Saturday 21 June 2014

समकालीन भारतीय अंग्रेजी साहित्य: एक परिदृश्य

जब हम समकालीन भारतीय इंग्लिश साहित्य की बात करते हैं तो सबसे पहले हमारे सामने सलमान रुश्दी तथा अरुंधति राय का चेहरा आता है। दोनों में कुछ समानताएँ हैं, मसलन दोनों का जन्म भारत में हुआ। रुश्दी बंबई (आज के मुंबई) में पैदा हुए तो राय पूर्व के एक चाय बागान में जन्मी। दोनों इंग्लिश में लिखते हैं। दोनों ही विश्व प्रसिद्ध हस्तियाँ हैं। दोनों को बुकर पुरस्कार मिला (राय को अपनी एकमात्र किताब ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ के लिए), (रुश्दी को ‘मिडनाइट्स चिल्ड्र’ के लिए १९८१ में बुकर, १९९२ में बुकर ऑफ़ बुकर्स तथा २००८ में बेस्ट ऑफ़ द बुकर्स अब तक तीन बार)। शायद यहीं दोनों की समानता समाप्त हो जाती है। रुश्दी बहुत पहले भारत छोड़ कर चले गए उन्होंने ब्रिटेन की नागरिकता स्वीकार ली है। वैसे आज संचार और यातायात की सुविधा के कारण भारत से उनका संबंध बराबर बना हुआ है, पूरी दुनिया घूमते हुए वे भारत भी आते-जाते रहते हैं। सारी सुविधाओं और संभावनाओं के बावजूद अरुंधति राय भारत में ही बनी हुई हैं। दुनिया घूमती हैं लेकिन भारत उनका घर है। राय मात्र एक उपन्यास लिख कर, साहित्य से खुद को लगभग काट कर सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन की ओर मुड़ गई, देश की सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों के साथ शिद्दत से जुड़ी हुई हैं। पूर्णकालीन एक्टिविस्ट बन गई हैं। दूसरी ओर सलमान रुश्दी साल-दर-साल निरंतर साहित्यिक कृतियाँ प्रस्तुत करते जा रहे हैं। राय को उपन्यास ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ प्रकाशित होने के पहले ही करोड़ों की रॉयल्टी की बात से दुनिया चौंक गई, रुश्दी पूरी दुनिया के चिंता और चर्चा के विषय बन गए जब उन्होंने ‘सैटानिक वर्सेस’ लिखा और ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी ने इसे इस्लाम और मोहम्मद की अवमानना माना तथा उनकी मौत का फ़रमान जारी कर दिया। उनका सिर लाने वाले को न केवल धार्मिक सबब मिलना था वरन खुमैनी ने उसे एक बड़ी रकाम देने की भी घोषणा की। रुश्दी को भूमिगत होना पड़ा, न मालूम कितने ठिकाने बदलने पड़े, उनकी सुरक्षा के लिए सरकारों को और स्वयं उनको बेतहाशा रकम खर्च करनी पड़ी। आज उनका सर कलम करने का आदेश जारी करने वाला इस दुनिया से खुद जा चुका है और रुश्दी निरंतर साहित्य में डूबे हुए हैं। उनकी जिंदगी को अभी भी खतरा है, न जाने कब कोई सिरफ़िरा खुमैनी की बात पर अमल कर जाए। ‘सैटानिक वर्सेस’ के पहले वे ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’, ‘हारुन रशीद एंड अदर स्टोरीज’, ‘शेम’ आदि लिख कर प्रसिद्धि पा चुके थे। इसके बाद उन्होंने ‘मूर्स लास्ट शाई’, ‘द ग्राउंड विनीथ हर फ़ीट’, ‘शालीमार द क्लाउन’ लिखा है और अभी हाल में उनका ‘द एंचांट्रेस ऑफ़ फ़्लोरेंस’ आया है। जब-जब उनकी कृति आती है साहित्य जगत में लहर उठती है। पाठक और आलोचक दोनों अपनी-अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। वे दोनों के चहेते हैं। वे अपने साहित्य से समाज में हिलोर लाने के साथ ही अपने निजी जीवन से भी कम हिलोरें नहीं उठाते हैं। उनका रहन-सहन, उनके विवाह-तलाक सबकी खूब गर्मागरम चर्चा होती है। सेलेब्रेटी होने का फ़ायदा और खामियाजा दोनों उन्हें उठाना पड़ता है। वे भारतीय भाषाओं के साहित्य पर टिप्पणी करने के लिए भी चर्चित रहे हैं। जब उन्होंने भारत की पचासवीं सालगिरह के अवसर पर ‘द विन्टेज बुक ऑफ़ इंडियन राइटिंग: १९४७-१९९७’, का संपादन किया तो भारतीय भाषा में लिखे साहित्य को उपेक्षा की दृष्टि से देखा था। इसको लेकर भारत में उनकी खूब आलोचना हुई थी, मजे की बात यह थी कि आलोचना में इंग्लिश भाषी भी शामिल थे। इसी तरह जब अमित चौधुरी ने ‘द पिकाडोर बुक ऑफ़ मॉडर्न इंडियन लिटरेचर’ का संपादन किया तो उनके विचार भी भारतीय भाषा-साहित्य तथा लेखकों के प्रति कुछ ऐसे थे कि बहुत आलोचना हुई। इन सबके बावजूद उनके लेखन का लोहा रुश्दी के विपक्षी भी मानते हैं। वे पहले भारतीय इंग्लिश में लिखने वाले साहित्यकार हैं जिसने भारतीय इंग्लिश को उसकी विशिष्टता के साथ स्थापित किया। जिसकी भाषा में भारतीय समाज तथा जीवन के साथ भारतीय भाषा के मुहावरे और शब्द भी समाहित हुए हैं। जिसने इंग्लिश को एक नई खुशबू, एक नई पहचान दी है। इंग्लिश के इस नए रूप को विश्व साहित्य में आधिकारिक पहचान दी है। वे वैश्विक स्तर पर लिखते हैं मगर आज भी उनकी जड़ें भारत में मजबूती से जमी हुई हैं। एक बार सलमान रुश्दी और नोबेल पुरस्कृत जर्मन साहित्यकार गुंटर ग्रास ने बातों के दौरान एक-दूसरे कहा कि जैसे गुंटर ग्रास को अपने शहर डेंजिंग से दूर रहने का दु:ख है वैसे ही रुश्दी को बंबई से दूर रहने का दु:ख है। मगर यह अपने-अपने शहरों से दूर रहना उनके लिए प्रेरणा का काम करता है। जैसे रुश्दी के लिए बंबई सृजनात्मकता का स्रोत है, अपने भीतर की भावनाओं को प्रकट करने का स्थान भी है। वैसे ही ग्रास के लिए उनका अपना शहर डेंजिंग है। भीतर की बात जानने वाले कई लोग इस बात का दावा करते हैं कि रुश्दी का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए कई बार जा चुका है और बस उनको साहित्य का यह सबसे बड़ा पुरस्कार मिलने ही वाला है। पुरस्कार मिले या नहीं पाठ्कों और आलोचकों को रुश्दी की अगली किताब का बेसब्री से इंतजार है। अरुंधति की जड़ें भारत खासकर केरल में हैं। उनके उपन्यास का पूरा मजा उठाने के लिए केरल के समाज और संस्कृति की जानकारी जरूरी है वरना उसकी गहराई, उसकी खुशबू, उसकी रंगत, उसकी बहुआयामी रंगीन छटा के हाथ से फ़िसल जाने का खतरा है। शायद इसी कारण हिन्दी का अधिकाँश पाठक उसकी उतनी सराहना न कर सका जितनी सराहना की यह कृति हकदार है। राय को अपने पुरुष पात्रों पापाची, एस्थर, वेलुथा, चाको को गढ़ने के लिए सदैव याद किया जाएगा। करीब-करीब आत्मकथात्माक उपन्यास ‘द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ दलित, स्त्री, मार्क्सवाद आदि कई मुद्दे शिद्दत के साथ उठाता है। भाषा से खेलना अरुंधति की एक अन्य विशेषता है। इस कारण आज तक उपन्यास ‘द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ के जितने भी अनुवाद हुए हैं, मूल की तुलना में काफ़ी कुछ गँवा बैठे हैं। यहाँ तक कि इसका मलयालम अनुवाद भी। एक लंबे समय तक इंगलैंड का उपनिवेश रहने के कारण अंग्रेजी बहुत समय तक भारत पर शासन की भाषा बनी रही। इसी भाषा में शिक्षित लोगों की रहनुमाई में हमने स्वतंत्रता प्राप्त की, यह बात दीगर है कि ये सारे नेता जनता से संपर्क के लिए हिन्दी भाषा का ही उपयोग करते रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी इंग्लिश यहाँ की प्रमुख भाषा है। यह क्लास विभाजन की एक पहचान भी है। आज यह भाषा विश्व के लगभग सारे देशों में प्रयोग की जाती है। स्वाभाविक सी बात है कि कई लोग अपने सृजनात्मक लेखन, अपनी अभिव्यक्ति के लिए भी इसी भाषा का प्रयोग करते हैं। कुछ समय तक अंग्रेजी में साहित्य रचने वाले भारतीयों की शुमारी अंग्रेजी साहित्य में न के बराबर थी। ले देकर आर के नारायण, मुक्लराज आनंद या राजा राव का नाम लिया जाता था। इंडियन इंग्लिश को पहले ‘दोगलों की भाषा’ कहा जाता था, अक्सर अंगूर खट्टे हैं वाली प्रवृति के लोग इस शब्द का प्रयोग करते थे। ऐसे लोग कहते थे कि अंग्रेज चले गए और अपने पीछे अपनी दोगली संतान छोड़ गए उनका इशारा एंग्लो-इंडीयन्स की ओर होता था। चूँकि ये लोग अपने दैनंदिन जीवन में भी इंग्लिश का प्रयोग करते थे अत: इस भाषा को भी ‘दोगला’ कहा जाने लगा। आज स्थिति बदल गई है। भारत में बोली जाने वाली इंगलिश अब ‘क्वीन्स इंग्लिश’ नहीं रह गई है। इसे हिन्दी के शब्दों की भरमार होने के कारण अब ‘हिंग्लिश’ भी कहा जाता है। समीक्षक मीनाक्षी मुखर्जी भारतीय इंग्लिश लेखन को ‘द्विज’ मानती हैं। आज भारत की अन्य भाषा के समान यह भी भारत की एक महत्वपूर्ण, बल्कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाषा है। जो भी कहा जाए आज इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि भारतीयों द्वारा लिखी जाने वाली इंग्लिश चाहे वह साहित्य हो अथवा साहित्येतर सामग्री उसकी देश के भीतर ही नहीं विश्व में भी माँग बढ़ी है। टीवी, डॉक्यूमेंट्री की माँग है कि इस भाषा में साहित्य के साथ विचार और तथ्य प्रस्तुत किए जाए। विश्व बाजार में भी भारत को लेकर उत्सुकता है, बाहर लोग यहाँ के विषय में जानना चाहते हैं अत: यह एक तथ्य है कि इस भाषा और इसमें रचा गया लेखन भविष्य में रहने वाला है। उसकी माँग बढ़ने वाली है खासकर जब भारत में अगली पीढ़ी के बहुत सारे बच्चे इसी भाषा के माध्यम से शिक्षित हो रही है। अब इसकी साख का पता हर वर्ष होने वाले साहित्य उत्सवों से भी चलता है। साउथ एशियन लेखकों का एक अपना समुदाय है, एक अपनी पहचान है जिसमें भारतीय इंग्लिश साहित्य का विशिष्ट स्थान है। विश्व का कोई साहित्य समारोह इसके बिना सम्पन्न नहीं हो सकता है। जब हम भारतीय अंग्रेजी साहित्य कहते हैं तो इसका तात्पर्य होता है भारत के उन लेखकों का कार्य जो अंग्रेजी में लिखते हैं मगर जिनकी अपनी भाषा यानि मातृभाषा भारत की कोई अन्य भाषा हो सकती है। इसमें हम उस प्रवासी भारतीयों के साहित्य को भी समाहित करते हैं जो भारत के बाहर दुनिया भर में फ़ैले हुए हैं, जैसे सलमान रुश्दी, भारती मुखर्जी, चित्रा बैनर्जी दिवाकर्णी। उनको भी शामिल करते हैं जिनके पूर्वज भारतीय मूल के थे और जिनका जन्म किसी अन्य देश में हुआ है, जैसे वी एस नायपॉल। इसे इंडो-एंग्लिकन और उत्तरोपनिवेशिक (पोस्ट कलोनियल) साहित्य की संज्ञा से भी जाना जाता है। इंडियन इंग्लिश लिटरेचर का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर अंग्रेजी में भी लिखते थे, अनुवाद भी करते थे। वे एशिया के पहले लेखक थे जिसे नोबेल पुरस्कार मिला। विश्वकवि होते हुए भी वे सदैव बाँग्ला के लेखक ही कहलाए। बंकिम चंद्र ने १८६४ में अपना पहला ही उपन्यास ‘राजमोहन्स वाइफ़’ इंग्लिश में लिखा था। मगर अच्छा हुआ वे इसके बाद बांग्ला में ही लिखते रहे वरना पाठक उनके कालजयी साहित्य से वंचित रह जाता और पहला उपन्यास कुछ खास नहीं बन पड़ा था। मुल्कराज आनन्द, राजा राव तथा आर के नारायण को भारतीय इंग्लिश लेखन का जनक माना जाता है। राजा राव को इस क्षेत्र में अग्रणी होने का श्रेय जाता है। जेम्स जॉयस, कार्ल मार्क्स और महात्मा गाँधी से प्रेरित संस्कृत के प्रकांड विद्वान राजा राव का ‘काँतापुरा’, ‘सर्पेन एंड रोप’ अंग्रेजी साहित्य में आदर के साथ स्वीकार किए जाते हैं। उन्होंने भारतीय दर्शन को साहित्य के माध्यम से अंग्रेजी भाषी दुनिया में स्वीकृति दिलाई। इसी तरह आर के नारायण और मुल्कराज आनंद का भी ऐतिहासिक महत्व है। नारायण ने मालगुड़ी को साहित्य में अमर कर दिया और स्वामी के द्वारा भारत के बाहर भारतीय जीवन की छवि पहुँचाई। उनके ‘मालगुड़ी डेज’, ‘स्वामी एंड फ़्रेंडस’ पर सीरियल भी बने हैं। वे अपनी मृत्यु तक लेखन में सक्रिय थे। वे अपने साहित्य में रूढ़ि और आधुनिकता के संघर्ष को प्रस्तुत करते रहे। उनके यहाँ हल्का-फ़ुल्का हास्य मिलता है जो पाठक को गुदगुदाता है साथ ही चिंतन के लिए प्रेरित भी करता है। मुल्कराज आनन्द ने इंग्लैंड में रहते हुए टी एस इलिएट की पत्रिका ‘क्राइटेरियन’ में लिखना प्रारंभ किया। ई एम फ़ोस्टर, जॉर्ज ऑर्वल, हेनरी मिलर से उनकी दोस्ती थी और वे ब्लूमस्बरी के सदस्य थे। ९९ साल की उम्र में जब २००४ में उनकी मृत्यु हुई वे तमाम उपन्यास और अन्य साहित्येत्तर रचना कर चुके थे। सात खंड की आत्मकथा के चार खंड प्रकाशित हो चुके थे। ‘अनटचेबल’ से प्रसिद्धि की सीढ़ियाँ उन्होंने प्रारंभ की और ‘कूली’, ‘टू लीव्स एंड अ बड’ जैसे उपन्यास लिखे। ‘द विलेज’, ‘अक्रॉस द ब्लैक वाटर’ तथा ‘द सोर्ड एंड द सिकेल’ उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। उन्हें ‘मार्ग’ पत्रिका की स्थापना के लिए भी सदैव स्मरण किया जाएगा। मुल्कराज भारत की जाति-प्रथा, धर्म तथा वर्गगत विभाजन पर बहुत कटुता और क्रूरता के साथ लिखते रहे। दूसरी ओर कवि, अनुवादक प्रो. पी लाल ने न केवल महाभारत को फ़िर से ट्रांसक्राइब किया है, वरन कलकत्ता में अपनी प्रेस ‘राइटर्स वर्कशॉप’ स्थापित करके भारतीय अंग्रेजी लेखन को मजबूती प्रदान की। ‘राइटर्स वर्कशॉप’ वन मैन शो होते हुए भी अपने आप में एक इंड्रस्ट्री था। अभी कुछ दिन पहले प्रो. लाल की मृत्यु हो गई है। आज के बहुत सारे लेखकों को गर्व है कि उनकी पहली किताब यहीं से प्रकाशित हुई। ग्रामीण जीवन का चित्रण कमला मारकंडेय के ‘नेक्टर इन ए सीव’ में भी मिलता है। पुरानी पीढ़ी की कमला मारकंडे अपने कॉलेज जीवन से ही लेखन कर रही थीं और बाद में १९४८ में इंग्लैंड जा बसीं। उन्होंने एक इंग्लिशमैन से विवाह किया और बराबर इंग्लिश में लिखती रहीं। ‘नेक्टर इन ए सीव’ के अलावा मारकंडे ने ‘सम इनर फ़्यूरी’, ‘ए साइलेंस ऑफ़ डिजायर’, ‘पैशन’, ‘ए हैंडफ़ुल ऑफ़ राइस’, ‘द कॉफ़र डैम्स’, ‘द नोव्हेयर मैन’, ‘टू वर्जिन्स’, ‘द गोल्डेन हनी कोम’, तथा ‘प्लेजर सिटी’ आदि दस उपन्यास लिख कर स्त्री-व्यथा को स्वर दिया। स्त्री विषयक मुद्दे और उसकी समस्याएँ ही सदैव उनके साहित्य की प्रमुख विषय-वस्तु रही। पुरानी पीढ़ी के लेखकों पर आरोप लगता रहा है कि वे दुनिया को भारत की वही तस्वीर दिखाते थे जो बाहर वाले देखना चाहते थे यानि कि गरीबी, भुखमरी, जातिगत, धर्मगत भेदभाव। छूआछूत, मदारी, जादू टोना यही भारत ये लोग अपने साहित्य में पेश करते रहे। नए लेखकों का दृष्टिकोण व्यापक है। जब हम समकालीन साहित्य की बात करते हैं तो वह मात्र कुछ दशक पुराना है। इस साहित्य को हम पिछली सदी के आठवें दशक से फ़ैलता-फ़ूलता पाते हैं। विश्व के अंग्रेजी साहित्य के मानचित्र पर भारतीय अंग्रेजी साहित्य को स्थापित करने का श्रेय नि:संदेह सलमान रुश्दी को जाता है। आज भले ही वे दूसरे देश के ग्रीन कार्ड होल्डर हैं पर उनकी पैदाइश भारत की है। रुश्दी और राय के अलावा इस परिदृश्य पर अब हमें ढ़ेर सारे साहित्यकार नजर आते हैं। हरेक पर एक पूरा आलेख हो सकता है। इस आलेख की सीमा में सबके साथ न्याय कर पाना कठिन है। बहुत सारे केवल गिनाए गए हैं, कई छूट भी गए हैं, या छूट गए होंगे। हर पाठक की अपनी रूचि और सीमा होती है। अनिता देसाई एक प्रमुख साहित्यकार हैं, ‘इन कस्टडी’ उनका सर्वोत्तम कार्य कहा जा सकता है जिसमें वे भारत की एक अन्य भाषा उर्दू और उससे जुड़ी संस्कृति के पतन की दास्तान सुनाती हैं। इस पर एक बहुत सुंदर फ़िल्म भी बनी है। मरता हुआ अतीत वर्तमान के लिए बोझ होता है ऐसा वे मानती हैं। जर्मन माँ और बंगाली पिता की संतान अनीता का जन्म मसूरी में हुआ। कायदे से उनकी मातृ भाषा जर्मन होनी चाहिए थी या फ़िर उन्हें बाँग्ला में लिखना चाहिए था मगर उनकी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से हुई और उन्होंने सदैव इसी भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त किया। उन्होंने एक गुजराती व्यक्ति से विवाह किया। उनके साहित्य में भारतीय शहरी आदमी के विभ्रम को हम देखते हैं। वे मनुष्यों के आपसी जटिल संबंधों को बखूबी प्रस्तुत करती हैं। ‘इन कस्टडी’ के अलावा ‘क्राई द पिकॉक’, ‘वॉयजेज इन द सिटी’, ‘बाई बाई ब्लैक बर्ड’, ‘व्हेयर शैल वी गो दिस समर?’, ‘फ़ायर ऑन द माउंटेन’ आदि उनके दस उपन्यास उपलब्ध हैं। उन्होंने बच्चों के लिए भी खूब लिखा है। बच्चों के बीच रस्किन बाँन्ड भी बहुत पसंद किए जाते हैं। माँ के नक्शे-कदम पर चलते हुए लेकिन माँ से बिल्कुल भिन्न शैली और कथानक ले कर आती हैं अनीता देसाई की बेटी किरण देसाई। वे आज के दौर में सच में विश्व नागरिक हैं। किरण ने १४ साल की उम्र में भारत छोड़ कर विदेश रहने का फ़ैसला किया। पहले वे इंगलैंड गई फ़िर अमेरिका। आजकल वे नोबेल पुरस्कृत तुर्की लेखक ओरहान पामुक के साथ रह रही हैं। प्रवासी के अनुभव को लेकर उन्होंने ‘द इन्हेरिटेंस ऑफ़ लॉस’ की रचना की। ‘स्ट्रेंज हैप्पनिंग इन द ग्वावा ओचर्ड’ उनकी एक अन्य किताब है। उनके यहाँ भारत का औपनिवेशिक, उत्तर-औपनिवेशिक जीवन, भूमंडलीकरण, क्रूर अत्याचार सब देखने को मिलता है। १९४० में कलकत्ते में जन्मी भारती मुखर्जी पढ़ने के लिए कैनेडा गई। वे वहीं अपने एक साथी से विवाह कर बस गईं। वही की नागरिकता ले ली। मुखर्जी १९६० से १०८० तक कैनेडा में रह कर लेखन तथा अध्यापन करती रहीं। फ़िर वे अमेरिका में बस गई उन्होंने अमेरिका की नागरिकता ले ली। ‘द टाइगर्स डॉटर’, ‘वाइफ़’, ‘डेज़ एंड नाइट्स’, ‘द मिडिलमैन एंड अदर स्टोरीज’, ‘हॉल्डर ऑफ़ द वर्ल्ड’, ‘द सोरो एंड द टेरर’ उनकी रचनाएँ हैं। उनके यहाँ प्रवासी अस्मिता की खोज, प्रवासी मन की द्विविधा, प्रवासी के खंडित व्यक्तित्व पर काफ़ी कुछ पढ़ने-समझने को मिलता है। ‘द टाइगर्स डॉटर’ की तारा स्वयं लेखक के व्यक्तित्व तथा अनुभवों को विस्तार से प्रस्तुत करती है। जिसे न अमेरिका में अपने अमेरिकी पति के साथ चैन मिलता है और न जो भारत अपने परिवार में लौट कर प्रसन्न है। उसे एक ओर अपना मूल परिवेश खींचता है वहीं दूसरी ओर जब वह कलकता परिवार से मिलने आती है तो खुद को परिवार, रिश्तेदारों तथा मित्रों को बीच मिसफ़िट पाती है। सात साल में वह अपने परिवार के कई रीति-रिवाज भूल चुकी है। उसे यह देख कर दु:ख होता है कि भारत में लोग विदेशी चीजों की प्रशंसा करते हैं, उनके पीछे मरते हैं मगर जब कोई किसी विदेशी से विवाह कर लेता है तो उसे अपनाने से कतराते हैं। यहाँ तक कि माँ भी। उसे पूरा माहौल अजनबी लगता है वह जल्द से जल्द अमेरिका अपने पति के पास लौट जाना चाहती है। मगर कहानी यह नहीं स्पष्ट करती है कि वह अमेरिका जा पाती है अथवा नहीं। हाँ, अंत में उसे उत्पातियों से घिरे हुए अवश्य दिखाया गया है। ‘द मिस्ट्रेस ऑफ़ स्पाइसेज’ से प्रसिद्धी पाने वाली चित्रा बैनर्जी दिवाकर्णी अमेरिका में रहते हुए वहाँ के विश्वविद्यालय में क्रिएटिव राइटिंग का शिक्षण करती हैं। उनकी ‘द मिस्ट्रेस ऑफ़ स्पाइसेज’ पर फ़िल्म भी बनी है जिसमें ऐशवर्या राय ने प्रमुख भूमिका की है। ‘सिस्टर ऑफ़ माई हार्ट’, ‘द वाइन ऑफ़ डिजायर’, ‘क्वीन ऑफ़ ड्रीम्स’ दिवाकर्णी के अन्य उपन्यास हैं, ‘अरेंज्ड मैरेज’ तथा ‘द अननोन इरोज ऑफ़ अवर लाइव्स’ इनके कथा संग्रह हैं। दोनों कहानी संग्रह पर उन्हें पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इतना ही नहीं दिवाकर्णी के चार काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। झुम्पा लाहिरी भी एक ऐसी ही लेखिका हैं जो खुद बाहर रहती है और अपने साहित्य में प्रवासी की सांस्कृतिक अस्मिता की खोज करती हैं। अपने पहले ही कार्य ‘दि इंटरप्रेटर ऑफ़ मेलाडीज’ से ही वे खासी चर्चित रही हैं अपनी साहित्यिक समझ के लिए। उन्होंने अपने लेखन में प्रवासी जीवन को उठाया है। इसे २००० का पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उपन्यास ‘द नेमसेक’ एक युवा की दृष्टि से प्रवासी जीवन को दिखाता है। वे प्रशंसा और आलोचना दोनों की शिकार होती रही हैं। भारतीय मूल के नॉयपॉल का साहित्य रुश्दी के साहित्य से बहुत अलग है। उनके पूर्वज भारत से गिरमिटिया के रूप में बाहर ले जाए गए थे। नोबेल पुरस्कृत नॉयपॉल फ़िक्शन से ज्यादा अपने नॉन-फ़िक्शन तथा अपनी टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। भारत के प्रति उनकी धारणा प्रारंभ में बहुत नकारात्मक थी। बार-बार यहाँ की यात्रा करने के कारण अब वे भारत को उसकी जटिलताओं के साथ कुछ-कुछ समझने लगे हैं और उनका नजरिया बदल रहा है। विद्याधर सूरजप्रसाद नॉयपॉल ने ‘द मिस्टिक मैस्यू’, ‘मिग्युअल स्ट्रीट’, ‘हाउस ऑफ़ मिस्टर बिस्वास’, ‘एन एरिया ऑफ़ डार्कनेस’, ‘दि एनिग्मा ऑफ़ एराइवल’, ‘अ वे इन द वर्ल्ड’, ‘मैजिक सीड्स’ आदि कई साहित्यिक और साहित्येत्तर रचनाएँ की हैं। (विस्तार के लिए देखें संवाद प्रकाशन से आई ‘अपनी धरती, अपना आकाश: नोबेल के मंच से’ – विजय शर्मा) कहने को तो ‘नाइनटीन एट्टीफ़ोर’ के प्रसिद्ध जॉर्ज ऑरवल को भी इसी श्रेणी में यानि भारतीय अंग्रेजी लेखकों की श्रेणी में रखा जा सकता है। ऑरवल का जन्म बिहार के मोतीहारी जिले में हुआ था। उन्होंने साहित्य को कई मुहावरे और शब्द दिए हैं। ‘नाइनटीन एट्टीफ़ोर’ के अलावा उन्होंने ‘बर्मीज डेज’, ‘एनीमल फ़ार्म’ भी लिखा। पारसी मूल के रोहिंग्टन मिस्त्री का भारतीय अंग्रेजी साहित्य में विशिष्ट स्थान है। उनकी ‘सच ए लॉन्ग जर्नी’ नेहरू युग के बाद के भारत में पारसी जीवन को बड़ी शिद्दत और खूबसूरती के साथ प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास इंदिरा गाँधी के शासन काल में सामान्य जीवन को चित्रित करती है। उसमें एक दृश्य है जिसमें एक राजनैतिक मीटिंग की तैयारी, मीटिंग और उसके बाद के पूरे परिदृश्य को बहुत विस्तार के साथ चित्रित किया गया है। यथार्थ के वर्णन के लिए वे याद रहते हैं। ‘फ़ैमिली मैटर्स’ तथा ‘ए फ़ाइन बैलेंस’ उनकी अन्य पुस्तकें हैं। इसी तरह बाप्सी सिद्धवा भी पारसी मूल की हैं और इंगलिश में लेखन करती हैं। कहने को वे पाकिस्तानी हैं मगर विभाजन पर उनका साहित्य लाजबाव है। उनके उपन्यास ‘आइस-कैंडी मैन’ में विभाजन को एक छोटी बच्ची की दृष्टि से दिखाया गया है। विभाजन की भयंकरता, शारीरिक और मानसिक अत्याचार और संवेगात्मक रूप से लोगों के टूटने को यह उपन्यास बड़ी बारीकी से दिखाता है। इस पर बनी फ़िल्म भी खूब चर्चित रही। कहानी तथा स्क्रीनप्ले राइटर रुथ परवेज झाबवाला भी प्रवासी की पीड़ा को अपने लेखन में अभिव्यक्त करती हैं। उपमान्यु चैटर्जी ‘इंग्लिश अगस्ट’ बना कर बहुत पहले इस क्षेत्र में स्थापित हो गए थे। जिस पर फ़िल्म बनी मगर दर्शकों ने उसे खास तवज्जो नहीं दी। वे भारतीयों की कमजोरियों का व्यंग्यात्मक रूप से दर्शन करते-कराते हैं। वही दिखाने की कोशिश करते हैं जो पश्चिम अभी भी भारत के विषय में देखना-पढ़ना चाहता है। वैसे आज विश्व में भारत की छवि बहुत बदल चुकी है। आर्थिक उदारवाद, भूमंडलीकरण तथा आईटी सेक्टर ने भारतीयों को उनका उचित स्थान दिलाने में मदद की है। शायद इसीलिए अस्सी के बाद की पीढ़ी के लेखक जैसे चेतन भगत, अरविंद अडिगा, किरन देसाई, मंजु कपूर, पंकज मिश्रा आदि आज के युवा पाठकों की पहली पसंद हैं। भारत की हँसी उड़ा ने के बावजूद उपमान्यु चैटर्जी की ‘द मैमरीज ऑफ़ द वेलफ़ेयर स्टेट’ खूब चर्चित हुई। उपनिवेशवाद ने भारतीयों के जीवन पर क्या प्रभाव डाला है यह जानने के लिए साहित्य अकादमी से पुरस्कृत अमिताव घोष को पढ़ना रोचक होगा। २००१ में जब अमिताव घोष को उनकी किताब ‘द ग्लास पैलेस’ के लिए यूरेशियन कॉमनवेल्थ राइटर्स प्राइज़ देने की पेशकश की गई तो उन्होंने अपने सिद्धांत के तहत इसे लेने से इंकार कर दिया। ‘द सर्किल ऑफ़ रीजन’, ‘द ग्लास पैलेस’, ‘द कलकत्ता क्रोमोसोम: ए नोवेल ऑफ़ फ़ेवेर्स’ तथा ‘द हंग्री टाइड’ उनकी अन्य पुस्तकों के नाम हैं। उन्होंने भारत तथा मिस्र के संबंधों पर ‘इन एन एंटिक लैंड: हिस्त्री इन द गाइज ऑफ़ ए ट्रैवलर्स टेल’ भी लिखा है जो नॉन फ़िक्शन की श्रेणी में आता है। ‘द हंग्री टाइड’ में घोष ने एक ऐसा विषय उठाया है जिस पर आमतौर पर साहित्य नहीं मिलता है। उनकी इस रचना का विषय बंगाल का सुंदरबन का क्षेत्र और वहाँ का जनजीवन है। यहीं पर भारत का प्रसिद्ध बंगाल टाइगर का निवास स्थान भी है जो आज विलुप्ति के कगार पर है। उन्होंने भारतीय मूल की एक शोधकर्ता युवति, सुंदरबन के निवासी तथा एक अन्य व्यक्ति को लेकर अपनी कथा गूँथी है। इस कथा में स क्षेत्र का इतिहास, लोक कथाएँ, लोक विश्वास, भूगोल, पर्यावरण सब समाहित है। विक्रम सेठ का १९९४ में लिखा उपन्यास ‘ए सूटेबल ब्यॉय’ कुछ नहीं तो अपनी लम्बाई के लिए अवश्य याद किया जाएगा। अब सेठ ने इसका अगला भाग भी लिख दिया है। उनकी पहली किताब ‘द गोल्डेन गेट’ सेन फ़्रांसिस्को में रह रहे एक युवा का रोजनामचा है जिसे उन्होंने पद्यात्मक शैली में लिखा। ‘एन इक्वल म्यूजिक’ तथा ‘टू लाइव्स’ उनकी अन्य रचनाएँ हैं। वे बहुत हल्का-फ़ुल्का मनोरंजक लिखने के लिए जाने जाते हैं। उपन्यासकार के साथ-साथ एक अच्छे कवि भी हैं। वैसे उनका कवि रूप काफ़ी कुछ अनजाना ही रहा है। अब तो उनकी माँ लीला सेठ भी अपनी आत्मकथा लेखन के बल पर साहित्यिक हलके में जानी जाने लगीं हैं। १९८० के बाद भारतीय इंग्लिश लेखन में बहुत सारे लोग उभर कर आए। आज भारतीय अंग्रेजी साहित्य का दृश्य बहुत भरा-पूरा है। बहुत सारे लेखक सक्रिय हैं। रातोंरात नए-नए लेखक पैदा हो रहे हैं, कुछ क्षणिक चमक दिखा कर, एक किताब के साथ फ़ुलझड़ी की तरह फ़ुरफ़ुरी पैदा कर के समाप्त हो जा रहे हैं। कुछ लम्बी रेस के घोड़े हैं, जिनसे पाठकों को बहुत उम्मीद हैं। संचार और यातायात के साधनों में आई अभूतपूर्व प्रगति भी इसका एक कारण है। आज प्रकाशकों से संपर्क साधना, अपनी किताब का प्रचार-प्रसार कर पाना काफ़ी आसान हो गया है। बाजार की माँग को देखते हुए प्रकाशकों की संख्या और दृष्टिकोण में भी काफ़ी परिवर्तन आया है। प्रकाशन व्यवसाय न केवल आसान हो गया है बल्कि ग्लोबल हो गया है। खासकर इंग्लिश आधारित प्रकाशन व्यवसाय खूब फ़ल-फ़ूल रहा है। नई पीढ़ी चाहे वह भारत की हो अथवा किसी अन्य विकासशील देश की हो इंग्लिश उसकी संप्रेषण और पढ़ने की भाषा होती जा रही है। ये प्रकाशक अपने लेखकों को समाज के सामने सेलेब्रेटी बना कर प्रस्तुत करते हैं। लेखक भी न केवल लिखता है वरन अपनी किताब के प्रचार-प्रसार का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। इंग्लिश लेखकों को अच्छी-खासी रॉयल्टी, अक्सर अग्रिम रॉयल्टी मिलती है। इस कारण भी इस ओर काफ़ी नए लोगों का झुकाव हुआ है। शायद इसीलिए एक बार प्रवासी हिन्दी लेखकों को हमारे देश के नॉलेज कमीशन के प्रमुख शैम पैट्रोडा ने अपनी अक्ल का नमूना पेश करते हुए सलाह दे डाली कि आप लोग हिन्दी में क्यों लिखते हैं, इंग्लिश में क्यों नहीं लिखते हैं। इस क्षेत्र में नए-नए लोग आ रहे हैं वे न केवल सहित्य से जुड़े लोग हैं वरन अन्य पेशे से जुड़े लोग भी हैं अत: अपने-अपने क्षेत्र के अनुभवों से इसे समृद्ध कर रहे हैं। चेतन भगत के रचे को साहित्यिक गुणों के लिए उतना नहीं जाना जाता है, जितना युवा, उच्च-मध्यम वर्ग के युवा के अनुभवों को शब्द प्रदान करने के लिए जाना जाता है। ‘फ़ाइव पॉइंट समवन’, ‘थ्री मिस्टेक्स ऑफ़ माई लाइफ़’, ‘टू स्टेट्स’, ‘वन नाइट एट द कॉल सेंटर’ उनके उपन्यास हैं। ‘फ़ाइव पॉइंट समवन’ तथा ‘वन नाइट एट द कॉल सेंटर’ पर फ़िल्में भी बनी हैं। अभिजित भादुड़ी की ‘मीडिओकर बट एरोगेंट’ बिजनेस स्कूल जीवन को प्रस्तुत करती है। कॉलेज तथा हॉस्टल को कथानक बना कर लिखे गए चेतन भगत और अभिजित भादुड़ी के ये उपन्यास युवाओं के बीच खूब लोकप्रिय हैं। इनको लिए को पढ़ने के लिए ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ती है। आज का भारतीय शहरी युवा इनसे खुद को सरलता से को रेलेट कर पाता है। जैसे अरुंधति राय की जड़ें केरल में हैं वैसे ही डेविड देवीदार भी अपने लेखन में दक्षिण की खुशबू लेकर आते हैं उनका ‘द हाउस ऑफ़ ब्लू मैंगोस’ तमिलनाडु के समाज और जीवन को बहुत रोचक ढ़ंग से प्रस्तुत करता है। आप पहले एक प्रसिद्ध प्रकाशक संस्थान के एजेंट थे। इसी तरह अपनी जड़ों को लेकर श्रीकुमार वर्मा केरल के अनोखे वैवाहिक संबंध (जिसे मलयालम में संबंधम कहा जाता है) को अपने उपन्यास ‘लैमेंट ऑफ़ मोहिनी’ प्रस्तुत करते हैं। इसमें केरल के उच्च जाति के लोगों खासकर नम्बूदरी लोगों के जीवन उनके वैवाहिक संबंध को चित्रित किया गया है। इस नम्बूदरी समाज में परिवार का केवल बड़ा बेटा ही शादी करता है बाकी लड़के राजकन्याओं अथवा नायर स्त्रियों के अस्थाई संबंध बनाते हैं। केरल का यह प्रमुख रिवाज अब समाप्त हो चुका है। श्रीकुमार वर्मा प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा के पड़पोता हैं। अपने उपन्यास में वे कई पीढ़ियों का जीवन चित्रित करते हैं। ‘क्यू एंड ए’ जिस पर ‘स्मल डॉग मिलिनियर’ फ़िल्म बनी और जिसे ऑस्कर मिले के लेखक विकास स्वरूप भी इंग्लैंड में रहते हैं। अभी तक उनका यही एक मात्र उपन्यास सामने आया है मगर ऐसा एक ही काफ़ी है। वैसे इसकी जम कर आलोचना भी हुई क्योंकि उन्हें भी भारत में गरीबी, भिखमंगी ही नजर आई है। विकास भारतीय उच्चायोग, लंदन में काम करते हैं। एक समय के उनके मित्र स्वयं कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा इस उपन्यास को लिखे जाने के समय की बात बताते हुए कहते हैं, कि बातों केदौरान उन्होंने कहा था, “विकास जी जो उपन्यास आप लिख रहे हैं, इसमें बेस्टसेलर होने की सभी खूबियाँ हैं। आप इसे साहित्य समझने के चक्कर में मत पड़िएगा। यह उपन्यास आपको शीर्ष के पापूलर लेखकों की कतर में ला खड़ा करेगा।” और कोई शक नहीं कि ऐसा हुआ। किताब से भी ज्यादा फ़िल्म के साथ ऐसा अवश्य ही हुआ। अभी-अभी अपने विवाह तथा क्रिकेट संबंधित बातों के लिए चर्चित शशि तरूर सरकारी उच्च सेवा में अक्सर भारत से बाहर रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले महाभारत से अपने विचार लिए और व्यंग्यात्मक लहजे में ‘द ग्रेट इंडियन नोवेल’ लिखा और साहित्यकारों की जमात में शामिल हो गए। ‘शो बिजनेस’ तरूर का एक अन्य कार्य है। वे अपने साहित्येत्तर लेखन के लिए भी खूब जाने जाते हैं। अभी हाल-फ़िलहाल भारत के अतीत को खंगालते हुए और उसके भविष्य की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए उन्होंने ‘इंडिया: फ़्रॉम मिडनाइट टू मिलेनियम’ लिखा है। संचार और यातायात की सुविधा ने कई लोगों को रातोंरात सेलेब्रेटी बना दिया है। कई बार साहित्यिक दृष्टि से उच्च कोटि का न होने पर भी किताब खूब चर्चित हो जाती है। उसे फ़टाफ़ट पुरस्कार और सम्मान भी मिल जाते हैं। भारतीय इंग्लिश लेखन के बढ़ते बाजार की माँग के कारण प्रकाशक भी लेखक को काफ़ी सम्मान देते हैं। असल में दोनों मिलकर काम करते हैं। आज मात्र अच्छा लिखना ही काफ़ी नहीं है। बाजार के दबाव के कारण लेखक को भी पुस्तक के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी वहन करनी पड़ती है। खर्च प्रकाशक उठाता है मगर श्रम और समय लेखक का भी लगता है। यह उसके करारनामे की शर्त होती है। कभी-कभी राजनैतिक और कूटनीतिज्ञ कारणों से भी पुरस्कार दिए जाते हैं। मगर तब पुरस्कार \ सम्मान की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। अरविंद अडिगा को जब अपने व्हाइट टाइगर’ के लिए बूकर मिला तो कुछ ऐसा ही हुआ। भारतीय इंग्लिश रचनाकारों को बुकर मिलना अब सामान्य बात हो गई है लेकिन जब अडिगा को यह मिला तो काफ़ी गर्मागरम चर्चा और आलोचना भी हुई। यहाँ तक कि पुरस्कार की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगने की नौबत आ गई। अरविंद अडिगा का ‘व्हाइट टाइगर’ एक रेसी क्राइम थ्रिलर की तरह है, जिसे पत्र शैली में लिखा गया है। (विस्तार के लिए विजय शर्मा का नया ज्ञानोदय नवम्बर २००८ का अंक देखा जा सकता है।) इस आलेख की सीमा है। यहाँ केवल उन्हीं रचनाकारों पर की बात हुई है जो गद्य, उसमें भी मुख्य रूप से कहानी-उपन्यास की रचना करते हैं। आज इतनी ज्यादा संख्या में भारतीय इंग्लिश साहित्य उपलब्ध है कि सबको एक आलेख में समेटना संभव नहीं है। बच्चों के चहेते देहरादून में रहने वाले प्रसिद्ध रस्किन बॉण्ड को छोड़ने का कोई औचित्य नहीं है पार छोड़ा गया है। गद्य की अन्य विधाओं तथा पद्य रचनाकारों को नहीं लिया गया है। ए के रामानुजम जैसे प्रसिद्ध कवि ने इस विधा को समृद्ध किया है वहीं केकी दारूवाला, नसीम इजाकल, डॉम मोरिस, अरुण कोलाटकार, दिलीप चित्रे जैसे कवि इस साहित्य के अंतरगत आते हैं। और जयंत महापात्र को कैसे छोड़ा जा सकता है। करीब सौ वर्ष की लम्बी आयु पाने वाले तथा ‘द लास्ट इंग्लिश मैन’ के नाम से प्रसिद्ध नीरद चटर्जी ‘दि ऑटोबायग्राफ़ी ऑफ़ एन अननोन इंडियन’ एक बहुत उम्दा किताब है। परंतु वे ताजिंदगी वे भारत के विषय में अपने विचारों के कारण आलोचना के पात्र बने रहे। जिद के साथ उनका कहना है कि भारत की अपनी कोई संस्कृति न कभी थी न है। जो है वह सारा कुछ समय-समय पर बाहर से आए हुए लोगों के द्वारा आया है। इनकी लिखी मैक्समूलर की जीवनी ‘द स्कॉलर एक्स्ट्राऑडिनरी’ भी पढ़ने लायक है। वेद मेहता को नहीं समाहित किया गया है। क्रूर तथा दयापूर्ण अनुभवों को वेद मेहता एक नेत्रहीन युवा के रूप में प्रस्तुत करने के लिए सदा याद किए जाते रहेंगे। जिस तरह नॉयपॉल उपन्यास से ज्यादा अपने नॉन-फ़िक्शन के लिए जाने जाते हैं, ठीक उसी तरह सुकेतु मेहता भी नॉन फ़िक्शन ही अधिक लिखते हैं। लोक-साहित्य भी आज दिखाई दे रहा है। संस्मरण भी इस साहित्य में उपलब्ध हैं। नयनतारा सहगल ने ‘ए टाइम टू बी हैप्पी’ तथा ‘दिस टाइम ऑफ़ मॉर्निंग’ जैसे उपन्यासों के साथ-साथ संस्मरण भी लिखे हैं। भारत के पर्यटन उद्योग के विकास के साथ पर्यटन संबंधित साहित्य भी रचा जाने लगा। बशारत पीर का ‘कर्फ़्यूड नाइट’, सामंत सुब्रमनियन का ‘फ़ोलोइंग फ़िश’, सोनिया फ़लेरिओ का ‘ब्यूटिफ़ुल थिंग’ तथा सिद्धार्थ देब का ‘द ब्यूटिफ़ुल‘ एंड द डैम्ड’ इसी तरह का साहित्य है। इंटरनेट, ब्लॉगिंग ने लिखना-प्रकाशित होना सरल कर दिया है अत: जिसको भी लिखने का जरा भी शऊर है वह लिख रहा है जिसमें कचड़ा और मोती दोनों होने की संभावना है। इंटरनेट, ब्लॉगिंग ने लेखन को स्वायत्तता प्रदान की है अब लेखक प्रकाशक या पत्रिका के संपादकों का मोहताज नहीं है वह जब चाहे, जितना चाहे लिख कर खुद प्रकाशित कर सकता है। प्रकाशन के क्षेत्र में एक तरह का जनतंत्र आया है जिसके अपने खतरे भी हैं। ब्लॉगिंग ने बहुत सारे भारतीय मूल के इंग्लिश रचनाकारों को स्पेस और पाठक दिए हैं। नाटक को भी इस आलेख में स्पर्श नहीं किया गया है जबकि महेश दत्तानी बराबर इस क्षेत्र में नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। मृणालिनी साराभाई का ‘कैप्टिव सोल’, और गुरुचरण दास का ‘लैरिन्स साहेब’ अलग आलेख की माँग करता है। प्रसिद्ध कॉलमनिस्ट खुशवंत सिंह को भी छोड़ दिया है जबकि उन्होंने विभाजन पर आधारित ‘लास्ट ट्रेन टू पाकिस्तान’ जैसा उपन्यास लिखा है जिस पर फ़िल्म भी बनी है। यह जितना सीरियस है उतनी ही खेतों के बीच युवाओं की मस्ती को भी दिखाता है। मस्ती खासकार शराब, औरत की मस्ती खुशवंत सिंह की विशेषता है। वे लाइट रीडिंग करते हैं मगर साहित्य के साथ-साथ अन्य कई विषयों के जानकार हैं, कुशल संपादक तो वे थे ही। उम्र के आखिरी पड़ाव पर रह रहे इस लेखक के साप्ताहिक कॉलम का पाठकों को बेसब्री से रहता है। उन्हीं की लाइन में हम शोभा डे को भी याद कर सकते हैं। लाइट, पेज थ्री लेखन उनकी विशेषता है। नयनतारा सहगल पिछली पीढ़ी की लेखक हैं। उन्हें न केवल इसलिए कि वे जवाहरलाल नेहरू की भाँजी के रूप में बल्कि उनके जीवंत और गरिमापूर्ण साहित्य के लिए सदैव याद किया जाएगा। उनके संस्मरण ‘प्रिजन एंड चॉकलेट केक’ में लिपिबद्ध हैं। ‘एवरेस्ट होटल’ तथा ‘टोटर-नामा’ के एलन सेली भी यहाँ नहीं हैं। गीता मेहता (ए रिवर सूत्र’ तथा राज’), गीता हरिहरन (‘द थाउजंड फ़ेसेज ऑफ़ नाइट’), मंजु कपूर और कई महिला रचनाकारों की उपस्थिति इस साहित्य में है। इस लेख में भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में रह रहे इंग्लिश लेखकों को भी नहीं लिया गया है। उस पर फ़िर कभी और। अभी मुझे उनकी पूरी जानकारी नहीं है इंदिरा गोस्वामी के अलावा किसी को नहीं पढ़ा है। एक लम्बी सूचि है जिन रचनाकारों को यहाँ समाहित किया जा सकता है, किया जाना चाहिए। समकालीन भारतीय अंग्रेजी लेखन में कई पीढ़ियाँ संलग्न हैं। फ़िर भी यह अपेक्षाकृत एक युवा साहित्य है। अभी इसे बहुत आगे जाना है। हाँ, एक बात तय है कि यह रहने वाला है, टिकने वाला है। दिनोंदिन इसका प्रचार-प्रसार होने वाला है। एक विडंबना ही कही जाएगी कि भारतीय इंग्लिश साहित्य, उसके रचनाकारों तथा भारत की अन्य भाषाओं और उनके रचनाकारों के बीच न के बराबर संबंध है। वे एक दूसरे को शायद ही कभी पढ़ते हैं, एक दूसरे को पहचाना और प्रशंसा करना तो दूर की बात है। कहीं यह उच्च मनोग्रंथि (superiority complex) और हीन मनोग्रंथि (inferiority complex) का मामला नहीं है? जबकि अधिकाँश अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों की मातृभाषा शायद ही इंग्लिश है। अच्छे अनुवाद का अभाव भी इस दूरी का एक कारण है। स्वयं रुश्दी इस बात को स्वीकार करते हैं कि एक व्यक्ति के रूप में हिन्दी-उर्दू, यानि कि उत्तर भारत की हिन्दुस्तानी से उनकी पहचान है। एक लेखक के रूप में, उनके मन के कुछ हिस्से की निर्मिति भारत की तमाम भाषाओं के मुहावरों, लय, पैटर्न, संगीत और आदतों के विचार से हुई है। वे कहना चाहते हैं कि कोई कारण नहीं है, कोई कारण नहीं होना चाहिए कि इंग्लिश भाषा के साहित्य और भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य के बीच विरोधी संबंध ही हो। आशा है कि आने वाले समय में यह खाई पटेगी और दोनों तरह के रचनाकार एक दूसरे के नजदीक आएँगे। इनमें आदान-प्रदान होगा। दोनों में भरपूर अनुवाद कार्य होगा एवं इस तरह साहित्य और संपन्न होगा। ०००

Thursday 19 June 2014

इनटू द वाइल्ड: युवा का जनून

कुछ फ़िल्में इतनी सघन संवेदना संप्रेषित करती हैं कि आप उन्हें एक बार में पूरी नहीं देख सकते हैं। अगर सिनेमा हाल में बैठे हैं तो शायद आप आँख बंद कर लेंगे या फ़िर सिर झुका कर कुछ दृश्यों के समाप्त होने का इंतजार करेंगे। अब जबकि घर में बैठ कर फ़िल्म देखने की सुविधा है और रिमोट कंट्रोल आपके अपने हाथ में होता है जब भी ऐसी गहन भावनापूर्ण फ़िल्म देख रहे होते हैं बटन दबा कर फ़िल्म रोक सकते हैं। थोड़ा विराम देकर पुन: देख सकते हैं। ये बातें मैं कुछ फ़िल्म देखते समय हुए अपने अनुभवों के आधार पर लिख रही हूँ। ‘लाइफ़ इज ब्यूटीफ़ुल’, ‘स्टोनिंग सोरया एम’, ‘ब्यॉय इन स्ट्राइप पैजामा’ तथा ‘इन टू द वाइल्ड’ देखते हुए एक बार में पूरी फ़िल्म देखने की मेरी हिम्मत न पड़ी। लेकिन एक बार जब आप इन फ़िल्मों को देखना शुरु करते हैं तो बीच में भले ही रोकें मगर पूरी फ़िल्म देखे बिना भी नहीं रहा जा सकता है। ये ऐसी फ़िल्में हैं जो आपको उद्वेलित करती हैं, सोचने- विचारने पर मजबूर करती हैं। ‘लाइफ़ इज ब्यूटीफ़ुल’ तथा ‘ब्यॉय इन स्ट्राइप पैजामा’ नात्सी जीवन-काल, यातना शिविरों पर आधारित हैं। नात्सी अत्याचारों पर काफ़ी कुछ लिखा गया है और बहुत सारी फ़िल्में इस विषय पर बनी हैं। ‘स्टोनिंग सोरया एम’ ईरान के एक गाँव में सोरया एम नामक एक स्त्री को झूठे इल्जाम के तहत सामूहिक रूप से पत्थरों से मार-मार कर समाप्त करने की हृदय-विदारक फ़िल्म है। जिसका अंतिम दृश्य फ़िल्म निर्माण के इतिहास में अपनी खास जगह रखता है। बीस मिनट तक चलने वाले इस दृश्य को देखने के लिए कलेजा चाहिए। न केवल फ़िल्म का एक पात्र उल्टी करता है आपके पेट में भी हलचल पैदा हो सकती है, आप भी वमन कर सकते हैं। सत्य घटना पर आधारित यह फ़िल्म शब्दों में बयान नहीं की जा सकती है इसे तो देख कर ही अनुभव किया जा सकता है। यह आज के तथाकथित सभ्य समाज पर प्रश्न-चिह्न खड़े करती है। मगर मैं जिस फ़िल्म के बारे में लिखने जा रही हूँ वह इन सबसे भिन्न है। युवाओं के जीवन पर हिन्दी-इंग्लिश में बहुत सारी अच्छी-बुरी फ़िल्में बनी हैं। वास्तविक घटनाओं और जीवन पर भी फ़िल्मों की कमी नहीं हैं। मगर ‘इन टू द वाइल्ड’ एक बिल्कुल अलग ढ़ंग की फ़िल्म है। इसे देखकर ही अनुभव किया जा सकता है। शब्दों में इसका केवल कंकाल ही प्रस्तुत हो सकता है। ‘इन टू द वाइल्ड’ नात्सी यातना शिविर के भीतर घटित होती फ़िल्म न होते हुए भी उससे कम दारुण नहीं है। इसमें किसी गाँव या कबीले अथवा शहर के समुदाय के लोग भी किसी पर जुल्म नहीं ढ़ाते हैं मगर दर्शक का कलेजा फ़िल्म देखते हुए बार-बार मुँह को आ जाता है। यह फ़िल्म भी सत्य जीवन पर आधारित है। जैसे सोरया की कहानी को एक फ़्रांसिसी-इरानी पत्रकार फ़्राइडन साहेबजाम ने किताब का रूप दिया जो बेस्ट सेलर सिद्ध हुई। इस किताब पर साइरस नोरस्टेह ने फ़िल्म बनाई। इसी तरह जॉन क्राकोर की प्रसिद्ध किताब पर शोन पेन ने ‘इन टू द वाइल्ड’ का निर्माण किया है। यह भी अमेरिका के वर्जीनिया प्रदेश के एक युवक क्रिस्टोफ़र मैककैंडलेस के जीवन की सत्य कहानी है। अटलांटा में एमोरी यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करके क्रिस्टोफ़र प्रकृति के सानिध्य के लिए सब छोड़-छाड़ कर निकल पड़ा। चार साल बाद १९९२ में मात्र २४ साल की उम्र में उसे अलास्का के जनशून्य इलाके में मृत पाया गया था। वह हेनरी डेविड थोरो, लियो टॉल्सटॉय और जैक लंडन जैसे महान लेखकों और आदर्शवादियों-प्रकृति प्रेमियों से प्रभावित था। वह और की रैट-रेस में नहीं पड़ना चाहता था। अपने अंतिम दिनों में क्रिस्टोफ़र टॉल्सटॉय पढ़ रहा था। उसके लिखे जरनल्स से ही इस नॉन-फ़िक्शन पुस्तक की सामग्री बनाया गई है। इसी को हॉलीवुड के प्रर्सिद्ध अभिनेता तथा निर्देशक पेन ने स्वयं स्क्रीन-प्ले में रूपांतरित किया और इस पर यह हृदय-विदारक फ़िल्म बनाई। यात्रा मुख्य उद्देश्य होने पर भी यह न तो मात्रा यात्रा-पर्यटन फ़िल्म है, न ही रोड मूवी है। यह इनसे अलग जॉनर की फ़िल्म है। फ़िल्म लॉर्ड बायरन की एक कविता की पंक्तियों से प्रारम्भ होती है। युवावस्था अपने आप में एक नशा होती है, इसे किसी अन्य नशे की आवश्यकता नहीं होती है। यह एक ऐसा नशा है जिसके सामने अन्य सारे नशे व्यर्थ होते हैं। कुछ समय पहले तक हमारे देश में लोग जवान नहीं होते थे वे इस बीच की अवस्था को बिना जीए ही बचपन से बुढ़ापे में प्रवेश कर जाते थे। हाँ आज जवानों के लिए तरह-तरह की जिंदगी उपलब्ध है और आर्थिक रूप से समर्थ युवा उसका भरपूर मजा उठाते भी हैं। मगर क्या पैसे से ही जवानी का आनंद उठाया जाता है। ऐसा होता तो गौतम सब ठुकरा कर न चले जाते, बुद्ध न बन जाते। व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को सामाजिक उत्थान के लिए निछावर न कर देते। एक नए धर्म का प्रणयन किया। जवानी नाम है रोमांचक अनुभवों का, कुछ कर गुजरने का। जिंदगी के रहस्य को जानने-समझने का। रोमांच शहर की भीड़ भरी जिंदगी में मिल सकता है। तमाम तरह के यथार्थ और वायवी (वर्चुअल) खेल उपलब्ध है आज के बाजार के दौर में। मगर कुछ लोगों को ये रोमांचकारी खेल नहीं रुचते हैं। उन्हें प्रकृति का रोमांचक जीवन अपनी ओर शिद्दत से खींचता है और वे सब छोड़-छाड़ कर इस रोमांच को जीने-अनुभव करने निकल पड़ते हैं। क्रिस्टोफ़र मैककैंड्लस (फ़िल्म में इस किरदार को एमिल हिर्स ने बखूबी निभाया है) एक ऐसा ही युवक था। वह १९९० में ग्रेजुएशन करता है, उसे आगे पढ़ने की सुविधा भी मिलती है। लेकिन वह बचपन से अपने माता-पिता (फ़िल्म में ये भूमिकाएँ विलियम हर्ट तथा मार्शिया गे हार्डेन ने निभाई हैं) की मतलबी, भौतिक सुख-सुविधा में डूबे रहने की आदतों को लेकर परेशान रहता था। उसके माता-पिता बहुत महत्वाकांक्षी हैं। उन्होंने उस पर बहुत आशाएँ केंद्रित कर रखी हैं। वे उसे अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप ढ़ालना चाहते हैं। अधिकाँश माता-पिता की भाँति अपनी अधूरी कामनाएँ उसके द्वारा पूरी होती देखना चाहते हैं। परिवार में उसके अलावा केवल उसकी छोटी बहन (अभिनेत्री जेना मलोन) बहुत संवेदनशील है। वह अपने भाई से बहुत सहानुभूति रखती है। उसी की आवाज फ़िल्म की कहानी को प्रस्तुत करती है। जिस दिन वह ग्रेजुएट होता है उसी दिन वह मतलबी माता-पिता की सारी संपत्ति, सारी सुख-सुविधा से मुँह मोड़ लेता है। उसे अपने माता-पिता से न तो कोई अपेक्षा है न ही वह उनकी राह पर चलकर दूसरों का फ़ायदा उठाने वाला बनना चाहता है। वह अपने सारे सर्टिफ़िकेट, सारे क्रेडिट कार्ड्स नष्ट कर डालता है, सारी जमा-पूँजी २५,००० डॉलर ओक्सफ़ेम इंटरनेशनल को दान कर देता है। पूरी भौतिक सभ्यता से मुँह मोड़ कर एक अनंत यात्रा पर चल देता है। इतना ही नहीं वह माता-पिता के दिए नाम क्रिस्टोफ़र को भी उतार फ़ेंकता है और ‘एलेक्जेंडर सुपरट्रैम्प’ नाम अपना लेता है। वह जीवन का उद्देश्य पाना चाहता है। उसे कई महान लेखकों के जीवन और कृतित्व ने प्रेरित किया है। वह कुछ ऐसा खोजना-पाना चाहता है जो अनूठा हो, जो अर्थपूर्ण हो। इसी खोज के तहत क्रिस्टोफ़र या यूँ कहें एलेक्जेंडर सुपरट्रैम्प एक साहसिक, एडवेंचरस यात्रा पर निकल पड़ता है। वह अलास्का के बर्फ़ीले दुर्गम प्रदेश को अपनी यात्रा का लक्ष्य बनाता है। अंत तक वह अपने माता-पिता से कोई संबंध नहीं रखता है। शुरु में वह अपनी गाड़ी से यात्रा करता है। उसे तरह-तरह के अनुभव होते हैं। वह प्रकृति के विभिन्न रूप देखकर प्रसन्न है, चकित है। लेकिन प्रकृति जितनी मोहक और आकर्षक है उतनी ही निर्मम और क्रूर भी है। एलेक्जेंडर का मार्ग दुर्गम तो था ही। नदी की भयंकर बाढ़ में उसकी गाड़ी उससे छूट जाती है। इससे वह हिम्मत नहीं हारता है और पैदल ही आगे बढ़ता जाता है। कोलोराडो नदी पार करके वह मैक्सिको में प्रवेश करता है। कभी पैदल, कभी मालगाड़ी की सवारी करते हुए वह लॉस एंजेल्स पहुँचता है। राह में मिली एक किशोरी से उसे प्रेम होता है मगर वह उसे बाँध नहीं पाती है। किशोरी से बिछुड़ना बहुत दु:खदायी था, वह यह वियोग-दु:ख सहता हुआ आगे चलता चला जाता है। एक हिप्पी दल भी उसे मिलता है कुछ दिन वह उन्हीं की जीवन शैली अपनाए रहता है। फ़िर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आगे चल देता है। एक समय राह में उसे एक बूढ़ा रॉन फ़्रैंज़ (हाल होलब्रुक ने यह अभिनय बड़ी सहजता से किया है) मिलता है। दोनों एक-दूसरे के बहुत अच्छे साथी बन जाते है। मिलकर खूब साहसिक कारनामें करते हैं। बूढ़ा युवक के मोह में पड़ जाता है, उसे अपनाना चाहता है लेकिन इस युवक को इसके उद्देश्य से डिगाना सरल नहीं है। क्रिस्टोफ़र फ़िर आगे चल देता है। युवक बूढ़े के प्रस्ताव को ठुकरा कर अपनी राह पर आगे बढ़ जाता है। और निरंतर दो साल चलकर युवक अलास्का के बर्फ़ीले, जनशून्य प्रदेश में रहना प्रारंभ करता है। इसी समय से वह अपना अनुभव लिपिबद्ध भी करने लगता है। वास्तविक युवक ने जो अनुभव लिपिबद्ध किए थे वे ही दस्तावेज इस पर आधारित बेस्ट सेलर की सामग्री बने। ऐसा लगता है क्रिस्टोफ़र के मन में मनुष्य के संग-साथ को लेकर गहरी विमुखता है तभी तो वह किसी का नहीं हो पाता है। वह बहुत आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक है लोग उससे मिलते ही उसे पसंद करने लगते हैं मगर उसे उन्हें छोड़ कर जाने में जरा भी समय नहीं लगता है। वह जब बूढ़े रॉन फ़्रैंज़ से विदा लेता है तो उसके शब्द हैं: “तुम गलत हो यदि सोचते हो कि जिंदगी की प्रसन्नता मनुष्य के रिश्तों से आती है।” फ़िर कहाँ से आती है जीवन की प्रसन्नता? क्या जन विहीन जीवन से? क्या मात्र प्रक्रुति के संसर्ग से? क्या पशु-पक्षी का संग-साथ जीवन को सुखी बना सकता है? क्या करने से और क्या नहीं करने से जीवन में प्रसन्नता मिलेगी? क्या क्रिस्टोफ़र को भरपूर प्रसन्नता नहीं मिली? क्या क्रिस्टोफ़र का सोचना सही था? जीवन में कौन गलत है और कौन सही है यह गणित की भाँति नहीं है, जहाँ दो और दो मिल कर सदैव चार ही होते हैं। फ़िल्म अपनी समाप्ति पर बहुत सारे प्रश्न छोड़ जाती है। जीवन की प्रसन्नता कहाँ है, कैसे है? यह युवक एकांत में भी बहुत शांत और प्रसन्न था मगर अंत काल में उसे दूसरों की आवश्यकता अनुभव होती है। मगर क्या जब हम जब जो चाहते हैं वह हमें मिलता है? इस यात्रा में उसे कई बार भूख, सर्दी, भावात्मक हताशा-निराशा, दु:ख-दर्द का सामना करना पड़ा। पार वह चलता चला गया। हंसते-खेलते बेफ़िक्र युवक के जीवन की विडम्बना यह है कि जब लोग उसके पास थे वह उनसे दूर भागता रहा। और जब वह चाहता है कि कोई तो उसे मिले, जिससे वह रिलेट कर सके, जिससे वह कुछ कह-सुन सके, जिसको वह सुन सके, जो उससे कुछ कह सके। मगर इस समय उसके आसपास चिड़िया का पूत भी नहीं है। वह जीवन को जानने-समझने, उसका उद्देश्य पाने निकला था। मगर क्या लगा उसके हाथ? क्या संदेश दे सका वह? क्या पा सका वह? पर प्रश्न यह भी है कि क्या पाना चाहते हैं हम जीवन से? क्या पाने-खोने का नाम ही जीवन है? क्या उसे अपनी यात्रा में जो विभिन्न अनुभव मिले वे जीवन के लिए काफ़ी नहीं हैं? क्या उसने जो रोजनामचा लिखा वह कोई मायने नहीं रखता है? व्यक्तिगत प्रसन्नता में सामाजिक जीवन का क्या स्थान है। अगर क्रिस्टोफ़र समाज नहीं छोड़ता, अपनी अनोखी यात्रा पर न निकलता तो क्या वह सुखी रहता। उसके इस निर्णय से समाज को क्या लाभ या हानि हुई? एक हानि तो अवश्य हुई। एक प्रतिभाशाली, जीवंत व्यक्ति की उपस्थिति से समाज वंचित हुआ। माता-पिता यदि बच्चों पर दबाव न बनाएँ तो शायद क्रिस्टोफ़र जैसे कई जीवन व्यर्थ होने से बच जाए। गौतम की तरह ही उसे अपनी यात्रा में तरह-तरह के भावात्मक और संवेदनात्मक अनुभव होते हैं। दोनों वर्तमान जीवन से ऊब कर घर से निकल पदए थे। फ़िर क्या फ़र्क है उसके और गौतम के घर छोड़ने में? असल में दोनों के गृह त्याग में मूलभूत अंतर है। दोनों दो भिन्न संस्कृतियों की उपज हैं। होस्टिड (Hofstede) जैसे समाजशास्त्री दुनिया को दो तरह के समाजों में बाँटते हैं। ये विचारक मानते हैं कि पूरी दुनिया में दो तरह की संस्कृतियाँ हैं, जीवन के प्रति दो तरह के दृष्टिकोण हैं। व्यक्तिवादी संस्कृति तथा समूहवादी संस्कृति। क्रिस्टोफ़र अमेरिकी समाज-संस्कृति की पैदाइश है। अमेरिकी समाज व्यक्तिवादी समाज है जहाँ व्यक्ति केवल अपने विषय में सोचता है, बहुत संकुचित दायरे में जीता है। उसके लिए अपनी सुख-सुविधा, अपनी महत्वाकांक्षाएँ ही मायने रखती हैं, वह दूसरों की परवाह नहीं करता है। दूसरी ओर गौतम भारतीय या यूँ कहें पूरब की संस्कृति में पैदा हुए। आज के समाजशास्त्री मानते हैं कि पूरब की संस्कृति समूहवादी संस्कृति है। जहाँ व्यक्तिगत लाभ-हानि से पहले व्यक्ति का समाज आता है। व्यक्ति अपना हित त्याग कर दूसरों के लिए जीता-मरता है, समूह की चिंता खुद से पहले करता है। गौतम ने घर छोड़ा था ताकि वे समाज के दु:ख-दर्द को दूर करने का उपाय खोज सकें। वे सामाजिक चिंता के तहत यह निर्णय लेते हैं। एक और भी अंतर है दोनों के निर्णय में, गौतम ने जीवन के तीसरे दशक में घर त्यागा जबकि क्रिस्टोफ़र मात्र बीस साल का अनुभवहीन युवक है। जो भी हो एक दुनिया को बदलने में नई दिशा देने में सफ़ल हुआ। एक नए धर्म, बौद्ध धर्म का प्रणेता बना। बौद्ध धर्म आज विश्व एक बड़ा धर्म है। दूसरे के जीवन की कुल पूँजी मात्र उसकी डायरी है। मैं यहाँ किसी को बड़ा या छोटा सिद्ध करने का प्रयास नहीं कर रही हूँ। मात्र दो भिन्न जीवन दृष्टियों को प्रस्तुत कर रही हूँ। हाँ दोनों में एक समानता है कि दोनों जीवन में जो निर्णय लेते हैं उस पर अंत तक कायम रहते हैं। भले ही क्रिस्टोफ़र के लिए यह मजबूरी बन गया, उसके पास कोई विकल्प बचा ही नहीं था। गौतम आज से दो हजार छ: सौ वर्ष पहले पैदा हुए थे। उन पर भी अपने माता-पिता का दबाव था। पर तब आज की तरह बाजार न था, सामाजिक प्रतिद्वंद्विता न थी, आगे बढ़ने की अंधी दौड़ न थी। क्रिस्टोफ़र रैट रेस, अंधी दौड़ में नहीं पड़ना चाहता है। क्या इसका विकल्प समाज विमुख हो जाना है? क्या इसके उलट कुछ नहीं सोचा-किया जा सकता है। वह दृढ़ निश्चयी और साहसिक युवक था। कैसे कहा जा सकता है कि उसने गलत निर्णय लिया था? ये सारे अगर-मगर अब क्रिस्टोफ़र के संदर्भ में कोई मायने नहीं रखते हैं। वह इन सबसे दूर जा चुका है। हाँ दूसरे इस पर अवश्य विचार कर सकते हैं अपने निर्णय लेते समय इन बातों पर सोच सकते हैं। सार्त्र का कहना है, “आदमी बिल्कुल अकेला है और पूरी तरह स्वतंत्र; चूँकि वह स्वतंत्र है, अपनी सारी संभावनाओं के साथ वह कोई भी निर्णय ले सकता है और हर लिए हुए निर्णय के साथ प्रतिबद्धता उसकी अपनी है।” क्रिस्टोफ़र चरम स्वतंत्रता’ का वरण करता है। दो घंटे २७ मिनट की इस फ़िल्म ‘इन टू द वाइल्ड’ में प्रकृति की क्रूरता कहीं भी नहीं दिखाई गई है। मौसम आते-जाते हैं अपनी पूरी शिद्दत के साथ। मौसम के साथ बदलती प्रकृति को पर्दे पार देखना एक सुखद अनुभव सिद्ध होता है। क्रिस्टोफ़र के साथ-साथ दर्शक भी प्रकृति के मनमोहक दृश्यों का आनंद उठाता है। हाँ नि:शंक प्रकृति में प्रवेश करना बहुत रोमांचक है, यह काम बहुत साहस की माँग करता है। इस निर्जन, वर्जिन, नीरव, वीराने बर्फ़ीले प्रदेश का अपना निराला जीवन है। यहाँ तमाम तरह के छोटे बड़े जीव-जन्तु हैं। युवा क्रिस्टोफ़र को यह जीवन प्रारंभ में बहुत लुभाता है। समय बीतने के साथ-साथ उसे ज्ञात होता है कि वह नितांत अकेला पड़ गया है और प्रक्रुति बहुत निष्ठुर है। लेकिन अब यदि वह चाहे भी तो सामाजिक जीवन, मनुष्य की संगति नहीं पा सकता है। वह समाज के लिए तड़फ़ता है, उसकी तड़फ़ समाज तक जब पहुँचती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। लौटने के उसके सारे मार्ग बंद हो चुके थे। वह खुद ही अपने पैरों के निशान मिटा आया था। उसने वापसी की सीढ़ी नष्ट कर दी थी। किसी को मालूम न था वह कहाँ है और किस हालत में है, है भी या नहीं। बाद में एक खोज-पार्टी को उसका शव मिलता है। एक समय ऐसा आता है कि खाने के लिए शिकार मिलना बंद हो जाता है। भूख से वह इतना कमजोर हो जाता है कि उसके लिए चलना-फ़िरना मोहाल हो जाता है। स्थानीय विरल वनस्पति जिसे वह किताब के बल पर पहचानता था और जिससे अपनी क्षुधा शांत करता था वही उसके विनाश का कारण बन जाती है। वह सब छोड़ आया था मगर किताबों, लिखने-पढ़ने का मोह नहीं छोड़ सका था। अंत तक वह लिखता-पढ़ता है। एक दिन एक गलत पौधा खाने के कारण उसकी पाचन शक्ति नष्ट हो जाती है, उसका पाचन-तंत्र रुक जाता है। वह अपनी जादूई-बस में भूख से तड़फ़-तड़फ़ कर मौत के मुँह में तिल-तिल करके जाता है। किसी एडवेंचर पार्टी के द्वारा त्यागी गई टूटी-फ़ूटी बस जो उसका आश्रय थी वही उसकी कब्रगाह बनती है। उसके अंतिम दिनों का विवरण जिसे वह बराबार दर्ज करता जाता है, इतना त्रासद है कि फ़िल्म देखने वालों का दिल दहल जाता है। दर्शक प्राणप्रण से चाहता है कि वह बच जाए, कहीं से कोई सहायता पहुँच जाए, कोई चमत्कार हो जाए। चमत्कार सस्ती फ़िल्मों में होते हैं जीवन में शायद ही कभी ऐसे कठिन समय में चमत्कार होता हो। इस फ़िल्म में अंत तक कोई चमत्कार नहीं होता है और वास्तविक फ़्रिस्टोफ़र की भाँति ही फ़िल्म का नायक मर जाता है। यह फ़िल्म मात्र कोरी कल्पना नहीं है, न ही निर्देश और स्क्रीनप्ले राइटर का दिमागी खलल। सच्ची जीवनी पर आधारित इसको पर्दे पर उतारने के लिए शूटिंग का ज्यादातर हिस्सा अलास्का के उस स्थान से करीब ६० मील दक्षिण में शूट किया गया था जहाँ असली क्रिस्टोफ़र भूख से ऐंठ-ऐंठ कर मरा था। अपने अनुभवों को अपनी डायरी में अंत-अंत तक संजोते हुए मरा था। फ़िल्म से जुड़ी टीम अलग-अलग मौसम को फ़िल्माने के लिए उस स्थान पर चार बार गई ताकि यथार्थ को यथासंभव प्रदर्शित कर सके। इसमें वे सफ़ल हुए हैं। फ़िल्म मात्र इसके प्राकृतिक दृश्यों की लाजवाब सुंदरता के लिए बार-बार देखी जा सकती है। कैमरा प्रकृति की विशालता और खूबसूरती को कैद करता है। एरिक गोटियर का कैमरा नायक तथा अन्य पात्रों के विभिन्न भावों और मन:स्थिति को भी बखूबी पकड़ पाने में कामयाब हुआ है। नायक की भूमिका में एमिल हिसर्च के अभिनय को समीक्षक अभिनय से बहुत आगे की चीज का दर्जा देते हैं। इस फ़िल्म को कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए जिसकी यह हकदार है। ऐसी जोखिम भरी फ़िल्म बनाना हँसी-खेल नहीं है इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए, साथ ही लीक से हट कर काम करने का जनून भी चाहिए। सोन पेन एक ऐसे ही व्यक्ति हैं। उन्होंने सदा वही किया-कहा है जो उन्हें उचित लगता है। जब अधिकाँश अमेरिकी खासकर हॉलीवुड के लोग ईराक पर अमेरिकी हमले के पक्ष में थे पेन ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने मुखरता से बुश प्रशासन की आलोचना की। सत्ता के खिलाफ़ जाने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। वे हॉलीवुड की दुनिया में अछूत बना दिए गए। इससे पेन के इरादों में कोई अंतर नहीं आया। आज भी वे अपने देश अमेरिका की दादागिरी के कटु आलोचक हैं। ऐसे निर्भीक लोग ही इस तरह की साहसिक फ़िल्म बनाने का जोखिम उठा सकते हैं और इतिहास में स्वयं को दर्ज करा सकते हैं। जब भी युवाओं के जीवन पर बनी फ़िल्मों की बात होगी ‘इनटू द वाइल्ड’ का नाम लिया जाएगा। पर्दे पर रची गई, विभिन्न मनोभावों को प्रस्तुत करती, प्रकृति की कोमल-कठोर नययनाभिराम रंगों-छटाओं के दिखाती यह एक खूबसूरत कविता है जिसे देख कर ही अनुभव किया जा सकता है, किया जाना चाहिए। ०००

Saturday 14 June 2014

द पियानिस्ट: होलोकास्ट, संगीत और जिजीविषा

स्पीयलबर्ग की मंशा थी कि रोमन पोलांस्की ‘शिंडलर्स लिस्ट’ का निर्देशन करें। होलोकास्ट के भुक्तभोगी पोलांस्की ने इस प्रस्ताव को नकार दिया। उनका तर्क था कि होलोकास्ट से जो बच रहे हैं वे भाग्य और संयोग से बच रहे हैं न कि किसी ऑस्कर के हृदय परिवर्तन से। पोलांस्की ऑस्कर जैसे एकाध लोगों की भूमिका को बहुत महत्व नहीं देते हैं। कारण है उन्होंने खुद इस पीड़ा को भोगा है, एक बार नहीं कई बार। उनकी माँ यातना शिविर के गैस चेंबर में भुन कर धूँआ बना कर उड़ा दी गई थीं। इस हादसे से वे कभी नहीं उबर पाएँगे। उनके अनुसार यह कष्ट उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त होगा। यह तो उनके पिता की होशियारी के फ़लस्वरूप रोमन पोलांस्की का जीवन बचा। जब यह सब चल रहा था वे निरे बालक थे और यहूदी होने के कारण अपने माता-पिता के साथ नात्सियों द्वारा धर लिए गए थे। पिता ने नात्सी सैनिकों की आँख बचा कर बालक को कंटीले तारों के पार ढकेल दिया था। भयभीत, निरीह, एकाकी बालक काफ़ी समय तक क्रोकावा और वार्सा में भटकता रहा था। भाग्य और कुछ अनजान, मानवीय गुणों से युक्त संवेदनशील लोगों की कृपा के कारण वह जीवित बच रहा। ‘शिंडलर्स लिस्ट’ बनाने से उन्होंने इंकार किया परंतु जब उन्हें अपने जैसे ही बचे हुए एक आदमी की कहानी मिली तो उन्होंने ‘द पियानिस्ट’ फ़िल्म बनाई। ‘द पियानिस्ट’ कहने से इस फ़िल्म का वास्तविक महत्व, इसकी असल गहराई का भान नहीं होता है। यह फ़िल्म सच के जीवनानुभव पर आधारित है और इतिहास के इस काले अध्याय का कच्चा चिट्ठा है। इस फ़िल्म का मुख्य पात्र, १९३९ में पोलैंड का एक महान पियानोवादक जर्मनी द्वारा अधिकृत वार्सा में सारे समय अकेला भटकता रहा था। कुछ लोगों की कृपा से उसका जीवन बचता है। वह एक संयमी, निर्लिप्त व्यक्ति है, जिसका जीवन इस दुर्घष समय में भाग्य से बचा रहता है। यह फ़िल्म इसी महान पियानोवादक ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन के लिखित संस्मरण पर आधारित है। वार्सा पर जब पहली बार १९३९ में बम वर्षा होती है स्पीलमैन पोल रेडियो स्टेशन कर लाइव संगीत प्रस्तुत कर रहा था। वह प्रसिद्ध गैरपरम्परागत संगीतकार चोपिन का संगीत बजा रहा है। खिड़की के शीशे, छत का पलस्तर सब बम से उड़ रहे हैं, लोग स्टूडियो छोड़ कर जान बचाने के लिए भाग रहे हैं। वह संगीत बजाता रहता है। अंतत: पूरा रेडियो स्टेशन उड़ जाता है। इसी समय एक सेलोवादक से उसकी क्षणिक मुलाकात होती है। उसे किसी स्त्री को सेलो बजाते देखना बहुत अच्छा लगता है। इस इच्छा की पूर्ति फ़िल्म में बहुत बाद में एक त्रासद स्थिति में होती है। कला और युद्ध का रिश्ता शायद ही जुड़ता है। स्पीलमैन का समृद्ध, सुशिक्षित परिवार, भाई-बहन, माता-पिता सब सुरक्षा की दृष्टि से समय रहते वार्सा से निकल जाना चाहता है। भारतीयों की तरह ही उसका परिवार बहसबाजी में कुशल है, उसमें काफ़ी समय उलझा रहता है। ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन का कहना है कि वह कहीं नहीं जा रहा है। उसे विश्वास है कि शीघ्र यह नात्सी अत्याचार समाप्त हो जाएगा और सब कुछ पहले की तरह सामान्य हो जाएगा। क्या ऐसा होता है? काश ऐसा होता। नहीं, ऐसा कुछ नहीं होता है। दर्शक देखता रहता है कैसे यहूदियों पर नात्सी शिकंजा कसता जाता है। रोज एक नया फ़रमान जारी करके उनका, वहाँ के सारे यहूदियों का सब कुछ छीन लिया जाता है। यहाँ तक कि उनकी अस्मिता भी। वार्सा के यहूदी पीछे ढ़केले जा कर घेटो में सिमटते जाते हैं, अमानवीय जीवन जीने को लाचार हो जाते हैं। दीवार चिन कर उन्हें दुनिया से काट दिया जाता है। अल्पकाल के लिए दिखाए ईटों की चिनाई के दृश्य भुलाए नहीं भूलते हैं। जैसे अंग्रेज भारतीयों से ही भारतीयों पर अत्याचार करवाते थे वैसे ही नात्सी ऑफ़ीसर यहूदियों से यहूदियों पर अत्याचार करवाते हैं। नात्सी नियमों को लागू करने के लिए यहूदी पुलिस को बाध्य किया जाता है। ब्लैडीस्लाव और उसके परिवार को गिरफ़्तार करके यातना शिविर जाने वाली ट्रेन पर चढ़ने का आदेश दिया जाता है। भाग्य से एक मित्र उसकी सहायता करता है और ट्रेन पर चढ़ने और मृत्यु के मुँह में जाने के स्थान पर वह बच निकलता है। मगर बच निकलना क्या इतना आसान है। इस बच निकलने के बाद का जीवन कैसा है इसके लिए फ़िल्म ‘द पियानिस्ट’ देखनी होगी। परिवार मृत्यु के मुँह में जा चुका है और वह बच रहा है, उसके भीतर की अपराध ग्रंथी उसका लगातार पीछा करती है। जीवित रहने के लिए उसे तरह-तरह की कठिनाइयों से गुजरना होता है, भय-दहशत, भूख-प्यास-बीमारी का लगातार सामना करना पड़ता है। एक ओर नात्सी अत्याचार चल रहा था वहीं दूसरी ओर कुछ पोल प्रतिरोध दस्ते भी सक्रिय थे। लम्बे, खूबसूरत, शांत आशावादी ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन की भूमिका में एड्रियन ब्रोडी का चुनाव बहुत सटीक है। वह प्रतिरोध दस्ते की सहायता से जीवित रहता है मगर जीवन आसान न था। उसके इस जीवन को यह फ़िल्म विस्तार से दिखाती है। चाक्षुष रूप से यह फ़िल्म दर्शक को स्तंभित करती है। नायक एक सहज विश्वास के तहत जीता है। उसका विश्वास है कि जैसा पियानो वह बजाता है वैसा जो भी बजाएगा, उस व्यक्ति के साथ सब ठीक होगा। उसे पूरा विश्वास है कि जल्द ही सब ठीक हो जाएगा, सामान्य हो जाएगा। यही विश्वास वह दूसरों को भी दिलाता है। उसका यह विश्वास किसी खबर, किसी तथ्य पर आधारित नहीं है। बस वह स्वभाव से आशावादी है, यह उसका सहज विश्वास है। फ़िल्म के अंत की ओर आते हुए चोपिन का संगीत उसके बचे रहने का बायस बनता है। एक जर्मन ऑफ़ीसर उसकी जान बचने का कारण बनता है। किसी समूह के सारे लोग दुष्ट हों यह आवश्यक नहीं है, क्रूर-से-क्रूर दल में कोई मानवीय अनुभूति से पूर्ण हो सकता है। यह जर्मन ऑफ़ीसर कैप्टन विल्म होसेनफ़ेल्ड भी न केवल संगीत प्रेमी है वरन मनुष्यता के गुणों से भी पूर्ण है। वह सही मायनों में धार्मिक व्यक्ति है। थॉमस क्रेसचमान ने यह भूमिका बहुत आधिकारिक तरीके से की है। वास्तविक आत्मकथा में भी ऐसा ही हुआ है। बाद में यह ऑफ़ीसर युद्धबंदी है और स्पीलमैन उसकी सहायता करना चाहता है। समय ऐसा था कि वह कैदी की सहायता नहीं कर पाता है। होसेनफ़ेल्ड की मौत रूस के यातना शिविर में होती है। वास्तविक स्पीलमैन सदा उसके परिवार के संपर्क में रहता है। इस फ़िल्म की सेट डिजाइनिंग उजाड़ वार्सा में एकाकी पियानोवादक को एक ऐसे स्थान पर स्थापित करती है जहाँ से वह पियानो पर बैठा अपनी ऊँची खिड़की से बाहर के सारे कार्य-व्यापार देख सकता है, देखता है मगर वह खुद इन सबसे दूर है। वह सुरक्षित है, भूखा-बीमार है, एकाकी और बुरी तरह से भयभीत है। उसकी आँखों के सामने लोगों को लाइन से खड़ा करके गोलियों से भून दिया जाता है। वक्त-बेवक्त बम से इमारतें, दीवाल उड़ती रहती हैं, जलती रहती हैं। यहाँ तक कि अस्पताल भी इस कहर से नहीं बचता है। स्पीलमैन के प्राण पियानो में बसते हैं, विडंबना है उसने ऐसे स्थान में शरण ली हुई है जहाँ पियानो है मगर वह उसे बजा नहीं सकता है। कैसे बजाए, कैसे बजाने का साहस करे। पियानो बजाते ही न केवल उसके प्राण खतरे में पड़ जाएँगे वरन और कई जीवन नष्ट हो जाएँगे। वह काल्पनिक रूप से पियानो बजाता है उसके मन-मस्तिष्क में पियानो की ध्वनि गूँजती रहती है। उसकी अँगुलियाँ थिरकती रहती हैं। जिसमें कला की तनिक-सी भी समझ है वह उसकी बेबसी से द्रवित हुए बिना नहीं रह सकता है। एक बार जब वह अपनी जान बचाने के लिए किसी तरह दीवार फ़ाँद कर दूसरी ओर कूदता है और अपना पैर तोड़ बैठता है, उस समय उजाड़ घेटो और एकाकी स्पीलमैन का दृश्य दुनिया से उसके कटे होने और नात्सी द्वारा तहस-नहस दुनिया को फ़िल्म बड़ी खूबसूरती (!) से दिखाती है। नात्सी अमानवीय काल में कई लोगों ने अपने दिन परछत्ती पर छिप कर गुजारे, एन फ़्रैंक की डायरी इसका गवाह है। बाद में टूटी एड़ी के साथ स्पीलमैन भी एक परछत्ती पर अपने दिन गुजारता है। फ़िल्म के अंत तक स्पीलमैन कैसे बचा रहता है, कौन उसकी सहायता करता है, उसके बच रहने में पियानो की क्या भूमिका है। ये सारी बातें लिख कर बताने की नहीं है और न ही पढ़ कर समझने की हैं। इन्हें तो देख कर ही जाना-समझा-महसूसा जाना चाहिए। पोलांस्की ने फ़िल्म के अंतिम हिस्से को जैसे फ़िल्माया है वह फ़िल्म इतिहास में संजोने लायक है। अधिकतर होलोकास्ट की फ़िल्में प्रदर्शित करती हैं कि जो इस अमानवीय काल से बच रहे वे अपने साहस और बहादुरी से बचे। वे लोग बहादुर थे। पोलांस्की के अनुसार जो बच निकले वे सब-के-सब बहादुर नहीं थे। सब लोग बहादुर हो भी नहीं सकते हैं मगर फ़िर भी कुछ व्यक्ति बहादुर न होते हुए भी बच रहे। कई फ़िल्म समीक्षक उनके इस नजरिए से सहमत नहीं हैं। क्या सबको सहमत किया जा सकता है, क्या फ़िल्म निर्देशक का उद्देश्य सबको सहमत करना होता है? समीक्षकों को लगता है कि फ़िल्म बहुत अधिक उदासीन है। उसमें उकसाने, आग्रह करने का अभाव है। पियानोवादक प्रचलित अर्थ में हीरो नहीं है, वह एक कलाकार है, जुझारू या लड़ाकू नहीं है। फ़िर भी वह बच निकलता है। वह कायर नहीं है, जीवन बचाने के लिए जो वह कर सकता था उसने किया। वह कभी नहीं बच सकता था यदि उसका भाग्य साथ नहीं देता। वह बच नहीं सकता था यदि संयोग से उसे कुछ गैर यहूदी लोग न मिलते, जो उस पर दया न करते, जो उसकी सहायता न करते। ये लोग अपनी जान जोखिम में डाल कर उसकी रक्षा करते हैं, उसका जीवन बचाते हैं, उसे यथासंभव सहायता देते हैं। मानवीयता किसी धर्म या नस्ल की बपौती नहीं होती है। इन्हीं में ऐसे लोग भी हैं जो उसके नाम पर चंदा जमा करके खुद हड़प जाते हैं। पूरी फ़िल्म में पियानोवादक मात्र एक दर्शक, एक साक्षी रहता है, जो वहाँ था जहाँ यहूदियों पर नात्सी शिकंजा कसता जा रहा था। असल स्पीलमैन ने सब कुछ अपनी आँखों से देखा था, उसे स्मरण रखा। बाद में शब्दों में पिरोया। पोलांस्की वास्तविक व्यक्ति स्पीलमैन से तीन बार मिले थे। फ़िल्म के विषय में उसने कोई विशेष सुझाव नहीं दिए पर वह खुश था कि उसके जीवन पर फ़िल्म बनाई जा रही है। फ़िल्म बन कर समाप्त होने के कुछ पूर्व ८० वर्ष की उम्र में उसकी मृत्यु हुई। उसकी आत्मकथा नात्सी अत्याचार समाप्ति के तत्काल बाद प्रकाशित हुई थी। इस आत्मकथा में कुछ यहूदियों को गलत और एक जर्मन को दयालु दिखाया गया है इसलिए अधिकारियों ने इसे उस समय प्रतिबंधित कर दिया था। ९० के दशक में यह पुन: प्रकाशित हुई इसी समय पोलांस्की ने इसे देखा और इसे अपनी फ़िल्म का विषय बनाया। यह एक गंभीर फ़िल्म है, होलोकास्ट पर बनी फ़िल्म ‘लाइफ़ इज ब्यूटीफ़ुल’ की तरह हास्य और त्रासदी का मिश्रण नहीं है, न ही ‘शिंडलर्स लिस्ट’ की तरह होलोकास्ट को डायल्यूट करके प्रस्तुत करती है। इसका अप्रोच ‘शिंडलर्स लिस्ट’ से बिल्कुल भिन्न है। ‘शिंडलर्स लिस्ट’ ऑस्कार के जटिल व्यक्तित्व में आए परिवर्तन पर ध्यान देती है जबकि ‘द पियानिस्ट’ का नायक अपने भीतर अपराध बोध से लड़ते हुए जीवित रहता है। उसके भीतर अपराध बोध है क्योंकि वह जीवित है और उसके परिवार के लोग मारे जा चुके हैं। उसकी जिजीविषा उसे बुरी-से-बुरी परिस्थिति में जीवित रखती है। चूँकि स्पीलमैन नात्सी शिविर नहीं जाता है अत: वहाँ के मौत गृहों को फ़िल्म में नहीं दिखाया गया है। वहाँ की हैवानियत का चित्रण फ़िल्म नहीं करती है। मगर नात्सी का सिस्टेमेटिक दमन-शोषण शिविरों के बाहर भी जारी था। उस दमन का बड़ी बारीकी, कुशलता और विस्तार से चित्रण इस फ़िल्म में मिलता है। दमन इतना भयंकर है कि दर्शक के रोंये खड़े हो जाते हैं। वार्सा के यहूदियों से उनकी सारी संपत्ति छीन ली जाती है और उन्हें घेटो में डाल कर उनके चारो ओर दीवार चुन दी जाती है। यहूदी पुलिस ऑफ़ीसर से ही नात्सी नियम-कायदे उन पर लागू करवाए जाते हैं। कितना दर्दनाक दृश्य है जब एक बच्चा खाने की चीजें ले कर नाली से आते हुए उसमें फ़ँस जाता है। स्पीलमैन उसे सँकरी नाली से खींच कर निकालने का प्रयास करता है। नतीजन बच्चा जब नाली से निकलता है उसकी मौत हो चुकी है। फ़िल्म में यह दृश्य बीच में आता है जबकि किताब में यह एक शुरुआती दृश्य है। प्रतिरोधी दस्ते की सहायता से नायक बचता है, मगर प्रतिरोधी दस्ते की कार्यवाहियों को भी फ़िल्म नहीं दिखाती है। बस उनके कारनामों की एकाध झलक फ़िल्म में मिलती है। फ़िल्म के अंत में स्पीलमैन पुन: पियानो बजाता है और दर्शक-श्रोता खड़े हो कर उसक सम्मान करते हैं। वास्तविक स्पीलमैन भी युद्धोपरांत पियानो बजाता रहा था। दर्शक वही देखता है जो नायक को दीखता है, दर्शक उन ध्वनियों को सुनता है जो नायक के दिमाग में सुनाई देती हैं। उसकी लाचारी, उसकी बेबसी दिल में कचोट उत्पन्न करती है। उसकी खूबसूरत अंगुलियाँ पियानो बजाने को तरसती हैं, उसका यह दु:ख दर्शक को बेचैन करता है। उसके चेहरे और उसकी आँखों का भाव सब मिल कर फ़िल्म को दर्शक के लिए अनुभव नहीं, अनुभूति बना देते हैं। निर्देशक नायक से मौखिक (वर्बल) से अधिक भावात्मक (नॉनवर्बल) तरीके से अपना कथ्य संप्रेषित करवाने में सफ़ल रहा है। शारीरिक मुद्राओं, चेहरे की भाव-भंगिमा और आँखों की अभिव्यक्ति से पूरी फ़िल्म संप्रेषित होती है। नायक बहुत कम बोलता है। वह एक कलाकार है, पियानो बजाने में जितना कुशल है अन्य कामों के उतना ही अकुशल (क्लमसी)। यह असावधानी, बेढ़ंगापन उसकी मुसीबतों को बढ़ाता है या इससे उसे कुछ फ़ायदा होता है यह निर्णय फ़िल्म देख कर खुद करना होगा। फ़िल्म की समाप्ति के बाद भी दर्शक फ़िल्म के साथ रहता है। भूखे, प्यासे, बीमार और भयभीत व्यक्ति का इतना सटीक और आधिकारिक अभिनय देखना अपने आप में एक उपलब्धि है। हद तो तब हो जाती है जब नलके में पानी भी खत्म हो जाता है, एक प्यासे व्यक्ति की हताशा का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। इसी तरह कई अन्य दृश्य बहुत त्रासद और भयंकर हैं। नात्सी ऑफ़ीसर का स्पीलमैन के पिता को थप्पड़ मारना, एक अन्य ऑफ़ीसर का व्हीलचेयर में बैठे एक बूढ़े को बाल्कनी से गिराना, गार्ड्स का यहूदियों को सड़क पर नचवाना। भूखे आदमी का बुसे हुए, जमीन पर गिरे सूप को पाने के लिए लपकना। कुत्ते से भी बद्तर स्थिति में उसे चाटना। जीवन में सामान्य बातों जैसे खाना-पानी, परिवार, स्वतंत्रता का मूल्य इस फ़िल्म को देख कर पता चलता है, अन्यथा हम इन बातों को कभी महत्व नहीं देते हैं। हमें अनुग्रहीत होना चाहिए कि हम स्वतंत्र है। फ़िल्म स्वतंत्रता के मूल्य को स्थापित करती है, मानवीयता को जाग्रत करती है। रोनाल्ड हारवुड ने स्पीलमैन की आत्मकथा से फ़िल्म का इतना सटीक स्क्रीनप्ले तैयार किया जिसने उन्हें पुरस्कार के मंच तक पहुँचाया। पोलांस्की पुस्तक के प्रति ईमानदार है, साथ ही उन्होंने अपने अनुभव इसमें पिरोए हैं। पोलांस्की का कहना है कि वे सदा जानते थे कि एक दिन वे पोलिश इतिहास के इस दर्दनाक दौर पर अवश्य फ़िल्म बनाएँगे मगर वे इसे अपने जीवन पर आधारित करके नहीं बनाना चाहते थे। अत: जब उन्हें १९४६ में लिखी यह आत्मकथा पुनर्प्रकाशन पर मिली, पहला अध्याय पढ़ते ही उन्होंने तय किया कि वे इस पर फ़िल्म बनाएँगे। यह भयंकर होते हुए भी आशा का संचार करने वाली फ़िल्म है। इस आत्मकथा में अच्छे-बुरे पोल लोग हैं, अच्छे-बुरे यहूदी हैं, अच्छे-बुरे जर्मन हैं। निर्देशक हॉलीवुड स्टाइल की फ़िल्म नहीं बनाना चाहता था। जब वे लोकेशन के लिए क्राकाऊ गए तो उनकी स्मृति पुन: जीवित हो गई। फ़िल्म की शूटिंग प्रारंभ करने से पहले उन्होंने इतिहासकारों और घेटो के बचे लोगों से संपर्क साधा और उनकी सलाह ली। उन्होंने अपनी टीम को वार्सा घेटो के फ़ुटेज भी दिखाए। नायक के रूप में उनका ध्यान अभिनेता की शारीरिक साम्यता पर उतना नहीं था। वे अपनी कल्पना के अनुसार चरित्र चाहते थे। उन्हें एक युवा की तलाश थी भले ही वह प्रोफ़ेशनल और नामी एक्टर न हो। चूंकि वे फ़िल्म इंग्लिश में बना रहे थे अत: ऐसा व्यक्ति चाहते थे जो यह भाषा भलीभाँति जानता-बोलता हो। अभिनेता ब्रोडी की संभावनाओं और प्रतिभा का फ़िल्म में पूरा-पूरा उपयोग निर्देशक ने किया है। उसके चुनाव के पहले नायक की खोज के लिए पोलांस्की ने कई हजार लोगों का साक्षात्कार किया। पहले उन्होंने लंदन में खोज की, १४०० लोग ऑडीशन के लिए आए पर कोई पोलांस्की के मानदंड पर खरा नहीं उतरा। इस खोज में वे ब्रिटेन से अमेरिका जा पहुँचे। जब उन्होंने अनुभवी एड्रियन ब्रोडी का काम देखा तो उन्हें मनलायक नायक मिल गया, यही अमेरिकी अभिनेता उनका पियानिस्ट बना। फ़िल्म में कई नॉन प्रोफ़ेशनल लोगों ने भी अभिनय किया है। अधिकाँश कलाकार जर्मन और पोलिश हैं। अभिनेता ने भी किरदार निभाने के लिए खूब परिश्रम किया। अपने खाने-पीने पर नियंत्रण करके कमजोर होने-दीखने का काम किया। पहले भी ब्रोडी को संगीत से लगाव था मगर उसने पियानो बजाने का प्रशिक्षण लिया, अभ्यास किया, चोपिन बजाना सीखा, संगीत के उन हिस्सों को बजाना सीखा जो फ़िल्माए जाने थे। वह अभी भी संगीत पढ़ नहीं सकता है परंतु फ़िल्म के लिए जब उसने संगीत बजाया तो वे उसके मनपसंद पल बन गए। उसके मन में इच्छा है कि वह संगीत कलाकारों से जुड़े और संगीत की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कार्य करे। उसने पोलिश भाषा का सीखने का अभ्यास किया। बीबीसी की लौरा बुशेल के अनुसार यह फ़िल्म ब्रोडी की प्रतिभा को प्रदर्शित करने के लिए सबसे अधिक स्मरणीय है। दर्जनों फ़िल्म में काम कर चुके ब्रोडी का कहना है कि पियानिस्ट का अभिनय करने के लिए वे खुद को १२ से १७ घंटे एकाकी रखते, किसी से मिलते-जुलते नहीं थे। जिंदगी में जो भी आरामदायक, सकून भरा है, उससे दूर रहते थे। लोगों, भोजन, कला-संगीत सबसे दूर एक ऐसे व्यक्ति का अनुभव करते जिसका सब कुछ छिन गया है, जिसे अपने प्यारे लोगों, अपनी लगन से वंचित कर दिया गया है। उन्होंने स्पीलमैन के अनुभवों को आत्मसात करने के लिए यह सब किया। उसकी सच्चाई को अपना यथार्थ बनाया। प्रोडक्सन शुरु होने के छ: सप्ताह पूर्व उन्होंने अपना वजन ३० पौंड कम कर लिया था, मित्रों-रिश्तेदारों से मिलना छोड़ दिया था, अपना घर और अपनी कार, भौतिक सुख-साधन त्याग दिए थे। अभिनय की ऊँचाई तपस्या माँगती है, ब्रोडी ने यह किया। उनका कहना है कि जिन परिस्थितियों से स्पीलमैन या उन जैसे लोग होलोकास्ट के दौरान गुजरे, उन्होंने जो अनुभव किया, जो कष्ट उठाए इससे उनके अनुभवों की कोई तुलना नहीं हो सकती है । लेकिन उनका कहना है कि अपने अनुभव से उन्होंने गहन बोध पाया है। उन्होंने ऐसा किया क्योंकि वे अपने काम को बहुत गंभीरता से लेते हैं। निर्देशक के रूप में रोमन पोलांस्की अपने अभिनेताओं को कोई रियायत नहीं देते हैं। एक बार उन्होंने ब्रोडी से कहा कि तुम्हें बिल्डिंग पर चढ़ना है, छत तक जाना है और खिड़की से चढ़ना है, वहाँ लटके रहना है ताकि शूटिंग की जा सके। फ़िर बिल्डिंग से सरकते हुए उतरना है, गटर पर लटके रहना है और फ़िर गिरना है। ब्रोडी ने पोलांस्की से कहा, “क्या पहले किसी ने यह किया है?” पोलांस्की ने कहा, “हॉलीवुड एक्टर्स आओ मैं तुम्हें दिखाता हूँ।” और ६८ साल के पोलांस्की दौड़ कर बिल्डिंग तक गए, खिड़की से चढ़े, वहाँ लटके रहे, छत पर गए, वहाँ से सरकते हुए गटर पर झूलते रहे और फ़िर वहाँ से नीचे जमीन पर कूद पड़े, उनके अंग छिल गए। पोलांस्की ने ब्रोडी से कहा, “लो किसी ने यह किया है, अब तुम करो।” फ़िल्म में ब्रोडी भावना की विभिन्न छटाओं की अभिव्यक्ति में कुशल हैं। उनका अभिनय स्तंभित करता है। फ़िल्म की शूटिंग वार्सा, प्राग तथा स्टूडियो में हुई है। पॉवेल एडलमैन की फ़ोटोग्राफ़ी स्तंभित करती है। फ़िल्म के अधिकाँश भाग में धूसर-भूरे रंग का प्रयोग मनचाहा प्रभाव डालता है। शुरु में कुछ रंगीन दृश्य हैं, जब फ़िल्म आगे बढ़ती है तो भूरा प्रमुख बन बैठता है। जब नात्सी वार्सा छोड़ने लगते हैं तब फ़िर से सूर्य की रौशनी नजर आती है। जब स्पीलमैन जर्मन कमांडर के लिए पियानो बजाता है तब पियानो पर रौशनी पड़ती है, इस समय रौशनी नायक पर भी पड़ती है और जीवन की थोड़ी उम्मीद बँधती है। पोलांस्की ने एक सैनिक स्थल पर सेट का निर्माण कर उसे डायनामाइट से उड़ा कर भग्न घेटो का दृश्य तैयार किया था। कोई आश्चर्य नहीं कि इस फ़िल्म को सारे उत्तम पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। सर्वोत्तम निर्देशक, सर्वोत्तम अभिनेता, सर्वोत्तम स्क्रीनप्ले, सर्वोत्तम सेट डिजाइनिंग... लिस्ट बड़ी लंबी है। गर्व की बात है कि स्पीलमैन के पुत्र एंड्रेज स्पीलमैन पुरस्कार समारोह में उपस्थित थे। अभिनेता ब्रोड़ा के माता-पिता भी समारोह में आए थे और सब खुशी से रो रहे थे। ये सम्मान द्वितीय विश्वयुद्ध के शिकार हुए लोगों के लिए समर्पित थे। सर्वोत्तम फ़िल्म सूचि में इसका नाम सदा के लिए दर्ज है। स्पीलमैन के बेटे ने पत्रकारों को बताया कि हमारा परिवार मेरे पिता की कहानी को अकादमी द्वारा सपोर्ट करने से बहुत सम्मानित और गदगद हैं। हम लोग यह सम्मान रोमन पोलांस्की और फ़िल्म की असामान्य कास्ट और क्रू के साथ साझा करने में गर्वित हैं। आगे उन्होंने कहा कि यह पोलिश यहूदियों के साहस और मानवता को स्मरण करना है जिसे हमने द्वितीय विश्व युद्ध में खो दिया था। उन्होंने बताया कि साठ साल बीत चुके हैं मगर हम कुछ भूले नहीं हैं। समीक्षकों ने फ़िल्म प्रदर्शन के तत्काल बाद सर्वोत्तम शब्दों में इसकी प्रशंसा की। एक समीक्षक ने तो यहाँ तक कहा कि फ़िल्म का अंत इंद्रियातीत (ट्रांसिडेंटल) के निकट है। लोग खुश थे कि पोलांस्की दोबारा फ़िल्म जगत में स्थापित हो गए हैं, इसके पहले उनकी कुछ फ़िल्में असफ़ल रहीं थीं। उनके लिए यह फ़िल्म बनाना आसान नहीं था। वार्सा जा कर उनकी स्मृतियाँ पुन: जाग्रत हो गई थीं। फ़िल्म की शूटिंग के दौरान वे कई बार अपसेट हो जाते थे। इस पूरे समय उन्होंने खुद को बहुत लो प्रोफ़ाइल में रखा। मीडिया में बढ़-चढ़ कर कोई बयान नहीं दिया। कला की जड़े अक्सर बहुत दु:ख में गड़ी होती हैं। पोलांस्की १९६१ में कम्युनिस्ट शासन के दमन से निकल भागे थे। दु:ख उनका पीछा बचपन से कर रहा है बाद में भी उसने उनका पीछा नहीं छोड़ा। १९६९ में उनकी पत्नी अभिनेत्री शरोन टेटे और उनके अजन्मे बच्चे की हत्या कर दी गई। इसके बाद उन्होंने ‘मैकबेथ’ बनाई, इसके पहले वे ‘रिपल्सन’ और ‘कल-डे-सेक’ बना चुके थे। उनकी अन्य फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म के प्रड्यूसर उनके पुराने मित्र जेने गटोवस्की हैं जो खुद जर्मनी द्वारा अधिकृत वार्सा से बचे हुओं में से एक हैं। फ़िल्म के वार्सा प्रीमियर के समय पोलांस्की खुद अभिनेता के साथ उपस्थित थे। वहाँ के राष्ट्रपति और तमाम बड़े लोग इस अवसर पर फ़िल्म देखने जमा थे। दर्शकों ने बीस मिनट तक खड़े हो कर तालियाँ बजाते हुए फ़िल्म, निर्देशक और अन्य तकनीशियन्स और कलाकारों को सम्मान दिया था। भले ही यह फ़िल्म एक व्यक्ति के नजरिए से बनी है मगर इसमें युद्ध की भयावहता, एक व्यक्ति की असहायता पूरी तरह से उभरी है। यह बहुत प्यारी-सुंदर फ़िल्म नहीं हैं, अधिकतर दृश्य उजाड़ परिदृश्य और वीराने तथा जनहीन कमरे के हैं। फ़िर भी एक बार इसे अवश्य देखा जाना चाहिए। एक बार देख कर दोबारा देखने की तलब यह फ़िल्म खुद ही जगाती है। फ़िल्म देखने के बाद प्रतिकार की भावना नहीं जगती है, वरन मानवता पर विश्वास जमता है। संगीत की शक्ति और जिजीविषा को सलाम करने का मन करता है। यह फ़िल्म संगीत की शक्ति, जिजीविषा और दुष्टता-बुराई के समक्ष डट कर खड़े रहने का दस्तावेज है। पोलांस्की ने एक साक्षात्कार में बताया कि वे फ़िल्म को बहुत तड़क-भड़क वाला नहीं बनाना चाहते थे मगर दूसरी ओर वे उस काल की डॉक्यूमेट्री भी नहीं बनाना चाहते थे। उनके अनुसार यह उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म है। भावात्माक रूप से यह ऐसा काम है जिसकी तुलना उनके किसी अन्य कार्य से नहीं की जा सकती है। यह उन्हें उस काल में ले जाता है जिसे वे आज भी स्मरण करते हैं। देखने के पश्चात फ़िल्म ‘द पियानिस्ट’ सदा-सदा के लिए दर्शकों की स्मृति का हिस्सा बन जाती है। 000