Wednesday, 1 October 2014

द पियानिस्ट: होलोकास्ट, संगीत और जिजीविषा

स्पीयलबर्ग की मंशा थी कि रोमन पोलांस्की ‘शिंडलर्स लिस्ट’ का निर्देशन करें। होलोकास्ट के भुक्तभोगी पोलांस्की ने इस प्रस्ताव को नकार दिया। उनका तर्क था कि होलोकास्ट से जो बच रहे हैं वे भाग्य और संयोग से बच रहे हैं न कि किसी ऑस्कर के हृदय परिवर्तन से। पोलांस्की ऑस्कर जैसे एकाध लोगों की भूमिका को बहुत महत्व नहीं देते हैं। कारण है उन्होंने खुद इस पीड़ा को भोगा है, एक बार नहीं कई बार। उनकी माँ यातना शिविर के गैस चेंबर में भुन कर धूँआ बना कर उड़ा दी गई थीं। इस हादसे से वे कभी नहीं उबर पाएँगे। उनके अनुसार यह कष्ट उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त होगा। यह तो उनके पिता की होशियारी के फ़लस्वरूप रोमन पोलांस्की का जीवन बचा। जब यह सब चल रहा था वे निरे बालक थे और यहूदी होने के कारण अपने माता-पिता के साथ नात्सियों द्वारा धर लिए गए थे। पिता ने नात्सी सैनिकों की आँख बचा कर बालक को कंटीले तारों के पार ढकेल दिया था। भयभीत, निरीह, एकाकी बालक काफ़ी समय तक क्रोकावा और वार्सा में भटकता रहा था। भाग्य और कुछ अनजान, मानवीय गुणों से युक्त संवेदनशील लोगों की कृपा के कारण वह जीवित बच रहा। ‘शिंडलर्स लिस्ट’ बनाने से उन्होंने इंकार किया परंतु जब उन्हें अपने जैसे ही बचे हुए एक आदमी की कहानी मिली तो उन्होंने ‘द पियानिस्ट’ फ़िल्म बनाई। ‘द पियानिस्ट’ कहने से इस फ़िल्म का वास्तविक महत्व, इसकी असल गहराई का भान नहीं होता है। यह फ़िल्म सच के जीवनानुभव पर आधारित है और इतिहास के इस काले अध्याय का कच्चा चिट्ठा है। इस फ़िल्म का मुख्य पात्र, १९३९ में पोलैंड का एक महान पियानोवादक जर्मनी द्वारा अधिकृत वार्सा में सारे समय अकेला भटकता रहा था। कुछ लोगों की कृपा से उसका जीवन बचता है। वह एक संयमी, निर्लिप्त व्यक्ति है, जिसका जीवन इस दुर्घष समय में भाग्य से बचा रहता है। यह फ़िल्म इसी महान पियानोवादक ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन के लिखित संस्मरण पर आधारित है। वार्सा पर जब पहली बार १९३९ में बम वर्षा होती है स्पीलमैन पोल रेडियो स्टेशन कर लाइव संगीत प्रस्तुत कर रहा था। वह प्रसिद्ध गैरपरम्परागत संगीतकार चोपिन का संगीत बजा रहा है। खिड़की के शीशे, छत का पलस्तर सब बम से उड़ रहे हैं, लोग स्टूडियो छोड़ कर जान बचाने के लिए भाग रहे हैं। वह संगीत बजाता रहता है। अंतत: पूरा रेडियो स्टेशन उड़ जाता है। इसी समय एक सेलोवादक से उसकी क्षणिक मुलाकात होती है। उसे किसी स्त्री को सेलो बजाते देखना बहुत अच्छा लगता है। इस इच्छा की पूर्ति फ़िल्म में बहुत बाद में एक त्रासद स्थिति में होती है। कला और युद्ध का रिश्ता शायद ही जुड़ता है। स्पीलमैन का समृद्ध, सुशिक्षित परिवार, भाई-बहन, माता-पिता सब सुरक्षा की दृष्टि से समय रहते वार्सा से निकल जाना चाहता है। भारतीयों की तरह ही उसका परिवार बहसबाजी में कुशल है, उसमें काफ़ी समय उलझा रहता है। ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन का कहना है कि वह कहीं नहीं जा रहा है। उसे विश्वास है कि शीघ्र यह नात्सी अत्याचार समाप्त हो जाएगा और सब कुछ पहले की तरह सामान्य हो जाएगा। क्या ऐसा होता है? काश ऐसा होता। नहीं, ऐसा कुछ नहीं होता है। दर्शक देखता रहता है कैसे यहूदियों पर नात्सी शिकंजा कसता जाता है। रोज एक नया फ़रमान जारी करके उनका, वहाँ के सारे यहूदियों का सब कुछ छीन लिया जाता है। यहाँ तक कि उनकी अस्मिता भी। वार्सा के यहूदी पीछे ढ़केले जा कर घेटो में सिमटते जाते हैं, अमानवीय जीवन जीने को लाचार हो जाते हैं। दीवार चिन कर उन्हें दुनिया से काट दिया जाता है। अल्पकाल के लिए दिखाए ईटों की चिनाई के दृश्य भुलाए नहीं भूलते हैं। जैसे अंग्रेज भारतीयों से ही भारतीयों पर अत्याचार करवाते थे वैसे ही नात्सी ऑफ़ीसर यहूदियों से यहूदियों पर अत्याचार करवाते हैं। नात्सी नियमों को लागू करने के लिए यहूदी पुलिस को बाध्य किया जाता है। ब्लैडीस्लाव और उसके परिवार को गिरफ़्तार करके यातना शिविर जाने वाली ट्रेन पर चढ़ने का आदेश दिया जाता है। भाग्य से एक मित्र उसकी सहायता करता है और ट्रेन पर चढ़ने और मृत्यु के मुँह में जाने के स्थान पर वह बच निकलता है। मगर बच निकलना क्या इतना आसान है। इस बच निकलने के बाद का जीवन कैसा है इसके लिए फ़िल्म ‘द पियानिस्ट’ देखनी होगी। परिवार मृत्यु के मुँह में जा चुका है और वह बच रहा है, उसके भीतर की अपराध ग्रंथी उसका लगातार पीछा करती है। जीवित रहने के लिए उसे तरह-तरह की कठिनाइयों से गुजरना होता है, भय-दहशत, भूख-प्यास-बीमारी का लगातार सामना करना पड़ता है। एक ओर नात्सी अत्याचार चल रहा था वहीं दूसरी ओर कुछ पोल प्रतिरोध दस्ते भी सक्रिय थे। लम्बे, खूबसूरत, शांत आशावादी ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन की भूमिका में एड्रियन ब्रोडी का चुनाव बहुत सटीक है। वह प्रतिरोध दस्ते की सहायता से जीवित रहता है मगर जीवन आसान न था। उसके इस जीवन को यह फ़िल्म विस्तार से दिखाती है। चाक्षुष रूप से यह फ़िल्म दर्शक को स्तंभित करती है। नायक एक सहज विश्वास के तहत जीता है। उसका विश्वास है कि जैसा पियानो वह बजाता है वैसा जो भी बजाएगा, उस व्यक्ति के साथ सब ठीक होगा। उसे पूरा विश्वास है कि जल्द ही सब ठीक हो जाएगा, सामान्य हो जाएगा। यही विश्वास वह दूसरों को भी दिलाता है। उसका यह विश्वास किसी खबर, किसी तथ्य पर आधारित नहीं है। बस वह स्वभाव से आशावादी है, यह उसका सहज विश्वास है। फ़िल्म के अंत की ओर आते हुए चोपिन का संगीत उसके बचे रहने का बायस बनता है। एक जर्मन ऑफ़ीसर उसकी जान बचने का कारण बनता है। किसी समूह के सारे लोग दुष्ट हों यह आवश्यक नहीं है, क्रूर-से-क्रूर दल में कोई मानवीय अनुभूति से पूर्ण हो सकता है। यह जर्मन ऑफ़ीसर कैप्टन विल्म होसेनफ़ेल्ड भी न केवल संगीत प्रेमी है वरन मनुष्यता के गुणों से भी पूर्ण है। वह सही मायनों में धार्मिक व्यक्ति है। थॉमस क्रेसचमान ने यह भूमिका बहुत आधिकारिक तरीके से की है। वास्तविक आत्मकथा में भी ऐसा ही हुआ है। बाद में यह ऑफ़ीसर युद्धबंदी है और स्पीलमैन उसकी सहायता करना चाहता है। समय ऐसा था कि वह कैदी की सहायता नहीं कर पाता है। होसेनफ़ेल्ड की मौत रूस के यातना शिविर में होती है। वास्तविक स्पीलमैन सदा उसके परिवार के संपर्क में रहता है। इस फ़िल्म की सेट डिजाइनिंग उजाड़ वार्सा में एकाकी पियानोवादक को एक ऐसे स्थान पर स्थापित करती है जहाँ से वह पियानो पर बैठा अपनी ऊँची खिड़की से बाहर के सारे कार्य-व्यापार देख सकता है, देखता है मगर वह खुद इन सबसे दूर है। वह सुरक्षित है, भूखा-बीमार है, एकाकी और बुरी तरह से भयभीत है। उसकी आँखों के सामने लोगों को लाइन से खड़ा करके गोलियों से भून दिया जाता है। वक्त-बेवक्त बम से इमारतें, दीवाल उड़ती रहती हैं, जलती रहती हैं। यहाँ तक कि अस्पताल भी इस कहर से नहीं बचता है। स्पीलमैन के प्राण पियानो में बसते हैं, विडंबना है उसने ऐसे स्थान में शरण ली हुई है जहाँ पियानो है मगर वह उसे बजा नहीं सकता है। कैसे बजाए, कैसे बजाने का साहस करे। पियानो बजाते ही न केवल उसके प्राण खतरे में पड़ जाएँगे वरन और कई जीवन नष्ट हो जाएँगे। वह काल्पनिक रूप से पियानो बजाता है उसके मन-मस्तिष्क में पियानो की ध्वनि गूँजती रहती है। उसकी अँगुलियाँ थिरकती रहती हैं। जिसमें कला की तनिक-सी भी समझ है वह उसकी बेबसी से द्रवित हुए बिना नहीं रह सकता है। एक बार जब वह अपनी जान बचाने के लिए किसी तरह दीवार फ़ाँद कर दूसरी ओर कूदता है और अपना पैर तोड़ बैठता है, उस समय उजाड़ घेटो और एकाकी स्पीलमैन का दृश्य दुनिया से उसके कटे होने और नात्सी द्वारा तहस-नहस दुनिया को फ़िल्म बड़ी खूबसूरती (!) से दिखाती है। नात्सी अमानवीय काल में कई लोगों ने अपने दिन परछत्ती पर छिप कर गुजारे, एन फ़्रैंक की डायरी इसका गवाह है। बाद में टूटी एड़ी के साथ स्पीलमैन भी एक परछत्ती पर अपने दिन गुजारता है। फ़िल्म के अंत तक स्पीलमैन कैसे बचा रहता है, कौन उसकी सहायता करता है, उसके बच रहने में पियानो की क्या भूमिका है। ये सारी बातें लिख कर बताने की नहीं है और न ही पढ़ कर समझने की हैं। इन्हें तो देख कर ही जाना-समझा-महसूसा जाना चाहिए। पोलांस्की ने फ़िल्म के अंतिम हिस्से को जैसे फ़िल्माया है वह फ़िल्म इतिहास में संजोने लायक है। अधिकतर होलोकास्ट की फ़िल्में प्रदर्शित करती हैं कि जो इस अमानवीय काल से बच रहे वे अपने साहस और बहादुरी से बचे। वे लोग बहादुर थे। पोलांस्की के अनुसार जो बच निकले वे सब-के-सब बहादुर नहीं थे। सब लोग बहादुर हो भी नहीं सकते हैं मगर फ़िर भी कुछ व्यक्ति बहादुर न होते हुए भी बच रहे। कई फ़िल्म समीक्षक उनके इस नजरिए से सहमत नहीं हैं। क्या सबको सहमत किया जा सकता है, क्या फ़िल्म निर्देशक का उद्देश्य सबको सहमत करना होता है? समीक्षकों को लगता है कि फ़िल्म बहुत अधिक उदासीन है। उसमें उकसाने, आग्रह करने का अभाव है। पियानोवादक प्रचलित अर्थ में हीरो नहीं है, वह एक कलाकार है, जुझारू या लड़ाकू नहीं है। फ़िर भी वह बच निकलता है। वह कायर नहीं है, जीवन बचाने के लिए जो वह कर सकता था उसने किया। वह कभी नहीं बच सकता था यदि उसका भाग्य साथ नहीं देता। वह बच नहीं सकता था यदि संयोग से उसे कुछ गैर यहूदी लोग न मिलते, जो उस पर दया न करते, जो उसकी सहायता न करते। ये लोग अपनी जान जोखिम में डाल कर उसकी रक्षा करते हैं, उसका जीवन बचाते हैं, उसे यथासंभव सहायता देते हैं। मानवीयता किसी धर्म या नस्ल की बपौती नहीं होती है। इन्हीं में ऐसे लोग भी हैं जो उसके नाम पर चंदा जमा करके खुद हड़प जाते हैं। पूरी फ़िल्म में पियानोवादक मात्र एक दर्शक, एक साक्षी रहता है, जो वहाँ था जहाँ यहूदियों पर नात्सी शिकंजा कसता जा रहा था। असल स्पीलमैन ने सब कुछ अपनी आँखों से देखा था, उसे स्मरण रखा। बाद में शब्दों में पिरोया। पोलांस्की वास्तविक व्यक्ति स्पीलमैन से तीन बार मिले थे। फ़िल्म के विषय में उसने कोई विशेष सुझाव नहीं दिए पर वह खुश था कि उसके जीवन पर फ़िल्म बनाई जा रही है। फ़िल्म बन कर समाप्त होने के कुछ पूर्व ८० वर्ष की उम्र में उसकी मृत्यु हुई। उसकी आत्मकथा नात्सी अत्याचार समाप्ति के तत्काल बाद प्रकाशित हुई थी। इस आत्मकथा में कुछ यहूदियों को गलत और एक जर्मन को दयालु दिखाया गया है इसलिए अधिकारियों ने इसे उस समय प्रतिबंधित कर दिया था। ९० के दशक में यह पुन: प्रकाशित हुई इसी समय पोलांस्की ने इसे देखा और इसे अपनी फ़िल्म का विषय बनाया। यह एक गंभीर फ़िल्म है, होलोकास्ट पर बनी फ़िल्म ‘लाइफ़ इज ब्यूटीफ़ुल’ की तरह हास्य और त्रासदी का मिश्रण नहीं है, न ही ‘शिंडलर्स लिस्ट’ की तरह होलोकास्ट को डायल्यूट करके प्रस्तुत करती है। इसका अप्रोच ‘शिंडलर्स लिस्ट’ से बिल्कुल भिन्न है। ‘शिंडलर्स लिस्ट’ ऑस्कार के जटिल व्यक्तित्व में आए परिवर्तन पर ध्यान देती है जबकि ‘द पियानिस्ट’ का नायक अपने भीतर अपराध बोध से लड़ते हुए जीवित रहता है। उसके भीतर अपराध बोध है क्योंकि वह जीवित है और उसके परिवार के लोग मारे जा चुके हैं। उसकी जिजीविषा उसे बुरी-से-बुरी परिस्थिति में जीवित रखती है। चूँकि स्पीलमैन नात्सी शिविर नहीं जाता है अत: वहाँ के मौत गृहों को फ़िल्म में नहीं दिखाया गया है। वहाँ की हैवानियत का चित्रण फ़िल्म नहीं करती है। मगर नात्सी का सिस्टेमेटिक दमन-शोषण शिविरों के बाहर भी जारी था। उस दमन का बड़ी बारीकी, कुशलता और विस्तार से चित्रण इस फ़िल्म में मिलता है। दमन इतना भयंकर है कि दर्शक के रोंये खड़े हो जाते हैं। वार्सा के यहूदियों से उनकी सारी संपत्ति छीन ली जाती है और उन्हें घेटो में डाल कर उनके चारो ओर दीवार चुन दी जाती है। यहूदी पुलिस ऑफ़ीसर से ही नात्सी नियम-कायदे उन पर लागू करवाए जाते हैं। कितना दर्दनाक दृश्य है जब एक बच्चा खाने की चीजें ले कर नाली से आते हुए उसमें फ़ँस जाता है। स्पीलमैन उसे सँकरी नाली से खींच कर निकालने का प्रयास करता है। नतीजन बच्चा जब नाली से निकलता है उसकी मौत हो चुकी है। फ़िल्म में यह दृश्य बीच में आता है जबकि किताब में यह एक शुरुआती दृश्य है। प्रतिरोधी दस्ते की सहायता से नायक बचता है, मगर प्रतिरोधी दस्ते की कार्यवाहियों को भी फ़िल्म नहीं दिखाती है। बस उनके कारनामों की एकाध झलक फ़िल्म में मिलती है। फ़िल्म के अंत में स्पीलमैन पुन: पियानो बजाता है और दर्शक-श्रोता खड़े हो कर उसक सम्मान करते हैं। वास्तविक स्पीलमैन भी युद्धोपरांत पियानो बजाता रहा था। दर्शक वही देखता है जो नायक को दीखता है, दर्शक उन ध्वनियों को सुनता है जो नायक के दिमाग में सुनाई देती हैं। उसकी लाचारी, उसकी बेबसी दिल में कचोट उत्पन्न करती है। उसकी खूबसूरत अंगुलियाँ पियानो बजाने को तरसती हैं, उसका यह दु:ख दर्शक को बेचैन करता है। उसके चेहरे और उसकी आँखों का भाव सब मिल कर फ़िल्म को दर्शक के लिए अनुभव नहीं, अनुभूति बना देते हैं। निर्देशक नायक से मौखिक (वर्बल) से अधिक भावात्मक (नॉनवर्बल) तरीके से अपना कथ्य संप्रेषित करवाने में सफ़ल रहा है। शारीरिक मुद्राओं, चेहरे की भाव-भंगिमा और आँखों की अभिव्यक्ति से पूरी फ़िल्म संप्रेषित होती है। नायक बहुत कम बोलता है। वह एक कलाकार है, पियानो बजाने में जितना कुशल है अन्य कामों के उतना ही अकुशल (क्लमसी)। यह असावधानी, बेढ़ंगापन उसकी मुसीबतों को बढ़ाता है या इससे उसे कुछ फ़ायदा होता है यह निर्णय फ़िल्म देख कर खुद करना होगा। फ़िल्म की समाप्ति के बाद भी दर्शक फ़िल्म के साथ रहता है। भूखे, प्यासे, बीमार और भयभीत व्यक्ति का इतना सटीक और आधिकारिक अभिनय देखना अपने आप में एक उपलब्धि है। हद तो तब हो जाती है जब नलके में पानी भी खत्म हो जाता है, एक प्यासे व्यक्ति की हताशा का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। इसी तरह कई अन्य दृश्य बहुत त्रासद और भयंकर हैं। नात्सी ऑफ़ीसर का स्पीलमैन के पिता को थप्पड़ मारना, एक अन्य ऑफ़ीसर का व्हीलचेयर में बैठे एक बूढ़े को बाल्कनी से गिराना, गार्ड्स का यहूदियों को सड़क पर नचवाना। भूखे आदमी का बुसे हुए, जमीन पर गिरे सूप को पाने के लिए लपकना। कुत्ते से भी बद्तर स्थिति में उसे चाटना। जीवन में सामान्य बातों जैसे खाना-पानी, परिवार, स्वतंत्रता का मूल्य इस फ़िल्म को देख कर पता चलता है, अन्यथा हम इन बातों को कभी महत्व नहीं देते हैं। हमें अनुग्रहीत होना चाहिए कि हम स्वतंत्र है। फ़िल्म स्वतंत्रता के मूल्य को स्थापित करती है, मानवीयता को जाग्रत करती है। रोनाल्ड हारवुड ने स्पीलमैन की आत्मकथा से फ़िल्म का इतना सटीक स्क्रीनप्ले तैयार किया जिसने उन्हें पुरस्कार के मंच तक पहुँचाया। पोलांस्की पुस्तक के प्रति ईमानदार है, साथ ही उन्होंने अपने अनुभव इसमें पिरोए हैं। पोलांस्की का कहना है कि वे सदा जानते थे कि एक दिन वे पोलिश इतिहास के इस दर्दनाक दौर पर अवश्य फ़िल्म बनाएँगे मगर वे इसे अपने जीवन पर आधारित करके नहीं बनाना चाहते थे। अत: जब उन्हें १९४६ में लिखी यह आत्मकथा पुनर्प्रकाशन पर मिली, पहला अध्याय पढ़ते ही उन्होंने तय किया कि वे इस पर फ़िल्म बनाएँगे। यह भयंकर होते हुए भी आशा का संचार करने वाली फ़िल्म है। इस आत्मकथा में अच्छे-बुरे पोल लोग हैं, अच्छे-बुरे यहूदी हैं, अच्छे-बुरे जर्मन हैं। निर्देशक हॉलीवुड स्टाइल की फ़िल्म नहीं बनाना चाहता था। जब वे लोकेशन के लिए क्राकाऊ गए तो उनकी स्मृति पुन: जीवित हो गई। फ़िल्म की शूटिंग प्रारंभ करने से पहले उन्होंने इतिहासकारों और घेटो के बचे लोगों से संपर्क साधा और उनकी सलाह ली। उन्होंने अपनी टीम को वार्सा घेटो के फ़ुटेज भी दिखाए। नायक के रूप में उनका ध्यान अभिनेता की शारीरिक साम्यता पर उतना नहीं था। वे अपनी कल्पना के अनुसार चरित्र चाहते थे। उन्हें एक युवा की तलाश थी भले ही वह प्रोफ़ेशनल और नामी एक्टर न हो। चूंकि वे फ़िल्म इंग्लिश में बना रहे थे अत: ऐसा व्यक्ति चाहते थे जो यह भाषा भलीभाँति जानता-बोलता हो। अभिनेता ब्रोडी की संभावनाओं और प्रतिभा का फ़िल्म में पूरा-पूरा उपयोग निर्देशक ने किया है। उसके चुनाव के पहले नायक की खोज के लिए पोलांस्की ने कई हजार लोगों का साक्षात्कार किया। पहले उन्होंने लंदन में खोज की, १४०० लोग ऑडीशन के लिए आए पर कोई पोलांस्की के मानदंड पर खरा नहीं उतरा। इस खोज में वे ब्रिटेन से अमेरिका जा पहुँचे। जब उन्होंने अनुभवी एड्रियन ब्रोडी का काम देखा तो उन्हें मनलायक नायक मिल गया, यही अमेरिकी अभिनेता उनका पियानिस्ट बना। फ़िल्म में कई नॉन प्रोफ़ेशनल लोगों ने भी अभिनय किया है। अधिकाँश कलाकार जर्मन और पोलिश हैं। अभिनेता ने भी किरदार निभाने के लिए खूब परिश्रम किया। अपने खाने-पीने पर नियंत्रण करके कमजोर होने-दीखने का काम किया। पहले भी ब्रोडी को संगीत से लगाव था मगर उसने पियानो बजाने का प्रशिक्षण लिया, अभ्यास किया, चोपिन बजाना सीखा, संगीत के उन हिस्सों को बजाना सीखा जो फ़िल्माए जाने थे। वह अभी भी संगीत पढ़ नहीं सकता है परंतु फ़िल्म के लिए जब उसने संगीत बजाया तो वे उसके मनपसंद पल बन गए। उसके मन में इच्छा है कि वह संगीत कलाकारों से जुड़े और संगीत की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कार्य करे। उसने पोलिश भाषा का सीखने का अभ्यास किया। बीबीसी की लौरा बुशेल के अनुसार यह फ़िल्म ब्रोडी की प्रतिभा को प्रदर्शित करने के लिए सबसे अधिक स्मरणीय है। दर्जनों फ़िल्म में काम कर चुके ब्रोडी का कहना है कि पियानिस्ट का अभिनय करने के लिए वे खुद को १२ से १७ घंटे एकाकी रखते, किसी से मिलते-जुलते नहीं थे। जिंदगी में जो भी आरामदायक, सकून भरा है, उससे दूर रहते थे। लोगों, भोजन, कला-संगीत सबसे दूर एक ऐसे व्यक्ति का अनुभव करते जिसका सब कुछ छिन गया है, जिसे अपने प्यारे लोगों, अपनी लगन से वंचित कर दिया गया है। उन्होंने स्पीलमैन के अनुभवों को आत्मसात करने के लिए यह सब किया। उसकी सच्चाई को अपना यथार्थ बनाया। प्रोडक्सन शुरु होने के छ: सप्ताह पूर्व उन्होंने अपना वजन ३० पौंड कम कर लिया था, मित्रों-रिश्तेदारों से मिलना छोड़ दिया था, अपना घर और अपनी कार, भौतिक सुख-साधन त्याग दिए थे। अभिनय की ऊँचाई तपस्या माँगती है, ब्रोडी ने यह किया। उनका कहना है कि जिन परिस्थितियों से स्पीलमैन या उन जैसे लोग होलोकास्ट के दौरान गुजरे, उन्होंने जो अनुभव किया, जो कष्ट उठाए इससे उनके अनुभवों की कोई तुलना नहीं हो सकती है । लेकिन उनका कहना है कि अपने अनुभव से उन्होंने गहन बोध पाया है। उन्होंने ऐसा किया क्योंकि वे अपने काम को बहुत गंभीरता से लेते हैं। निर्देशक के रूप में रोमन पोलांस्की अपने अभिनेताओं को कोई रियायत नहीं देते हैं। एक बार उन्होंने ब्रोडी से कहा कि तुम्हें बिल्डिंग पर चढ़ना है, छत तक जाना है और खिड़की से चढ़ना है, वहाँ लटके रहना है ताकि शूटिंग की जा सके। फ़िर बिल्डिंग से सरकते हुए उतरना है, गटर पर लटके रहना है और फ़िर गिरना है। ब्रोडी ने पोलांस्की से कहा, “क्या पहले किसी ने यह किया है?” पोलांस्की ने कहा, “हॉलीवुड एक्टर्स आओ मैं तुम्हें दिखाता हूँ।” और ६८ साल के पोलांस्की दौड़ कर बिल्डिंग तक गए, खिड़की से चढ़े, वहाँ लटके रहे, छत पर गए, वहाँ से सरकते हुए गटर पर झूलते रहे और फ़िर वहाँ से नीचे जमीन पर कूद पड़े, उनके अंग छिल गए। पोलांस्की ने ब्रोडी से कहा, “लो किसी ने यह किया है, अब तुम करो।” फ़िल्म में ब्रोडी भावना की विभिन्न छटाओं की अभिव्यक्ति में कुशल हैं। उनका अभिनय स्तंभित करता है। फ़िल्म की शूटिंग वार्सा, प्राग तथा स्टूडियो में हुई है। पॉवेल एडलमैन की फ़ोटोग्राफ़ी स्तंभित करती है। फ़िल्म के अधिकाँश भाग में धूसर-भूरे रंग का प्रयोग मनचाहा प्रभाव डालता है। शुरु में कुछ रंगीन दृश्य हैं, जब फ़िल्म आगे बढ़ती है तो भूरा प्रमुख बन बैठता है। जब नात्सी वार्सा छोड़ने लगते हैं तब फ़िर से सूर्य की रौशनी नजर आती है। जब स्पीलमैन जर्मन कमांडर के लिए पियानो बजाता है तब पियानो पर रौशनी पड़ती है, इस समय रौशनी नायक पर भी पड़ती है और जीवन की थोड़ी उम्मीद बँधती है। पोलांस्की ने एक सैनिक स्थल पर सेट का निर्माण कर उसे डायनामाइट से उड़ा कर भग्न घेटो का दृश्य तैयार किया था। कोई आश्चर्य नहीं कि इस फ़िल्म को सारे उत्तम पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। सर्वोत्तम निर्देशक, सर्वोत्तम अभिनेता, सर्वोत्तम स्क्रीनप्ले, सर्वोत्तम सेट डिजाइनिंग... लिस्ट बड़ी लंबी है। गर्व की बात है कि स्पीलमैन के पुत्र एंड्रेज स्पीलमैन पुरस्कार समारोह में उपस्थित थे। अभिनेता ब्रोड़ा के माता-पिता भी समारोह में आए थे और सब खुशी से रो रहे थे। ये सम्मान द्वितीय विश्वयुद्ध के शिकार हुए लोगों के लिए समर्पित थे। सर्वोत्तम फ़िल्म सूचि में इसका नाम सदा के लिए दर्ज है। स्पीलमैन के बेटे ने पत्रकारों को बताया कि हमारा परिवार मेरे पिता की कहानी को अकादमी द्वारा सपोर्ट करने से बहुत सम्मानित और गदगद हैं। हम लोग यह सम्मान रोमन पोलांस्की और फ़िल्म की असामान्य कास्ट और क्रू के साथ साझा करने में गर्वित हैं। आगे उन्होंने कहा कि यह पोलिश यहूदियों के साहस और मानवता को स्मरण करना है जिसे हमने द्वितीय विश्व युद्ध में खो दिया था। उन्होंने बताया कि साठ साल बीत चुके हैं मगर हम कुछ भूले नहीं हैं। समीक्षकों ने फ़िल्म प्रदर्शन के तत्काल बाद सर्वोत्तम शब्दों में इसकी प्रशंसा की। एक समीक्षक ने तो यहाँ तक कहा कि फ़िल्म का अंत इंद्रियातीत (ट्रांसिडेंटल) के निकट है। लोग खुश थे कि पोलांस्की दोबारा फ़िल्म जगत में स्थापित हो गए हैं, इसके पहले उनकी कुछ फ़िल्में असफ़ल रहीं थीं। उनके लिए यह फ़िल्म बनाना आसान नहीं था। वार्सा जा कर उनकी स्मृतियाँ पुन: जाग्रत हो गई थीं। फ़िल्म की शूटिंग के दौरान वे कई बार अपसेट हो जाते थे। इस पूरे समय उन्होंने खुद को बहुत लो प्रोफ़ाइल में रखा। मीडिया में बढ़-चढ़ कर कोई बयान नहीं दिया। कला की जड़े अक्सर बहुत दु:ख में गड़ी होती हैं। पोलांस्की १९६१ में कम्युनिस्ट शासन के दमन से निकल भागे थे। दु:ख उनका पीछा बचपन से कर रहा है बाद में भी उसने उनका पीछा नहीं छोड़ा। १९६९ में उनकी पत्नी अभिनेत्री शरोन टेटे और उनके अजन्मे बच्चे की हत्या कर दी गई। इसके बाद उन्होंने ‘मैकबेथ’ बनाई, इसके पहले वे ‘रिपल्सन’ और ‘कल-डे-सेक’ बना चुके थे। उनकी अन्य फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म के प्रड्यूसर उनके पुराने मित्र जेने गटोवस्की हैं जो खुद जर्मनी द्वारा अधिकृत वार्सा से बचे हुओं में से एक हैं। फ़िल्म के वार्सा प्रीमियर के समय पोलांस्की खुद अभिनेता के साथ उपस्थित थे। वहाँ के राष्ट्रपति और तमाम बड़े लोग इस अवसर पर फ़िल्म देखने जमा थे। दर्शकों ने बीस मिनट तक खड़े हो कर तालियाँ बजाते हुए फ़िल्म, निर्देशक और अन्य तकनीशियन्स और कलाकारों को सम्मान दिया था। भले ही यह फ़िल्म एक व्यक्ति के नजरिए से बनी है मगर इसमें युद्ध की भयावहता, एक व्यक्ति की असहायता पूरी तरह से उभरी है। यह बहुत प्यारी-सुंदर फ़िल्म नहीं हैं, अधिकतर दृश्य उजाड़ परिदृश्य और वीराने तथा जनहीन कमरे के हैं। फ़िर भी एक बार इसे अवश्य देखा जाना चाहिए। एक बार देख कर दोबारा देखने की तलब यह फ़िल्म खुद ही जगाती है। फ़िल्म देखने के बाद प्रतिकार की भावना नहीं जगती है, वरन मानवता पर विश्वास जमता है। संगीत की शक्ति और जिजीविषा को सलाम करने का मन करता है। यह फ़िल्म संगीत की शक्ति, जिजीविषा और दुष्टता-बुराई के समक्ष डट कर खड़े रहने का दस्तावेज है। पोलांस्की ने एक साक्षात्कार में बताया कि वे फ़िल्म को बहुत तड़क-भड़क वाला नहीं बनाना चाहते थे मगर दूसरी ओर वे उस काल की डॉक्यूमेट्री भी नहीं बनाना चाहते थे। उनके अनुसार यह उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म है। भावात्माक रूप से यह ऐसा काम है जिसकी तुलना उनके किसी अन्य कार्य से नहीं की जा सकती है। यह उन्हें उस काल में ले जाता है जिसे वे आज भी स्मरण करते हैं। देखने के पश्चात फ़िल्म ‘द पियानिस्ट’ सदा-सदा के लिए दर्शकों की स्मृति का हिस्सा बन जाती है। 000

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