Wednesday, 12 November 2014
फ़िल्म निर्देशकों का दुलारा हैमलेट
शेक्सपीयर सदा से निर्देशकों का दुलारा रहा है और जब से फ़िल्में बनने लगी वह फ़िल्म निर्देशकों का भी दुलारा रहा है। उसके कई नाटकों पर, कई देशों में, कई भाषाओं में फ़िल्में बनी हैं। आगे भी बनेंगी। ‘हैमलेट’ उनमें से एक है। शेक्सपीयर का यह नाटक बहुत जटिल है और दक्ष निर्देशक को खोलने-खेलने का पर्याप्त अवसर देता है। इसलिए भी इसे मंचित करने का लोभ कुशल निर्देशक संवरण नहीं कर पाते हैं। इस पर विश्व भर में तमाम भाषाओं में फ़िल्में बनी है। प्रत्येक निर्देशक इसको अपने तरीके से परिभाषित करता है। यह नाटक एक चुनौती है और इसे समझने का, इसे अपने-अपने तरीके से फ़िल्म में प्रस्तुत करने का काम बहुत सारे फ़िल्म निर्देशकों ने किया है। मैंने जब इस नाटक को अपने शैक्षिक पाठ्यक्रम के दौरान पढ़ा था, तब कुछ खास पल्ले नहीं पड़ा था। बाद में भी कई बार अध्ययन किया, हर बार नया अर्थ खुला। एक बात यह भी लगी कि क्या हम सब के भीतर एक हैमलेट नहीं है? क्या हम निरंतर ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’ के ऊहापोह में नहीं घिरे रहते हैं? कितनी बार जब हमें सक्रिय होना चाहिए, आगे बढ़ कर काम करना चाहिए होता है, हम निष्कियता का दामन थामे, मुँह छिपाए चुपचाप बैठे रहते हैं।
यह भी गौर करने वाली बात है कि जितनी फ़िल्में ‘हैमलेट’ पर बनी हैं कदाचित उतनी शेक्सपीयर के किसी अन्य नाटक पर नहीं बनी हैं। इसमें शक नहीं कि यह उसका सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटक है, साथ ही सबसे लंबा और जटिल भी। चार हजार से ज्यादा लाइनों का लंबा नाटक होते हुए भी यह एक रोचक नाटक है। जटिल होते हुए भी गहन है। ब्रिटिश फ़िल्म संस्थान अभिलेखागार के अनुसार शेक्सपीयर के इस नाटक पर और इससे प्रभावित कम-से-कम बीस फ़िल्में बनी हैं। एक अन्य सूत्र के अनुसार पिछली सदी की शुरुआत अर्थात मूक फ़िल्मों के युग से अब तक इस पर तकरीबन ५० फ़िल्में बन चुकी हैं। इसमें शक नहीं कि भविष्य में और बनेंगी।
लॉरेंस ओलिवियर, ग्रिगरी कोज़िन्ट्सेव (रूसी), जॉन गिल्गड, रिचर्ड बर्टन, टोनी रिचर्डसन, फ़्रैन्को ज़ेफ़िरेली, कैनेथ ब्रैना के ‘हैमलेट’ खूब चर्चित और लोकप्रिय हुए। भारत क्यों पीछे रहता। किशोर साहू ने शुरुआती सिनेमा काल में इस पर एक फ़िल्म बनाई। १९३५ में नसीम बानो को ले कर सोहराब मोदी ने ‘खून का खून’ नाम से एक फ़िल्म बनाई। जिसमें हैमलेट वे खुद थे। यह अलग बात है कि १७ गानों वाली यह फ़िल्म बुरी तरह पिट गई। असल में फ़िल्म के रूप में इसकी शूटिंग हुई ही नहीं थी, वरन स्टेज पर चल रहे नाटक को कैमरे में कैद करके उसे फ़िल्म का रूप दिया गया था। ऐसा कई अन्य निर्देशकों ने किया है।
आशीष राजाध्यक्ष ‘इण्डियन सिनेमा के एन्साइक्लोपीडिया’ में सोहराब मोदी को शेक्सपीयर को भारतीय रजतपट पर लाने का श्रेय देते हैं। मैंने अपने एक आलेख में सोहराब मोदी को भारतीय सिनेमा को विश्व में पहचान दिलाने का श्रेय दिया है। सोहराब मोदी ने इतनी फ़िल्में बनाई और इतनी फ़िल्मों में अभिनय किया कि भारतीय सिनेमा की बात उनकी बात किए बिना पूरी हो ही नहीं सकती है। उनका महत्व ऐतिहासिक है। सिनेमा से पहले हिन्दी दर्शकों के मनोरंजन का एक प्रमुख साधन था नाटक। पारसी नाटक बहुत दिन तक मनोरंजन का साधन थे और जब यहाँ फ़िल्में बननी शुरु हुई तो अधिकाँश फ़िल्मों में इसी पारसी थियेटर के कलाकार काम कर रहे थे। हिन्दी सिनेमा बहुत दिन तक पारसी थियेटर के प्रभाव में रहा। पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी पारसी थियेटर के निर्देशक-अभिनेता थे। बाद में ये फ़िल्मों में आए, पर अपने साथ पारसी थियेटर के हाव-भाव, गीत, संवाद अदायगी की विशिष्ट शैली भी लेते आए। दर्शकों पर इनका ऐसा प्रभाव था कि आज भी अकबर कहते उनकी आँखों के सामने पृथ्वीराज कपूर की छवि उभरती है। इतना ही नहीं आज भी हिन्दी सिनेमा पर पारसी थियेटर का प्रभाव बरकरार है। जोर-जोर से डॉयलॉग बोलना, हाथ-पैर झटकना, चुटीले संवाद, गानों की भरमार... और इन्हीं सबसे हिन्दी सिनेमा की पहचान बनी है।
आज की पीढ़ी भले ही सोहराब मोदी के नाम और काम से परिचित न हो मगर हिन्दी सिनेमा का विद्यार्थी उनको जाने बिना अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सकता है। वे हिन्दी सिनेमा का इतिहास हैं। सोहराब मोदी एक प्रयोगकर्ता निर्देशक थे। उस शुरुआती दौर में मोदी ने सिनेमा में कई प्रयोग किए। इसे उनकी कमजोरी कह लें या प्रभाव कि वे जिस फ़िल्म में काम करते उसमें किसी अन्य अभिनेता को अपनी प्रतिभा दिखाने का कोई अवसर न मिलता, पूरी फ़िल्म पर मोदी-ही-मोदी छाए रहते। वैसे यह शिकायत तो महान निर्देशक और अभिनेता ओर्सन वेल्स से भी की जाती रही है। और भी कई अभिनेताओं पर यह दोष लगता रहा है। असल में यही इनकी खासियत भी रही है। सोहराब मोदी की प्रतिभा के सामने अन्य अभिनेता फ़ीके पड़ जाते थे। सोहराब मोदी ने शेक्सपीयर के नाटकों को भी अपनी फ़िल्मों का आधार बनाया। उन्होंने ‘हैमलेट’ पर आधारित इसी नाम से फ़िल्म बनाई। १० जनवरी १९३६ के टाइम्स ऑफ़ इंडिया में फ़िल्म ‘खून का खून’ की समीक्षा में करते हुए फ़िरोज़ रंगूनवाला लिखते हैं कि इस फ़िल्म में दूसरे चरित्रों का महत्व नहीं है। शेक्सपीयर ने दुनिया भर के नाटक निर्देशकों को आकर्षित किया और जब फ़िल्में बनने लगीं तो फ़िल्म निर्देशक भी उसके प्रभाव से बच नहीं सके। वह उनके लिए आकर्षण और चुनौती दोनों रहा है। भारत में भी शेक्सपीयर की दीवानों की एक लम्बी परम्परा रही है। नाटककार उसे सदैव मंच पर लाते रहे हैं, आगे चल कर फ़िल्मकार भी उसे अपनाते रहे हैं।
‘हैमलेट’ नाटक पर १९२८ में ही के. बी. अठावले ‘खून-ए-नाहक’ नाम से फ़िल्म बना चुके थे, जिसका आज कोई नामलेवा नहीं है। मोदी की फ़िल्म का जलवा कुछ और था। मोदी की फ़िल्म ‘खून का खून’ भी शेक्सपीयर के ‘हैमलेट’ पर आधारित है। असल में यह फ़िल्म कभी बनी ही नहीं थी। यह तो नाटक ही थी क्योंकि जब मंच पर यह नाटक खेला जा रहा था तभी सोहराब मोदी ने दो कैमरों की सहायता से पूरा नाटक कैमरे में कैद कर लिया था। बाद में उस रिकॉर्डिंग का उन्होंने जम कर संपादन किया और इस संपादित अंश का फ़िल्म के रूप में प्रदर्शन हुआ। यह काम एक प्रयोग के तौर पर किया गया था और प्रयोग सफ़ल रहा। फ़िल्म बनाना एक जोखिम का काम है और यह जोखिम मोदी ने उठाया। इस प्रयोग की बात खुद मोदी ने रंगूनवाला को बताई थी। हिन्दी सिनेमा में कई अभिनेता अपनी आवाज से पहचाने जाते हैं। सोहराब मोदी उनमें से एक हैं। यह भी एक सच है कि सोहराब मोदी ने नए-नए कलाकारों को मौका दिया। ‘खून का खून’ में नसीम बानो को उन्होंने अवसर दिया और अपनी पहली फ़िल्म के साथ नसीम बानो स्थापित हो गई। पारसी नाटकों की तरह इस फ़िल्म में गानों की भरमार थी, कुल १७ गाने थे इस फ़िल्म में। इतने सारे गानों वाली ‘हैमलेट’ फ़िल्म को सुन कर अपनी कब्र में पड़ा शेक्सपीयर पता नहीं क्या सोचता होगा। शायद खुश होता होगा क्योंकि कोई भी नाटककार जब हिन्दी दर्शकों के समक्ष आएगा तो यह उसे अपनी खुशकिस्मती लगेगी। इतना बड़ा दर्शक वर्ग और कहाँ उपलब्ध होगा। सोहराब मोदी को पृथ्वीराज कपूर की तरह ही शेक्सपीयर अभिनेता कहा जाता है। अठावले की फ़िल्म के बावजूद कहा जा सकता है कि उन्होंने ही शेक्सपीयर को सबसे पहले हिन्दी रजतपट पर स्थापित किया। सोहराब मोदी ने १९३५ में मात्र ३८ साल की उम्र में अपनी फ़िल्म कंपनी की स्थापना की। उनकी फ़िल्म कम्पनी का नाम ‘स्टेज फ़िल्म कंपनी’ था। इसी कम्पनी के तहत उन्होंने १९३५ में ‘खून का खून’ बनाई। अगले साल अपनी दूसरी फ़िल्म ‘सैद-ए-हवस’ भी उन्होंने नाटक को रिकॉर्ड करके बनाई। यह फ़िल्म भी शेक्सपीयर के नाटक पर आधारित थी। शेक्सपीयर के नाटक ‘किंग जॉन’ का रूपांतरण था यह नाटक। यह दीगर बात है कि इन दोनों फ़िल्मों से उन्हें कोई आर्थिक लाभ नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
‘हैमलेट’ नाटक पर सीधे-सीधे कई फ़िल्में बनी है और इसे रूपांतरित करके भी तमाम फ़िल्में बनी हैं। जिन निर्देशकों ने इसको रूपांतरित करके फ़िल्में बनाई हैं उनमें से कुछ फ़िल्में खूब प्रसिद्ध हुई। पश्चिम जर्मनी के निर्देशक हेल्मट कौटनेर ने ‘रेस्ट इज साइलेंट’ नाम से फ़िल्म बनाई जिसमें सामाजिक भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया गया है। प्रसिद्ध जापानी फ़िल्म निर्देशक अकीरा कुरुसावा ने ‘द बैड स्लीप वेल’ नाम से इसे बनाया। उन्होंने इसे कॉरपोरेट जगत में स्थापित किया। फ़्रांस के क्लाउड चैबरोल ने ‘ओफ़ीलिया’ को मुख्य किरदार के रूप में प्रस्तुत किया। १९८३ में ‘स्ट्रेंज ब्रू’ नाम से बनी फ़िल्म जहरीली शराब बनाने वालों का भंडा फ़ोड़ती है। यहाँ एल्सीनोर ब्रूवरी नामक इस शराब कंपनी का पूर्व मालिक रहस्यमई परिस्थितियों में मारा गया है और अब उसका छोटा भाई फ़ैक्ट्री चला रहा है। यह एक सत्य घटना पर आधारित फ़िल्म है। इसी से मिलती-जुलती फ़िल्म १९८७ में फ़िनलैंड में बनी, नाम है ‘हैमलेट गोज टू बिजनेस’। यहाँ भी आरा मिल का मालिक मरा है और उसका भाई मिल चला रहा है। भाई का इरादा मिल को बेच कर दूसरा धंधा करने का है। प्रसिद्ध नाटककार टॉम स्टॉपर्ड ने १९९० में अपने ही नाटक ‘रोजेनक्रैंट्ज़ एंड गिल्डनस्टेर्न आर डेड’ को फ़िल्म रूप में भी बनाया। २००९ में जोर्डन गैलैंड ने ‘रोजेनक्रैंट्ज़ एंड गिल्डनस्टेर्न आर अनडेड’ बनाई। वैसे यह स्टॉपर्ड के नाटक-फ़िल्म से स्वतंत्र फ़िल्म थी और कॉमिक फ़िल्म थी। यहाँ फ़िल्म के भीतर पूरे समय एक नाटक चलता है।
एकमत से आलोचकों के अनुसार ‘हैमलेट’ के आधार पर बनने वाली फ़िल्मों में सर्वाधिक सफ़ल रही वॉल्ट डिज़्नी की ‘द लॉयन किंग’। इसे कई पुरस्कार मिले। यहाँ भी इस फ़िल्म में राजा मारा गया है और उसका भाई प्राइड लैंड्स पर राज कर रहा है तथा मृत राजा का बेटा सिंबा अपने दुष्ट चाचा से बदला लेता है। उसके पिता का भूत उसे इस काम के लिए उकसाता है। हाँ, डिज़्नी की परम्परा के अनुसार इसे त्रासदी बनने से बचाया गया है। स्क्रीनप्ले लिखने वालों ने खुद स्वीकार किया है कि वे अफ़्रीकी मिथक के साथ-साथ शेक्सपीयर की कहानी ‘हैमलेट’ से भी प्रभावित थे।
अब २०१४ में विशाल भारद्वाज ने अपनी शेक्सपीयर त्रयी की तीसरी फ़िल्म ‘हैमलेट’ पर आधारित ‘हैदर’ बनाई है। हैदर कश्मीर में स्थापित है। इसके पहले वे ‘मैकबेथ’ पर आधारित ‘मकबूल’ और ‘ओथेलो’ पर आधारित ‘ओंकारा’ बना चुके हैं। ‘ओंकारा’ ने अच्छा बिजनेस भी किया। इन दोनों फ़िल्मों पर मैंने पहले लिखा है। विशाल भारद्वाज ने ‘हैदर’ को अपने तरीके से परिभाषित किया है। यह पारिवारिक संघर्ष से अधिक राजनीति की कहानी बन गई है। इसी तरह ग्रिगरी कोज़िन्ट्सेव तथा कैनेथ ब्रेना की हैमलेट भी राजनीति पर बल देने वाली फ़िल्म हैं, जबकि ओलीवियर एवं ज़ेफ़िरेली की फ़िल्में राजनीति की बनिस्बत पारिवारिक रिश्तों को प्रमुखता से चित्रित करती हैं। असल में नॉर्वे के राजकुमार फ़ोर्टिनब्रास को प्रमुखता दी जाती है तो नाटक/फ़िल्म राजनीतिक झुकाव ले लेती है, अन्यथा यह पारिवारिक ड्रामा बनी रहती है।
‘हैदर’ सेना-पुलिस और पड़ौसी देश तथा स्वयं कश्मीर की सामाजिक-राजनैतिक स्थिति के कारण राजनीतिक रंग लिए हुए है। ‘हैदर’ फ़िल्म खूबसूरती और त्रासदी का मिश्रण है और बताना कठिन है कि शाहिद कपूर और तब्बू में से किसका अभिनय बेहतर है। के. के. मेनन को हैदर के चाचा के रूप में देखना अपने आप में एक भिन्न अनुभव है। वे ऐसे तरल अभिनेता हैं जो भूमिका में आसानी से समा जाते हैं। यहाँ वे क्लॉडियस के रोल में होने के बावजूद कई बार बहुत मासूम नजर आते हैं। गज़ाला मीर से उन्हें बहुत पहले से प्रेम है, कॉलेज के दिनों से। उसे खुश देखने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं।
अधिकाँश फ़िल्मों में नाटक के तरीके से ही हैमलेट को अपने पिता के हत्यारे और प्रतिकार की बात पता चलती है। भूत ही उसे वास्तविकता बताता है और बदला लेने के लिए कहता है। मगर बदलते समय के साथ इसमें भी परिवर्तित हुआ है। जर्मन फ़िल्म में हैमलेट एक प्रोफ़ेसर है और उसे एक रहस्यमय फ़ोन कॉल से अपने पिता की हत्या की सूचना मिलती है। इसमें पिता का भूत पुत्र को अपनी हत्या की बात बता कर प्रतिकार लेने की बात नहीं कहता है। भारद्वाज पोलिटिकली करेक्ट होने के कारण भूत-प्रेत से बचना चाहते हैं। हैदर का पिता सेना द्वारा अपहृत कर टॉर्चर करके मारा गया है अत: वे डॉक्टर के साथ रखे गए रूहदार का करेक्टर लाते हैं। भूत से या पिता के साथी से हत्या की बात पता चलना उसके भावनात्मक पक्ष को मजबूत करती है, अजनबी द्वारा फ़ोन कॉल मशीनी होता है, भावनाओं से रहित। रूहदार (इरफ़ान) बहुत थोड़ी देर के लिए परदे पर है मगर वह सूफ़ियों की तरह बात करता है और डॉक्टर का संदेश हैदर तक पहुँचाता है। इरफ़ान कम समय में ज्यादा प्रभाव छोड़ते हैं जो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हैदर फ़िल्म दो-तीन बार देखी। फ़ेसबुक के कारण हैदर पर फ़टाफ़ट खूब टिप्पणियाँ आई। नतीजा हुआ अपनी राय कायम करने में परेशानी। लेकिन राय तो कायम करनी है, जो जैसा समझ में आया उसे साझा करना है।
‘हैमलेट’ पर बनी कई फ़िल्में बहुत पहले देखी थीं। उनमें से अब जो मेरे पास अब भी उपलब्ध थीं उन्हें एक बार फ़िर से देख डाला। इस बीच विशाल भारद्वाज की ‘हैदर’ के अलावा बीबीसी की २००९ में बनी ‘हैमलेट’, १९९० की फ़्रैन्को ज़ेफ़िरेली की ‘हैमलेट’, १९९६ की कैनेथ ब्रैना की ‘हैमलेट’, किशोर साहू की ‘हैमलेट, अकीरा कुरुसावा की ‘द बैड स्लीप वेल’ फ़िर से देखी।
‘हैदर’ पर लिखते समय उन सब पर भी लिखना मुझे जरूरी लगा। १९५२ में ‘हैमलेट’ पर किशोर साहू द्वारा निर्देशित फ़िल्म इसी नाम से बनी है। इस फ़िल्म की सब से बड़ी विशेषता इसके संवादों की तुकबंदी है। हर पात्र तुक में बात करता है। शेक्सपीयर के डॉयलॉग का हिन्दुस्तानी भाषा संस्करण देखना हो तो इस फ़िल्म को अवश्य देखना चाहिए। बी. डी. वर्मा तथा अमानत हिलाल ने संवाद लेखन किया है। एकाध उदाहरण काफ़ी होगा: “कारखाना ए कुदरत की हर शह पानी है, जिंदगी मौत की निशानी है, इसलिए रोना-धोना नादानी है।” “आप बड़ी बेमरौउती से जबान खोलते हैं”, “देग में एक ही चावल टटोलते हैं।” “सरकार की तबियत इस कदर फ़िर गई जो मैं नजरों से गिर गई।” “बेवफ़ाई और बेमुरव्वती का सबब क्या है।” “ये तो मुझे भी नहीं मालूम कि दगाबाज औरतों का मतलब क्या है।” “नजर रखना”, “हाल की खबर करना।” जैसे संवाद तबियत खुश कर देते हैं। संवाद के मामले में ‘हैदर’ भी कम नहीं है। ‘हैदर’ में एक-से-एक चुटीले संवाद विशाल भारद्वाज ने स्वयं लिखे हैं। मासूम, तल्ख और कठोर-चुभते हुए हर मानसिक स्थिति के अनुकूल संवाद हैं, इस फ़िल्म में। नायक-खलनायक, प्रेमी-प्रेमिका, माँ-बेटे सबके संवाद बहुत सटीक हैं। बशारत पीर के साथ मिल कर विशाल भारद्वाज ने पटकथा भी खुद लिखी है।
आज किशोर साहू की फ़िल्म इन संवादों एवं गीतों के साथ फ़िर से देखना खासा मनोरंजक है। मात्र १८ वर्षीय बालिका माला सिन्हा ने ओफ़ीलिया की भूमिका बहुत खूबसूरती से अदा की है। हैमलेट के रूप में हैं उस समय के प्रसिद्ध अभिनेता प्रदीप कुमार। उफ़! उनकी अदाएँ। श्वेत-श्याम फ़िल्मों का अपना जादू होता है, यह फ़िल्म उसका एक नमूना है। तब तकनीकि इतनी विकसित न थी। एक घंटा अट्ठावन मिनट से कुछ ऊपर की यह फ़िल्म दर्शक को एक दूसरे लोक में ले जाती है। हसरत जयपुरी के लिखे और आशा भोसले, मोहम्मद रफ़ी के स्वर में मिनट-मिनट पर गाए गाने हिन्दी फ़िल्मों की अपनी परम्परा में हैं। संगीत रमेश नायडू का है। किशोर साहू ने स्वयं ही इसे प्रड्यूस भी किया है। १९५४ में बनी इस फ़िल्म को फ़िर से अवश्य देखा जाना चाहिए। यह भारतीय सिनेमा के इतिहास की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है।
‘हैमलेट’ को ले कर तमाम अटकलें लगाई जाती हैं। कई तरह के विमर्श प्रचलित हैं। स्वयं हैमलेट के पागलपन को ले कर कोई स्पष्ट मत नहीं है। कुछ लोग मानते हैं कि वह घटनाओं की तीव्रता और अप्रत्याशितता से अवाक है और खुद को समायोजित नहीं कर पाता है और सच में पागल हो गया है। कुछ और लोगों का कहना है कि वास्तव में वह पागल नहीं है, केवल पागलपन का अभिनय करता है। उसे लगता है कि वह ऐसा अभिनय करके सच्चाई का पता लगा लेगा और अपने पिता की हत्या का बदला भी ले सकेगा। हो सकता है उसे पागल मान कर उसका चचा क्लॉडियस उसके समक्ष अपने जघन्य अपराध की स्वीकृति कर ले। कुछ अन्य लोगों का मानना है कि हैमलेट के ऊपर समय-समय पर पागलपन का दौरा पड़ता है, वह फ़ुल टाइम पागल न हो कर पार्ट टाइम पागल है। इसी तरह उसके पुरुष होने पर भी कुछ लोग प्रश्न चिह्न लगाते हैं। होराशियो से उसके संबंधों की भी अलग-अलग व्याख्या की जाती रही है।
‘हैमलेट’ को कई नए मोड़ दिए गए हैं। फ़्रायड के प्रभाव से हैमलेट और गरट्रुड (माँ-बेटे) के संबंध को यौनाकर्षण में प्रस्तुत करना भी फ़ैशन में रहा है। इसमें शक नहीं कि बेटे का माँ के प्रति सहज आकर्षण होता है मगर ओलीवियर और ज़ेफ़ीरेली ने उसे एक अलग मोड़ दिया है। यहाँ स्पष्ट रूप से उसे माँ के प्रति आकर्षित दिखाया गया है। कई बार ऐसा लगता है मानो मेल गिब्सन अपनी स्क्रीन माँ का बलात्कार ही कर रहा हो। हैदर भी अपनी मोजो को किसी के साथ बाँटने को राजी नहीं है। जबकि ब्रेना ऐसा कुछ नहीं दिखाता है। हैमलेट को ट्रांसजेंडर दिखाने की प्रथा भी रही है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि वह वास्तव में लड़की ही था और लड़के के वेश में रहता था। इतना ही नहीं कुछ लोग कहते हैं कि होरोशियो से उसे प्यार था। १९२० में स्वेंड गैड ने आस्टा नीलसेन को ‘हैमलेट’ फ़िल्म में इस भूमिका में उतारा था। उन्होंने यह १८८१ की एडवर्ड विनिंग की किताब ‘द मिस्ट्री ऑफ़ हैमलेट’ के आधार पर किया था। इसमें हैमलेट एक स्त्री है जो जिंदगी भर पुरुष वेश में रहती है। इसमें सीनियर हैमलेट फ़ोर्टिनब्रास के साथ जब युद्ध में था उसी समय गरट्रुड एक बच्ची को जन्म देती है। उसे डर है कि यदि राजा युद्ध में मारा गया तो लोग लड़की को गद्दी पर नहीं बैठाएँगे। इसीलिए वह अपनी नर्स को चुप रहने की कसम दिलाती है और प्रचारित करती है कि राजकुमार पैदा हुआ है। हालाँकि युद्ध में हैमलेट अपने प्रतिद्वन्द्वी को मार डालता है। बाद में उसका भाई क्लॉडियस उसकी हत्या करता है। स्वेंड अगिड ने लड़के के भेष में इस लड़की हैमलेट को होराशियो के प्रति आकर्षित दिखाया है। लड़की होने के कारण वह क्लॉडियस की हत्या करने से भी हिचकता/हिचकती है। इस फ़िल्म में एक और ट्विस्ट है। होराशियो ओफ़ीलिया की ओर आकर्षित है। उसका ध्यान ओफ़ीलिया की ओर से हटाने के लिए यह हैमलेट ओफ़ीलिया से प्रेम का नाटक करता/करती है। १९७६ में टर्की में ‘एंजेल ऑफ़ रिवेंज’ नाम से बनी फ़िल्म फ़ातमा गिरिक को स्त्री वेश में हैमलेट को प्रस्तुत करती है। निर्देशक मेतिन अर्कसन ने अपनी इस फ़िल्म का दूसरा शीर्षक ‘फ़ीमेल हैमलेट’ रखा भी है।
सीनियर हैमलेट की हत्या में ओफ़ीलिया और गरट्रुड का हाथ था अथवा नहीं इसे ले कर भी खूब अटकलें लगाई जाती रहीं हैं। कहीं-कहीं गरट्रुड को मासूम दिखाया गया है। स्वयं हैमलेट का भूत अपने बेटे से कहता है कि वह गरट्रुड को न छूए, उसकी रक्षा करे। कहीं उसे हैमलेट की हत्या के पूर्व से ही क्लॉडियस के प्रति आकर्षित दिखाया जाता है और लगता है कि वह भी इस साजिश में शामिल थी। ‘हैदर’ में गज़ाला पूरी तरह से मासूम नहीं है क्योंकि वही फ़ोन पर खुर्रम को सूचना देती है। हाँ, वह अपने डॉक्टर पति को भी चाहती थी और उसने उनके ऐसे दर्दनाक अंत की कल्पना नहीं की थी। फ़िर भी डॉक्टर खुर्रम की आँखें फ़ोड़ने की बात का संदेश अपने बेटे के लिए छोड़ता है क्योंकि इन आँखों ने उसकी घरवाली पर बुरी निगाह डाली थी। वह गज़ाला को मारने की बात नहीं कहता है, उसे वह अल्लाह के इंसाफ़ के लिए छोड़ने की बात कहता है। शायद उसे हैदर के अनाथ होने की फ़िक्र है, वह हैदर की अपनी माँ के प्रति मोहब्बत को जानता है। इसी तरह ओफ़ीलिया की स्थिति भी स्पष्ट नहीं है। कभी उसे इस सारी साजिश में शामिल दिखाया जाता है, कभी उसे इसका शिकार बताया जाता है। एक बात पक्की है वह बेवजह मारी जाती है। उसका अपना पिता उसे अपने उद्देश्य प्राप्ति के लिए इस्तेमाल करता है। पागलपन और आत्महत्या उसके जैसी मासूम लड़की के हिस्से आना जीवन की विडम्बना है। जिसे वह जी-जान से प्यार करती है वह उस पर अविश्वास करता है, उसे वेश्या समझता है। ननरी (ननरी का एक अर्थ वेश्यालय भी होता है) जाने की सलाह देता है।
‘हैमलेट’ इतना लंबा नाटक है कि अक्सर इसको काट-छाँट कर स्टेज और स्क्रीन पर प्रस्तुत किया जाता रहा है। अगर पूरा नाटक प्रस्तुत किया जाए तो कम-से-कम चार घंटे तो अवश्य लगेंगे। ऐसा किया भी गया है। पहली बार कैनेथ ब्रैना ने इसे बिना काटे-छाँटे परदे पर इसी नाम से सन १९९६ में प्रस्तुत किया। यह ७० एमएम पर बनने वाली चार घंटे से तनिक अधिक अवधि की एक लंबी फ़िल्म है। लंबी होते हुए भी यह फ़िल्म दर्शक को बाँधे रखने में सफ़ल है क्योंकि फ़िल्म में घटनाएँ तेजी से घटित होती हैं, दर्शक को बोर होने का अवसर नहीं मिलता है। यह फ़िल्म नाटक की शैली में बनी है और हैमलेट की आंतरिक व्यथा को सामने लाती है। यहाँ वह अपने पिता की असामयिक मौत से दु:खी है। आजकल स्कूल-कॉलेजों में हैमलेट पढ़ाने के लिए इसी फ़िल्म का उपयोग किया जाता है क्योंकि इसमें नाटक के डॉयलॉग को ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रखा गया है। हाँ, तुलनात्मक अध्ययन के लिए इस पर बनी अन्य फ़िल्मों का भी प्रयोग किया जाता है।
बीबीसी के ‘हैमलेट’ का प्रारंभ नाइट गार्ड होरेशिओ की बातचीत से ही होता है। सारा कुछ कैमरे में समय-समय पर क्लिक हो रहा है। निर्देशक ग्रेगरी डोरेन की इस फ़िल्म का एक प्रारंभिक दृश्य क्लॉडियस और गरट्रुड की शादी के बाद होने वाले समारोह का है। कैमरे की आँख से सारा दृश्य दिखाया जाता है। कैमरा घूमता हुआ आ कर हैमलेट के ऊपर ठहरता है वह काले लिबास में एकाकी खड़ा है। यह जश्न और एकाकीपन का विरोधाभास निर्देशक की खासियत है। वे नाटकीयता का प्रयोग अपनी बात को रेखांकित करने में सफ़लतापूर्वक करते हैं। पूरी फ़िल्म की स्पष्टता चकित करती है। डेनमार्क की पतित स्थिति, हैमलेट की माँ का जल्दबाजी में अपने देवर से विवाह करना, पिता के भूत का आकर बेटे को बताना कि उसे उसके भाई ने जहर दिया है। इन सारी अभूतपूर्व, अप्रत्याशित घटनाओं से घिरा हैमलेट आखीर करे-तो-क्या करे? वह अपने चचा को मारना चाहता है मगर ऐसा करने में खुद को असमर्थ पाता है। इसी चक्कर में गलती से पोलोनियस की हत्या कर देता है। उसके व्यवहार से उसकी माँ गरट्रुड हताश-निराश है और उसकी प्रेमिका ओफ़ीलिया पागलपन की ओर जा रही है और अंत में वह आत्महत्या का रास्ता अपनाती है। खुद वह भी कहाँ बचता है? पोलोनियस, ओफ़ीलिया, उसका भाई लियर्टीज, गरट्रुड, क्लॉडियस और स्वयं हैमलेट कोई भी तो नहीं बचता है।
निर्देशक कैनेथ ब्रेना की फ़िल्म ‘हैमलेट’ के ऊहापोह के साथ-साथ गरट्रुड (जूली क्रिस्टी) और ओफ़ीलिया की भावनाओं को भी दर्शक तक पहुँचाती है। ओफ़ीलिया की भूमिका में है खूबसूरत कैट विंसलेट। ब्रैना क्लॉडियस (डेरेक जैकोबी) को भी काफ़ी विस्तार से दिखाते हैं, उसे भी अपनी बात कहने का पूरा-पूरा मौका देते हैं। यहाँ वह पूर्णरूपेण खलनायक है भी नहीं। वह काफ़ी शक्तिशाली है। इस फ़िल्म में गरट्रुड को क्लाडियस के प्रेम में पागल दिखाया गया है, वह कामुकता की हद तक उसे चाहती है। ब्रेना ओफ़ीलिया को असाइलम में पहुँचा देते हैं यह आधुनिकता का तकाजा है। खलनायिकी के लिए हैदर का ललित पैरिमू भी याद किया जाएगा। ओफ़ीलिया के पात्र में अर्शिया या अर्शी (श्रद्धा कपूर) का पिता, पुलिस-सेना ऑफ़ीसर कहीं से खलनायक नहीं लगता है, न चेहरे के हाव-भाव से, न ही बोलचाल से। मीठी-मीठी बातें करके वह अपनी बेटी से भी अपने मतलब की बात निकलवा लेता है। अपना मतलब सिद्ध करने के लिए अपनी बेटी की बलि चढ़ाने में उसे गुरेज नहीं है।
ब्रैना ने नाटक के यथार्थ को पकड़ने का भरपूर प्रयास किया है। जब हैमलेट क्लॉडियस की हत्या करने के लिए आता है तो अधिकाँश निर्देशक उसे खंजर लिए हुए चर्च में खंभे के पीछे दिखाते हैं। मगर ब्रैना का हैमलेट कन्फ़ेशन कोठरी की जाली के निकट क्लॉडियस से बिल्कुल सटा हुआ खड़ा है। फ़िर भी वह उसे मार कर स्वर्ग नहीं पहुँचाना चाहता है। विशाल भारद्वाज का हैदर तो चचा खुर्रम के और भी नजदीक है। वह अपने चचा के बिल्कुल पीछे करीब-करीब उसके सिर से पिस्तौल सटाए खड़ा है। मगर दोनों ही फ़िल्मों में नायक अपने चचा को नहीं मारता है, कारण वह प्रार्थना-दुआ में झुके व्यक्ति की हत्या नहीं करना चाहता है। हैदर ऐन खुर्रम के सिर पर पिस्तौल लिए ट्रिगर दबाने के लिए तैयार है, मगर वह सुनता है कि उसका चचा खुर्रम अल्लाह के सामने अपने गुनाह कबूल कर रहा है और खुद ही इस जिल्लत की जिंदगी से निजात पाना चाहता है। बाद में हैदर सबके सामने कहता है, “तू दुआ में था इसलिए नहीं मारा तुझे, मार देता तो तुझ जैसे सूअर को भी जन्नत मिल जाती। मारूँगा तुझे जब तू गुनाह में होगा, दुआ में नहीं।”
ब्रैना हैमलेट का सर्वाधिक प्रसिद्ध स्वगत कथन एक आईने के सामने कहलवाता है ताकि उसकी अनिर्णय की स्थिति का प्रतिबिम्ब उसी पर आ गिरे। उन्होंने आदमकद आईनों का भरपूर और सार्थक प्रयोग किया है इससे फ़िल्म का मकसद स्पष्ट होता है साथ ही फ़िल्म में नाटकीयता भी आती है। जब वह ओफ़ीलिया को सताता है तब भी दर्पण है। ओफ़ीलिया की भयभीत सांसों से धुँधला पड़ जाता है।
ब्रैना की फ़िल्म के केंद्र में तख्तो-ताज है जबकि हैदर में पारिवारिक तथा कश्मीर की राजनीति, खासकर यहाँ १९९४ का कश्मीर प्रमुख है। जहाँ बात-बात पर सुनने को मिलता है कि तुम भी गायब हो जाओगे अपने पिता की तरह। कब किसको उठा लिया जाए, गायब कर दिया जाए, गोली मार दी जाय कहा नहीं जा सकता है। विभीषण घर में ही होता है। आँखों के सामने घर जल कर राख हो जाता है और आस्तीन के साँप का पता बहुत बाद में चलता है, तब तक सब खतम हो चुका होता है। ब्रैना के यहाँ उन्नीसवीं सदी की पोशाकों का उपयोग किया गया है तो विशाल आज के कपड़ों, काश्मीर की ड्रेस को खूबसूरती से प्रदर्शित करते हैं। ‘हैदर’ में मातम की काली पोशाक है तो खुशनुमा खिलते, लाल-गुलाबी रंग की छटा भी कपड़ों में नजर आती है। बीबीसी में आज की ड्रेस है। डेविड टेनेंट कभी टीशर्ट और जींस पहनता है, कभी सूट में नजर आता है। और तो और यहाँ हैमलेट हैंडिकैम का प्रयोग करता है और जब नाटक के भीतर नाटक चल रहा है तो अपने कैमरे से उसकी तस्वीरें भी लेता चलता है। दर्शक भी बार-बार कैमरे की आँख से फ़िल्म के भीतर चल रही घटनाओं को देखता है। इस फ़िल्म का अंत हैमलेट की मृत्यु के साथ होता है।
‘हैदर’ में तलवार के स्थान पर पिस्तौल और बारूद है। फ़िल्म के भीतर चलने वाले नाटक में भी परिवर्तन हुआ है। हैमलेट के पिता को कान में जहर डाल कर उसके भाई ने मारा था उसी का अभिनय नाटक में होता है। जब कि हैदर के पिता को क्रूरता से सता-सता कर मारा गया था, नृत्य-नाटिका में उसी की प्रस्तुति की गई है। साथ ही इस दृश्य में कश्मीर के लोक नृत्य, लोक वाद्यों, लोग गीत का भरपूर उपयोग किया गया है। हैदर की ऊर्जा, उसका क्रोध इस नृत्य में बखूबी उभर कर आता है। बहुत जान है इस नृत्य में। हैदर में भी भारत की सांस्कृतिक विरासत का सटीक प्रयोग हुआ है खासकर शादी के इस जश्न वाले सीन में। बिस्मिल-बिस्मिल...मत मिल, मत मिल गुल से मत मिल... गीत और नृत्य में गजब की जान है। हैदर की आँखों का भाव, शरीर की लोच और पूरे दृश्य में जो पॉवर है, जो जीवंतता है वह हिन्दी फ़िल्मों में बहुत कम देखने को मिलता है। इसका श्रेय जाता है कोरियोग्राफ़र सुदेश अधाना को। हाँ, फ़िल्म में पपेट का बड़ा मानीखेज उपयोग हुआ है। और पपेट शो आला दर्जे का क्यों न हो, यह कमाल है दादी डी. पदमजी का, साथ में हैं द इशारा पपेट थियेटर वाले।
कैनेथ ब्रैना ने अपनी इस महागाथा के बाहरी दृश्य ब्लेनहेम में शूट किए हैं और आंतरिक सूटिंग के लिए चर्चिल का घर, किले और मार्लबोरो के ड्यूक की सीट का प्रयोग किया है। सारी फ़िल्म में आईनों वाले दरवाजों की अहम भूमिका है। फ़िल्म फ़्लैशबैक का भी प्रयोग करती है औअर दर्शक ओफ़ीलिया और हैमलेट के अंतरग पलों की झलक पाता है। यह सब शेक्सपीयर ने शायद सोचा भी न होगा। ‘हैदर’ कश्मीर की वादी में स्थित है यह दीगर है कि यह वादी खून से लथपथ है। विशाल ने क्रेडिट में रजनीश ओशो आश्रम को भी धन्यवाद दिया है। इस फ़िल्म में कश्मीर खुद एक किरदार है। ‘हैदर’ में भी अर्शी और हैदर के निजी पलों को फ़िल्माया गया है मगर यह फ़्लैशबैक नहीं है। बीबीसी ने सेट के लिए एक कॉलेज बिल्डिंग का उपयोग किया है। ब्रेना ने कुछ दृश्य बेहतरीन तरीके से फ़िल्माए हैं खास कर उनका आईनों का प्रयोग। लेकिन उनकी फ़िल्म का अंतिम दृश्य थोड़ा हास्यास्पद हो उठा है।
कुछ लोगों के अनुसार शेक्सपीयर के ‘हैमलेट’ का बीज बहुत पहले तेरहवीं सदी के एक व्याकरणाचार्य (ग्रमेरियन) सेक्सो के ‘डीड्स ऑफ़ द डेन्स’ में ही पड़ गए थे। उसने इसे ‘द लाइफ़ ऑफ़ एमलेथ’ नाम दिया था और लैटिन भाषा में लिखा था। यह उसकी अपनी कल्पना का मूर्त रूप न था, उसने इसे ‘लेजेंड ऑफ़ एमलेट’ लोककथाओं से उठाया था। इसी का १५७० में फ़्रैंच में अनुवाद हुआ। इसी समय इसमें मृत राजा, हैमलेट के पिता के भूत को भी पहली बार दिखाया गया। सेक्सो के संस्करण में यह नहीं था। करीब दो दशक बाद यह ‘उर हैमलेट’ नाम से जर्मन में मिलता है। जर्मन में ‘उर’ का अर्थ आदिम या आद्य होता है। १५९८ से ‘हैमलेट’ शेक्सपीयर का हो गया। उसके यहाँ इसके कई संस्करण मिलते हैं। हालाँकि शेक्सपीयर का लिखा एक भी ‘हैमलेट’ आज उपलब्ध नहीं है। उसके नाटक का पूरा नाम ‘द ट्रैजिडी ऑफ़ हैमलेट, प्रिंस ऑफ़ डेनमार्क’ काफ़ी लंबा है और इसे केवल ‘हैमलेट’ नाम से ही संबोधित किया जाता है। इसके मंचित होने का एक लंबा लिखित इतिहास मिलता है साथ ही इसके विभिन्न दृश्यों का चित्रांकन भी उपलब्ध है। माना जाता है कि उसने इसे १५९८ से १६०२ के बीच लिखा। अक्सर वह अपने नाटकों को परिवर्तित-परिवर्धित करता रहता था। पूरा नाटक डेनमार्क में स्थित है। इसका पहला मंचन सन १६००-१६०१ से ही माना जाता है। शुरु से यह खासा लोकप्रिय रहा। १६४२-१६६० तक जब प्यूरीटनिकल सरकार ने थियेटर बंद कर दिए तो इसका मंचन भी बंद हो गया। लेकिन इस दौरान भी यह सरायों में खेला जाता रहा। फ़िर जब थियेटर पुन: खुले तो फ़िर से इसकी धूम मच गई। तब से अब तक यह न जाने कितनी बार और कितने लोगों के द्वारा खेला गया है जिसकी गिनती संभव नहीं है।
हैमलेट अपने पिता के भूत द्वारा सच्चाई बताए जाने और प्रतिकार के स्पष्ट निर्देश के बावजूद अपने चचा से बदला क्यों नहीं लेता है इसकी व्याख्या अलग-अलग लोगों के द्वारा अलग-अलग तरह से की जाती है। कुछ लोग इसे मात्र प्लॉट की ट्रिक मानते हैं ताकि नाटक लंबा खींचा जा सके जबकि मनोविश्लेषक अपनी तरह से व्याख्या करते हैं तो नारीवादी इसका अर्थ कुछ और बताते हैं। फ़्रायड कहता है कि हैमलेट कुछ भी करने में समर्थ है सिवाय बदला लेने के। उस आदमी से बदला लेने में सक्षम नहीं है जिसने उसके पिता की हत्या की है और उसके पिता का स्थान लेना चाहता है। इससे हैमलेट को अपने बचपन की दमित भावनाओं (वासनाओं) का पता चलता है। इसी ऊहापोह में वह पागलपन की ओर बढ़ता है। हैमलेट एक कुलीन व्यक्ति है, नैतिक रूप से मजबूत। ऐसा आदमी उस व्यक्ति को कैसे मार सकता है जो वही कर रहा है जिसे करने की दमित इच्छा खुद हैमलेट की है। हैमलेट का क्लॉडियस को मारने का मतलब है खुद को मारना, अपने श्याम पक्ष को मारना। नफ़रत जिसे हैमलेट को इंतकाम की ओर ले जाना वह आत्मभर्त्सना में परिवर्तित हो जाती है। उसकी चेतना उसे स्मरण कराती है कि जिस व्यक्ति की वह हत्या करना चाहता है खुद वह उससे किसी भी दृष्टि में बेहतर नहीं है वह खुद भी पापी है उसे भी सजा मिलनी चाहिए। उसके मन में अपनी माँ गरट्रुड के प्रति वासना है। ज़ेफ़िरेली का हैमलेट (मेल गिब्सन) ऐसा ही है। शेक्सपीयर का हैमलेट भी काफ़ी मजबूत और समर्थ व्यक्ति है, वह समुद्री डाकुओं का सफ़ाया करता है। मगर चचा की हत्या नहीं कर पाता है।
‘हैमलेट’ परम्परागत नाटकों से अलग है। यूरोप के नाटक शेक्सपीयर के समय तक अरस्तु की बात मानते हुए नाटक का केंद्र क्रिया-कलाप को रखते थे चरित्र को नहीं जबकि हैमलेट में चरित्र प्रमुख है। इस नाटक में भरपूर स्वकथन और एकालाप हैं, एक्शन उतना नहीं है। मनोविश्लेष हैमलेट की आंतरिक व्याख्या करते हैं। स्वयं सिग्मंड फ़्रायड ने १९०० में अपने ‘द इंटरप्रेटशन ऑफ़ ड्रीम्स’ में अध्ययन के लिए इसका उपयोग किया है, उनके अनुसार हैमलेट इडीपस डिजायर से वशीभूत है। इसीलिए अपराध ग्रंथि के कारण अचेतन रूप से जिसकी हत्या करना चाहता है, उसकी हत्या नहीं करता है। उसकी दमित इच्छाएँ-वासनाएँ उसे ऐसा करने से सदा रोकती हैं। इसीलिए यौन को लेकर भी उसके मन में दुचित्तापन है और वह ओफ़ीलिया से भी नहीं जुड़ पाता है। गरट्रुड को भी खरी-खोटी सुनाता है। आज तो हैमलेट को होमोसेक्सुअल और असेक्सुअल तक घोषित किया जा चुका है। नारीवादी आलोचक गरट्रुड और ओफ़ीलिया की वकालत अपने-अपने ढ़ंग से करते हैं। और-तो-और एक फ़िल्मकार ने तो हैमलेट के मन में यह शक भी पैदा करा दिया कि हो-न-हो क्लॉडियस ही उसक वास्तविक पिता है।
खैर ‘हैमलेट’ नाटक के इतिहास को छोड़ कर हम ‘हैमलेट’ फ़िल्मों पर फ़िर से लौटें। हैमलेट का अभिनय करना आसान नहीं है, यह अभिनेता के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। वही अभिनेता इस किरदार को सफ़लतापूर्वक निभा सकता है जिसने शेक्सपीयर के अन्य नायकों की भूमिका जम कर की हो। २००९ में ‘रॉयल शेक्सपीयर कंपनी’ ने अपने ‘हैमलेट’ को बीबीसी के लिए प्रस्तुत किया। इस त्रासद नायक को परदे पर उतारने के लिए प्रतिभा होनी आवश्यक है और यह प्रतिभा डेविड टेनेंट में भरपूर नजर आती है। पूरी फ़िल्म में (नाटक को ही ज्यों-का-त्यों) डेविड सदा केंद्र में हैं। चाहे वह मानसिक चिंतन हो अथवा पागलपन डेविड टेनेंट कहीं भी, कभी भी निराश नहीं करते हैं। चाहे वह प्रेम का निजी पल हो अथवा क्रोध का सार्वजनिक प्रदर्शन सब स्थानों पर उनकी प्रतिभा की दाद देनी पड़ेगी। अपनी माँ की हड़बड़ी में की गई शादी से वह आहत और चकित है। इस बात से दु:खी है कि उसके पिता के मरते ही माँ उसके चचा से शादी कर जश्न मना रही है। और जब पिता से उसे हत्यारे का पता चलता है तो वह और भी हैरान-परेशान है। हर समय वह खासा बेचैन है। बीबीसी के हैमलेट के निर्देशक ग्रेगरी डोरेन का हैमलेट जीवंत और क्रोधित है, उसके हास्य संवाद और कटाक्ष बड़े मार्मिक-दंश भरे हैं। हाँ, कई बार वह काफ़ी नाटकीय भी हो गया है। शायद स्टेज का प्रभाव। जब वह ‘टू बी और नॉट टू बी’ वाला दृश्य करता है तो बिल्कुल गुड़ीमुड़ी हो जाता है और फ़ुसफ़ुसाहट में सारा स्वगत कथन करता है। इस दृश्य को सबने अपने-अपने तरीके से फ़िल्माया है।
बीबीसी की फ़िल्म में गरट्रुड के बेडरूम का दृश्य खासतौर पर देखने लायक है। पैट्रिक स्टेवार्ड को दर्शक स्टार ट्रैक और एक्स-मैन के रूप में पहचानता है वे यहाँ क्लॉडियस के रूप में बखूबी फ़बते हैं। हैमलेट के पिता, मृत सम्राट के भूत के रूप में भी वही है। उन्होंने क्लॉडियस की भूमिका पहले भी की है। इस टेलीफ़िल्म की एक खासियत यह है कि इसमें कब्र खोदने वाले जब हैमलेट को मसखरे योरिक की खोपड़ी देते हैं तो यह वास्तव में पियानिस्ट एंड्रे चैकोवस्की की खोपड़ी है। इस पियानिस्ट ने अपनी वसीयत में यह लिख कर दिया था कि उसका उपयोग ‘रॉयल शेक्सपीयर कंपनी’ नाटक के लिए करे।
बीबीसी के ‘हैमलेट’ में पैट्रिक स्टेवार्ड के साथ गरट्रुड की भूमिका में खूबसूरत पेनी डॉनी है। वह एक साथ नर्वस, उग्र और मार्मिक है। ग्रेगरी डोरन के निर्देशन (नाटक और फ़िल्म दोनों के निर्देशक) में बनी इस टेलीफ़िल्म का पूरा सेट शीशे सा चमकता हुआ और सब कुछ प्रतिबिंबित करता हुआ है। लगता है फ़र्श और दीवारें शीशे की बनी हुई हैं। आईने का भरपूर और सार्थक प्रयोग हुआ है। दर्पण फ़िल्म के प्रमुख तत्व के रूप में हैं। सीसीटी कैमरा भी यहाँ है जो फ़िल्म को एक अलग मूड देता है। मरिआ गेल ने ओफ़ीलिया का रोल किया है और जब वह पागलपन में जाती है तो देखते ही बनती है। ‘हैदर’ में भी अर्शी को देखना भी बड़ा मार्मिक अनुभव है। जब दीन-दुनिया से बेखबर वह अपने ही बुने स्वेटर को उधेड़ती जाती है और अंत में उसी ऊन में लिपटी मरी पड़ी है। बीबीसी का होरेशियस अश्वेत है। यहाँ ओफ़ीलिया के पिता और राजनितिज्ञ पोलोनियस के रूप में ओलीवर फ़ोर्ड डेविस का अभिनय काबिले तारीफ़ है। ये सब मंजे हुए कलाकार हैं। न मालूम कितनी बार इन्हीं भूमिकाओं को कर चुके हैं। तीन घंटे की यह टेलीफ़िल्म फ़िल्म से अधिक नाटक के ही करीब है। वास्तविकता भी यही है, असल में नाटक की सफ़लता और लोकप्रियता ने ही इसे टेलीफ़िल्म में परिवर्तित कराया है। लेकिन हैमलेट के सामने यहाँ किसी और किरदार को खिलने का मौका नहीं मिला है। सारी फ़िल्म में वही छाया हुआ है।
‘हैमलेट’ पर चार घंटों की लंबी फ़िल्म बनी है लेकिन शुरुआती दौर में बहुत छोटी फ़िल्में भी बनीं। १९०० में साराह बेर्नहार्ट ने मात्र पाँच मिनट की हैमलेट बनाई। उसने मात्र तलवारबाजी का दृश्य फ़िल्माया था और इस फ़िल्म के लिए संगीत और शब्द अलग से रिकॉर्ड किए गए थे जो फ़िल्म के साथ-साथ चलते थे। नतीजा बड़ा बेढ़ंगा था। मूक फ़िल्मों के युग में १९०७ में जॉर्जस मेलिस ने १९०८ में लुका कोमरियो ने, १९१० में अगस्ट ब्लोम ने १९१३ में सिसिल हेपवर्थ ने तथा १९१७ में एलुसेरिओ रोडोल्फ़ी ने ‘हैमलेट’ पर फ़िल्में बनाई। इस दौर में कई अन्य ‘हैमलेट’ फ़िल्में बनी। १९६९ में टोनी रिचर्डसन ने सबसे पहले रंगीन ‘हैमलेट’ फ़िल्म बनाई।
१९९० में फ़्रैंको ज़ेफ़ीरेली की फ़िल्म का प्रारंभ एल्सीनोर किले से घूमते हुए कैमरे के स्थिर खड़े सैनिकों के अवसादग्रस्त चेहरों पर आ कर ठहरने और फ़िर किले के भीतर राजा के शव दिखाने से होता है। शव पर सबसे पहले गरट्रुड फ़ूल रखती है और फ़िर हुड पहने हुए हैमलेट (मेल गिब्सन) उस पर एक मुट्ठी मिट्टी डालता है। सारे समय क्लॉडियस गरट्रुड पर आँख रखे हुए है, देखता रहता है कि कहीं वह मृत राजा के प्रति अधिक भावुक तो नहीं हो रही है। राजसी अंतिम संस्कार होता है। सीनियर हैमलेट को ताबूत में सील कर दिया जाता है। यहाँ क्लॉडियस की भूमिका में एलैन बैट्स है जबकि ओफ़ीलिया की भूमिका हैलेन बोनहाम कार्टर ने की है। इस फ़िल्म में सारा कुछ बड़ा चमकीला और रंगीन है। बहुत मादक है। मेल गिब्सन जैसे स्टार को हैमलेट बनाना सिद्ध करता है कि निर्देशक का उद्देश्य विमर्श न हो कर लोकप्रिय फ़िल्म बनाना है। सवा दो घंटे की इस फ़िल्म में नाटक को काफ़ी काटा-छाँटा गया है।
ब्रेना की फ़िल्म का अंत हैमलेट की शवयात्रा से होता है। शवयात्रा में उसकी बाँहें फ़ैली हुई हैं मानो वह जीसेस क्राइस्ट हो। फ़ोर्टिनब्रास एल्सीनोर पर आक्रमण करता है और गद्दी पर बैठते पहला काम करता है पूर्व राजा की मूर्ति गिराने का आदेश देना। इसमें पूर्व राजा की विशाल मूर्ति (जिसे फ़िल्म के प्रारंभ में भी दिखाया गया है) को तोड़ कर गिराया जाता है। यह आधुनिक प्रभाव है। कुछ वर्ष पहले कई बड़ी-बड़ी मूर्तियों को तोड़ कर गिराना फ़ैशन में था। आधुनिक काल में लेनिन, स्टालिन की विशालकाय मूर्तियों को गिराया गया है। रूस में यही हुआ था। इस फ़िल्म में आधुनिकता का टच है इसीलिए इसमें वैलेंटाइन डे को भी लाया गया है। एल्सीनोर पर आक्रमण के समय सैनिकों की वेशभूषा रूसी सैनिकों जैसी ही है।
मेल गिबसन की फ़िल्म की एक विशेषता यह है कि गरट्रुड की भूमिका में खूबसूरत ग्लेन क्लोज को उतारा गया है। वास्तविक जीवन में ग्लेन मेल गिब्सन से मात्र ग्यारह साल बड़ी है इससे निर्देशक की मंशा स्पष्ट होती है। माँ-बेटे के कलाकारों की उम्र में मात्र ग्यारह साल का अंतर क्या इंगित करता है। ग्लेन ‘फ़ेटल अट्रैक्शन’ में अपने सेक्सुअल रोल के लिए पहचानी जाती है। यहाँ भी निर्देशक माँ-बेटे के अवैध संबंध की ओर इगित करता है। गरट्रुड के बेडरूम सीन में भी यही नजर आता है। फ़्रायड के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है खासकर जब गरट्रुड मर रही है। उसके मरते समय वह तो थरथरा रही ही है, उसके ऊपर झुका हुआ हैमलेट पसीने से सराबोर है। मेल गिब्सन के कारण फ़िल्म काफ़ी कुछ हॉलीवुड फ़िल्म की तर्ज पर चलती है। वे एक्शन फ़िल्म के लिए जाने जाते हैं। हैमलेट में भी कोई शॉट लंबा नहीं चलता है, खासकर नायक को ले कर। यह पूरी तौर पर अट्यूर थ्योरी पर आधारित है, निर्देशक की फ़िल्म है।
इसी तरह सर लॉरेन्स ओलीवियर की १९४८ में बनी फ़िल्म ‘हैमलेट’ को भी आलोचक अट्यूर थ्योरी पर आधारित फ़िल्म मानते हैं। लॉरेंस ओलीवियर ने इस श्वेत-श्याम फ़िल्म का न केवल निर्देशन किया वरन खुद हैमलेट की भूमिका भी की। इस फ़िल्म में नाटक का दो तिहाई हिस्सा हटा दिया गया है। इस फ़िल्म का प्रारंभ ओलीवियर के वॉयज ओवर से होता है। यह स्वर नाटक की थीम प्रारंभ में ही दर्शकों को थमा देता है। आवाज कहती है: “यह उस आदमी की त्रासदी है जो अपना मन पक्का नहीं कर सकता है।” यह निर्देशक की शेक्सपीयर के हैमलेट की अपनी व्याख्या है। बहुत बार दर्शक सोचता है कि यह पंक्ति स्वयं शेक्सपीयर की है। यहाँ तो निर्देशक ने हद ही कर दी है गरट्रुड की भूमिका करने वाली अभिनेत्री मात्र २८ साल की है। ऐलीन हेर्ली वास्तविक जीवन में लॉरेंस ओलीवियर से उम्र में १३ साल छोटी थी। निर्देशक राजनीति को हटा देता है, फ़ोर्टीनब्रास, रोसेनक्रैन्ट्ज़ और गल्डेनस्टेर्न को लगभग गायब कर देता है और फ़िल्म को गहन मनोवैज्ञानिक ड्रामा बन देता है। यहाँ भी माँ-बेटे के बीच सेक्सुअल संबंध दिखाने का प्रयास हुआ है। गरट्रुड के गाउन के गले का गहरा कटाव उसे काफ़ी कुछ कहता है।
फ़िल्म निर्देशक का खेल होती है। फ़िल्म निर्देशकों ने अपने-अपने तरीके से हैमलेट को फ़िल्माया है। कोई हैमलेट के मन के गुंजलक को दिखाने के लिए घुमावदार सीढ़ियाँ लगाता है तो कोई उसके पिता के भूत को सशरीर न दिखा कर मात्र प्रकाश वृत्त से उसे इंगित करता है। कोई अपनी फ़िल्म में कई-कई धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग करता है, तो कोई पूरी फ़िल्म शीशमहल में फ़िल्माता है। कैनेथ ब्रेना का राजमहल सेट चमकदार और आईना जड़े दरवाजों वाला है। दरबार में सिंहासन को प्रमुखता से दर्शाया गया है। आईना जड़े दरवाजे और उसमें पड़ते प्रतिबिंब फ़िल्म को एक नया आयाम देते हैं। संस्कृत में कहा गया है, ‘संश्यात्मा विनष्यति’। हैमलेट शुरु से अंत तक संशयग्रस्त है। वह तय नहीं कर पाता है कि क्या करे, क्या न करे। इसको दर्शाने वाला प्रसिद्ध एकालाप हर फ़िल्म निर्देशक ने अलग ढ़ंग से फ़िल्माया है। हैमलेट (ब्रेना) ‘टू बी और नॉट टू बी’ वाला एकालाप आईने के सामने खड़ा हो कर देता है जो फ़िल्म की दृष्टि से काफ़ी सार्थक है। फ़िल्म में एकालाप बड़ा अटपटा हो जाता है जबकि बेना ने इसका बहुत सुंदर हल ढ़ूँढ़ निकाला है। ‘हैदर’ में यह पूरा-पूरा एकालाप नहीं है, असल में वह अर्शी से कह रहा है। हैदर का एकालाप सार्थक है वह अर्शिया से कह रहा है कि ‘मैं हूँ कि मैं नहीं हूँ, शक पर मुझे यकीन है और यकीं पर मुझे शक।’ शब्दों का यह खेल हैदर की मन:स्थिति को स्पष्ट करता है।
इसी तरह जब फ़िल्म के भीतर नाटक चलता है तो सीनियर हैमलेट की हत्या की बात सामने आने पर सभा में उपस्थित लोगों की प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न है। किसी फ़िल्म में केवल क्लॉडियस और गरट्रुड प्रतिक्रिया करते हैं, तो किसी में सारे दरबारी इस खुलासे से बेचैन हो उठते हैं। विशाल भी इस दृश्य में अलग-अलग लोगों की प्रतिक्रिया दिखाते हैं। कैमरा हरेक चेहरे पर अलग से फ़ोकस करता है। इसी तरह ब्रेना ने विक्टोरियन काल की पोशाक का प्रयोग किया है। फ़र्नीचर भी उसी काल का है। ‘हैदर में सब कुछ कश्मीरी है।
कैनेथ ब्रेना, लॉरेन्स ओलीवियर, फ़्रैन्को ज़ैफ़ीरेली, ग्रेगरी डोरेन आदि फ़िल्म निर्देशक शेक्सपीयर के ‘हैमलेट’ को ही ले कर चलते हैं। उनके सेट, अभिनेता आदि भिन्न हैं मगर संवाद वहीं से उठाए गए हैं। किसी ने पूरा नाटक लिया है, किसी ने समय सीमा कम करने के लिए काट-छाँट की है। मगर कुछ निर्देशकों ने ‘हैमलेट’ को आधार बना कर उसे समकालीन परिवेश में प्रस्तुत किया है। इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई विश्व प्रसिद्ध जापानी फ़िल्म निर्देशक अकीरा कुरुसावा की फ़िल्म। उनकी फ़िल्म का नाम ‘हैमलेट’ न हो कर अलग है। कुरुसावा की फ़िल्म का नाम ‘द बैड स्लीप वेल’ है जिसे उन्होंने खुद अपनी ही कंपनी द्वारा प्रड्यूस किया। १९६० में बनी यह फ़िल्म एक युद्ध के बाद के भ्रष्टाचारग्रस्त जापान की एक कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत एक युवा की है। वह उन लोगों का पर्दाफ़ाश करना चाहता है जो उसके पिता की मौत के जिम्मेदार हैं। यह कारपोरेट संस्कृति को प्रदर्शित करने वाली फ़िल्म है, जहाँ नीचे स्तर पर कार्यरत आदमी अपने ऊपर वाले के कारनामों का पर्दाफ़ाश करने के स्थान पर मरना चुनता है।
कुरुसावा भी अपनी फ़िल्म का प्रारंभ कंस्ट्रक्शन कंपनी के वाइस प्रेसीडेंट की बेटी योशिको इवाबूची के विवाह के शानदार आयोजन से करते हैं। इन तैयारियों पर कुछ पत्रकार चर्चा कर रहे हैं। वाइस प्रेसीडेंट इवाबूची बहुत भ्रष्ट आदमी है। दूल्हा कोइची निशी कंपनी प्रेसीडेंट का सचिव है। शादी समारोह के बीच में ही पुलिस आती है और घूसखोरी के आरोप में कंपनी के एक असिस्टेंट ऑफ़ीसर वाडा को गिरफ़्तार कर लेती है। पुलिस वाडा और अन्य अधिकारियों से पूछताछ करती है। पत्रकार इसी तरह के एक पूर्व के केस की बात करते हैं जिसे दबा दिया गया था। उस केस में इसके पहले कि कोई अधिकारी फ़ँसे एक अधिकारी फ़ुरुया ने ऑफ़िस की छत से कूद कर आत्महत्या कर ली थी। नए केस में भी एकाउंटेंट ट्रक के सामने आ कर आत्महत्या कर लेता है। वाडा भी मरने का प्रयास करता है मगर उसे निशि रोक लेता है। वह वाडा को बताता है कि भ्रष्ट लोगों के लिए अपनी जान देना कोई बुद्धिमानी नहीं है। निशि वाडा की सहायता से प्रतिकार लेने की योजना बनाता है।
अपनी योजना में वह शिराई को इवाबुची और मोरीयामा की नजरों में चोर बनाता है। वह वाडा और शिराई को कहता है कि वह फ़ुरुया की अवैध संतान है और अपने पिता का बदला लेने वाला है। बाद में इवाबुची को अपने दामाद की असलियत पता चलती है। इवाबुची के बेटे को जब पता चलता है कि उसकी बहन का उपयोग किया जा रहा है तो वह निशि को मारने का प्रयास करता है मगर निशि बच निकलता है। निशि मोरीयामा का अपहरण कर सबूत जम करता है ताकि भ्रष्टाचार का भंडा फ़ोड़ सके। निशि अपनी पत्नी योशिका को उसके पिता की असलियत बताता है। जिस दिन निशि पत्रकारों को सच्चाई सबूत के साथ देने वाला था उसके पहले योशिका अपने पिता के चक्कर में आ कर निशि के छिपने का स्थान बता देती है। पिता उसे संग नहीं ले जाता है बल्कि नींद की गोलियाँ दे कर सुला देता है।
योशिका को अपने पिता की चाल पता चलती है लेकिन तब तक पता चलता है कि इवाबुची ने निशि और वाडा दोनों को मार डाला है तथा सारे सबूत मिटा डाले हैं। फ़िल्म के अंत में योशिका और उसका भाई अपने पिता इवाबुची को त्याग देते हैं। चूँकि इवाबुची कई रातों से सोया नहीं है अत: अपने ऊपर के अधिकारी से खूब उल्टी-सीधी बातें करता हुआ कंपनी से रिटायर्ड होने की बात कहता है। मैंने अकिरा कुरुसावा की कई फ़िल्में देखी और सराही हैं। ‘किंग लियर’ पर आधारित ‘रान’ एक बहुत समृद्ध फ़िल्म है इसमें उन्होंने जापानी नाटक कला काबुकी और नोह का सफ़ल समायोजन किया है। ‘मैकबेथ’ पर आधारित उनकी फ़िल्म भी मुझे बहुत अच्छी लगी। मुझे उनकी ‘थ्रोन ऑफ़ ब्लड’ खूब पसंद आई थी। मगर मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मुझे उनकी ‘द बैड स्लीप वेल’ तनिक भी नहीं जँची। नहीं जँचने का एक कारण उसे ‘हैमलेट’ पर आधारित बताना भी है। इस फ़िल्म में कुरुसावा का मास्टर स्ट्रोक मुझे कहीं नजर नहीं आया। बस यह एक सामान्य-सी फ़िल्म लगी मुझे।
शेक्सपीयर की कुछ विशेषताएँ हैं। नाटक के भीतर नाटक और कभी तीन चुड़ैल तो कभी तीन कब्र खोदने वाले आदि उनकी विशेषताएँ हैं। ‘हैमलेट’ में कब्र खोदने वाले धर्म, आत्महत्या आदि की खासी व्याख्या करते हैं। अधिकाँश फ़िल्म निर्देशकों ने कब्र खोदने वालों के दृश्य को अपनी-अपनी फ़िल्मों में स्थान दिया है। यहाँ तक कि विशाल भारद्वाज भी इसे रखते हैं। नाटक के भीतर नाटक तो प्राय: सबने रखा है। एक जर्मन फ़िल्म में इसे नाटक के रूप में न दिखा कर फ़िल्म बनाने के रूप में दिखाया गया है। वहाँ क्लॉडियस आत्महत्या करता है। ‘हैमलेट’ नाटक के भीतर जो नाटक खेला जाता है उसका लेखक स्वयं हैमलेट है। इस तरह से कह सकते हैं कि हैमलेट खुद शेक्सपीयर ही है। इस नाटक के बिना हैमलेट के पिता की हत्या की बात सार्वजनिक नहीं हो सकती है। हैमलेट के लिए रखे जहरीले पेय को पी कर गरट्रुड की मृत्यु भी कई फ़िल्मों में ज्यों-की-त्यों आई है। हाँ, ‘हैदर’ में बेटे की बात को झुठलाते हुए गज़ाला का शहीद होना दर्शक को हिला कर रख देता है। हैमलेट को शक है कि इस सारे षडयंत्र में ओफ़ीलिया भी शामिल है। जब पिस्तौल की बात होती है तो हैदर भी इसी विचार से अर्शी की ओर देखता है क्योंकि उसके पास पिस्तौल है यह बात उसके अलावा केवल अर्शी को पता थी। हैदर नहीं जानता है कि मासूम अर्शी से यह बात उसके पिता ने धूर्तता से निकलवा ली है।
आज का युग संशय का युग है मगर जब ‘हैमलेट’ रचा गया था वह समय तो ऐसा नहीं था तब तो चीजें ज्यादा स्थिर थीं, जीवन अधिक सुचारू और क्रमबद्ध था तब टू बी और नॉट टू बी’ का प्रश्न कैसे उठा? तब तो मनोविश्लेषण नहीं था तब शेक्सपीयर ने इतना जटिल चरित्र कैसे गढ़ दिया? यह युग ऐसे दर्शकों का था जो हास्य का दीवाना था, जिसे उछल-कूद पसंद थी। तब नाटककार ने इतनी त्रासद रचना कैसे की? ऐसा त्रासद, जटिल और मानसिक रूप से उलझा हुआ चरित्र जिसे सदियों बाद भी विद्वान सुलझाने में लगे हुए हैं। हैमलेट क्लॉडियस को आसानी से मार सकता था इसके लिए उसके पास पर्याप्त अवसर थे मगर वह उसकी हत्या करने की बात टालता रहता है। इसके लिए एक तर्क यह दिया जाता है कि उसे अपने पिता के भूत पर विश्वास न था। उसके मन में शंका थी कि कहीं शैतान ही तो भूत का रूप धर कर उसे एक अच्छे इंसान क्लॉडियस की हत्या करने के लिए नहीं उकसा रहा है। कोई फ़िल्म निर्देशक हैमलेट को कमजोर इच्छा शक्ति वाला दिखाता है तो कोई उसे पागल बना कर प्रस्तुत करता है।
‘हैदर’ चूँकि हमारे देश में बनी फ़िल्म है उसमें अत: गाने होना लाजिमी है। मगर त्रयी की दूसरी फ़िल्मों की भाँति विशाल इसमें आइटम सॉन्ग नहीं डालते हैं। अच्छा किया। फ़िल्म देखते समय गीत मधुर लगते हैं मगर फ़िल्म समाप्त होने पर मन उन्हें गुनगुनाता नहीं है क्योंकि याद नहीं रह जाते हैं। गुलजार से बेहतर गीतों की उम्मीद थी। हाँ, फ़ैज का अच्छा उपयोग हुआ है। फ़ैज सदैव अर्थपूर्ण हैं मगर फ़िल्म में कैदखाने में फ़ैज बहुत अधिक मानीखेज हो कर उभरते हैं। विशाल की ‘हैदर’ शेक्सपीयर के बिना भी बन सकती थी। कहानी अपने आप में काफ़ी मजबूत है उसे हैमलेट की बैसाखी के बिना भी बनाया जा सकता था। जैसे घायल खुर्रम रिघट-घिसट रहा है वही हालात कश्मीर के हैं। जैसे हैदर लहु-लुहान है वही स्थिति कश्मीर की है।
कैनेथ ब्रेना की फ़िल्म के अंत की ओर झूमर का गिराया जाना, सैनिकों द्वारा आईने वाले सारे दरवाजों को तोड़ते हुए दरबार में भड़भड़ाते हुए घुसना और दरबार में तमाम लोगों की मौत का सन्नाटा एक कॉन्ट्रास्ट पैदा करता है। यहाँ होराशियो मरते हुए हैमलेट के नजदीक नहीं जाता है उसे अपनी बाँहों में नहीं लेता है। अक्सर वह होराशियो की बाँहों में ही दम तोड़ता है। वह हैमलेट की कहानी बताने के लिए जीवित रहता है। ‘हैदर’ में होराशियो है ही नहीं, वह निपट अकेला है। ‘हैदर’ का अंत एक अलग संदेश देता है। गज़ाला बेटे हैदर के यकीन को झूठा सिद्ध करती हुई मरने से पहले अपने बेटे को कहती है, “इंतकाम से सिर्फ़ इंतकाम पैदा होता है। जब तक हम अपने इंतकाम से आजाद नहीं होंगे कोई आजादी हमें आजाद नहीं कर सकती है।”
हैदर खुर्रम को मारने के लिए उसके सिर पर पिस्तॉल ताने खड़ा है और उसके मन में माँ-बाप दोनों की कही बातें गूँज रही हैं। पिता बार-बार कह रहा है मेरा इंतकाम लेना, दूसरी ओर माँ उससे कह रही है कि इंतकाम से सिर्फ़ इंतकाम पैदा होता है। पुरुष इंतकाम की सोचता है स्त्री आजादी की बात कहती है। इंतकाम का नतीजा है न जाने कितनी औरतें आधी बेवा और पूरी बेवा हुई पड़ी हैं। कश्मीर के जो हालात हैं वह केवल हमारी समस्या नहीं है। आज दुनिया के तमाम देश इसी समस्या से जूझ रहे हैं। यह एक वैश्विक समस्या है जिसका हल बंदूक-बारूद में नहीं है। आज इसके समाधान की आवश्यकता बड़ी शिद्दत से है। हिंसा, क्रूरता, दमन-शोषण का हल हिंसा, क्रूरता, दमन-शोषण से नहीं निकलेगा। हैदर बाप को प्यार करता है मगर माँ से उसका लगाव है। वह माँ की कही बात कर अमल करता है। यह विशाल भारद्वाज का मानवता के नाम संदेश है। वे भारत से हैं और भारत सदा अहिंसा और प्रेम-भाईचारे में विश्वास करता है। यह भारत का दुनिया को संदेश है। काश हर बालक को उसकी माँ यही सीख देती!
शेक्सपीयर के ‘हैमलेट’ का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद हुआ है। दुनिया की तमाम भाषाओं में उस पर फ़िल्में बनी हैं। इस पर इंग्लैंड, अमेरिका, जापान, रूस, ऑस्ट्रेलिया, कानाडा और भारत कई देशों में फ़िल्में बनीं हैं। ‘हैमलेट’ को फ़िल्मों में इतनी अदाओं, इतने रंगों, इतनी छटाओं में प्रस्तुत किया गया है कि आज अगर शेक्सपीयर जिन्दा होता अवश्य ही तो अश-अश कर उठता। किसी एक फ़िल्म निर्देशक की ‘हैमलेट’ पर बनी फ़िल्म देख कर बात समाप्त नहीं हो सकती है। अगर ‘हैमलेट’ को पूरी तौर पर देखना है, उसके चरित्र के तमाम आयामों को समझना-सराहना है, तो इस पर बनी एक से अधिक फ़िल्में देखनी ही होंगी। अगर आप फ़िल्म प्रेमी हैं, शेक्सपीयर प्रेमी हैं तो आप एक ‘हैमलेट’ देख कर रुक नहीं सकते हैं। आपको रुकना चाहिए भी नहीं। आज के तकनीकि सुविधाओं के दौर में यह कठिन नहीं है। ‘हैदर’ तो देखिए-ही-देखिए, साथ में दूसरे ‘हैमलेट’ भी अवश्य देखिए। सदियों से घायल इस रिसती-तड़फ़ती आत्महंता आत्मा को परदे पर देखना अनुभूति है, जिसे शब्दों में बाँधना असंभव नहीं तो सरल भी नहीं है। इसे तो देखना ही होगा।
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