Wednesday 17 August 2016

अमृतलाल नागर पत्रों में

यह अमृतलाल नागर का जन्मशती वर्ष है। साथ-ही-साथ उनके उपन्यास ‘अमृत और विष’ की अर्धशती भी है। अमृतलाल नागर का जन्म १७ अगस्त १०१६ को आगरा के गोकुलपुरा नामक स्थान में हुआ था। वे बीसवीं शताब्दि के हिन्दी के एक बहुत बड़े कद के लेखक थे। उन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, नाटक, यात्रा वृतांत, संस्मरण, फ़िल्म स्क्रिप्ट, जीवनी, हास्य-व्यंग्य, अनुवाद आदि विभिन्न विधाओं में लेखन किया। उन्हें काशी नागरी प्रचारिणी सभा, प्रेमचंद पुरस्‍कार, सेवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्‍य अकादेमी पुरस्‍कार, मध्‍य प्रदेश शासन साहित्‍य परिषद पुरस्कार, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्‍कार, भारतीय भाषा पुरस्कार, नथमल भुवालका पुरस्‍कार, भारत भारती सम्‍मान प्राप्त हुए तथा साहित्‍य वाचस्‍पति उपाधि भी मिली। ‘वाटिका’, ‘एक दिल हजार दास्तान’, ‘भारतपुत्र नौरंगीलाल’, ‘पीपल की परी’, ‘सिकंदर हार गया’ आदि अमृतलाल नागर के कहानी संग्रह हैं। ‘बूँद और समुद्र’, ‘शतरंज के मोहरे’, ‘सुहाग के नूपुर’, ‘अमृत और विष’, ‘मानस का हंस’, ‘खंजन नयन’, ‘अग्निगर्भा’, ‘करवट’ तथा ‘पीढ़ियाँ’ उनके उपन्यास हैं। ‘सुनीति’, ‘सिनेमा समाचार’, ‘चकल्लस’, ‘नया साहित्य’, ‘प्रसाद’, ‘सनीचर’ आदि पत्रिकाओं का उन्होंने कुशलतापूर्वक संपादन किया। वयस्कों के साथ-साथ बच्चों के लिए भी खूब लिखा। वे स्क्रीनप्ले तथा फ़िल्म के संवाद लिखते थे। फ़िल्म में डबिंग का काम करते थे। इन सबके अलावा वे पत्र लिखने में भी कुशल थे। उन दिनों इंटरनेट और मोबाइल न था अत: पत्र द्वारा ही मुख्य रूप से संपर्क साधा जाता था। उनके उपन्यासकार और कहानीकार रूप पर काफ़ी कुछ लिखा-पढ़ा गया है। मैं उनके पत्र लेखन पर कुछ बातें आप से साझा करना चाहती हूँ। पत्र लेखन प्रथा आज विलुप्तप्राय: है। लेकिन एक समय लोगों को जोड़ने का प्रमुख साधन पत्र हुआ करते थे। पत्र लिखने वाले के व्यक्तित्व के विषय में पत्र बहुत कुछ कहता है। अमृतलाल नागर ने परिवारजनों के अलावा अपने साहित्यिक मित्रों को पत्र लिखे। ये उनके निजी पत्र थे। आज उनके पत्र प्रकाशित हो कर सार्वजनिक हो गए हैं। अमृतलाल नागर के ये पत्र हिन्दी साहित्य की थाती हैं। उन्होंने बहुत अधिक संख्या में पत्र लिखे हैं। लेकिन वे खुद को पत्र लिखने के मामले में आलसी व्यक्ति कहा करते थे। उन्होंने हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक-समीक्षक डॉ. रामविलास शर्मा को खूब पत्र लिखे। दोनों मित्र महाकवि महाप्राण निराला के प्रिय थे। अमृतलाल नगर और डॉ. रामविलास शर्मा की दोस्ती ३० साल से अधिक लंबी रही। इस बीच दोनों एक-दूसरे से बराबर मिलते रहे। साथ ही दोनों ने एक दूसरे को खूब पत्र लिखे। इन पत्रों से हमें अमृतलाल नागर के सरल स्वभाव का पता चलता है। भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ के दर्शन होते हैं। हिन्दी को ले कर उनकी गहन चिंता और सरोकार दिखाई पड़ता है। लिखने के प्रति उनकी गंभीरता नजर आती है। वे रामविलास शर्मा के साथ मिल कर खूब योजनाएँ बनाया करते थे। कभी नई पत्रिका निकालने की योजना बनाते तो कभी हिन्दी को उसका उचित आसन दिलाने के लिए संघर्ष की योजना बनाते। उन्होंने अपनी भाव-निष्ठा से हिन्दी के लिए संगठन खड़ा किया। जब हिन्दी की अस्मिता पर आँच आ रही थी तो उन्होंने अनशन करने की योजना बनाई। हिन्दी के स्वाभिमान के लिए वे प्राण देने को तैयार थे। रामविलास शर्मा को उन्होंने पत्र में लिखा कि यदि आवश्यकता पड़ी और अनशन द्वारा प्राणांत होने की नौबत भी आ गई तो रामविलास शर्मा का तो महज एक दोस्‍त ही जाएगा। मगर उससे हिंदी के साहित्यिक गौरव और उसके स्‍वाभिमान की बिखरी चेतना में नए प्राण पड़ जाएँगे। वह संगठित हो जाएगी। इसके लिए उन्होंने अलग-अलग मुहल्लों में जा कर प्रतिदिन सभाएँ कीं। उन्होंने मातृभाषा की इज्जत के लिए लोगों को एकजुट किया। लोगों से स्पष्ट कहा कि उनका यह प्रयास विशुद्ध साहित्यिक है। अनशन की नौबत न आई। सरकार ने हिन्दी विधेयक पास किया तो वे सरकार की प्रशंसा भी करते हैं। दोनों मित्र मिल कर लिखने के नए-नए विषय चुनते और उस पर लेखन किया करते थे। अमृतलाल नागर की लिखने में आस्था थी। उनके अनुसार लेखन कार्य की आस्था ही उनका स्थाई भाव है। वे नियमित रूप से लिखा करते थे और दूसरों को भी यही सलाह देते थे। अपने मित्र को उन्होंने एक पत्र में लिखा कि जब बहुत जोश आए तो कुछ लिख डालो। हिन्दी वालों के दिल में हिन्दी के लिए चाहत जगाओ। जब बढ़ती उम्र के कारण स्वयं लिखने में अवश हो गए तो इमला बोल कर लिखवाया करते थे। उन्होंने ‘करवट’ तथा ‘पीढ़ियाँ’ अपने दो अंतिम उपन्यास बोल कर ही लिखवाए थे। अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे लेखन में सक्रिय रहे। २३ फ़रवरी १९९० को उनकी मृत्यु हुई। उपेंद्रनाथ अश्क ने उनके ‘मानस के हंस’ को पढ़ कर सराहा था। अपने पत्र में उनके इसी प्रयास के प्रति वे कृतज्ञता अर्पित करते हैं। वे लिखते हैं कि ‘मानस का हंस’ पर अश्क जी का पत्र पाने की उन्होंने आशा नहीं की थी। वे बेबाक लिखा करते थे। उन्होंने इस पत्र में उपेन्द्रनाथ अश्क को लिखा कि उन्हें चिरंजीवी नीलाभ और दूधनाथ सिंह की प्रशंसा अपने लिए अधिक कीमती लगी। वे लिखते हैं कि अश्क ने अपना उपन्यास लिखना छोड़ कर उनका उपन्यास पढ़ा और उसे सराहा तथा पत्र लिखा। यह अश्क की निश्छल, उदार-प्रकृति का प्रमाण है। अश्क के अनुसार राम का अर्थ कर्तव्य है। नागर जी लिखते हैं कि यह कर्तव्यपरायणता ही उनकी राम-भक्ति है। उनका राम गैबी बिल्कुल नहीं है। जितना कुछ है उसे वे यथार्थ के धरातल पर ला कर उजागर करते हैं। यही उनका संघर्ष है। जब रामविलास शर्मा की षष्ठी पूर्ति पर लिखना था तो अमृतलाल नागर उनके सन ४० से सन ६४ तक के लिखे पुराने पत्रों को सामने फ़ैला कर बैठ गए और अतीत की सुखद स्मृतियों में खो गए। ये पत्र लिफ़ाफ़ों, पोस्टकार्ड और अंतरदेशीय की शक्ल में थे। पत्रों के जरिए वे रामविलास शर्मा को एक व्यक्ति, एक दोस्त और एक साहित्यकार के रूप में याद करते हैं। निराला जी ने दोनों का परिचय कराया था, जो प्रगाढ़ दोस्ती में परिवर्तित हो गया। उन्हें रामविलास रिजर्व टाइप लगे जब कि नागर जी का स्वभाव खूब खुला और नि:संकोच था। दोनों को भाषा और शब्दों से लगाव था। वे शब्द विनोद किया करते थे। दोनों अंग्रेजी और योरूप के दूसरे साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा करते। ये सब बातें उनके बीच घनिष्टता की मजबूत कड़ी थीं। दोनों खूब बहस करते लेकिन कभी कटु न होते। पत्रों में भी यह सिलसिला जारी रहा। १९३८ में अमृतलाल नागर ने ‘चकल्लस’ नाम से एक हास्य पत्रिका निकाली। इसका नामकरण शर्माजी ने ही किया था। इस पत्रिका का मैटर संजोने का जिम्मा रामविलास का था। यह कुछ नौजवानों का जोशीला सामूहिक प्रयास था। इस पत्रिका ने दोनों को और करीब ला दिया। दोनों मिल कर एक तख्त पर साथ बैठ कर पत्रिका के लिए विभिन्न नामों से लिखा करते। इन लोगों ने एक त्रैमासिक पत्रिका निकालने का भी विचार किया। वे इसमें साहित्यिक तथा वैज्ञानिक लेख प्रकाशित करना चाहते थे ताकि स्कूल-कॉलेज में विज्ञान की पढ़ाई हिन्दी में की जा सके। दोनों मिल कर हिन्दी साहित्य की उन्नति के संबंध में कल्पनाएँ करते। दोनों में काम करने का खूब जोश और उत्साह था। कुछ लोग रामविलास शर्मा को ईमानदार लेकिन अहंकारी समझते हैं। नागर जी पनए पत्र में उन्हें निडर, विनम्र और विनयशील मानते हैं। नागरजी खुले मन से उनकी प्रशंसा करते हैं और उन्हें सौम्य, गंभीर तथा विचारक मानते हैं। दोनों ने ऐसी दोस्ती थी कि जब रामविलास को डॉक्टरेट की डिग्री मिली तो बंबई में रह रहे नागर जी ने इसका समारोह मनाया। उन्हें लगा कि स्वयं उन्हें यह डिग्री मिली है। वे कहते हैं कि डॉक्टरी तो रामविलास को मिली पर उसका नशा उन पर चढ़ा है। उन दिनों डॉक्टर शब्द की कीमत बहुत थी। आज की तरह यह डिग्री इतनी सहज-सुलभ न थी। रामविलास शर्मा जैसे मित्रों को पत्र लिख कर वे बंबई का अपना श्रम-ताप हरा करते थे। नागरजी मस्तमौला व्यक्ति थे हिन्दी और लेखन के प्रति पूरी तरह से समर्पित लेकिन उन्हें किसी पार्टी अथवा संगठन का सदस्य बनना पसंद नहीं था। हाँ, रामविलास शर्मा जैसे मित्रों के पत्रों से उन्हें साहित्यिक लेखन-पठन की प्रेरणा मिलती थी। नागरजी को हिन्दी से लगाव था लेकिन वे दूसरी भाषाओं का आदर-सम्मान करते थे। शरदचंद्र को मूल में पढ़ने के लिए उन्होंने बांग्ला भाषा सीखी। शरत को उन्होंने बार-बार पढ़ा और उनसे मिलने कलकत्ता गए। वे शरत से खूब प्रभावित थे। साहित्य पढ़ना उनके लिए कभी केवल मनोरंजन का साधन नहीं रहा। यह उनके लिए अध्ययन का प्रधान विषय था। शरत ने उन्हें कहा था कि जो भी लिखो, वह अधिकतर अपने अनुभव के आधार पर लिखो। व्यर्थ की कल्पना के चक्कर में कभी न पड़ना। मैं जब उनसे मिली तो उन्होंने मुझसे भी यही कहा। मुझे प्रतिदिन कुछ-न-कुछ लिखते रहने की सलाह दी। अमृतलाल नागर जी ने सन १९८८, १४ जुलाई को मुझे भी एक पत्र लिखा था। यह पोस्टकार्ड मेरे लिए किसी थाती से कम नहीं है। मैं केरल जाने से पहले उनसे मिली थी। मेरा संबंध केरल से है यह जान कर उन्हें बहुत अच्छा लगा। इस पत्र में उन्होंने लिखा है कि मैं खूब सुख भोगूँ और केरल के जगत्गुरु शंकराचार्य की तरह अखंड भारत को हृदयंगम करूँ। यही उनकी हार्दिक कामना थी। मेरे अनुवाद कार्य के विषय में जान कर उन्हें बहुत संतोष हुआ था। वे स्वयं भी बहुत अच्छे अनुवादक थे। उन्होंने ‘बिसाती’ नाम से मोपासाँ की कहानियों का अनुवाद किया। ‘प्रेम की प्यास’ नाम से फ़्लॉबेयर की ‘मैडम बोवरी’ का अनुवाद किया। इसके साथ ही उन्होंने मराठी की कई कृतियों का हिन्दी में अनुवाद किया। उनका मराठी और गुजराती भाषा पर भी अधिकार था। यह मेरा सौभाग्य है कि उनका दिया आशीर्वाद मेरे लिए फ़लित हो रहा है। हमारे देश में बड़ी संमृद्ध मौखिक परंपरा है। उस पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इस खतरे को नागरजी ने बहुत पहले भाँप कर, १८५७ की क्रांति के मौखिक इतिहास को ‘गदर के फ़ूल’ नाम से संकलित किया। आजकल सैक्स वर्कर पर काफ़ी काम हो रहा है। नागरजी ने १९६० में इस मुद्दे को उठाया। ‘ये कोठेवालियाँ’ उसी का प्रतिफ़ल है। अपने समकालीनों पर ‘जिनके साथ जीए’ नाम से उन्होंने संस्मरण लिखे। ‘चैतन्य महाप्रभु’ नाम से उन्होंने सृजनात्मक जीवनी लिखी। ‘साहित्य और संस्कृति’ नाम से उनके साहित्यिक और सृजनात्मक आलेख प्रकाशित हैं। ‘टुकड़े टुकड़े दास्तान’ नाम से उनके आत्मकथात्मक लेखन को उनके पुत्र डॉ. शरद नागर ने संजोया है। अमृतलाल नागर के पत्र पढ़ कर पता चलता है कि वे आस्तिक थे। अपने इष्ट देवों से मित्रवत व्यवहार किया करते थे। उनसे मजाकिया लहजे में संवाद करते थे। सरल इतने थे कि बारिश होने पर उनका मन मुक्त हो कर झमाझम बरस उठता था, हरहराती आनंदी नदी बन कर बहने लगता था। इस झमाझम बारिश के मौसम में हिन्दी के इस दीवाने को मेरी श्रद्धांजलि! ०००