बिलवड : एक अनोखी-हॉन्टिंग फ़िल्म
असल में इस फ़िल्म बनने के पीछे ओफ़्रा विन्फ़्रे का बहुत बड़ा हाथ है। ओफ़्रा विन्फ़्रे ने जबसे 'बिलवड' पढ़ा वे उसे परदे पर लाने के लिए बेताब थीं। १९९६ में उन्होंने अपना प्रसिद्ध और लोकप्रिय बुक क्लब प्रारंभ किया और तभी घोषणा कर दी कि उनके क्लब के दूसरे महीने का चुनाव टोनी मॉरीसन का उपन्यास 'सॉन्ग ऑफ़ सोलोमन' होगा। तुरंत मॉरीसन की किताबों की बिक्री बढ़ गई। ओफ़्रा के बुक क्लब की यह खासियत है उनके यहाँ नाम आते ही रचनाकार का सम्मान बढ़ जाता है, उसकी किताबों की बिक्री तेज हो जाती है। मॉरीसन के प्रकाशक ने भी चमत्कार दिखाया, उसने सजिल्द प्रतियों का दाम कम कर दिया ताकि ज्यादा-से-ज्यादा पाठकों तक किताब की पहुँच हो सके। काश भारत में भी ऐसी कोई योजना बनती, होती। ओफ़्रा और मॉरीसन का एक साझा और लम्बा संबंध कायम हुआ। १९९८ में इस क्लब ने 'पैराडाइज' को चुना, २००० में 'द ब्लूएस्ट आई' और २००२ में इस क्लब ने 'सूला' को अपने टॉक शो में रखा। हर बार टोनी मॉरीसन ओनलाइन चुने हुए स्टूडिओ में उपस्थित अपने पाठकों से विमर्श करतीं।
ओफ़्रा ने 'बिलवड' पर अपने क्लब में विमर्श नहीं किया बल्कि इस पर फ़िल्म बनाने का निश्चय किया। खुद को उन्होंने प्रमुख भूमिका में तय किया, डैनी ग्लोवर को पॉल डी की भूमिका में रखा। ओफ़्रा ने टोनी के साथ मिलकर स्क्रिप्ट तैयार की और कई फ़िल्म निर्देशकों के पास भेजी। वे सेथे और गुलामी की कहानी वृहतर दर्शकों तक ले जाना चाहती थीं। अकादमी पुरस्कृत निर्देशक जोनाथन डेम ने फ़िल्म बनाने की हामी भरी। ओफ़्रा विन्फ़्रे की फ़िल्म कम्पनी ने इस फ़िल्म को प्रड्यूस किया। अकोसुआ बुसिया, रिचर्ड लाग्रेवेंस, एडम ब्रुक्स तीन लोगों ने मिल कर फ़िल्म की कहानी लिखी। दस साल के एक लम्बे समय के बाद फ़िल्म बन कर तैयार हुई। फ़िल्म की शूटिंग के समय एकाध बार टोनी मॉरीसन सेट पर गई फ़िर उन्हें लगा कि वहाँ उनका कोई खास काम नहीं है। उन्होंने निर्देशक और विन्फ़्रे पर सारा काम छोड़ दिया। सुपरनेचुरल कहानी के लिए प्रयोग किए गए स्पेशल इफ़ैक्ट कहानी को आधिकारिक बनाते हैं। संगीतकार रेचल पोर्टमैन का काम फ़िल्म को विशिष्टता प्रदान करता है। फ़िल्म प्रदर्शन के पूर्व इसकी खूब पब्लिसिटी की गई थी। 'टाइम' तथा 'वोग' मैगज़ीन ने इसे अपनी कवर स्टोरी बनाया, ओफ़्रा ने अपने टॉक शो में इसे चर्चित किया।
अभिनेता डैनी ग्लोवर पॉल डी की भूमिका में पूरी तरह उतर गए हैं। वे कमाल के एक्टर हैं उन्होंने एलिस वॉकर के उपन्यास 'द कलर पर्पल' पर इसी नाम से बनी में मिस्टर अल्बर्ट की भूमिका की है। वहाँ भी वे कमाल करते हैं, हालाँकि निर्देशन स्पीयलबर्ग का है, शायद इसी कारण फ़िल्म काफ़ी कमजोर है। 'बिलवड' फ़िल्म में डैनी के चेहरे की रेखाओं का उतार-चढ़ाव कई बातें बिना बोले स्पष्ट कर देती हैं। पॉल डी और सेथे एक दूसरे को 'स्वीट होम' के गुलामी के दिनों से जानते थे। बाद में जब वे १२४ ब्लूस्टोन के घर में मिलते हैं तो अतीत एक बार फ़िर से वर्तमान बन कर उन्हें घेर लेता है। १८ साल के बाद भी गुलामी के शारीरिक, भावात्मक और मानसिक घाव भरे नहीं हैं।
फ़िल्म एक साथ इतिहास, रहस्य, गुलामीगाथा और रोमांस सब समेटे हुए है। फ़िल्म शुरु होती है भूत की कारस्तानियों से घबरा कर सेथे के दो किशोर बेटों के घर छोड़ कर भागने से। सेथे अपनी बेटी डेनवर (किम्बरले एलिस) के साथ रह रही है। भूत का कहर सेथे को परेशान नहीं करता है क्योंकि वह इसका कारण जानती है। पॉल डी घर में घुसते इसके विषय में पूछता है। वह कुछ समय के लिए उसे भगा पाने में सफ़ल होता है। सेथे, पॉल डी और डेनवर एक सुखी परिवार की तरह रहने लगते हैं। जल्द ही सब कुछ फ़िर से बिखर जाता है। बच्ची जैसी भूखी-प्यासी, थकी-हारी एक युवती सेथे के दरवाजे पर आती है। उसे लेकर सबका अलग-अलग रवैया है। सेथे उसे जानने-समझने को उत्सुक है, पॉल डी उस पर अविश्वास और संदेह करता है। डेनवर उसे बहन मान कर उसकी सेवा-सुश्रुषा करती है, खिलाती-पिलाती है। लड़की अपना नाम बिलवड बताती है, उसकी जरूरतें – भूख, प्यार, अधिकार – सब बेहिसाब हैं। वह पॉल डी को घर से निकाल बाहर करती है। सेथे को डेनवर के लिए एक पल को नहीं छोड़ती है। सेथे उसके चंगुल में कसती जाती है, मानसिक संतुलन खोने लगती है। बिलवड उसे लगातार उसके एक जघन्य कार्य की याद दिलाती है। अंत में डेनवर परिवार को फ़िर से सामान्य बनाती है।
बिलवड के रूप में ब्रिटिश अभिनेत्री थेंडी न्यूटन शरीर से किशोरी मन से शिशु का व्यक्तित्व उसी तरह निभाती है जैसे एक शिशु की हत्या होने पर आत्मा एक किशोरी के शरीर में प्रवेश कर आए। ऐसा ही हुआ है। बिलवड दो साल की थी जब सेथे ने उसको गुलामी के शिकंजे से बचाने के लिए मार डाला था। १८ साल के बाद वह आई है। आसान नहीं है यह चरित्र, बहुत कठिन है इस जटिल चरित्र को निभाना। न्यूटन ने इसे भरसक निभाया है, बिलवड को सजीव कर दिया है। वह किशोरी दीखती है, शिशु जैसा व्यवहार करती है। दर्शक अनुभव करता है, विश्वास करता है कि बिलवड एक किशोरी के शरीर में एक शिशु का मन है। भूल नहीं सकता है दर्शक इस भूत को, इस हॉन्टिंग चरित्र को। टोनी मॉरीसन को बधाई देनी चाहिए ऐसा चरित्र रचने के लिए और न्यूटन बधाई की पात्र है ऐसा चरित्र इतनी कुशलता से निभाने के लिए। कुछ दृश्य इतने पॉवरफ़ुल हैं कि सदैव याद रहेंगे। बिलवड का पॉल डी के पास जाकर उससे कहना, "मुझे यहाँ स्पर्श करो, मुझे भीतर स्पर्श करो, मेरा नाम लो।" इसी तरह उसका अंत भी नहीं भूला जा सकता है। वह जैसे रहस्यमय तरीके से अवतरित हुई थी वैसे ही रहस्यमय ढ़ंग से गायब हो जाती है।
फ़िल्म की कहानी उपन्यास की भाँति समय में आगे-पीछे चलती रहती है। कभी गुलामी का हादसा होता है, कभी स्वतंत्र जीवन का रोमांस फ़लता-फ़ूलता है। अमानवीय क्रूरता को स्मरण करते हुए सेथे और पॉल डी का प्रेम करना बहुत मर्मस्पर्शी फ़िल्मांकन है। इसी तरह सेथे की सास बेबी शुग्स (बीच रिचर्ड्स) का प्रकृति के बीच प्रवचन देता रूप एक अलौकिक अनुभव देता है।
सेथे ने जो किया वह क्यों किया यह तो स्पष्ट है पर क्या वह जायज है? क्या सही है, क्या गलत है, बताना बहुत कठिन है। बड़ा आसान है पॉल डी की तरह सेथे से कह देना तुम दोपाया हो, चौपाया नहीं। सेथे को उसका समाज सजा से बचा लेता है पर वह खुद को निरंतर सजा देने से रोक नहीं पाती है। ऊपर से शांत और सामान्य दीखती सेथे के भीतर जो घुट रहा है, जो चल रहा है, वह बहुत जटिल है। यह जटिलता फ़िल्म में दीखती है। यह जटिलता दर्शक की अनुभूति का अंग बनती है। बिलवड का अवतरण इसे और बढ़ाता है। फ़िल्म दिखाती है कि मनुष्य कितना ऊपर उठ सकता है और कितना नीचे गिर सकता है। क्या हो सकता है और क्या होता है।
मानसिक-भावात्मक यंत्रणा, रूपकों को साकार करने के लिए निर्देशक डेम और कलाकारों ने जो मशक्कत की है, वह अपनी पूर्णता को पहुँचा है। पात्रों की जिजीविषा, उनका मानसिक-शारीरिक संघर्ष, गुलामी की क्रूरता, मातृत्व की पराकाष्ठा, क्षण में लिया गया जीवन उलट-पुलट करने वाला निर्णय, उस निर्णय का प्रतिफ़ल, क्या कोई अन्य निर्णय लिया जा सकता था, अतृप्त आत्मा, अपराधबोध, पारिवारिक संबंध सब फ़िल्म समाप्त होने के बाद भी दर्शक को छोड़ते नहीं हैं। दोबारा फ़िल्म देखने को बाध्य करते हैं। दोबारा देखने पर और खूबसूरत-मार्मिक अर्थ खुलते हैं। कुछ किताबें बार-बार पढ़ने की माँग करती हैं, कुछ फ़िल्में बार-बार देखे जाने की माँग करती हैं। बिलवड उनमें से एक है। दस साल लगे बनने में पर जो कलात्माक फ़िल्म बन कर तैयार हुई उसका एक-एक पल सार्थक है। कुछ चमत्कार होते हैं, कुछ चमत्कार किए जाते हैं। बिलवड के कथानक में चमत्कार हुए हैं, निर्देशक डेम ने फ़िल्म में चमत्कार किए हैं। हो सके तो अवश्य देखें, संजोने योग्य एक अनोखी अनुभूति पाएँ।
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