Friday, 27 May 2011

समाज का चेहरा दिखाता गम्मत

बहुत पहले रोहिंटन मिस्त्री का उपन्यास “सच ए लॉग जर्नी” पढ़ा था. उसमें इन्दिरा गाँधी की सभा की तैयारी, सभा और सभा के बाद का एक लम्बा दृश्य है. सत्यनारायण पटेल पाठकों को एक लम्बी यात्रा, “गम्मत” दिखाने ले चलते हैं. इस यात्रा में इतिहास, पुराण, मिथक, समाज और आज के समय की राजनीति, समाजशास्त्र, संस्कृति, रीति-रिवाज, शिक्षा, पर्यावरण के दर्शन होते हैं. इस यात्रा के दौरान दो फ़िल्में बन रही हैं. एक जो सब कुछ चैनल के मुताबिक बना कर बंशी को अपने चैनल देनी है. चैनल अपने मनमाफ़िक स्टोरी चाहते हैं. दूसरी ज्यादा स्वतंत्र जो बंशी के मन में बन रही है जिसे यदि मौका मिला तो वह उपयोग करेगा. बंसी की आँखें वह सब समेटती हैं जो उसका कैमर भी नहीं समेटता है. कहानी कहने के लिए कहानीकार पटेल ने दिमाग की स्क्रीन पर खिंची फ़िल्म और नजर से खींचे गए चित्रों का उपयोग किया है.
बंशी केवल कैमरे से ही फ़ोटोग्राफ़ी नहीं करता है, बल्कि जैसे कैमरा खामोशी से अपने भीतर, बाहर का शोरगुल समेटता रहता है, वैसे ही बंसी भी अपनी नजरों से बाहर का नजारा अपने भीतर समेटता रहता है. बंसी जन्म से है तो भील पर वह आम भीलों से थोड़ा अलग है. वह अलग सोचता भी है. असल में वह भिलाला यानि भील औरत तथा राजपूत पुरुष के संबंध से उत्पन्न संतान है. टिप्पणी है कि कभी सुना नहीं गया कि कोई राजपूत औरत और भील पुरुष की संतान हो. यहाँ संकेत है अत्याचार गरीब औरत पर होता है. बंसी प्रदेश के एक टीवी चैनल के लिए वीडिओग्राफ़ी करता है. इसी काम के लिए वह मुख्य मंत्री की प्रदेश बनाओ यात्रा पर काफ़िले के संग चल रहा है.

वीडियोग्राफ़र बंसी बहुत कल्पनाशील है. वह जीप में होकर भी जीप में नहीं है. उसके मगज की स्क्रीन पर समय-समय पर कई फ़िल्में चल रही हैं. कभी इतिहास साकार हो जाता है. कभी समाजशास्त्र, कभी वह राजनीति में उलझता है. कभी त्योहार की मस्ती में कुर्राटी भरने लगता है. इतिहास से निकल कर अलीया भील, बिरसा मुंडा, और चन्द्रशेखर आजाद उसके जोश को बढ़ा रहे हैं. सीधे-सादे भील विद्रोह पर उतारू हो जाते हैं. बाँसुरियाँ बन्दूक बन जाती हैं और तीर धनुषों ने खूँटी पर टँगे रहने से इन्कार कर दिया है.

चन्द्रशेखर आजाद आते हैं क्योंकि सी एम जी ने भाबरा में आजाद द्वार, आजाद मंदिर और जिले का नाम चन्द्रशेखर आजाद नगर करने की घोषणा कर दी है. कहानीकार बताता है कि कैसे राजा आनन्द देव राठौर ने अलीया भील को हरा कर अम्बिकापुर का नाम आनन्दवाली रखा जो लोगों की जुबान पर चढ़कर आली हो गया. वही आज पालीराजपुर (यह कुछ जमा नहीं आली भला कैसे पाली में परिवर्तित हो सकता है?) है. और इसी तक मुख्य मंत्री की शोभा यात्रा है. मुख्य मंत्री प्रदेश बनाओ के तहत कई फ़लिए की यात्रा पर हैं, जिसमें यह तमाम गम्मत हो रही है. जब एक युवक चन्द्रशेखर के वेष में स्टेज पर चढ़ता है और मंत्री के चरण छूता है तो बंसी खुद से संवाद करता है,
“क्या आज असली चन्द्रशेखर आजाद होते तो वह सी एम जी के चरणों में सिर झुकाते?
नहीं वह ऐसा हरगिज नहीं करते.
- फ़िर ?
- शायद यह गम्मत देख कर उसका खून खौल उठता.
- फ़िर ?
- शायद तिरसठ साल से इस क्षेत्र को अनपढ़, पिछड़ा बनाए रखने की साजिश करने वाली साम्राज्यवादी व्यवस्था के सी एम जी की फ़ालिए से गरदन उतार लेता.”
जीप में ड्राइवर सोमु भील और डामोर की बातचीत में अमेरिका की चौधराहट तथा नेताओं की खाली माली नौटंकी जिसमें करोड़ों का सत्यानाश होता है, पर व्यंग्य है. महुआ और ताड़ के रस के ड्रम के ड्रम भर कर भीलों के लिए रखे जाते हैं ताकि उन्हें गले गले तक रस में भर कर नेता की सभा में भीड़ दिखाने के लिए बैठाया जाए. यदि कोई भील कुछ पूछने का प्रयास करता है तो उसे नेता और पार्टी के कार्यकर्ता जबरदस्ती हाथ खींच कर बैठा देते हैं और कोई इसके बाद भी कुछ हिम्मत करता है तो इन्तजाम में लगे पुलिस वाले पिछवाड़े ले जा कर उसकी गत बना डालते हैं तो फ़िर वह कहीं नजर नहीं आता है. आखीर पुलिस को शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए रखा गया है.

कैसी विडम्बना है, इधर कार्यकर्ताओं द्वारा भीलों को शराब के नशे में धुत रखा जाता है, उधर नेता मंच से शराबबन्दी की अपील कर रहा है. पिछली पार्टी के नेता ने शराब बाँटी थी इसके उलट नेता को बोलना ही है. मगर जब उनको याद दिलाया जाता है कि शराबबन्दी से उनका नुकसान होगा जनता नशे में नहीं होगी तो अपने अधिकार माँगने लगेगी. भीलड़े अगर विद्रोही हो उठेंगे तो उन्हें सम्भालना मुश्किल होगा. दो ढ़ाई सौ जिलों में उन्होंने पहले ही नाक में दम कर रखा है. तो नेता सम्भल कर दूसरी बातों पर जोर देने लगते हैं. बड़ी लम्बी गम्मत है, सी एम कई जिलों का दौरा करने निकले हैं. आम जनता का दु:ख दर्द जानने पहचानने और बाँटने. जनता से मिलकर प्रश्न पूछते हैं मगर उत्तर सुनने के पहले आगे बढ़ जाते हैं. जनता का आशीर्वाद लेते, नहीं छीनते हुए नेता और उनके चमचों में से कोई नहीं देखता है कि डोकरी की पचास रुपए की बहुत मुश्किल से खरीदी गई दाल बिखर गई. उसका कोई गवाह नहीं है. उसे हर्जाना दिलाने की बात कोई नहीं सोचता है. ठीक वैसे ही जैसे तिरसठ सालों से गुड़कती विकास की गाड़ी के पहियों को सोमलाओं की गर्दन पर से गुजरते किसी ने नहीं देखा. कोई गवाह नहीं.

गाँव की गरीब, अनपढ़ आदिवासी जनता का उपयोग भीड़ जुटाने और मनोरंजन के लिए होता है. उनकी संस्कृति और वे खुद मात्र प्रदर्शन की वस्तु हैं. परम्परा को जीवित रखने के नाम पर जिन्दगी पर खतरा मंडरा रहा है. सी एम प्रदर्शनी देखते हैं. कला की तारीफ़ करते हैं, बाँसुरी बजाने का नाटक करते हुए फ़ोटो खिंचवाते हैं. उनकी लाड़ी (पत्नी) साथ हैं. वे भी प्रदर्शनी में रखे जंगली फ़ल कुतरती हैं. ज्यों-ज्यों यात्रा आगे बढ़ती है सी एम की सभा और उसमें कही उनकी बातों की लम्बाई कम होती जाती है. वे भ्रष्टाचार पर लगाम कसने, विकास दर ऊँची करने, बच्चों की शिक्षा के प्रति चिन्ता करने, लोगों से उन्हें योगदान करने की अपील करते हैं. हर सभा में जनता से प्रतिज्ञा कराते हैं, जिसका उनके कार्यकर्ताओं द्वारा आदिवासी भेष में बैठाए गैर-आदिवासी जोर-शोर से अनुमोदन करते हैं और नारों के शोर से धरती आसमान गूँज उठते हैं, नेता का काफ़िला आगे बढ जाता है. जनता उसी बदहाल हालत में पीछे रह जाती है.

कैसी सज-धज से सी एम जी का काफ़िला चल रहा है. उनकी कार के आगे पीछे सुरक्षा के लिए पाँच छ: गाड़ियाँ चल रही हैं. उसके पीछे करीब सौ सवा सौ कारों का काफ़िला दौड़ता आ रह है. वार्नर गाड़ी के आगे जन संपर्क कार्यालय की गाड़ी प्रदेश के विकास का गीत बजाती चल रही है. इन गाड़ियों से करीब एक किलोमीटर दूर कार्यकर्ताओं की गाड़ियाँ हैं जो आगे तमाशा जमाने का इन्तजाम करने, व्यवस्था जमाने जा रहे हैं. जब मत्री पर फ़ूलों की वर्षा की जाती है तो बंसी को माखनलाल चतुर्वेदी की कविता याद आती है, उसे फ़ूलों की अभिलाषा और उनकी दुर्दशा पर दु:ख होता है. उसे उनका सिसकना सुनाई देता है. कुछ दूरी मंत्री हेलीकोप्टर से पूरी करते हैं. तबका दृश्य बहुत विस्तार और सूक्ष्मता से चित्रित किया है सत्यनारायण पटेल ने. खूब भीड़ जुटी है. मगर ज्यादातर भील मंत्री नहीं उड़नखटोला देखने आए हैं. पूरी कहानी में मीडिया और मीडियाकर्मी की भी खासी खिंचाई की गई है. गौरतलब है कि पटेल साहित्यकार होने के साथ-साथ खुद एक मीडियाकर्मी हैं. वे मीडियाकर्मी को आज का नारद कहते हैं जो सत्ता के टुकड़ों पर पलता है. पूरे रास्ते डमोर सी एम का गुणगान करता रहता है, कारण है उसे सी एम के जीवन की डॉक्यूमेंट्री दिखाई गई थी. आज के नेता मीडिया का भरपूर उपयोग करना जानते हैं.

गम्मत में भीलों की उत्पत्ति और इतिहास, संस्कृति को उकेरा गया है. महादेव शिव के दो बेटों में से एक गरम मिजाज बेटे की संतति हैं. एक दिन गुस्से में वह पर तीर चला देता है और पिता महादेव उसे गुस्से में आकर अपने आश्रम से भगा देते हैं. बंसी सोचता है कि वह महादेव नहीं कोई ढ़ोंगी साधु या फ़रारी काटने वाला रहा होगा जिसने किसी सुन्दरी को अपने जल में फ़ंसाया होगा. बाल्मीकि जिसका नाम वालिया भील मान जाता है वह भी बंसी यानि भीलों के एक वंशज के रूप में चित्रित हैं. कृष्ण ने यादवों के साथ मिल कर गुजरात की ओर से भीलों पर हमला किया जिसके बदले में भीलों ने कृष्ण की जीवनलीला समाप्त कर दी. राम काल में वे निषाद के रूप में उपस्थित हैं. राम ने राजा बनने पर भील को सम्मान दिया और आज क्या होता है ? उन्हें ट्रक, बस या ट्रेन में भर कर हर समारोह में नचाने के लिए बुला लिया जाता है. राजनेता जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप कहते हैं और काम निकल जाने पर लात मार कर भगा देते हैं. आस्ल में नेताओं से ज्यादा उनके कार्यकर्ता दमन, शोषण और बेईमानी करते हैं. वे जनता को मंत्री तक पहुँचने नहीं देते हैं उसे अपनी सुरक्षा के घेरे में लिए रहते हैं. वही दिखाते करते हैं जिसमें उनका अपना स्वार्थ सधता है. वे चारण हैं. चापलूसी करके अपना स्वार्थ साधते हैं. गम्मत की पंक्ति है, इक्केसवीं सदी का/ देखो ठाठ/ खड़ी सोमला की खाट/ फ़ले फ़ूले चारण भाट. प्रजातंत्र चारण भाटों का राज्य बन कर रह गया है.

कहानी आज की शिक्षा व्यवस्था पर भी दृष्टि रखे हुए है. बंसी की बीबी और उसका दोस्त गोसेन कौन से अपने मनमाफ़िक पढ़ाते हैं...जो पिंजरा मैकाले ने बन दिया है... उसी में चक्कर काटते हैं...जो सिलेबस शिक्ष माफ़िया ने थोप दिया है...उसी का रट्टा लगवाते हैं... बंसी खुद ग्यारहवीं पास है उसने वीडियोग्राफ़ी का कोर्स किया हुआ है. इसीलिए उसने अपने दोस्तों की तरह गुलाल लगा कर लाड़ी नहीं चुनी बल्कि एक निमाड़न फ़ूलमती मास्टरनी से कोर्ट में शादी की है मगर अभी उसमें भीलों का काफ़ी कुछ बाकी है. उसका दोस्त सोमला भील स्कूल नहीं जाता है. सोमला अशिक्षित भीलों का प्रतीक है जिसे किसी भी दिशा में हाँका जा सकता है, जिनकी भूखी बीमार आवाज में मजबूत घेरे को भेदकर सी एम के कानों तक जाने की कूबत नहीं है. हिन्दी में बोली पूछी गई बातें उनके भीतर प्रवेश नहीं करती हैं. इसी कारण उनका यह हश्र है, कोई भी उन्हें रोंदता कुचलता हुआ आगे जा सकता है. ताड़ और महुए का रस देकर उनसे कुछ भी कराया जा सकता है. उनकी नशाखोरी का नेता फ़ायदा उठाते हैं. भीलों को घोषणाओं से कोई लेना देना भी नहीं है. वे तो नशे में धुत्त हैं और जैसे वे नाचने, ढोल, माँदल, बाँसुरी बजाने और कुर्राटी भरने को ही धरती पर पैदा हुए हैं. कहानीकार को चिन्ता है, सोमला की तन्द्रा कब टूटेगी? अशिक्षा का अंधेरा कब छँटेगा? जब बंसी मंत्री से प्रश्न और तर्क करने की हिम्मत करता है तो उसे इशारे से रोका जाता है और इस पर भी जब वह बाज नहीं अता है तो धमकी और भय दिखाया जाता है.

महाभारत के संजय की तरह बंसी और बंसी के माध्यम से कहानीकार सब समेटता, देखता दिखाता चलता है. उसे बचपन के खेल, किशोरावस्था में लड़के लड़की का एक दूसरे के प्रति आकर्षण, नाच गाना, तीज त्योहार, मेले, खेत-खलिहान, किस्से-कहानी, लोकगीत, लोक नृत्य, रीति रिवाज, राजनीतिज्ञों की चालबाजियाँ, देश की दुर्दशा, नेताओं का भ्रष्टाचार, स्त्रियों पर उनकी कुदृष्टि, मंच से किए गए उनके झूठे वायदे, सब चलचित्र की भाँति नजर आते हैं और वह इन रंग बिरंगे दृश्यों को पाठक को अपनी विशिष्ट बोली-बानी में दिखाता चलता है.

पटेल अपनी कहानियों में विद्रोह का मंत्र अवश्य देते हैं. एक और विशेषता है उनकी वे प्रतिरोध में स्त्री पुरुष दोनों को शामिल करते हैं. गम्मत इस मामले में थोड़ी अलग है. गम्मत कहानी का अंत भी क्रांति के दृश्य से होता है जहाँ निराला का मतवालापन है, शिव की मस्ती है और क्रांतिकारियों का बाना है. बंसी अपने भीतर देख रहा है, खुद के पैरों में भी घुँघरू बंधे हैं, बदन पर कपड़ों के नाम पर फ़ाटली चड्डी और बुशर्ट है. भीतर रोशनी का झरना झर रहा है....कुछ आदिवासियों ने अपने हाथ या फ़िर पैर के अँगूठे को तीर से चीर लिया है और केसरा भील, छीतू भील, भुवान तड़वी के वंशजों के भाल सुर्ख खून से तिलक कर रहे हैं. यह गद्दी पर बैठने की तौयारी है. पढ़कर फ़्रांस की क्रांति की याद हो आई जहाँ भूखी नंगी जनता ने तख्ता पलट डाला. यहाँ भी भील गद्दी पर बैठने की तैयारी में हैं. देखना है कब आएगा यह दिन. देश, समाज और दुनिया का जो हाल है उसमें किसी दिन ऐसा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. जाने क्यों इस प्रतिरोध की गम्मत में उन्होंने भीलनियों को अंत में शामिल नहीं किया है. शुरु और मध्य में वे हैं, मगर अंत में नदारत हैं.
सत्यनारायण पटेल यहाँ अपनी पूरी धज में उपस्थित हैं. हिन्दी कहानी में आदिवासी समाज बहुत कम देखने को मिलता है जबकि भारत में उनकी खासी बड़ी संख्या है. मुझे यह कहानी इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि कई वर्षों से मेरे घर में “भील भारत” पर शोधकार्य चल रहा है. भील भारत व्यास रचित महाभारत से बहुत भिन्न मौखिक परम्परा का अंग है. भीलों का अपना रचा महाभारत है जहाँ सब वर्तमानकाल में चलता है. उसके नायक-नायिकाएँ मूल महाभारत से बहुत भिन्न हैं. जीवन्त हैं. गम्मत भी बहुत जीवन्त कहानी है. भीलों के जीवन से परिचित करा कर हिन्दी साहित्य को आगे बढ़ाने वाली उसे समृद्ध करने वाली. अपने समय और समाज पर अँगुली धरने वाली. कथन रस से सराबोर हाशिए पर पड़े लोगों को संवेदनशीलता के साथ कथा साहित्य के केन्द्र में लाती हुई. इसमें भीलों के इतिहास का रचनात्मक मूल्यांकन है. व्यवस्था का चेहरा नंगा करती गम्मत आजादी के इतने दशक बाद भी यहाँ की जनता का असली हाल वर्णित करती है. यह न केवल प्रतिकूलताओं की तस्वीर खींचती है वरन प्रतिरोध का स्वर और स्वप्न भी प्रस्तुत करती है.

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Tuesday, 24 May 2011

मैकलुस्कीगंज: विलुप्त होती संस्कृति का सागा

मैकलुस्कीगंज एक अनूठा उपन्यास है. अनूठा इस अर्थ में कि यह हिन्दी का पहला उपन्यास है जो एंग्लो इंडियन समाज की कथा कहता है. सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा पर्यावरण की समृद्धि का दस्तावेज. यह स्थानीय एवं सार्वदेशीय समस्याओं से पाठकों को रू-ब-रू कराता है, समाधान की ओर भी इंगित करता है. इंगित करता है कि जमीन, जंगल का संरक्षण किसी एक व्यक्ति की नहीं वरन सामूहिक जिम्मेदारी है.

मैकलुस्कीगंज को झारखंड (पहले के बिहार) के इस भूभाग में इस समुदाय के रहने के लिए विशेष रूप से बसाया गया एक गाँव है जिसे पिछली सदी के तीसरे दशक में यत्नपूर्वक एक खास मकसद के साथ अर्नेस्ट टिमोथी मैकलुस्की ने राँची और पलामू के बीच बसाया था. मगर बीस बाइस साल में ही जो उजड़ने लगता है, ’घोस्ट टाउन’ में बदलने लगता है. गाँव जहाँ हृषिकेश सुलभ के शब्दों में एक-एक साँस के लिए संघर्ष करना पड़ता है. अस्मिता और रोजगार का गहन संबंध है जो बिना संघर्ष के प्राप्त नहीं होता है. यह इसी संघर्ष - स्थानीय तथा बाहर से आकर बसे लोगों के साझा संघर्ष - की गाथा है.

क्षेत्र के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं लेखक विकास कुमार झा. एंग्लो इंडियन समुदाय और आदिवासी समाज के इतिहास को खंगालता यह कथावृत दोनों समुदायों के प्रमुख व्यक्तियों को रेखांकित करता है. रक्त, वीर्य और स्वेद से सम्मिलन से बना ‘गंज’ यूटोपिया नहीं है. जब-जब लेखक कल्पना की उड़ान भरने लगता है, यथार्थ उसे जमीन पर ला पटकता है. इस क्षेत्र में राजनीति के अपराधीकरण (विकास की चर्चित पुस्तक का नाम ही है ‘बिहार राजनीति का अपराधीकरण), मशरूम की तरह उगे और अमरलता की तरह फ़ैलते-बढ़ते, नागफ़नी की तरह काँटेदार एम सी सी को भी लेखक इशारे में ही सही पर समेटता है.

एक विस्तृत काल खंड को समेटे यह उपन्यास एक विशाल फ़लक पर रचा गया है. इसमें मानवीय मूल्यों, अनुभूतियों को प्रमुखता दी गई है. लेखक निरी भावुकता से भी बचता रहा है. डेनिस मेगावन के अनुसार गाँव का मतलब है इंडियननेस, देहातीपन और सादगी. यही सादगी इस उपन्यास की भी विशेषता है. आज एंग्लो-इंडियन समुदाय विलुप्ति के कगार पर है, यही हाल आज के झारखंड के आदिवासियों (अन्य स्थानों के आदिवासियों की भी कमोवेश यही स्थिति है) का है. यह समाप्तप्राय: कौम, विलुप्त होती संस्कृति और विनिष्ट होते पर्यावरण का संवेदनापूर्ण सागा है.

इस उपन्यास का महत्व एक अन्य कारण से भी बढ़ जाता है. सन १९११ में सरकारी तौर पर अंग्रेजों ने एंग्लो इंडियन समुदाय के रूप में इन लोगों को विधिवत मान्यता दी थी. इस तरह यह इनका शताब्दी वर्ष भी है. शताब्दी वर्ष में आए इस अनोखे उपन्यास, एंग्लो इंडियन के महाकाव्य का हिन्दी जगत में स्वागत है.

Wednesday, 4 May 2011

डा. अचला शर्मा का कथा संसार

कहानी का परिदृश्य में राजेन्द्र यादव कहते हैं, “विशिष्ट रचना हमेशा अपने कथ्य और अनुभव क्षेत्र में कुछ नया जोड़ती है.”

डा. अचला शर्मा की कहानियाँ इस अर्थ में विशिष्ट हैं क्योंकि उनका कथ्य तथा अनुभव क्षेत्र हिन्दी कहानी को समृद्ध करता है और उसे एक नई दुनिया, प्रवासी दुनिया से जोड़ता है. उनका रचना संसार बहुत गहन और विस्तृत है. गहन इस अर्थ में कि वे पात्रों के मन की गहराइयों में उतर कर उनके मन में चल रही उथल-पुथल का बहुत गहनता से अध्ययन करती हैं. मानवीय संबंधों के बीच के तनाव को बड़ी शिद्दत के साथ पाठकों तक संप्रेषित करती हैं. संवेदना के साथ अपनी कहानियाँ रचती हैं. विस्तृत इस अर्थ में कि वे एक विहंगम दृश्य रचती हैं. उनकी व्यापक दृष्टि मनुष्य मात्र पर है. भौगोलिक रूप से कहानियों का विस्तार भारत और इंग्लैंड के साथ कई अन्य देशों को भी अपने आप में समेटे हुए हैं. वे इंग्लैंड में रहती हैं सो इंग्लैंड तो यहाँ है ही, भारत का उनकी कहानियों में आना स्वाभाविक है. इसके साथ-साथ उनके यहाँ पाकिस्तान, स्कॉटलैंड और जिनेवा भी नजर आता है. उनकी दुनिया इंग्लैंड प्रवासी की अनुभवजन्य और अनुभूतिप्रसूत दुनिया है. जिनसे गुजरते हुए हिन्दी का आम पाठक दूर-दराज की जीवन शैली से परिचित होता है. वहाँ की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों को जानने समझने का अवसर पाता है. प्रवासी के मन में चल रही उथल पुथल, उसकी चिन्ता, सोच समझ को महसूस करने का मौका पाठक को मिलता है. उनके यहाँ प्रवासी की निरी भावुकता नहीं है. वे भूमंडलीकरण के दौर के समय और समाज को तटस्थता के साथ प्रस्तुत करती हैं. इंग्लैंड के साथ अपने मूल देश भारत और उसके पड़ोसी देश पाकिस्तान पर खासतौर से उनकी दृष्टि है. वैसे भी जब आप दूर से देखते हैं तो नजरिया व्यापक और वस्तुनिष्ठ हो जाता है. स्वयं उनका कहना है, “प्रवास सिर्फ़ नॉस्टेल्जिया का पर्याय नहीं है. प्रवास लेखक को अपने देश के सामाजिक-राजनीतिक बदलावों को देखने और समझने की तटस्थ दृष्टि भी देता है.” वे मानवीय संबंधों के पार जाकर मानवीय संवेदना का चित्रण करती हैं.

उन्होंने “रेसिस्ट” * कहानी में पाकिस्तान और पाकिस्तानियों को एक देश और मनुष्य के रूप में चित्रित किया है, आतंकवादी के रूप में नहीं. उनके लिए मानवीय मूल्य सर्वोपरि हैं. वे आज के मुद्दों पर कहानी रचती हैं. रेसिस्ट आतंकवाद का क्रूर, कुफ़ल भुगत रहे सामान्य आदमी के भय का चेहरा दिखाने वाली कहानी है. जबकि “मेहरचंद की दुआ” गैरकानूनी ढ़ंग से प्रवास कर रहे व्यक्ति की ऊहापोह से पाठक को परिचित कराती है. महरेआलम अपनी समस्त जमापूँजी दाँव पर लगा कर बेहतर जिन्दगी की तलाश में छ: महीने का टूरिस्ट वीजा लेकर लंदन आया था और छ: महीने पार होने के बाद गुमनामी की जिन्दगी बिता रहा है. “अब वह इस मुल्क में है भी, और नहीं भी... बिना वजूद के एक बेनाम जिन्दगी बसर कर रहा है...खौफ़ हमेशा बना रहता है कि किसी ने खबर कर दी तो पकड़ कर वापस भेज देंगे.” सारी कमाई जेब में जाती है टैक्स नहीं देना पड़ता है. मगर “इस बात से डरता रहा है कि कहीं बीमार पड़ गया और किसी अस्पताल में जाना पड़ा तो सारी पोल खुल जाएगी...किसी झगड़े में नहीं पड़ता. बस अपने काम से काम रखता है.” इस पर भी उसे जिल्लत का अनुभव होता है, वर्ल्ड सेंटर गिरने के बाद उसके सामने अक्सर मुसलमान कौम और पाकिस्तान को गालियाँ दी जाती हैं. और “जब लंदन के अन्डरग्राउंड में बम फ़टे थे तो आए दिन कोई न कोई मुसलमानों की ऐसी तैसी करता था.” यहाँ तक कि उस पर कटाक्ष करते हुए कहा जाता है, “मुसलमान अगर हिन्दू का भेस बदल कर आ जाए तब भी उस पर भरोसा नहीं करना चाहिए.” वह कट कर रह जाता है. खून का घूँट पी कर भी चुप रहता है. वह कहना चाहता है, “न सारे मुसलमान दहशतगर्द हैं और न ही सारे दहशतगर्द पाकिस्तानी.” मजबूरी में वह नवीन भाई की दुकान पर मेहरचन्द के नाम से नाई का अपना पुश्तैनी काम कर रहा है. कहानीकार ने प्रवास और उसके अन्तर्द्वन्द्व को समझने की कोशिश की है. आम इंसान के लिए दो शाम की रोटी का इंतजाम ही उसका दीन ईमान है “बाकी सब अल्लाह मियाँ जाने.”

वातावरण का मतलब है रचनाकर का अनुभव जगत. जिसमें भौतिक परिवेश का प्रमुख हाथ होता है. मौसम, युद्ध-शान्ति, धर्म, आर्थिक दबाव लेखक की सृजनात्मकता को आकार देने वाले कारक होते हैं. वातावरण का प्रभाव तात्कालिक होता है. “रेसिस्ट” में धर्म और आतंकवाद जैसे तात्कालिक कारक तनाव की सृष्टि करते हैं. आर्थिक दबाव के कारण महरेआलम/मेहरचंद का सृजन हुआ है और भौतिक परिवेश का एक प्रमुख कारक मौसम कहानीकार को “चौथी ऋतु” जैसी अनोखी कहानी की रचना के लिए प्रेरित करता है.

अपनी प्रिय कहानी “चौथी ऋतु” में वे आज के व्यस्त जीवन में बुजुर्गों की स्थिति का जायजा लेती है. यह प्रवासी लेखक द्वारा लिखी जाकर भी प्रवासी कहानी न होकर प्रवासी अनुभवप्रसूत कहानी है. इस कहानी का परिवेश तो विदेशी है ही सारे पात्र, उनकी संवेदनाएँ, सभ्यता-संस्कृति, मूल्य व्यवहार सब विदेशी हैं. जीवन और वृद्धावस्था को देखने का उनका दृष्टिकोण भी विदेशी है. “जैसे जैसे बुढ़ापे की पदचाप सुनाई पड़ने लगती है, चुनने की आजादी खतम होने लगती है. रह जाती है एक संकरी गली – वह भी आगे से बंद.” सुखी जीवन व्यतीत करने के बावजूद लिंडा, पीटर, रोज़मेरी और लॉरेंस आज एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त हैं. एक कटु सच्चाई जो आज भारत में भी जड़ जमा रही है. क्रिसमस का त्योहार है. लंदन में तीस साल में इतनी बर्फ़ पहली बार गिरी है. सब कुछ जम गया है. रिश्ते भी. कहानीकार इस कहानी के संबंध में अपने वक्तव्य में कहती हैं, “क्रिसमस के महीने को झेलने के लिए जरूरी है कि आप जवान और तंदुरुस्त हों, आपका बड़ा सा परिवार हो या बहुत सारे दोस्त हों.” कहानी के सारे पात्र बूढ़े और एकाकी हैं. कहानीकार का कमाल है कि इस सर्द मौसम में भी वह अजनबियों के बीच रिश्तों की गरमाहट पैदा करती है. मौत के साए को दूर हटा कर जिन्दगी को खुशहाल बनाती है. यह कहानी इस मिथक को खारिज करती है कि प्रवासी कहानियाँ मात्र गृहातुरता का राग हैं. यह दिखाती है कि अचला शर्मा की सजग व्यापक दृष्टि सूक्ष्मता से अवलोकन करती है और देशकाल के पार जाकर अपने कथ्य को प्रस्तुत करती है. इसी कारण वे एक विशिष्ट कहानीकार की श्रेणी में रखे जाने की हकदार हैं. एक संवेदनशील रचनाकार होने के नाते उनके लिए देशकाल से ज्यादा मायने रखती हैं मानवीय अनुभूतियाँ.

“दिल में कस्बा” पीढियों तथा संस्कृति के द्वन्द्व को प्रदर्शित करती है. “उस दिन आसमान में कितने रंग थे” * वैवाहिक जीवन की विडम्बना और त्रासदी को चित्रित करती चलती है. उनकी कहानियाँ एक विशाल फ़लक पर मानवीय मूल्यों का साक्षात्कार कराती हैं. उनका कथा परिवेश कहानी समाप्त होने के काफ़ी बाद तक पाठक के साथ रहता है. पाठक पात्रों के साथ विचरण करता रहता है, उनसे संवाद करता रहता है. अचला शर्मा एक इंटरव्यू के दौरान कहती हैं, “जीवन का कौन सा अनुभव है जो अपना नहीं है. जो मैंने जीया वह तो निज का है ही. जो जीवन कोई दूसरा जीता है, वह भी उस वक्त मेरा, निज का हो जाता है जब मैं लेखक के रूप में उसे जीती हूँ. कहने का मतलब यह है कि हम जिस परिवेश में सांस लेते हैं, जिन लोगों से मिलते हैं या वे जो हमारे जीवन को दूर से अपनी परछाई से छूकर निकल जाते हैं, वे सभी हमारे निज की जीवन परिधि में आ जाते हैं. इस नाते मैं यही समझती हूँ कि मेरी प्रेरणा का स्रोत मेरे आसपास का परिवेश, उसमें जीते, सांस लेते पात्र और उनके साथ मेरा संपर्क रहे हैं.” लंदन के परिवेश में रह रही कहानीकार का अनुभव व्यापक है. उनके अनुभव क्षेत्र में भारतीय, पाकिस्तानी, अरब, स्कॉटिश, ब्रिटिश सब आते हैं. ये उनकी रचना के प्रेरणा स्रोत हैं.

पड़ोसी पाकिस्तान से हमारे राजनैतिक रिश्ते चाहे जैसे भी हों साहित्यिक और मानवीय रिश्ते काफ़ी मजबूत रहे हैं. प्रवास में ये रिश्ते और भी ज्यादा करीब आ जाते हैं. इसीलिए अचला शर्मा की कहानियों में हमें कभी महरे मिलता है. कभी ट्रेन में मुस्लिम युवक दीखता है. इनकी कहानियों में प्रवासी देश के सरोकार दिखाई देते हैं. लंदन का माहौल, स्थितियाँ, सभ्यता-संस्कृति स्वाभाविक रूप से उनकी कहानियों में आती हैं. आज के भूमंडलीकरण और आतंकवाद के दौर का लंदन उनके जीवन की सच्चाई है और वह पूरी शिद्दत से उनकी रचनाओं में आता है. भारत आता है मगर मात्र गृहातुरता के रूप में नहीं आता है. हाँ गृहातुरता को लेकर “बेघर” जैसी कहानी भी उन्होंने लिखी है. अंडरग्राउंड रेल में विस्फ़ोट के अगले दिन के सहमे संकुचे माहौल का चित्रण “रेसिस्ट” इतना स्वाभाविक बन पड़ा है कि पाठक उस तनाव को शिद्दत के साथ अनुभव करता है. स्थिति इतनी भयावह है कि पुलिस किसी को भी पूछताछ के नाम पर उठा कर ले जा सकती है.
कहानियाँ हमें प्रवासी समाज, परिवेश से रू ब रू कराती हैं, प्रवासी जीवन से परिचित कराती हैं. गैरकानूनी तरीके से किसी देश में प्रवेश करने वालों और वहाँ रह रहे लोगों के अहसास बहुत खूबी के साथ बारीकी से बुनती हैं. अहसास बोलते हुए सुने जा सकते हैं. “मेहर चंद की दुआ” का पहला अनुच्छेद उसके दोनों नामों के साथ उसकी दिक्कत, पहचान के संकट, देश, धर्म, भाषा बोली से पाठक को परिचित करा देता है. एशिया के लोग मेहनती हैं. खासकर भारत और पाकिस्तान के लोग. पर हालात ऐसे हैं कि अपने देश में मेहनत करके भी जीवन की भौतिक खुशहाली प्राप्त नहीं की जा सकती है. आज का प्रवासी अपना देश छोड़कर बेहतर जीवन की तलाश में इंग्लैंड जाता है. वहाँ मेहनत से अच्छी आमदनी हो सकती है. होती है. मेहर बाल काट कर भी इस स्थिति में है कि स्वास्थ्य बनाने के लिए जिम जा सकता है. फ़्लैट में रह सकता है. अपनी बीवी को हर महीने बच्चों की परवरिश के लिए अच्छी खासी रकम अपने मूल देश भेज सकता है.

गर्भनाल ४८ में अपने साक्षात्कार में वे कहती हैं, “एहसास तो वही होते हैं जो लेखक में अपने अनुभवों, सामाजिक सरोकारों और बदलावों से पैदा होते हैं. बस ये एहसास अलग अलग विधाओं में पानी की तरह ढल कर अलग अलग शक्ल अख्तियार कर लेते हैं. अपने आसपास के समाज और पात्रों को समझने और उन्हें उनके परिवेश में, उनकी परिस्थितियों में रखकर उनकी तमाम खूबियों और खामियों के साथ, उनके साथ न्याय कर पाना, हर लेखक के लिए पहली और आखिरी अनिवार्यता है.” इस पहली और आखिरी अनिवार्यता पर वे खरी उतरती हैं.

अचला शर्मा अपने रेडियो नाटकों के लिए अधिक जानी जाती हैं. सुधीश पचौरी उनके नाटकों पर लिखते हुए कहते है, “एक खुला खुला ग्लोबल नजरिया, एक सख्त किस्म की मानवीयता, गहन संवेदनशीलता, जीवन के मार्मिक प्रसंगों की गहरी पहचान, बदलते समय की अनंत जटिलताओं के भीतर प्रवेश कर उनकी परतों को खोलना, प्रवास, प्रवासी अस्तित्व और जीवंत जगत के मानवीय दानवीय मूल्यों को पहल दर पहल खोलते जाने वाली अचला को इन नाटकों के जरिए इस लेखक ने एक बार फ़िर जाना है.” मगर यही खुला खुला ग्लोबल नजरिया, एक सख्त किस्म की मानवीयता, गहन संवेदनशीलता, जीवन के मार्मिक प्रसंगों की गहरी पहचान, बदलते समय की अंनत जटिलताओं के भीतर प्रवेश कर उनकी परतें खोलना, प्रवास, प्रवासी अस्तित्व और जीवंत जगत के मानवीय दानवीय मूल्यों को पहल दर पहल खोलते जाना उनकी कहानियों की भी विशेषता है. जिनके द्वारा उनको जाना जा सकता है. इस लेख में यही प्रयास किया गया है.

वे अपनी रचना प्रक्रिया के संदर्भ में कहती हैं, “प्रवासी के इस जटिल संसार के अलावा मेरी नजर बदलते भारत पर भी रही है. प्रवास ने भारत को ग्लोबल परिप्रेक्ष्य में देखने और जानने की समझ दी.” इसीलिए “बेघर” में वे लिख सकी हैं, “तनख्वाहें बढ़ गई हैं तो महँगाई भी बढ़ गई है. स्कूटरों की जगह कारों की तादाद बढ़ गई है तो सड़कों पर ट्रैफ़िक भी बढ़ गया है; एक्सीडेण्ट बढ़ गए हैं. टेलीविजन पर आने वाले रंगीन विज्ञापनों ने लोगों की इच्छाओं और विकल्पों को बढ़ाया है तो भ्रष्टाचार और अपराध भी बढ़ गए हैं.” अचला शर्मा कहती हैं, “हम जैसे लोग, जहाँ बसते हैं, वहाँ एक ग्लोबल व्यवस्था, वैश्विक सोच और बहु सांस्कृतिक समाज के दरवाजे हमारे लिए खुले हैं. यह हमारी ताकत है.” बीबीसी के हिन्दी विभाग की पूर्व अध्यक्ष, कथा यूके की उपाध्यक्ष, “जड़ें” तथा “पासपोर्ट” रेडियो नाटक, “बरदाश्त बाहर”, “सूखा हुआ समुद्र”, “मध्यांतर” कहानी संग्रहों की रचनाकार अचला शर्मा को विश्व हिन्दी सम्मेलन सूरीनाम में विश्व हिन्दी सेवा के लिए सम्मानित किया गया है. साथ ही उन्हें यूके का पद्मानन्द साहित्य सम्मान भी प्राप्त हुआ है. बीबीसी के पहले उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में पाँच साल काम किया, वॉयस ऑफ़ अमेरिका में भी उनका डेढ़ साल का अनुभव है. बीबीसी से वे दो दशक से अधिक समय जुड़ी रहीं. लंदन का बहु सांस्कृतिक समाज उनके लेखन की ताकत है. इसी ताकत के बल पर उन्होंने “चौथी ऋतु”, “रेसिस्ट”, “मेहरचन्द की दुआ”, “उस दिन आसमान में कितने रंग थे” और “दिल में इक कस्बा” जैसी कहानियों की निर्मिति की है.

उनके अनुसार, “लेखक के रूप में हमारा कुछ दायित्व भी है. हम अपने समय और परिवेश की अवहेलना नहीं कर सकते हैं. हमारे आसपास पात्रों का, नई समस्याओं का, नए संघर्षों का और नई सोच का विशाल संसार है. उससे जुड़ाव हमारे रचना संसार को नए आयाम दे सकता है.” इसी दायित्व को निभाते हुए उन्होंने रेसिस्ट जैसी कहानी लिखी. इसीलिए वे गैर कानूनी तरीके से लंदन में रह रहे महरेआलम के दर्द को समझ सकीं हैं. नई सोच के तहत महरेआलम और नैन को एक छत के नीचे ला सकीं. दो जरूरतमन्द लोग कैसे मिलकर अपनी समस्याओं का हल खोज सकते हैं और कैसे एक दूसरे का सहारा बन सकते हैं यह समझने के लिए यह कहानी पढ़नी होगी.

मात्र दो पात्रों की सहायता से अचला शर्मा ने कहानी “दिल में इक कस्बा” रची है. माँ प्रभा बनर्जी तथा बेटी नेहा. कहानी माँ के अंतरद्वन्द्व को लेकर आगे बढ़ती है. प्रभा शादी के बाद से समायोजन करती आ रही है. जीवन की खुशहाली, सुख शान्ति के लिए समायोजन अत्यावश्यक है. मगर किस कीमत पर? इस पर बाद में. प्रभा ने यू पी की होते हुए एक बंगाली ब्राह्मण शोमेन से प्रेम विवाह किया और अब वे लोग लंदन में रह रहे हैं. शोमेन अच्छे पद पर, शान्त स्वभाव के व्यक्ति हैं. अक्सर देश-विदेश के दौरे पर रहते हैं. बेटी नेहा प्रवास में जन्मी है. प्रभा की कोशिश रही है कि बेटी को वहीं के माहौल के अनुसार पाला-पोसा जाए. इसके लिए वह स्वयं को बदलने का प्रयास करती है. बेटी की परवरिश के लिए बाहर काम करना बन्द कर देती है. बेटी को किसी तरह की हीन भावना का अनुभव न हो इसलिए प्रभा कार चलाना सीखती है जिससे उसके व्यक्तित्व का विकास होता है. बेटी को प्राइवेट स्कूल भेजती है हालाँकि इस खर्च के लिए उसे अपने अन्य मदों में कुछ कटौती करनी पड़ती है. बेटी पढ़ने में अच्छी है और एक-एक क्लास फ़ंलागती हुई कॉलेज पहुँच जाती है. यहाँ तक तो सब ठीकठाक है. मगर बेटी की युवा होते ही प्रभा के मन में तमाम शंकाएँ सिर उठाने लगती हैं. उसके भारतीय संस्कार उसे चैन से नहीं बैठने देते हैं. वह बेटी को लेकर चिन्तित रहने लगती है. पहले उसे भय है कहीं नेहा लड़कों के साथ न रहने लगे. बाद में जब काफ़ी दिन बीत जाते हैं और कोई ऐसी सुनगुन नेहा की ओर से नहीं होती है. नेहा कॉलेज समाप्त कर एक अच्छे पद पर काम करने लगती है तब उसे चिन्ता होने लगती है कहीं नेहा समलैंगिक तो नहीं है. वह मन कड़ा करके, अपने संकोच को दबा कर, एक दिन बेटी से पूछ ही लेती है और यह जानकर उसे बहुत राहत मिलती है कि ऐसा कुछ नहीं है. मगर प्रभा के भारतीय संस्कारी मन को अभी भी चैन नहीं है.

बेटी तुनकमिजाज है. अब वह बालिग है. अत: प्रभा उससे कुछ भी पूछने से पहले हजार बार सोचती है. तौलती है. उसे डर है कि यदि उसकी किसी बात से नेहा गुस्सा हो गई और उसने उन लोगों से नाता तोड़ लिया तो वह उसके बिना कैसे रहेगी. मगर अपने दिल का क्या करे? बेटी तीस पार कर गई है. उसके लिए कैरियर प्रमुख है. नेहा के लिए सैटल होने क अर्थ कैरियर है जबकि प्रभा की दृष्टि में लड़की के सैटल होना का मतलब उसकी शादी है और नेहा इस बारे में बात करने को राजी नहीं है. हाँ वह माँ को बता चुकी है कि वह लड़कों के साथ रहती-सोती है. प्रभा के भीतर बैठी भारतीय माँ इस कडुवे सच को भी किसी तरह पचा लेती है. मगर उसे चैन नहीं है. और प्रभा इस हद तक समझौता करने को तैयार हो जाती है कि यदि नेहा को कोई गोरा या काला लड़का भा जाए तो वह उसे भी दामाद के रूप में स्वीकार कर लेगी. मगर नेहा की जीवन पद्धति उसकी समझ के बाहर है.

पिता शोमेन पत्नी-बेटी के जीवन में बहुत दखल नहीं देते हैं वे अक्सर बेटी का पक्ष लेते हैं, प्रभा को सलाह देते हैं, “छेड़े दाओ ओके” लेकिन एक समय आता है जब उनका धैर्य चुक जाता है. नेहा काफ़ी दिनों से एक स्कॉटिश लड़के मार्टिन के साथ रह रही है और अब गर्भवती भी है. शोमेन कह उठते हैं, “प्रोश्नो ई ओठे ना.” “साथ रहना है तो शादी करने में क्या समस्या है. कह दो उसे, मुझे यह लिविंग टुगैदर का कल्चर बिल्कुल पसंद नहीं है.” असल में उन्हें चिन्ता है कि यदि “इंडिया में किसी घर वाले को पता चल गया तो क्या जवाब देंगे.” नेहा का कहना है, “यहाँ के इंडियन लड़कों के साथ बड़ी समस्या है माँ खुद तो इस सदी में रहना चाहते हैं और बीवी को पिछली सदी में रखना चाहते हैं.” उसे डर है कि कहीं उसके माता पिता उसके लिए भारत से लड़का इम्पोर्ट न कर लें. यह भी प्रवास का एक चलन है. भारत के लड़के भी विदेश में बसने के लिए ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं.

नेहा जिन्दगी अपनी पसन्द से जीती है लेकिन कहानी के अन्त में सारा दोष माँ पर डाल देती है, “माँ, आपकी स्मॉलटाउन मेंटिलिटी की वजह से मार्टिन क्या, कोई लड़का मेरी जिन्दगी में नहीं टिकेगा.” इससे नेहा के स्वभाव का पता चलता है. मतलब पर माँ को याद करती है और तो और माँ को जब तब इमोशनल ब्लैकमेल भी करती है. कभी गले में बाँहें डाल कर अपनी बात मनवाती है, कभी पैर पटकती हुई घर से निकल जाती है. कभी उससे मनपसंद खाने की फ़रमाइश करती है.
आज के मनुष्य की विडम्बना है कि वह सुख सुविधाओं के बीच भी तनावपूर्ण जीवन जीता है. सारा वातावरण तनावपूर्ण है मानो किसी ज्वालामुखी पर बैठा है. किसी भी समय फ़ट पड़ने को आतुर. वह वातावरण प्रवासी हो, अपने देश का हो अथवा घर के भीतर का हो. तनाव की संभावना हर जगह बनी हुई है. घर के भीतर रिश्तों में तनाव है. पति पत्नी के आपसी संबंधों में तनाव अनोखी बात नहीं है. माता-पिता और बच्चों के बीच तनाव आज आम बात है. बाहर किसी अजनबी, किसी अन्य नस्ल अथवा अन्य धर्म वाले को देखते ही हमारे भीतर तनाव उत्पन्न हो जाता है. कहानी एक सूक्ष्म कला है. शब्दों के माध्यम से कहानी में तनाव की अभिव्यक्ति एक खास तरह की प्रौढ़ता की माँग करती है. अचला शर्मा शब्दों और शब्दचित्रों के माध्यम से समय और वातावरण तथा रिश्तों के तनाव का सशक्त चित्रण करती हैं. “रेसिस्ट” में ट्रेन के डिब्बे में धीरे-धीरे जो तनाव उत्पन्न होता है वह पुलिस वालों की उपस्थिति से और भी सघन हो जाता है. पिछले दिन लंदन के अन्डरग्राउण्ड रेलवे में पाकिस्तान के आतंकवादियों ने बम विस्फ़ोट किया है, आज सारे अखबार, टीवी उसी हादसे के खबरों और चित्रों से भरे हुए हैं. मगर कोई कुछ नहीं बोल रहा है. वैसे भी ब्रिटेन के लोग चुप रहते हैं. मगर आज की चुप्पी तनाव के कारण है स्वभावगत विशेषता के कारण नहीं. लोग जबरदस्ती अखबार में सिर घुसाए हुए हैं. “आज की खामोशी में कल की दहशत घुल गई है.” सबके मन में भय है, “जो कल हुआ वह आज भी हो सकता है.” और तभी उसकी दृष्टि एक लड़की पर पडती है, तनाव बढ़ जाता है, “लड़की सर पर स्कार्फ़ बांधे है. मुसलमान है, यह निश्चित है. मगर कहाँ की है यह कहना मुश्किल है.” अंग्रेज को रेसिस्ट कहना समझना आसान है पर क्या हम भी उसी मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं?

लड़की की सीट के पास एक लड़का खड़ा है. “चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी है. पाकिस्तानी हो सकता है, या फ़िर अरब.” मगर लडके का चेहरा जाना-पहचाना लग रहा है. लड़का भी उससे यही बात कहता है. मगर आज किसी मुसलमान को पहचाना खतरे को बुलावा देना हो सकता है.

तनाव तब और बढ़ जाता है जब गाड़ी काफ़ी देर के लिए रुक जाती है. तरह तरह की आशंकाएँ घेरने लगती हैं. “कहीं इस डिब्बे में कोई बम तो नहीं. इन यात्रियों में कोई टेरेरिस्ट तो नहीं बैठा...उसने झुकी नजर से बाकी यात्रियों के बैगों का मुआयना शुरु कर दिया, कौन सा मोटा है, कौन सा बैक पैक, कहीं कोई अपना सामान गाड़ी में छोड़ कर उतर तो नहीं गया...” पुलिस की उपस्थिति से वातावरण और तनावपूर्ण हो जाता है. तब माहौल और भी दहशतभरा हो जाता है जब दो पुलिस वाले इसी डिब्बे में सवार हो जाते हैं. इतना ही नहीं, “दोनों पुलिस वाले, जो अब तक दरवाजे के पास खड़े थे, डिब्बे में चक्कर लगाने लगे हैं.” गाड़ी चलने पर लोग राहत की सांस लेते हैं. मगर अगली बार गाड़ी सुरंग में रुक जाती है. तनाव ही तनाव. तनाव से सांस लेना मुश्किल हो रहा है. तनाव से दम घुट रहा है.

इस समय तक कथावाचिका ने उस दाढ़ी वाले लड़के को गैरकानूनी काम में लिप्त सोच लिया है. “क्या मालूम क्या एजेंडा है इसका.” और पुलिस वाले भी उसी लड़के के पीछे पड़ते हैं. स्थिति इतनी असह्य हो जाती है कि वह सोचती है, “बस पकड़ लेगी मगर इस तनाव को और नहीं झेलेगी.” तनाव का ऐसा चित्रण प्रवासी हिन्दी कहानी में बेजोड़ है.

पुलिस उस दाढ़ी वाले युवक को पूछताछ के लिए ले कर उतर जाती है. कथावाचिका को याद आ जाता है कि स्पोकन इंग्लिश के कोर्स में सबसे कम उम्र का छात्र यही तो था. मगर जब पुलिस उससे पूछती है कि क्या वह लड़के को जानती है तो वह साफ़ इन्कार कर देती है. जबकि उसे उसका नाम भी याद आ जाता है. उसे अजीब लगता है कि उससे लड़के के बारे में क्यों पूछा जा रहा है. वह साफ़ मुकरते हुए कहती है कि मैंने इसे अपनी जिन्दगी में पहले कभी नहीं देखा है. “उसने चीखती सी आवाज में अपनी आपत्ति जताई ताकि हर यात्री तक उसकी आवाज पहुँच जाए.”

उसे मन में सकून है कि उसने उस लड़के से ज्यादा बात नहीं की. हर बार पहले से तेज आवाज में वह नटती है, कहती है, “आई डू नॉट नो हिम.” “नहीं ऑफ़ीसर मैं उसे बिल्कुल नहीं जानती, जिन्दगी में इससे पहले कभी मिली भी नहीं.” कितनी आसानी से कह दिया उसने.

इस कहानी के अन्त और “जीसेस के लास्ट सपर” में काफ़ी समानता है. लास्ट सपर के समय पीटर जीसेस के लिए कुछ भी करने के लिए यहाँ तक कि जान भी देने का दावा कर रहा है मगर जीसेस स्पष्ट कह देते हैं कि सुबह मुर्गे के बोलने के पहले पीटर जीसेस को पहचानने से तीन बार इन्कार कर चुका होगा. और यही होता है तीन बार पीटर से पूछा जाता है क्या वह जीसेस को जानता है? हर बार पहले से ज्यादा जोर से वह कहता है कि वह जीसेस को नहीं जानता है. वक्त पड़ने पर हम कितने स्वार्थी हो जाते हैं, यह प्रवासी ही नहीं हर आम आदमी का यथार्थ है. मगर कहानी में इस यथार्थ का सामना करके वह निरपेक्ष नहीं है. उसे अपनी घिनौनी सच्चाई दीख जाती है. जो बदबू पहले केवल एक स्त्री से आ रही है और वह स्त्री अब डिब्बे में नहीं है फ़िर भी बदबू पूरे डिब्बे में फ़ैल चुकी है. अचला शर्मा की कहानियाँ हमारी सारी इन्द्रियों को सम्बोधित करती हैं. इन कहानियों में चाक्षुक संवेदना के साथ-साथ घ्राण, स्पर्श और श्रवण संवेदना भी परिलक्षित होती है.

इस कहानी में नए-नए प्रवासी की मानसिकता और धीरे-धीरे उसका नए परिवेश में समाहित होते जाना और अपने को कुछ विशिष्ट समझने लगने का बड़ा सटीक वर्णन है. शुरु में होमसिकनेस के कारण उसे देशवासी का संग-साथ सकून देता है. फ़िर साल भर में वह खुद को उनसे दूर करने लगता है. उसे उनकी उपस्थिति से शर्मिन्दगी अनुभव होने लगती है. उनकी गंध तक उसे असह्य होने लगती है. देश से आए लोगों का इंग्लिश का अज्ञान उसमें खीज उत्पन्न करता है. भारतीयों की खासी संख्या लंदन में है. डिब्बे में भी तीन चौथाई एशियन हैं. मगर उसे अन्य देश के लोगों का थोक के भाव आना और लंदन में बसना नहीं जँचता है. “उसे यह बात बहुत बुरी लगती है कि कोई उसे गुजराती समझ ले. कोई मजाक है? उसे यह बात उतनी ही बुरी लगती है जितनी कि यह कि कोई उसे पाकिस्तानी समझ ले.” वह अपनी पोशाक भी बदल लेता है और एक समय ऐसा आता है जब वह अपने स्वार्थ, खुद को खतरों से बचाए रखने के लिए अपने जैसों को पहचानने से भी इंकार कर देता है. उनकी उपस्थिति उसमें तनाव उत्पन्न करती है.

तनाव “दिल में इस कस्बा” में भी है मगर यह आतंकवाद, पुलिस, सत्ता का तनाव नहीं है. यह आपसी, पारिवारिक संबंधों का तनाव है. प्रभा और नेहा के संबंध कभी भी नॉर्मल नहीं हैं. प्रभा को बोलते समय सदैव ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं वह बेटी को खो न दे. बेटी भी माँ की प्रश्न पूछने, उसकी निजी जिन्दगी में झाँकने की आदत से तनाव में रहती है. बात- बात में चाहे वह प्रभा का घर हो अथवा नेहा का फ़्लैट वातावरण तनावपूर्ण हो उठता है. हर बार हार कर प्रभा चुप हो जाती है. दोनों के बीच कुछ दिन के लिए संवाद का पुल बंद हो जाता है. यहाँ आर्थिक दबाव नहीं है. दो पीढ़ियों की सोच, दो संस्कृतियों का द्वन्द्व तनाव उत्पन्न करता है. संस्कृतियों की टकराहट और जेनेरेशन गैप के कारण तनाव है.

संस्कृतियों का सदैव सम्मिश्रण होता है. विवेकशील प्रवासी मूल देश और प्रवास की सांस्कृतिक टकराहट से नहीं बच सकता है न ही प्रवास की संस्कृति से अछूता रह सकता है. विवेकपूर्ण प्रवासी दोनों संस्कृतियों से विशेषताएँ ग्रहण करता है. दोनों की कमियों से दूर रहने का प्रयास करता है. बुराइयों को दूर करने की कोशिश करता है. प्रभा ने दोनों संस्कृतियों की सकारात्मक बातें अपना ली हैं, वह एक विवेकशील परन्तु भावुक स्त्री है. उसकी समस्या है कि उसने बेटी को अपने जीवन की धूरी बना लिया है. उसका अपना निजी जीवन है ही नहीं. बेटी को प्रेम करना ठीक है मगर पैंतीस साल की लड़की के लिए अपनी जिन्दगी लगा देना अपने जीवन के साथ अन्याय है. उसके तनाव का एक कारण यह भी है.

तनाव का निर्माण कहानीकार “उस दिन आसमान में कितने रंग थे” में भी करती हैं. यह परिस्थितियों की माँग है कि अभिनव शारीरिक तनाव उत्पन्न करे. मगर क्या सोच-समझ कर तनाव उत्पन्न करना इतना सरल है? कहानी की शुरुआत में अभिनव अस्पताल के कमरे में अकेला है. उसे शारीरिक तनाव की आवश्यकता है मगर वह मानसिक तनाव में है. उसे डॉक्टर के निर्देशानुसार काम करना है. क्या जज्बात ऐसे किसी के आदेश पर चलते हैं? कमरे में पुरुष को उत्तेजित करने की बहुत सारी सामग्री जैसे नंगी औरतों की तस्वीरों वाली पत्रिकाएँ, डीवीडी पर उत्तेजक फ़िल्में आदि उपलब्ध हैं. मानसिक तनाव अभिनव को अपने बीते दिनों में ले जाता है. वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता है पर अपने पहले प्रेम शाजिया को नहीं भूल पाया है. इसको लेकर उसके मन में कहीं कोई अपराधबोध नहीं है. है तो केवल एक कसक. जब शाजिया उससे अलग हुई थी, उस दिन की स्मृति उसे सदा सालती रहती है. दस साल हो गए हैं अभिनव और रूपाली की शादी को और अभी तक वे बेऔलाद हैं. बच्चे की उम्मीद लगाए रूपाली और उसके संबंधों में तनाव आ चुका है. अब हालात ये हैं कि, “एक लंबे अरसे से रूपाली की माँ बनने की ख्वाहिश, उसकी हताशा, उसका तनाव – सब के सब बिस्तर में आकर उनके बीच लेट जाते हैं.” इस कहानी में अचला शर्मा जीवन के मार्मिक प्रसंगों को उठाती हैं.

अभिनव और रूपाली के वैवाहिक जीवन में आवेग और उत्तेजना समाप्त हो चुकी है. अब जब वे आई वी एफ़ के इलाज की शरण में आए हैं तब भी कम तनाव नहीं है. “अभिनव ने कहीं पढ़ा था कि आई वी एफ़ के इलाज के दौरान तनाव इतना बढ़ जाता है कि कुछ दम्पति नजदीक आने के बजाए एक दूसरे से दूर चले जाते हैं, संबंध टूटने के कगार पर आ जाते हैं.” लेकिन अभी उनके संबंध इतने नहीं बिगड़े हैं. जब पत्नी के प्रेम के साथ उससे सटती है तो वह उत्तेजित हो उठता है. रूपाली “उससे सट गई, कुछ ऐसी नर्मी और गर्माहट के साथ कि उस वक्त अभिनव को अपनी जाँघों के बीच तनाव महसूस होने लगा.”

जब शाजिया मेरी स्टॉपस क्लीनिक में थी तब भी कहानी पढ़ते हुए पाठक अभिनव के तनाव को अनुभव कर सकता है. “जितनी देर शाजिया अंदर रही वह घबराया हुआ सा छोटे से वेटिंग रूम में चक्कर लगाता रहा. पसीने की वजह से उसका मेक अप बहने लगा था पर इस वक्त उसे पकड़े जाने की भी फ़िक्र नहीं थी. फ़िक्र थी तो शाजिया की. कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए.”

इन कहानियों की संवेदनाएँ, प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार पाठक को तादात्म का धरातल देते हैं. वे कहती भी हैं, “लेखक, समाज और पाठक का संबंध जितना सहज और स्वाभाविक है, उतना ही जटिल भी. लेखक, समाज और पाठक एक त्रिकोण के तीन बिन्दु हैं एक दूसरे से जुड़े हुए और विलग भी. लेखक समाज की उपज है और पाठक भी. और इन दोनों से मिलकर समाज बनता है. लेखक अपनी कविता, कहानियों, उपन्यासों और नाटकों के लिए इसी समाज से अनुभव ग्रहण करता है, पात्रों और घटनाओं से प्रेरित होता है और उनकी कहानी अपने शब्दों में उन्हीं के सामने पेश करता है.” सच में ये कहानियाँ हमारी अपनी कहानियाँ हैं. हमारे समय की कहानियाँ हैं. अचला शर्मा ने अपने परिवेश से अनुभव ग्रहण किए हैं वहीं से पात्र और घटनाएँ ली हैं और पाठकों के समक्ष उसी की कहानी को अपने शब्दों में सजा कर प्रस्तुत कर दिया है.

जीवाश्म के खोल में जैसे जीव की संपूर्ण छाप होती है वैसे ही रचना पर रचनाकार की छाप होती है. खोल के भीतर जैसे जीव था वैसे ही साहित्य के पीछे व्यक्ति होता है. रचनाकार पर जिन कारकों का प्रभाव है उनको जाने बिना रचना को नहीं जाना-समझा जा सकता है. साहित्य मात्र कल्पना नहीं है. नस्ल, संस्कृति और इतिहास ये प्रमुख कारक हैं. यही कारक अचला शर्मा की हिन्दी प्रवासी कहानियों में प्रभा को नेहा की जीवन पद्धति गले नहीं उतारने देते हैं. बंगाली पति शान्त स्वभाव का है पत्नी के कामकाज में ज्यादा दखल नहीं देता है. पाकी कह कर सम्बोधित करने वाले उसे रेसिस्ट लगते हैं. मुसीबत में पड़े एक मुस्लिम युवक को पहचानने से इन्कार करने का कारण भी यही कारक हैं. माँ बन कर जीवन की सार्थकता मानना भी इसी का हिस्सा है. नवीन भाई की बदौलत महरेआलम की नौकरी है और वे महरेआलम से बड़ी मुहब्बत करते हैं. भारत के फ़रीद भाई महरे की सहायता करते हैं. महरेआलम नंदिनी को अपना फ़्लैट शेयार करने देता है और नैन के हाथ के जायके के वह कई कई दिन तक गोश्त नहीं खाता है. नैन का लिहाज करके घर पर गोश्त नहीं बनाता है, बाजार में जाकर खा लेता है. हर कहानी अचला शर्मा के व्यक्तित्व की छाप लिए हुए है.

छोटे-छोटे सुख जिंदगी को मुकम्मल बनाते हैं. संवेदना की पराकाष्ठा है, “जिन्दगी में पहली बार उसने किसी औरत को ऐसे गले लगाया था. लाहौर में अपनी बीवी के साथ रिश्ता सिर्फ़ बिस्तर का था जिसका नतीजा था वो चार बच्चे. औरत को सिर्फ़ गले लगाकर भी कितना सकून मिल सकता है, यह महरेआलम ने पहली बार जाना.” इसीलिए सब भूल कर “उसने बस लेटे लेटे दुआ में हाथ उठाए – ’अल्लाह मियाँ, लिब्रल डेमोक्रेट जीतें या हारें, सरकार में आएँ चाहे न आएँ, मुझे लीगल स्टेटस मिले या न मिले, मैं तेरे रहमोकरम से जैसा हूँ बहुत खुश हूँ. ऐ मेरे अल्लाह, मुझ गुनहगार बंदे पर यह करम फ़रमाता रह. आमीन सुम्मा आमीन!” स्त्री-पुरुष संबंधों पर इतनी संवेदनशील कहानियाँ कम ही पढ़ने को मिलती हैं. दानवीय समय के बरबक्स ऐसी मानवीय कहानी समाज को एक नई सकारात्मक दृष्टि से परिचित कराती है.

अचला शर्मा अपनी कहानियों में इंग्लिश के अलावा विभिन्न भारतीय भाषाओं की छौंक यथास्थान लगाती चलती हैं. कहीं गुजराती, कहीं बांग्ला तो कहीं उर्दू की खुशबू उनकी कहानियों से आती है. अपनी कहानियों में वे जगह-जगह सूत्र वाक्य भी टाँकती चलती हैं, जैसे “मुनाफ़ा तो उसी काम में है जो काम आता हो.” “औरत को सिर्फ़ गले लगाकर भी कितना सकून मिल सकता है.” (मेहरचन्द की दुआ), “लंदन की अंडरग्राउंड गाड़ियों में बोलने का रिवाज़ है भी नहीं.” (रेसिस्ट),
एक साक्षात्कार में अचला शर्मा कहती हैं, “एक बात का श्रेय मेरे रेडियो के अनुभव को निश्चित रूप से जाता है कि नाटक हो या कहानी, अथवा आलोचनात्मक टिप्पणी, मेरे वाक्य छोटे होते हैं और भाषा सहज.” सहज सरल भाषा में अपनी बात कहनी अचला शर्मा को आती है. यह कार्य आसान नहीं है. वे बहुस्तरीय यथार्थ को सहज सरल शब्दों में चित्रित करने में सक्षम हैं जैसा कि उनकी कहानी “रेसिस्ट” में हुआ है.

अक्सर लोग लिखने की शुरुआत कविताओं से करते हैं मगर अचला शर्मा कहती हैं, “लिखने की शुरुआत मैंने कहानी लेखन से की थी और अब फ़िर से कहानियाँ लिख रही हूँ.” अचला शर्मा का कहानियों की ओर लौटना हिन्दी कथा साहित्य के लिए शुभ है. वे एक विशिष्ट अपरिचित भावभूमि से पाठकों को परिचित कराती हैं. इनकी कहानियाँ पाठक को एक सक्रिय भागीदारी के लिए आमंत्रित करती हैं. भविष्य में पाठकों को उनसे इसी विशिष्ट भावभूमि की बहुस्तरीय यथार्थ को प्रस्तुत करने वाली ढ़ेरों कहानियों की अपेक्षाएँ हैं.
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*कई कहानियाँ अचला शर्मा के सौजन्य से पाण्डुलिपि के रूप में प्राप्त हुई हैं क्योंकि अब संग्रह की प्रतियाँ उपलब्ध नहीं हैं.

Sunday, 1 May 2011

अरुन्धति को पुन: पढ़ते हुए



अरुन्धति राय का गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स एक ऐसा उपन्यास है जिसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए. मैं खुद तीसरी बार पढ़ रही हूँ. बहुत ही संवेदनशील उपन्यास. यह कहानी है जीवन की. प्रेम, घृणा, द्वैष, जलन, स्वार्थ, बिट्रेयल की और बार-बार घर वापस आने की. यह कहानी है बचपन की मासूमियत की तथा उस मासूमियत के लूटे जाने और चकनाचूर होने की. बचपन के कुचले जाने के रिसते, मूक नासूर की. यह सवर्ण और अवर्ण की भी कथा कहता है. भले ही ईसाई समुदाय में जात पाँत न हो मगर सामाजिक छूआछात तो ज्यों का त्यों बरकरार है. धनी-गरीब का भेदभाव तो बना ही हुआ है. छद्म मार्क्सवाद कितना घिनौना, कितना गलीच हो सकता यह भी उपन्यास बड़े खूबसूरत तरीके से बुनता है.
उपन्यास रैखिक गति से नहीं चलता है. समय खूब आगे पीछे आता जाता है. वैसे पूरी कहानी १९६९ से प्रारंभ होकर १९९३ तक यानि २४ साल को समेटती है. बीच के समय का बहुत विस्तार से वर्णन नहीं मिलता है. पूरा उपन्यास राहेल की दृष्टि से लिख गया है मगर यह भी पता चलता रहता है कि और लोग क्या सोच रहे हैं उनके मन में क्या चल रहा है.
एक से एक चरित्र उभारे हैं अरुन्धति ने. उनका सूक्ष्म और गहन अवलोकन काबिले तारीफ़ है. इस उपन्यास में पापाची जैसा ईर्ष्यालू और क्रूर पिता और पति है जो बेटी राहेल के गमबूट्स को कैंची से दस मिनट तक कतर कर नष्ट करता है, पत्नी को रोज रात को पीतल के फ़ूलदान से मारता है. दूसरी ओर वेलुता है जिसकी संवेदनशीलता उसे ले डूबती है. बिना किसी अपराध के बेबी कोच्च्मा के कहे पर पुलिस उसे पीट-पीट कर मार डालती है. मरते वक्त भी उसकी आँखों में एस्था के लिए प्रेम और करुणा है. एस्था बचपन के अनुभवों से इतना आहत हो गया है, इतना हिल गया है कि उसने बोलना बन्द कर दिया है. राहेल और एस्था की माँ अम्मू अपने पिता-पति के हाथों अपमानित होती है. भाई चाको जब चाहे उसे घर से निकाल बाहर कर सकता है. बेबी कोच्च्मा जैसा श्याम चरित्र रचना बड़े कौशल की माँग करता है. लेखिका इसमें पूरी तरह सफ़ल रही है.
सारा घटनाचक्र चाको की बेटी सोफ़ी मोल की मृत्यु इर्दगिर्द घूमता है. सोफ़ी की मौत दुर्घटना है जिसे अपराध में परिवर्तित कर दिया जाता है. सब कुछ राहेल के जीवन से जुड़ा हुआ है. कल्पना और यथार्थ ऐसा घुला-मिला है जैसे दूध-पानी. इंग्लिश भाषा पर लेखिका की गजब की पकड़ है और वे भाषा से खूब खेलती हैं. अनुवाद में खोल रह जाता है आत्मा नष्ट हो जाती है. फ़ूल रह जाता है खुशबू उड़ जाती है. मूल भाषा में ही इसका सही आस्वादन किया जा सकता है. वैसे मैंने अभी तक अनुवाद नहीं देखा-पढ़ा है. सुना है नीलाभ ने बहुत अच्छा अनुवाद किया है.
उपन्यास पढ़ कर मन में कसक होती है कि ऐसा क्यों होता है. काश ऐसा न होता. पात्र और घटनाएँ बहुत लम्बे समय तक साथ बनी रहती हैं, मेरे अनुसार रचना की सफ़लता की एक कसौटी. एक और अफ़सोस होता है इतनी संवेदनशील लेखिका ने एक उपन्यास के पश्चात रचनात्मक साहित्य से क्यों मुँह मोड़ लिया. क्या वे पाठकों की अपेक्षाओं से डर गईं?
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