहण किया, पियानो से लगाव उसका एक हिस्सा है। इंग्लिश माध्यम के स्कूलों में इसे सीखने-सिखाने का काम अब भी चलता है। इन स्कूलों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का यह एक अनिवार्य भाग होता है। इसी तरह हिन्दी फ़िल्मों में भी पियानो अहम भूमिका अदा करता है। बचपन में जब मैं फ़िल्म में पियानो बजता देखती थी तो समझती थी कि यह अवश्य ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड की तरह का बाजा है, जिसे चला कर छोड़ दिया जाता है और वह चलता रहता है, क्योंकि अक्सर हीरो-हिरोइन पियानो बजाना शुरु करते, फ़िर नाचने लगते और पियानो बजता रहता। हाँ, कुछ फ़िल्मों में बाकायदा इसे गाना खतम होने तक बराबर बजाते हुए दिखाया जाता था। फ़िर बड़े होने पर फ़िल्मों की कुछ समझ आई तो इसका राज पता चला कि यह फ़िल्म विधा का एक हिस्सा है। बाद में पियानो नाम और उससे जुड़ी कुछ फ़िल्में देखी जिन्होंने काफ़ी गहरा प्रभाव डाला। हॉलोकास्ट की भयावहता और पियानो बजाने के जुनून पर आधारित ‘द पियानिस्ट’ को कई-कई बार देखा, उस पर लिखा भी। इस फ़िल्म को देखना एक भिन्न अनुभव से गुजरना है। ‘द पियानो’ नामक फ़िल्म के अनोखेपन को जानने-समझने के लिए उसे भी एक से अधिक बार देखा। इसी तरह नोबेल पुरस्कृत साहित्यकार एल्फ़्रिड जेलेनिक के उपन्यास ‘द पियानो टीचर’ पर इसी नाम की फ़िल्म कई बार देखी। २००१ में कान फ़िल्म समारोह में फ़िल्म निर्देशक माइकल हैनेक की ‘द पियानो टीचर’ पर बड़ी भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ हुई। कुछ दर्शकों ने तालियाँ बजाई, कुछ भौचक थे, कुछ घृणा से भरे हुए, कुछ फ़िल्म छोड़ पहले ही जा चुके थे, बिना पूरी फ़िल्म देखे ही। यह फ़िल्म २००४ की नोबेल पुरस्कार पाने वाली साहित्यकार एल्फ़्रिड ज़ेलेनिक के इसी शीर्षक के आत्मकथात्मक उपन्यास पर बनी है। वे घोषित नारीवादी हैं। ज़ेलेनिक नारी जगत को बड़ी सूक्ष्मता और मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करती हैं। उनके अनुसार स्त्री खुद को पुरुष के नजरिए से देखती हैं क्योंकि उसका अपना कोई नजरिया है ही नहीं। मौका मिलने पर स्त्री ठीक पुरुष की तरह सत्ता और शक्ति के खेल भी खेलने लगती है, भले ही वह माँ की भूमिका में क्यों न हो। इस उपन्यास की नायिका एरिका ठीक ऐसी ही स्त्री है। वह पहले अपनी माँ के द्वारा दमित होती है और अवसर मिलते ही अपने अधिनस्थों का दमन-शोषण करती है, उन पर तरह-तरह के अत्याचार ढ़ाती है। मैंने यह फ़िल्म फ़्रेंच भाषा में इंग्लिश सबटाइटल्स के साथ देखी। सताई हुई स्त्री भीतर से असुरक्षित होती है। इस असुरक्षा को ढ़ाँपने के लिए अपने अधीनों को शारीरिक, मानसिक और भावात्मक रूप से प्रताणित करती है। इसमें वह सुख और अधिकार पाती है। उसे खुद को सिद्ध करने का अवसर मिलता है, अपने अस्तित्व का भान होता है। इस फ़िल्म में माँ की भूमिका में अभिनेत्री ऐनी गिराडॉट ने पहले आधिकारिक रूप से हावी रहने वाली स्त्री और बाद में एक लाचार स्त्री की भूमिका का बड़ा सटीक अभिनय किया है। आसुरी लीडरशिप की विशेषताओं से लैस एरिका एक प्रतिभावान उत्कृष्ट पियानो टीचर है। माँ की महत्वकांक्षा के बावजूद वह सर्वोच्च संगीतवादक नहीं बन पाती है। संगीत के गढ़ वियेना में भयंकर प्रतियोगिता है और वह इसमें कामयाब नहीं हो पाती है। फ़लस्वरूप वह एक बहुत कठोर शिक्षिका है, अपने छात्रों से बहुत निर्ममता से व्यवहार करती है। अपने छात्रों को नष्ट करने में तनिक भी नहीं हिचकती है। अपनी माँ का प्रतिशोध वह अपनी एक छात्रा से लेती है क्योंकि इस छात्रा की माँ भी बहुत महत्वाकांक्षी थी। ‘द पियानो टीचर’ में माँ-बेटी का रिश्ता वर्जित यौन संबंधों (इंसेस्ट) की सीमा का स्पर्श करता है। दोनों परस्पर निर्भर होते हुए भी एक-दूसरे के प्रति आशंका से भरी हुई हैं। संगीत के प्रति जुनून एरिका को पागलपन तक ले जाता है, उसका पिता इसी जुनून में पागल होकर मर चुका है। शायद यह पागलपन उसके परिवार में समाहित है। प्रौढ़ावस्था की एरिका यौन कुंठा और ताक-झाँक में मजा (वोयूरिज्म) लेती है। दर्शन रति से परेशान यौन संतुष्टि के लिए अजीबो-गरीब उपाय करती है। भरत मुनि ने कुछ क्रियाएँ मंच के लिए वर्जित ठहराई थीं, मल-मूत्र त्याग उनमें से एक है। मगर पश्चिम की फ़िल्मों का यह एक अहम न सही पर हिस्सा अवश्य होता है। वैसे यूरोप और अमेरिका की देखा-देखी आज भारतीय फ़िल्मों में भी यह आवश्यक मान लिया गया है। मल न सही मूत्र त्यागते दिखाए बिना शायद ही कोई फ़िल्म आजकल बनती है। द पियानो टीचर में भी कई ऐसे वर्जित सीन प्रदर्शित हैं। एरिका पोर्नोग्राफ़ी फ़िल्में देखती है और उस क्यूबिकल के डस्टबिन में पहले के किसी ग्राहक की फ़ेंकी गई वीर्य से सनी नैपकीन उठा कर सूँघती है। कभी ड्राइव-इन फ़िल्म शो में जाकर अन्य युवा जोड़ों को प्रेम-क्रीड़ा में लिप्त देख सहन नहीं कर पाती है। जानबूझ कर उन्हें तंग करने के लिए खलखल की आवाज के साथ पेशाब करती है। उसे ऐसा करते देख कर कई लोग ताज्जुब और जुगुप्सा से भर उठते हैं। सत्ता का खेल सब जगह चलता है। परिवार से ले कर राज्य तक चलता है। परिवार सामाजिक संरचना की मूल ईकाई है। सब सामाजिक संरचनाओं की भाँति यहाँ भी सत्ता का खेल चलता है। एरिका का परिवार मात्र दो प्राणियों, मात्र माँ-बेटी का है मगर यह परिवार भी सत्ता के खेल में लिप्त है, उससे अछूता नहीं है। एरिका की माँ उसे सांस लेने का भी स्पेस नहीं देती है उसकी सारी निजता पर निगाह रखती है। परिवार में उसकी स्थिति सत्ताहीन है, वह इस सत्ताहीनता की सारी कसर अपनी क्लास में अपने छात्रों के साथ पूरी करती है। सत्ता, सैक्स, हिंसा, क्रूरता आदमी के व्यक्तित्व के आदिम अंग हैं। आदमी सत्ता और शक्ति चाहता है। कभी प्रत्यक्ष रूप से तो कभी अप्रत्यक्ष रूप से। सामने वाले पर अधिकार जमाना, दूसरे को अपने कब्जे में रखना आदमी की प्रकृति है। हर आदमी (औरत भी) गाँठों का पुलिंदा होता है। सैक्स को ले कर व्यक्ति के भीतर अजीबोगरीब भ्रम होते हैं। किसी में ये भ्रम ज्यादा होते हैं, किसी में कम होते हैं, मगर होते सब में हैं। सैक्स हिंसा का एक रूप है, सत्ता कायम करने का एक तरीका। एरिका हर तरह की सत्ता चाहती है। आइस हॉकी के एक खिलाड़ी, सत्रह वर्षीय हँसमुख युवा वॉल्टर क्लेमर (बेनोट मैगीमल) की निगाह एरिका पर पड़ती है, वह संगीत की कुशलता का कायल है। कम आयु और अनुभवहीन वॉल्टर कल्पना करता है कि वह एरिका से प्रेम करता है। वह जिद करके एरिका की क्लास में प्रवेश लेता है और अवसर मिलते अपना प्रेम निवेदन कर डालता है। आकर्षित तो एरिका भी उसकी ओर है मगर वह प्रेम में भी अपनी सत्ता कायम करना चाहती है, खुद पर और अपने साथी पार पूर्ण नियंत्रण रखना चाहती है। वह प्रेम के दरमयान भी संगीतकार शुबर की अपनी शिक्षा कायम रखना चाहती है। कहती है कि शुबर बहुत गत्यात्मक है, वह चीखने से फ़ुसफ़ुसाने की ओर जाता है, नम्रता की ओर नहीं’। एरिका इस युवक को हुक्म देती है कि उसे कैसे और कितना प्रेम किया जाए। वह उसे अपनी यौनैच्छाओं की संतुष्टि की एक फ़ेहरिस्त थमाती है। इसमें वह उसे आत्मनियंत्रण के विभिन्न नुस्खे लिख कर देती है। इन तरीकों से वह अपनी उत्तेजना जगाना चाहती है। वह अपनी माँ को भरपूर सताने का यह तरीका अपनाती है। वॉल्टर के साथ का सारा प्रेम व्यापार वह अपनी माँ की दृष्टि और श्रवण सीमा के भीतर करती है। एरिक परपीड़न में सुख पाती है। यौन संबंध के चरम पर ले जाकर वह अपने साथी को पटकनी देती है, ऐसी पटकनी कि वह चूर-चूर हो जाए। ऐसा बहुत समय तक नहीं चलता है। जल्द ही भूमिकाएँ बदल जाती हैं। शोषक शोषित और शोषित शोषक में परिवर्तित हो जाता है। बहुत जल्द वॉल्टर एरिका की बात सुनना बंद कर देता है, उस पर खूब मनमानी करता है। एरिका पर जम कर अत्याचार करता है। माँ-बेटी दोनों उसके सामने लाचार हो जाती हैं। इन सैडिस्ट तरीकों से एरिका की इच्छाएँ पूरी होती हैं। उसने कभी नहीं सोचा था कि ऐसे उसकी यौनेच्छाएँ पूरी होंगी। वह वॉल्टर के अत्याचार देख, पा कर अचम्भित रह जाती है। सारा कुछ अनुभव उसकी कल्पना से बहुत भिन्न होता है। योजनाबद्ध औपचारिक रूप से की गई परपीड़न रति और कामोत्तेजना से क्रोधित व्यक्ति के अत्याचार-बलात्कार में बहुत अंतर होता है। वॉल्टर कामावेश में एक बौराये हुए साँड़ की तरह व्यवहार करता है और एरिका को धमकी भी देता है। एरिका के बिल्कुल विपरीत वॉल्टर धनी, खूबसूरत, प्रतिभावान, आत्मविश्वास से लबरेज, संतुलित और शांत प्रकृति का युवा है। इसी कारण एरिका उससे भयभीत है, उसे घृणा करती है साथ ही उसकी ओर बुरी तरह से आकर्षित भी है। दोनों का एक-दूसरे के प्रति व्यवहार बहुत विचित्र है, जबकि परम्परागत रूप से एक प्रौढ़ा का किसी युवक की ओर झुकाव कोई नई बात नहीं है। यहाँ सैक्स सीन सामान्य फ़िल्मों से बहुत अलग है। इनमें एक-दूसरे का अपमान, बेढ़ंगापन शामिल है। एरिका वॉल्टर से जुड़ना चाहती है लेकिन जानती नहीं है कैसे जुड़ा जाता है। यह एक गैरपरम्परगत फ़िल्म है। फ़िल्म में एरिका के विचित्र व्यवहार की व्याख्या नहीं है जबकि उपन्यास विस्तार में जाता है, एरिका के अतीत, बचपन को चित्रित करता है। एरिका एक कुंठित स्त्री है, वह आत्मयंत्रणा में सुख पाती है। एक ओर वह पुरुषसत्ता का उपयोग करती है, दूसरी ओर स्त्री को मिलने वाला प्यार-दुलार चाहती है। वह इतनी भ्रमित है कि यौनसुख पाने के लिए स्वयं अपने जननांग को उस्तरे से चीरती है। हालाँकि फ़िल्म में दर्शक को यह सब मात्र झलक के रूप में ही दिखाया गया है। पूरी फ़िल्म में कहीं भी भौंडापन नहीं है और न ही सैक्स का खुला प्रदर्शन है। फ़िल्म में व्यक्ति के एकाकीपन, उसकी हताशा को दिखाने के लिए इन बातों को फ़िल्माया गया है। निर्देशक हैनेक ने एरिका और उसकी माँ के बेतुके व्यवहार को प्रदर्शित करने के लिए इन दृश्यों का सहारा लिया है। बरसों से एरिका की कामाच्छाएँ दबी हुई थीं, जब-तब वह उन्हें अप्राकृतिक उपायों से शमित करने का प्रयास करती है। वह वॉल्टर से कहती है कि न जाने कब से वह मार खाने की, प्रताड़ित होने की तमन्ना पाले हुए है। असल में वह प्रेम पाना चाहती है मगर बहुत भ्रमित है। जब इन इच्छाओं के पूरा होने का समय आता है तब वह कला और जीवन को विलगा नहीं पाती है। अंतरंग क्षणों में भी वह अपने साथी को सीख और आदेश देने लगती है। उसका मकसद हर हाल में अपने साथी को नियंत्रित करना है। वह वॉल्टर को कष्ट दे कर खुद सुख पाना चाहती है। वॉल्टर के अनपेक्षित व्यवहार से एरिका का आत्मविश्वास डिगने लगता है। फ़िल्म के अंत की ओर वह वॉल्टर के हाथों अपमानित-प्रताड़ित हो कर रसोई से चाकू उठाती है। वह चाकू लिए हुए कंसर्ट हॉल में बेसब्री से किसी का इंतजार कर रही है। दर्शक निष्कर्ष निकालता है कि वह वॉल्टर को मारना चाहती है। उसकी कठोर मुखमुद्रा सारे समय दर्शक को संशय में डाले रखती है। वॉल्टर आता है, वह ऐसा बेफ़िक्र व्यवहार करता है मानो उन दोनों के बीच कुछ घटा ही न हो। एरिका वॉल्टर को घायल न करके खुद को चाकू मारती है। मगर ऐसा मारती है कि उसके मरने की संभावना न के बराबर है। वह खुद को घायल करती है मगर नाममात्र को। हाँ, उसे चोट अवश्य पहुँची है। शायद यह भी खुद को प्रताड़ित करने का उसका एक तरीका है। जेलिनिक और माइकेल हैनेक एक ऐसी स्त्री की कहानी बता रहे हैं जो भीतर से बहुत उलझी हुई है, जो विशिष्ट है, प्रतिभावान है मगर गाँठों का पुलिंदा है। उसे खुद भी नहीं मालूम है कि आखीर वह चाहती क्या है। उसे भले ही यह पता न हो कि वह क्या चाहती है मगर एक बात बहुत स्पष्ट है कि वह हर हाल में अपनी डोमीनेटिंग माँ से छुटकारा पाना चाहती है। चाहने से सब कुछ नहीं होता है। एरिका अंत तक अपनी दबंग माँ से छुटकारा नहीं पा पाती है। माँ की महत्वाकांक्षा ने उसके जीवन को जकड़ लिया है। पति की मृत्यु के बाद यह स्त्री बेटी को अपनी गिरफ़्त में ऐसे ले लेती है मानो एरिका के लिए उसके अलावा दुनिया में कुछ और न हो। वह बेटी पर पूरी तरह से छाई हुई है। माँ उसे संगीत-पियानो वादन की सर्वोत्तम ऊँचाई पर देखना चाहती है, इसके लिए उसने एरिका को पूरी तरह से ब्रेन वॉश किया हुआ है। शुरु से उसकी दुनिया को पियानो वादन तक ही सीमित करने का काम माँ करती है, एरिका ने बचपन नहीं जान है। बेटी बड़ी होने पर अपने मन के कपड़े नहीं खरीद सकती है। बेटी विद्रोह करना चाहती है पर माँ को दु:खी नहीं करना चाहती है। दोनों का रिश्ता बहुत उलझा हुआ है। चरित्रों के लिए कलाकारों का चुनाव भी फ़िल्म की सफ़लता-असफ़लता का जिम्मेदार होता है। ‘द पियानो टीचर’ में उम्रदराज एरिका के रूप में बौद्धिक, प्रतिभावान, कुशल फ़्रेंच अभिनेत्री इसाबेला हप्पर्ट का चुनाव निर्देशक की बुद्धिमानी को दर्शाता है। इसाबेला इसके पूर्व कई फ़िल्मों में काफ़ी बोल्ड अभिनय कर चुकी थीं। उन्हें ‘डेस्टनीज’, ‘स्कूल ऑफ़ फ़्लेश’, तथा ‘सेरेमनी’ जैसी फ़िल्मों में अति उत्तम अभिनय के लिए सराहा जाता रहा है। कभी न मुस्कुराने वाली, अकडू, ईर्ष्यालू, कठोर-कुशल टीचर, असहाय-दमित बेटी, विकृत यौनेच्छा वाली, प्रेमाकामांक्षी, शारीरिक अत्याचार में सुख पाने वाली तमाम तरह के अभिनय को साकार किया है इस फ़िल्म में इसाबेला ने। इन विभिन्न रूपों में उसका अभिनय लाजवाब है। नाममात्र का मेकअप इस फ़िल्म तथा इस अभिनेत्री की एक और विशेषता है। सारे समय कैमरे का फ़ोकस एरिका के चेहरे और उसके हाथों पर है। हाथ जो पियानो बजाने में कुशल है जिनका वह कई निकृष्ट कामों के लिए प्रयोग करती है। इन्हीं हाथों से वह अपनी छात्रा के भविष्य को नष्ट करने का प्रयास करती है और सफ़ल रहती है। इसाबेला को उस साल कॉन अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में सर्वोत्तम अभिनेत्री का पुरस्कार प्राप्त हुआ था। पियानो टीचर की भूमिका बहुत कठिन भूमिका है। इस खतरनाक, लीक से हट कर होने वाली भूमिका के लिए अत्यंत साहस और भरपूर प्रतिभा की आवश्यकता है। इसाबेला में प्रतिभा है और उसने साहस का जम कर प्रदर्शन किया है। किताब की एरिका को परदे पर साकार कर दिया है। एरिका की दमित कामुकता और स्व-हिंसा तथा परपीड़ा की इच्छाओं को अभिनेत्री ने बड़ी कुशलता से अभिनीत किया है। फ़िल्म में दमघोटूँ वातावरण (क्ल्स्ट्रोफ़ोबिया) दिखाने के लिए फ़िल्म को सारी बंद जगहों में फ़िल्माया गया है। एरिका का कमरा, माँ का कमरा, टीवी कमरा, वीडिओ पार्लर, क्लासरूम-वाशरूम, चेंजरूम सब बंद स्थान हैं। माँ-बेटी एक ही कमरे में दो सिंगल बेड पर अगल-बगल सोती हैं और एक-दूसरे पर नकारात्मक और चिढ़े हुए प्रहार करती रहतीं हैं। पूरी फ़िल्म सघन दृश्यों की एक लंबी शृंखला है। एक पल के लिए भी हल्कापन, नरमी-नाजुकता का भान तक नहीं होता है। फ़िल्म विधा में क्रम का बहुत महत्व होता है, क्रम बहुत अर्थ रखता है। पियानो टीचर में यह बहुत ध्यानपूर्वक आया है। कुछ उदाहरण दिलचस्प होंगे: एरिका खुद को दूसरों से बचा कर रखती है, वह नहीं चाहती है कि कोई उसके स्पेस में प्रवेश करे। उसकी दृष्टि में दूसरे सब लोग हेय है, निकृष्ट हैं। एक बार राह चलते उसका कंधा एक आदमी से टकरा जाता है। वह बेख्याली में अपना कंधा बार-बार हाथ से झाड़ती जाती है। एक अन्य उदाहरण: एरिका कंजरवेटरी के सभ्य-शालीन, सुसंस्कृत वातावरण में शुबर की संगीत त्रयी का अभ्यास करवा रही है, अगले पल वह एक सैक्स दुकान में खड़ी है। इसी तरह माँ-बेटी एक-दूसरे को थप्पड़ मारती हैं, एरिका माँ के बाल खींचती है, दूसरे क्षण वह देखना चाहती है कहीं माँ के बाल उखड़ तो नहीं गए हैं। वॉल्टर के जाने के बाद वह माँ से लिपटती है। अपनी छात्रा को ईर्ष्यावश घायल करती है। घायल करने का नायाब तरीका अपनाती है। पुरुषसत्ता कितनी आक्रमक होती है इसे एक छोटे से दृश्य में प्रदर्शित किया गया है। आइस स्केटिंगरिंग में दो लड़किया प्रफ़ुल्लित मन और उन्मुक्त भाव से स्केटिंग कर रही हैं, तभी वहाँ हॉकी स्टिक लिए लड़कों का एक झुंड भड़भड़ाता हुआ आ जाता है। उनका आक्रमक रुख लड़कियों को संकुचत कर देता है, वे धीरे-धीरे किनारे हटती जाती हैं और अंतत: एरीना से बाहर चली जाती हैं। इसी दौरान वॉल्टर उनके प्रति तनिक नम्र रुख प्रकट करता है जो उसके व्यक्तित्व की कोमलता को उजागर करता है। यह दीगर है कि उसके भीतर भी हिंसा भरी हुई है। निर्देशक हैनेक जर्मन हैं और खुद एक नाटककार हैं। वे पूरी फ़िल्म को एक विषय के रूप में, एक क्लीनिकल स्टडी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। फ़िल्म में दार्शनिक संवाद और सौंदर्य दोनों भरपूर है। कैमरे का प्रयोग बहुत गरिमामय है। कैमरा स्थिर रहता है लेकिन उसके शॉट्स चलायमान हैं। फ़िल्म सैक्स, शक्ति-सत्ता, दमन, पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति, उच्चस्तरीय कला और यौन संबंधों का बेहतरीन नमूना है। जो दर्शक फ़िल्म में सैक्स की सनसनी खोजने जाएगा उसे निराशा मिलेगी, नायिका कहीं भी अपने कपड़े नहीं उतारती है बल्कि पूरी फ़िल्म देखने के बाद मन पर एक गहरी उदासी तारी हो जाती है। इस बात का इहलाम होता है कि कला और जीवन दो भिन्न बातें हैं। इन दोनों का घालमेल नहीं किया जाना चाहिए। दोनों को अलग समझना होगा कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। जीवन नैसर्गिक होता है जबकि कला जीवन की नकल मात्र है। एरिका दोनों को एक समझने की भूल करती है और इसका परिणाम भुगतती है। द पियानो टीचर फ़िल्म के संगीतकार मार्टिन एचनबॉख हैं जबकि सिनेमेटिग्राफ़ी क्रिश्चियन बर्गर की है। इसे २००१ और २००२ में कई सम्मान-पुरस्कार प्राप्त हुए। २००९ में जेनिस वाई.के.ली ने भी इसी नाम से एक उपन्यास लिखा जो खूब लोकप्रिय हुआ। मगर वह हॉगकॉग की पृष्ठभूमि में प्रेमकथा का एक सरल-सा उपन्यास है। जेलेनिक की प्रतिभा के टक्कर और मिजाज का नहीं है। दोनों में कोई तुलना नहीं, यहाँ यह मात्र सूचना के लिए लिखा है। निर्देशक फ़िल्म का अंत दर्शकों के लिए खुला छोड़ देता है। खुद को चाकू मार कर एरिका कंसर्ट हॉल से बाहर की ओर निकल जाती है जबकि हॉल में सब उसके पियानो वादन को सुनने के लिए एकत्र हैं। एरिका कहाँ जा रही है? घर जा रही है? पोर्न देखने के लिए विडियो पार्लर जा रही है या स्कूल जा रही है? दर्शक तमाम अनुमान लगाने को स्वतंत्र है। फ़िल्म समाप्त हो कर भी समाप्त नहीं होती है दर्शकों को हॉन्ट करती है, एक बेचैनी उत्पन्न करती है, कई प्रश्न छोड़ती है। द पियानो टीचर किताब पढ़ना और इसी नाम की इस उपन्यास पर बनी फ़िल्म देखना एक त्रासदी से गुजरना है। इन्हें एप्रिशिएट करने के लिए जिगरा चाहिए। नैतिकतावादी बड़ी नाक-भौं चढ़ाएँगे। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि फ़िल्म देखने की सलाह देने से पहले यह अवश्य जान लें कि जिसे आप सलाह दे रहे हैं वह इस लायक है भी या नहीं। किताब पढ़ने की सलाह आप बेखटके दे सकते हैं क्योंकि पक्की बात है जिन्हें आप सलाह देंगे उनमें से निन्यानवे प्रतिशत पढ़ेंगे नहीं। फ़िर भी सलाह दे रही हूँ कि पढ़ लें, देख लें। शायद जीवन-कला और स्त्री के प्रति नजरिए में थोड़ा फ़र्क आ जाए। किताब अब हिन्दी में भी उपलब्ध है मगर थोड़ी डायल्यूट हो कर। ०००

द पियानो: स्त्री-भावनाओं की अभिव्यक्ति

‘द पियानिस्ट’ फ़िल्म में नायक फ़िल्म के प्रारंभ और अंत दोनों में पियानो बजा रहा है। भूमिगत होने के समय उसकी त्रासदी यह है कि उसके सामने पियानो रखा है मगर वह उसे बजा नहीं सकता है, बजाते ही उसकी अपनी जान के साथ साथ-उसके संरक्षकों की जान को भी खतरा है। नात्सी बर्बरता के बरबक्स कला की नाजुकता-उच्चता का विरोधाभास अपने चरम पर है इस फ़िल्म में। नायक की पतली, सुंदर, नाजुक और लम्बी अँगुलियाँ पियानो बजाने के लिए तरसती हैं। वह हवा में पियानो बजाता है, उसकी थिरकती अँगुलियाँ त्रासद स्थिति उत्पन्न करती हैं। दूसरी ओर ‘पियानो टीचर’ छात्रों को पियानो बजाना सिखाती है वह स्वयं एक कुशल वादक है। मगर यहाँ उसकी कुत्सित दमित भावनाएँ, उसका अहं, उसका फ़्रस्ट्रेशन, उसकी ऊर्जा पियानो बजाना सिखाने से अधिक अपने छात्रों को नष्ट करने में खर्च होती है। एक समय यूरोप पश्चिमी संस्कृति में पियानो घर के फ़र्नीचर का हिस्सा हुआ करता था। उसे बजाना सीखना संस्कृति का अंग था। जो बचपन में उसे बजाना नहीं सीखते थे उन्हें बाद में अफ़सोस हुआ करता था। यह कलात्माक अभिव्यक्ति का माध्यम था। पोलिस कम्पोजर फ़्रेडरिक चोपिन (१८१०-१८४९) पियानो के लिए संगीत करने के लिए प्रसिद्ध है। पियानो संगीत में सर्वाधिक चोपिन ही प्रसिद्ध है। उसकी तरह बहुत कम संगीतज्ञों ने सोलो पियानो के लिए संगीत रचा है। उसने सिम्फ़नी, ऑपेरा अथवा समूह संगीत नहीं बनाया, मात्र और मात्र पियानो संगीत रचा। वह गैरपरंपरावादी संगीतकार था उसने बहुत बार क्लासिकल नियमों को तोड़ा, उसके अनुशासन को भंग करके नई संरचनाएँ बनाई। उसका बनाया संगीत आज भी पियानो पर बजाया जाता है ‘द पियानिस्ट’ का नायक रेडियो स्टेशन पर चोपिन बजा रहा था जब नात्सी रेडियो स्टेशन के साथ-साथ शहर के यहूदी हिस्सों को बमबारी से नष्ट कर रहे होते हैं। पियानो टीचर शूबर्ट की दीवानी है। पियानो इंग्लिश और यूरोपियन फ़िल्मों का हिस्सा रहा है, कुछ समय तक भारतीय फ़िल्मों का भी। मगर पियानो को केंद्र में रख कर कुछ ही फ़िल्में बनी हैं। ऊपर ‘द पियानिस्ट’ और ‘पियानो टीचर’ की चर्चा हुई है। जेन कैम्पियान ने पियानो को मुख्य किरदार के रूप में प्रदर्शित करते हुए ‘द पियानो’ फ़िल्म बनाई। न्यूजीलैंड की इस निर्देशक ने १९वीं सदी के न्यूजीलैंड को साकार कर दिया है। मगर इस फ़िल्म के निहितार्थ गहन हैं। यह नारीवादी फ़िल्म उस युग के विषय में बहुत सारे मुद्दे उठाती है जो आज भी प्रासंगिक हैं। स्कॉटलैंड से चली मूक एडा मैग्राथ न्यूजीलैंड के वीरान-अनजाने तट पर अपनी नौ साल की बेटी फ़्लोरा और अपने पियानो के साथ उतरती है। आस-पास हैं नोकीले पहाड़, काला, लहराता, भयंकर गरजता-उफ़नता समुद्र, अनजानी वनस्पति, विचित्र-अजनबी माउरी आदिवासी। माँ-बेटी अपने पियानो के पास पेटीकोट का तंबू तान कर उसके भीतर बैठ जाती हैं। यही ओपनिंग सीन है इस फ़िल्म का। कोई आश्चर्य नहीं कि कैम्पियन को ओरीजनल स्क्रीन राइटिंग और निर्देशन दोनों के लिए ऑस्कर से नवाज गया जबकि एडा की भूमिका कर रही होली हंटर को सर्वोत्तम नायिका के लिए पुरस्कार प्राप्त हुआ। न्यूजीलैंड के वीरान तट पर बैठी यह स्त्री असल में इंतजार कर रही हैं अपने नए पति का। उसके पिता ने उसे बेच दिया है, उसकी शादी तय कर दी है, उसने अपने पति को नहीं देखा है। अपने भरे-पूरे समुदाय को छोड़ कर वह यहाँ आई है। पति आता है। इस कीचड़ भरे स्थान में कोई सवारी या मालवाहक गाड़ी नहीं है सारा सामान माउरी समुदाय के आदिवासियों द्वारा ढोया जाना है। पति को पियानो फ़ालतू लगता है क्योंकि उसके लिए यह एक बोझ से अधिक कुछ नहीं है। दूसरों के लिए वह एक कॉफ़िन, एक ताबूत से अधिक कुछ नहीं है जबकि एडा के प्राण उसमें बसते हैं। यह उसके पिता का उसकी माँ को विवाह की वर्षगाँठ पर दिया तोहफ़ा था। एडा जब कुछ दिनों की थी तब उसकी माँ गुजर गई और अपना पियानो वह अपनी बेटी के लिए दे गई थी। इस तरह एडा जो एक समय अपने पिता से बहुत प्रेम करती थी उसके द्वारा दिए गए अपनी माँ के इस उपहार को अपना ही प्रतिरूप और एक्सटेंशन मानती है। पति स्टेवार्ट हुक्म देता है कि पियानो को वहीं तट पर छोड़ जाए। उठा कर ले जाना मुश्किल है साथ ही घर में उसके लिए जगह नहीं होगी। नीली आँखों वाला पति अपनी नई पत्नी का ऐसे स्वागत करता है। पियानो परित्यक्त अवस्था में वहीं पड़ा रहता है और सब लोग चल देते हैं। स्टेवार्ट की भूमिका में सैम नेल खुद प्रवासी किसान है और अपनी छवि के प्रति बहुत सतर्क है। आदिवासी उसे बेवकूफ़ सोचते हैम और उसकी हँसी उड़ाते हैं। मगर मूक एडा क्या करे, उसकी जान पियानो में बसती है वह उसकी अभिव्यक्ति का एक साधन है। पियानो की ऐसी उपेक्षा तत्काल उसे पति से विमुख कर देती है। ठीक उसके उलट है स्टेवार्ट का पड़ौसी उम्रदराज बाइन्स अनपढ़ है, लेकिन धैर्यवान है, उसने माउरी संस्कृति को अपनाने, उनके साथ खुद को जोड़ने के लिए चेहरे पर गोदना गुदवा लिया है। देखने में वह अपरिष्कृत है मगर उसका दिल नरम है। एडा और फ़्लोरा की अपेक्षा वह बहुत साफ़-सुथरा नहीं है, फ़्लोरा उसे हाथ साफ़ करने के लिए कहती है। उसके गंदे कुत्ते को भी नहलाती है। वह पियानो उठाता है, इसके एवज में स्टेवार्ट को जमीन का एक टुकड़ा धरा देता है। इस तरह एडा का पियानो बाइन्स के यहाँ पहुँच जाता है। अभिनेता हर्वी कीटल का बाइन्स के रूप में चुनाव प्रशंसनीय है। पियानो एडा और बाइन्स के बीच सेतु बनता है। यह न केवल पति-पत्नी के बीच अजनबीपन उत्पन्न करता है वरन आगे चल कर माँ-बेटी में भी दुराव पैदा करता है। यह सारे चरित्रों को किसी-न-किसी रूप में जोड़ने का माध्यम है। ‘द पियानो’ एक जटिल फ़िल्म है जिसमें माँ-बेटी, पति-पत्नी के रिश्तों, स्त्री की इच्छा-आकांक्षाओं, उसकी यौनावश्कताओं, उनकी अभिव्यक्ति, भाषा, संस्कृति, सभ्यता, कला, जीवन की तमाम प्रमुख बातों-संबंधों को लिया गया है। एडा ने स्वत: छ: वर्ष की उम्र में बोलना बंद कर दिया है, क्यों? उसे खुद भी ज्ञात नहीं है। फ़्लोरा के अनुसार बात क्यों की जाए जब अधिकाँश समय बकवास होती है। एडा भले ही मूक है मगर वह बहुत जिद्दी है, उसकी अपनी सोच है, वह वही करती है जो उसके मन में आता है। उसे सामाजिक दृष्टि से सामान्य नहीं कहा जा सकता है। मगर क्या उसके आस-पास के लोग सामान्य हैं। एडा मूक है, यह उसकी किसी खामी के कारण नहीं है, इसका कोई मैडिकल कारण नहीं है। उसकी अपनी आवाज नहीं है, हाँ, उसकी अपनी आंतरिक आवाज है। वह खुद को कई तरह से संप्रेषित करती है। एक बार वह फ़्लोरा को बताती है कि वह उसके पिता के दिमाग में बिना बोले चादर की तरह अपने विचार रख देती थी। उसके नया पति को भी लगता है कि वह उससे कुछ कहती है। इसी बात को समझ कर वह एडा और फ़्लोरा को बाइन्स के साथ जाने देता है। पियानो एडा के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है वह खुद को पियानो द्वारा अभिव्यक्त करती है। उसके गले में सदा एक पैड और कलम लटका है, जब-तब वह लिख कर कभी फ़्लोरा द्वार तो कभी खुद अपनी बात दूसरों तक पहुँचाती है। वह जॉर्ज और बाइन्स को लिख कर संप्रेषित करती है। हर बार वह पियानो के विषय में लिखती है। बाइन्स लिख-पढ़ नहीं सकता है, फ़िर भी वह पियानो की पर उकेर पर अपना प्रेम संदेश उसे भेजती है। दूसरी ओर जॉर्ज नोट पढ़ कर भी उसकी अवहेलना करता है, उसे उसके पियानो से दूर कर देता है। हर बार उसका लिखा नोट व्यर्थ रहता है। तीसरा तरीका जो वह अपनाती है, वह है, सांकेतिक भाषा। यह सांकेतिक भाषा मूक-बधिर की वैश्विक सांकेतिक भाषा न हो कर उसके द्वारा खुद अन्वेषित भाषा है जिसे फ़्लोरा बखूबी समझती है और दूसरों के साथ-साथ दर्शकों को भी समझाती है। इस सांकेतिक भाषा में फ़्लोरा उसकी सहायक है। फ़्लोरा दूसरों को भी यह भाषा सिखाती है। सबसे ज्यादा संवाद फ़्लोरा के ही हैं। इसके अलावा एडा की आँखें, उसकी मुख-मुद्रा, उसका शरीर भी अपनी बात भली-भाँति अभिव्यक्त करता है। वैसे भी फ़िल्म चाक्षुष माध्यम है और निर्देशक जेन अपने माध्यम पर मजबूत पकड़ रखती है। असल में समुद्र तट पर एडा के उतरने के पहले उसकी व्यॉजओवर द्वारा स्कॉटलैंड में उसके बचपन और वर्तमान स्थिति की जानकारी दर्शक पाता है। फ़िल्म प्रारंभ में ही पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की दशा-दिशा को स्पष्ट कर देती है। उसके पिता के लिए वह मात्र एक वस्तु है जिसे उसने एक अनजान व्यक्ति को अनजान प्रदेश में बेच दिया है। वह प्रतिकार नहीं कर पाती है। उसकी मूकता बहुअर्थी है। स्त्री को चुप करा देना, उसके अस्तित्व को नकार देना, उसे सम्पत्ति माना जाना, पण्य वस्तु में परिवर्तित कर देना कोई नई बात नहीं है। यह पहले भी हुआ है, आज भी होता है। स्त्री को सामान्यत: अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं, खासकर अपनी यौनाकांक्षाओं को प्रकट करने की आजादी समाज नहीं देता है। उसका कोई अधिकार नहीं होता है, उसे पुरुष द्वारा तय किए नियमों को मानना होता है। एडा मूक है उसकी इस मूकता से उसके होने वाले पति को कोई आपत्ति नहीं है , न ही उसकी बेटी से। फ़िल्म में पता नहीं चलता है या यूँ कहें जानबूझ कर स्पष्ट नहीं किया गया है कि एडा की बेटी उसके विवाहित पति से है अथवा नाजायज औलाद है। फ़्लोरा और एडा के इस विषय में अलग-अलग वर्सन हैं। जेन कैम्पिओन की प्रत्येक फ़िल्म में उनके निजी जीवन के कुछ टुकड़े अवश्य आते हैं चाहे यह ‘पील’, ‘टू फ़्रैंड्स’, ‘इन द कट’, ‘एन एंजल एट माई टेबल’, ‘स्वीटी’ हो अथवा ‘द पियानो’ हो। ‘द पियानो’ में एडा निर्देशक की अपनी माँ एडिथ की कई विशेषताओं से लेस है। यहाँ भी अप्रसन्न परिवार है। एडा अपने पति को अपने पास नहीं आने देती है। एक बार जब जॉर्ज कई दिन के लिए बाहर गया हुआ था माँ-बेटी बाइन्स से अनुरोध करती हैं कि वो उन्हें समुद्र तट पर उनके पियानो के पास ले जाए। इसरार करने पर वो उन्हें वहाँ ले जाता है। तट पर एडा पियानो बजाती है, फ़्लोरा भी बालू, सीप-शंख से खेलते हुए बड़ी कलात्मक संरचना बनाती है। जब वे पहली बार तट पर उतरी थीं तब भी शंख-सीप की सुंदर संरचना बनाती हैं और उसी के भीतर सोती हैं। इस समय जब वह पियानो बजा रही है बाइन्स चुपचाप सुनता है। एडा का पियानो से लगाव देखते हुए बाइन्स जॉर्ज से जमीन के एक टुकड़े के एवज में पियानो खरीद कर अपने घर में रख लेता है। पति के कहने पर एडा बाइन्स को पियानो सिखाने को राजी हो जाती है। बाइन्स उससे सैक्सुअल फ़ेवर के बदले एक-एक पियानो की के विनिमय का प्रस्ताव रखता है जिसे वह मान लेती है। इसी विनिमय के सामानांतर जॉर्ज स्टेवार्ट कंबल और बंदूक के एवज में माउरी से जमीन खरीदता जाता है। पियानो लेसन्स के समय फ़्लोरा बाहर खेलने के लिए मजबूर है और उसे यह अच्छा नहीं लगता है। वह अपनी माँ के बहुत करीब थी, उसे उससे दूर होना खलता है। अरुंधति रॉय भी अपने एकमात्र उपन्यास ‘गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ में दिखाती हैं कि युवा माँ अपने और अपने प्रेमी के बीच बच्चों को नहीं आने देती है। यहाँ भी एडा फ़्लोरा को बाहर खेलने की हिदायत देती है। माँ का यह व्यवहार फ़्लोरा को एडा से विमुख कर देता है और एक दिन वह दरार से दोनों को एक साथ देखती है। उन्हीं क्रियाओं को सांकेतिक रूप से बच्चों के साथ दोहराती है। शुरुआत में एडा बाइन्स की इच्छा पूर्ति के एवज में अपना पियानो हासिल करती है मगर एक समय ऐसा आता है जब अनपढ़ बाइन्स को लगता है कि औरत को वेश्या बनाना उचित नहीं है अत: वह पियानो जॉर्ज के घर भेज देता है। इस बीच एडा की भावनाएँ जाग चुकी थीं। अपने से काफ़ी बड़ी उम्र के बाइन्स के प्रति वह आकर्षित हो चुकी थी। एकतरफ़ा प्यार आपसी प्रेम में परिवर्तित हो चुका है। वह निर्द्वंद्व भाव से बाइन्स से मिलती है और खुद को पूरी तरह से उसे समर्पित कर देती है। फ़्लोरा ने कहा था कि वह कभी स्टेवार्ट को पापा नहीं कहेगी, उसका मुँह नहीं देखेगी, वही फ़्लोरा माँ से बदला लेने के लिए उसे एडा के गुप्त रिश्ते से अवगत कराती है। असल में माँ से उसका अजनबीपन तभी प्रारंभ हो गया था जब उसे एडा और स्टेवार्ट की शादी और उसके बाद खींचे जाने वाले फ़ोटो में शामिल नहीं किया गया था। एलिसडेयर स्टेवार्ट खुद अपनी आँखों से सब देखता है और एडा को घर में लकड़ी के तख्तों से बंद कर देता है। इसी बीच बाइन्स ने यह स्थान छोड़ने का निश्चय कर लिया है। एडा अपने प्रिय पियानो की एक की निकाल कर उस पर अपना प्रेम निवेदन "Dear George you have my heart Ada McGrath" उकेर कर फ़्लोरा के हाथ से बाइन्स के पास भेजती है। ईर्ष्या, क्रोध और विवशता से भरी फ़्लोरा यह उपहार बाइन्स को न दे कर ले जाकर स्टेवार्ट को देती है। दमित इच्छाओं और क्रोध में पगलाया पति एडा की अँगुली कुल्हाड़ी से काट कर उसी नैपकीन में लपेट कर फ़्लोरा के हाथ से बाइन्स के पास भेजता है। हदसी हुई फ़्लोरा को बाइन्स शांत कर अपने पास सुला लेता है। एक ओर स्टेवार्ट का अधैर्य, क्रोध, ईर्ष्या दूसरी ओर बाइन्स का शांत स्वभाव, धैर्य, समझ फ़िल्म में अच्छा कंट्रास्ट उत्पन्न करते हैं। स्वयं जेन कैम्पिओन के लिए चाह, उत्सुकता और कामवासना का वैसा ही अध्ययन है, जैसा एक अध्याता करता है। उन्होंने इन तीनों तत्वों का अध्ययन कर इन्हें प्रेम में परिवर्तित होते दिखाया है। फ़िल्म का प्रारंभ और अंत दोनों थॉमस हुड कविता “साइलेंस” की टिप्पणी से होता है। पंक्तियाँ हैं: "There is a silence where hath been no sound. There is a silence where no sound may be in the cold grave under the deep deep sea." ‘द पियानो’ फ़िल्म देखने के बाद जुगाली के लिए काफ़ी कुछ दे जाती है। आप चुभला-चुभला कर उसका रस ले सकते हैं। यह दमन-शोषण, यौनेच्छापूर्ति, कोमलता-कठोरता, प्रेम-ईर्ष्या-क्रोध, विभिन्न संबंधों की काल्पनिक और यथार्थ दोनों तरह की मनोवैज्ञानिक आख्यायिका है। हर चरित्र अपने आप में सीमाओं के अतिक्रमण की एक कहानी है। न्यूजीलैंड के माउरी समुदाय की उपस्थिति कहानी को अलग मोड़ देती है। फ़्लोरा के रूप में एना पॉकिन का अभिनय कदाचित ही देखने को मिलता है। नौ से तेरह वर्ष की ५००० बच्चियों में से एना पॉकिन को चुना गया था। खुशी और नाखुशी दोनों की इतनी स्वाभाविक अभिव्यक्ति एक बाल कलाकार में इतनी प्रौढ़ता के साथ विरले ही मिलेगी। अगर उसने पुरस्कार बटोरे तो कोई आश्चर्य नहीं। पति के रूप में सैम नेइल का जानदार अभिनय खास कर क्रोध के समय देखते बनता है। बाइन्स के रूप में हारवी केइटेल सर्वोत्तम चुनाव हैं। जेन कैम्पिओन के अनुसार उन्हें ब्रोन्टी बहनों का लेखन आकर्षित करता है खासकर ‘बदरिंग हाइट’ उनका प्रिय उपन्यास है। ‘द पियानो’ में इस उपन्यास की झलक मिलती है। इसमें वही पैशन और विश्वास दीखता है। इसकी सघनता दर्शक को प्रभावित करती है। फ़िल्म को इन्होंने खुद लिखा, निर्देशित किया है, साथ-ही-साथ इसकी प्रोड्यूसर भी वे स्वयं हैं। प्रारंभ में इसका नाम उन्होंने ‘द पियानो लेसन’ रखा था मगर बाद में कॉपीराइट्स के कारण केवल ‘द पियानो’ करना पड़ा। यूरोप में आज भी यह फ़िल्म ‘द पियानो लेसन’ नाम से ही जानी जाती है। फ़िल्म को संगीत दिया है माइकेल निमैन ने। म्युनिख फ़िलहार्मोनिक ऑकेस्ट्रा के सदस्यों ने संगीत बजाया है। संगीत इस फ़िल्म की जान है। निमैन ने जब स्क्रिप्ट पढ़ी तो उन्होंने इसका संगीत बनाने का निश्चय कर लिया। इसके पहले वे अलग तरह का संगीत बना रहे थे। उनकी सिग्नेचर ट्यून बहुत अलग थी। मगर जेन के कहने पर उन्होंने भिन्न प्रकार का संगीत बनाया। हॉली हंटर ने खुद पियानो बजाया है। हॉली ने कई बार निमैन की संरचना को नकार दिया। जब निर्देशक, नायिका और संगीतकार तीनों संतुष्ट होते तभी उस संगीत-टुकड़े को फ़िल्म के लिए स्वीकार किया जाता। एक बार जेन ने निमैन को होटल के कमरे में बंद कर दिया और कहा वे तब ही दरवाजा खोलेंगी जब निमैन संगीत बना लेंगे। जेन के इस व्यवहार को वे बड़े प्रेम से याद करते हैं। निमैन के लिए इस फ़िल्म के लिए सही स्वर पाना आसान न था। इसके लिए उन्होंने काफ़ी परिश्रम किया। उनकी संगीत शिक्षा-दीक्षा बहुत अनुशासन के साथ हुई थी लेकिन इस फ़िल्म का संगीत बनाने के लिए उस अनुशासन को भंग करना जरूरी था। यहाँ स्पॉन्टनिटी की आवश्यकता थी। उन्होंने १९वी सदी की स्कॉटलैंड की स्त्री के संगीत को समझने के लिए लंदन यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी की खाक छानी, स्कॉटलैंड के लोकगीतों का अध्ययन किया तब जा कर वे पियानो का संगीत बना सके। इसने उन्हें एक नई ऊँचाई और प्रसिद्धि दी। वे इसे अपने संगीत जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव मानते हैं और अपने संगीत को प्री-पियानो और पोस्ट-पियानो दो स्पष्ट भागों में विभाजित करते हैं। फ़िल्म निर्देशक और कैमरे का माध्यम है। न्यूजीलैंड के औपनिवेशिक जीवन को पकड़ने में कैमरा पूरी तरह सक्षम है। सिनेमेटोग्राफ़ी के विषय में यदि कुछ नहीं कहा जाए तो यह फ़िल्म के प्रति अन्याय होगा। जेन चाहती थी कि फ़िल्मांकन ऐसा हो जो लगे कि पानी के भीतर से हुआ है। उनकी इस इच्छा को पूरा करने में स्टुअर्ट ड्राईबर्ग खूब सफ़ल हुए हैं। ब्लू ऑटोक्रोम का प्रयोग फ़िल्म को एक अलग लुक देता है। इसके लिए स्टुअर्ट ड्राईबर्ग को ऑस्ट्रेलियन फ़िल्म इंस्टिट्यूट, शिकागो फ़िल्म क्रिटिक, लॉसएंजेल्स फ़िल्म क्रिटिक अवॉर्ड प्राप्त हुए। फ़िल्म के अंत को ले कर बाद में जेन संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें लगता है कि एडा को जल समाधि ले लेनी चाहिए थी। दर्शकों की कल्पना के लिए यह अंत बेहतर होता, यही अधिक सटीक भी होता। जबकि वास्तविक फ़िल्म में एडा अपने पैर को पियानो की रस्सी में बाँध कर उसके साथ-साथ समुद्र में चली जाती है। वह पानी के भीतर खुद को पियानो की रस्सी से निकाल भी लेती है। अब जेन को लगता है कि फ़िल्म यहीं समाप्त होनी चाहिए थी। मगर फ़िल्म में बाइन्स के नाविक उसे समुद्र से निकाल लाते हैं और बाइन्स उसके लिए स्टील की अँगुली बनवा देता है ताकि वह पियानो बजा सके। वह पियानो बजाती है साथ ही फ़िर से बोलना सीख रही है। बाइन्स और उसका प्रेम भी अंत में प्रदर्शित है। फ़्लोरा कहीं नजर नहीं आती है। न्यूजीलैंड के अंधेरे, कीचड़ भरे परिवेश की बनिस्बत यहाँ का वातावरण बहुत खुला और चमकीला है। जेन एक साक्षात्कार में कहती हैं कि यदि अब वे फ़िल्म बनाती तो अंत अलग होता। अगर एडा अपने पियानो के साथ समुद्र में समा जाती तो यह एक बेहतर अंत होता। फ़िल्म का लोकेशन फ़िल्म की थीम, उसकी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि के विषय में बहुत कुछ कहता है। पर्यावरण चरित्रों के आंतरिक वातावरण की प्रतिछाया होता है। वह उनकी आंतरिक अवस्था को प्रोजेक्ट करता है। फ़िल्म का अधिकाँश भाग श्याम समुद्र, बारिश, घना जंगल, कीचड़ का वातावरण है। इस कीचड़ में यूरोपीयन पोशाक में एडा और फ़्लोरा विरोधाभास उत्पन्न करती हैं, उनके लम्बे तंबूनुमा स्कर्ट, उसके अंदर पहने श्वेत लेस से सजे नाजुक कपड़े वहाँ के वातावरण से मेल नहीं खाते हैं। माउरी लोगों की संस्कृति अलग दृश्य प्रस्तुत करती है। एक ओर यूरोप की संस्कृति है दूसरी ओर माउरी हैं। उन्हें एडा का पहनावा, व्यवहार सब अजीब लगता है। दोनों संस्कृतियों के बीच पुल बनाता बाइन्स है यूरोप का होने हुए भी माउरी संस्कृति को अपनाने के प्रयास में है। इसीलिए उसने अपने चेहरे पर गोदना गुदवाया हुआ है। जिसकी पत्नी यदि वह है तो कहीं लंदन में है। एडा का यदि किसी से यहाँ साम्य है तो वह केवल फ़्लोरा से है। निर्देशक ने एडा और फ़्लोरा को शुरु में आइडेंटिकल दिखाया है। दोनों के कपड़े, बोनट वाला हैट, चेहरे के हाव-भाव, गर्दन हिलाना सब एक जैसे हैं। दोनों एक-दूसरे की भावनाओं को भली-भाँति समझती हैं, एक-दूसरी की संगत में प्रसन्न रहती हैं। बाद में एडा की कामभावना जाग्रत होने पर दोनों का व्यवहार बदल जाता है। पियानो तीनों पात्रों को अलग-अलग पाठ पढ़ाता है। पति को पता चलता है कि प्रेम शक्ति और सत्ता से नहीं पाया जा सकता है। बाइन्स सीखता है कि कामभावना के वशीभूत हो कर किसी स्त्री को वेश्या बनाना सही नहीं है, उसे अपने कोलम पक्ष का भान होता है और एडा को पता चलता है कि पियानो से अधिक उसे बाइन्स से प्रेम है। वह उसकी भावनाओं का उचित प्रतिदान दे सकता है। १९९३ में बनी यह फ़िल्म दर्श्कों और समीक्षकों द्वारा हाथोंहाथ ली गई थी। असल में जेन अपनी पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘स्वीटी’ से चर्चित रही हैं। वैसे इसके पूर्व वे कई शॉर्ट फ़िल्में बना चुकी थीं। जो भी सिनेमा, माता-पिता, पिता-पुत्र, माँ-बेटी के आपसी संबंधों और सीमाओं के पार जाने की गुत्थियों में रूचि रखता है उसे जेन कैम्पिओन की फ़िल्में भाएँगी। वे पॉम ड’ओर सम्मान पाने वाली पहली महिला निर्देशक हैं। जब कॉन फ़िल्म समारोह की ५०वीं जयंति के अवसर पर पॉम ड’ओर के विजेता मंच पर आए तो मंच पर जेन एकमात्र महिला थीं। उनका मानना है कि फ़िल्म बनाना कठिन और संवेदनशीलता का कार्य है चाहे इसे पुरुष बनाए अथवा स्त्री। ‘द पियानो’ को आठ नामांकन मिले जिसमें से उसे तीन ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त हुए। होली हंटर को सर्वोत्तम अभिनेत्री, ११ साल की एना पाकुइन को सर्वोत्तम सहायक अभिनेत्री और खुद जेन को सर्वोत्तम मौलिक स्क्रिप्ट हेतु। पॉम ड’ओर की सफ़लता का उत्सव मनाने का अवसर जेन को नहीं मिला क्योंकि उसी समय उनके १२ दिन के बच्चे जेस्फ़र की मृत्यु हुई थी। बाद में उनकी बेटी एलिस पैदा हुई आज एलिस फ़िल्मों में काम कर रही है। खुद वे अपने दु:ख से अपने काम के द्वारा उबरीं। जेन को लगा उनका नया जन्म हुआ है जब उन्होंने जॉन कीट्स के ऊपर ‘ब्राइट स्टार’ बनाई। बीस साल से पियानो चर्चित फ़िल्म रही है अब इसे ब्लू-रे प्रिंट में फ़िर से रिलीज किया गया है। मैंने ऊपर लिखा है कि जेन की फ़िल्मों में उनके जीवन के अंश, खासकर उनके बचपन और पारीवारिक रिश्ते प्रदर्शित होते हैं। १९५४ में न्यूजीलैंड में जन्मी और आजकल ऑस्ट्रिल्या में रह रही एलीजबेथ कैम्पिओन जेन के माता-पिता थियेटर से गहराई से जुड़े हुए थे। ‘द पियानो’ का क्रिसमस पर दिखाया गया नाटक ‘ब्लूबीयर्ड’ उसी की आवृति है। पिता रिचर्ड कैम्पिओन निर्देशन करते थे और माँ एडिथ अभिनय। जिस तरह से ब्लूबीयर्ड अपनी पत्नी को कुल्हाड़ी से मार डालता है कुछ उसी तरह एडा का पति उसकी अँगुली कुल्हाड़ी से काट डालता है। जेन ने खुद एक स्त्री को अपना हाथ काटते हुए देखा था। इस स्त्री का पति बेवफ़ा था और इससे वह स्त्री अवसाद में थी, और उसने यह कदम उठाया। पति को तो रोक नहीं पाई लेकिन आत्महानि से उसे कोई रोक न सका। खुद जेन की माँ अवसादग्रस्त स्त्री थी और उसे मानसिक रोगियों के अस्पताल में बिजली के झटके दिए जाते थे। जेन ने अपने पिता की बेवफ़ाई और माँ पर उसका असर देखा है। एना और जेन बचपन में इन परिस्थितियों से गुजरी हैं। इसीलिए जेन की फ़िल्में बचपन की इन अनुभूतियों को पर्दे पर उतारती हैं। एक तरह से यह उनका कैथारसिस है, बचपन में मिले सदमों से उबरने की कोशिश। समाज स्त्री को कई तरह से अंगविहीन (बधिया) करता है। चुनाव की स्वतंत्रता न होना, अपनी बात न कह पाने देना, किसी से भी उसका विवाह कर देना, उसकी पसंदगी-नापसंदगी का महत्व न होना, उसके अस्तित्व को नकारना आदि स्त्री का बधियाकरण नहीं तो क्या हैं? ‘द पियानो’ में एडा के साथ ऐसा कई तरह से होता है। वह मूक है जिसका कारण स्पष्ट नहीं है, पिता ने उसे बेच दिया है, एक अनजान आदमी से उसका विवाह होना है, उसे एक नई जगह, अजनबी वातावरण में रहना है। उसकी प्रिय वस्तु पियानो दूसरों के लिए बेकार की वस्तु है, पियानो से उसका पति उसे दूर कर देता है, बिना उसकी अनुमति लिए हुए उसका पियानो जमीन के एवज में बाइन्स को बेच देता है। अंतत: उसका शारीरिक अंग-भंग भी करता है, उसकी अँगुली काट डालता है ताकि वह कभी पियानो न बजा सके। इस सबके बावजूद वह अपना स्त्रीत्व का दावा नहीं छोड़ती है। वह पितृसत्ता के विरुद्ध जाकर अपनी इच्छाओं की पूर्ति करती है। अपने पियानो को पाने के लिए बाइन्स से स्वतंत्र रूप से करार करती है, बाइन्स की ओर से कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की जाती है। वह उसे स्पर्श करने देती है तो अपनी मर्जी से। वह अपने शरीर की खुद मुख्तार है अत: उसका मनचाहा उपयोग करती है, जरूरत पड़ने पर उसे आर्थिक साधन के रूप में भी प्रयोग करती है। एडा अपने अस्तित्व को कायम करने के लिए अपनी ममता-मातृत्व को भी दाँव पर लगा देती है हालांकि इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ता है। अपना पियानो वापस पा लेती है। बाद में बाइन्स से प्रेम होने पर खुद को उसे समर्पित भी करती है। पति की प्रताड़ना के बावजूद प्रेमी को संदेश भेजती है, वह भी अपने प्रिय पियानो को नष्ट करके यह दीगर है कि संदेश प्रेमी के पास न पहुँच कर पति के पास पहुँचता है। जब उसे लगता है कि अब उसे पियानो की आवश्यकता नहीं है वह पियानो समुद्र में गिराने की जिद करती है और गिरवा कर मानती है। इस दृष्टि से वह एक मजबूत स्त्री है जिसे अपने स्त्रीत्व का ज्ञान है। फ़िल्म माँ-बेटी के रिश्तों की नजदीकी और जटिलता दोनों को सफ़लतापूर्वक दिखाती है। शुरुआत में अनजान प्रदेश में माँ-बेटी एक-दूसरे की संगत में न केवल महफ़ूज हैं वरन खूब खुश भी हैं। वे एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह से समझती हैं। स्त्रियों की नजदीकी का एक साधन है एक दूसरे के बाल संवारना। दोनों यह काम खूब प्रेम से करती हैं। फ़्लोरा शुरु में अपनी ममता बाइन्स के कुत्ते पर लुटाती है। कुत्ता और फ़्लोरा दोनों बाहर छोड़ दिए गए हैं। जब बाइन्स के लिए पियानो बजाते समय एडा फ़्लोरा बाहर खेलने का कठोर निर्देश देती है तब से फ़्लोरा की ओर से रिश्तों में दरार आ जाती है। यह खाई चौड़ी होती जाती है जिसका अंत बहुत भयंकर होता है। बच्ची इस परिणाम को देख कर दहल जाती है। फ़िल्म के अंत में नाव में फ़िर वे संग हैं और फ़्लोरा पहले की तरह एडा की आवाज बन कर दूसरों को उसकी बात समझा रही है। दोनों एक-दूसरे का एक्टेंशन लगती हैं। कभी फ़्लोरा एडा की पिछली जिंदगी के बारे में दूसरों को बताती है, कभी एडा से अपनी पिछले जीवन की कहानी बार-बार सुनाने का आग्रह करती है। बताई गई दोनों की पिछली जिंदगी कितनी सच है और कितनी कल्पना कह पाना कठिन है। कभी फ़्लोरा माँ को डाँटती है, कभी लाड़ करती है। तीसरे की उपस्थिति में वे ‘टच मी नॉट’ की तरह छूईमूई बन जाती हैं, सिकुड़-सिमट जाती हैं। फ़्लोरा की चाल-ढ़ाल बिल्कुल एडा की तरह है। फ़्लोरा भी पियानो बजाना जानती है, पियानो ट्यून है या नहीं पहचानती है। एडा के पहले पति और फ़्लोरा के पिता के बारे में कुछ बातें पता चलती हैं। वह संगीत रसिक था, विख्यात था, संगीत सिखाता था। जर्मन था, पता नहीं उसने एडा से शादी की थी या नहीं, अब वह उनके साथ क्यों नहीं है, ये बातें पूरी तौर पर जानबूझ कर स्पष्ट नहीं की गई हैं। एडा और फ़्लोरा मिल कर एक मिथक गढ़ती हैं इसमें परीकथा जैसा सौंदर्य है। जेन कैम्पिओन ने एडा को खुद गढ़ा है, एक स्त्री ने स्त्री को गढ़ा है। इसीलिए उसका प्रभाव इतन सघन है। जेन के अनुसार एडा उनकी हिरोइन है। फ़िल्म में पियानो की संगीत लहरी बहुत महत्वपूर्ण है। फ़िल्म के पहले हिस्से में जब भी एडा अकेली है या एडा और फ़्लोरा संग में हैं और दूसरे अनुपस्थित है पियानो की ध्वनि सुनाई देती है। शादी के बाद जब बाहर बारिश हो रही है एडा कल्पना में तट पर पड़ा अपना पियानो देखती है और पियानो की ध्वनि सुनाई देती है। बाइन्स एडा को तट पर पियानो बजाते देखता है तो वो एडा लीन हो कर पियानो बजाता हुआ पाता है। बाद में अपने घर में जब वह एडा को पियानो बजाते हुए देखता है वह उसकी ओर आकर्षित होता है। उसके मन में एडा के प्रति प्रशंसा का भाव है। फ़िल्म में पियानो ध्वनि-संगीत, स्पर्श और गंध का प्रतीक है। बाइन्स एडा को सुनता है, उसके वस्त्र सूँघता है और स्पर्श करता है, अंतत: वे एक दूसरे को स्पर्श करते हैं। कई वर्ष पहले एक विज्ञापन आया करता था, “स्त्रियाँ अपनी भावनाएँ कई तरह से प्रकट करती हैं...उनमें से एक है।” फ़िल्म ‘द पियानो’ स्त्री की कई भावनाओं को सफ़लतापूर्वक प्रकट करता है। इसके लिए फ़िल्म को कई बार देखना जरूरी है। क्लासिक्स की यही विशेषता है, उससे बार-बार गुजरना पड़ता है, हर बार वह अपना एक नया अर्थ खोलता है। 000