Saturday 18 June 2011

पासपोर्ट का रंग: प्रवासी की व्यथा-कथा

तेजेंद्र शर्मा की कहानी ‘पासपोर्ट का रंग’ एक ऐसे व्यक्ति की मार्मिक कहानी है जिसे मजबूरी में ब्रिटेन की नागरिकता लेनी पड़ी है। यह पीढियों की सोच और उनके मूल्यों के बीच की खाई को प्रदर्शित करने वाली कहानी है। जहाँ पुरानी पीढ़ी अतीत से अपने अनुभव निकाल कर वर्तमान को उन्हीं के आधार पर तौलती-परखती है, वहीं नई पीढ़ी वर्तमान को अपना सब कुछ माने बैठी है। उसके लिए जीवन की बेहतर सुख-सुविधा अधिक मायने रखती है। उसकी सोच में प्रगति की झलक है। अतीत में जो हुआ वह बीत चुका है उसे बदला नहीं जा सकता है और उसी का रोना रोते रहने से प्रगति नहीं होगी यह वह अच्छी तरह से जानता है। उसने भी स्वतंत्रता का मोल चुकाया है मगर वह पुरानी पीढ़ी से भिन्न है। भारतीय पुरानी पीढ़ी ने स्वतंत्रता के लिए आंदोलन किया और उसके लिए सजा पाई, गोली खाई। और जब आजादी मिली तो टुकड़ों में तथा उसकी कीमत भी उसे चुकानी पड़ी। उसे विस्थापन भोगना पड़ा। वह घर से बेघर हो गया। अपने ही देश में पराया हो गया क्योंकि बँटवारे की आग ने आदमी को हैवान बना दिया था। “गोपाल दास के लिए लाहौर से दिल्ली आना मजबूरी थी। अपनी जन्मभूमि को छोड़ना उस समय उन्हें बहुत परेशान कर रहा था। किंतु कोई चारा नहीं था। वहाँ किसी पर विश्वास नहीं बचा था। दोस्त दोस्त को मार रहे थे। हर आदमी या तो हिन्दु बन गया था या फ़िर मुसलमान। रिश्ते जैसे खत्म ही हो गए थे। सभी इंसान धार्मिक हो गए थे और जानवर की तरह बर्ताव कर रहे थे।” कहानीकार ने यहाँ धार्मिक के साथ जानवर शब्द का प्रयोग विशेषण विपर्यय के रूप में किया है। जिससे उस काल के उन्माद का पता चलता है।

बहरआल गोपालदास जी के जीवन की विडंबना है कि उन्हें एक बार फ़िर से दर-ब-दर होना पड़ा है। पत्नी के गुजरने के बाद उन्हें उनका बेटा इंद्रेश अपने पास इंग्लैंड ले आया है। बेटी शादी के बाद अमेरिका में है। आज भारत के अधिकाँश माता-पिता की यही स्थिति है। बच्चे बेहतर अवसरों की तलाश में प्रवासी हो गए हैं और वृद्ध माता-पिता उनके लिए आँखें बिछाए देश में ही प्रतीक्षा पर रहे हैं अथवा मजबूरी में अपने बच्चों के साथ विदेश में लतके हुए हैं। जहाँ न उनके विचार मिलते हैं न मूल्य और न ही जीवन शैली। एक दुनिया: समानांतर में राजेन्द्र यादव कहते हैं, कहानी का कोई भी पात्र अपने आपमें कुछ नहीं होता है, किसी-न-किसी का प्रतीक होता है। गोपाल दास प्रतीक हैं उन सारे लोगों के जिन्हें मजबूरी में किसी अन्य देश की नागरिकता लेनी पड़ती है। जिनके लिए यह मजबूरी उनके सीने पर बोझ बन जाती है। वे आम आदमी का प्रतीक हैं।

स्वतंत्रता की कीमत युवाओं ने भी अदा की है। अपेक्षा थी कि भारत एक बार अंग्रेजों की गुलामी से छूट जाएगा तो देश में खुशहाली होगी। सबका जीवन सुखी होगा। लोगों ने स्वतंत्र भारत के बहुत सुहावने स्वप्न देखे थे। मगर जल्द ही उनका मोहभंग हो गया। अत: जिससे भी जैसे भी बन पड़ा बेहतर भविष्य की तलाश में प्रवास पर निकल पड़ा। हाँ, इसको युवा पीढ़ी ने मजबूरी के तौर पर नहीं लिया और जहाँ गए वहाँ के जीवन को अपनाने का प्रयास करने लगे। इसके लिए उन्हें जो भी समझौते करने पड़े उन्होंने उसे सहजता से जीवन की परिहार्यता मान कर स्वीकारा। उन्हें परदेश से ज्यादा शिकायतें न थीं। जरूरत पड़ी तो प्रवास देश की नागरिकता ग्रहण करके वहीं बस गए। पुरानी पीढ़ी की बातें नई पीढ़ी को भावुकता लगती है। साहित्यकार तथा आलोचक अजय नावरिया इस कहानी पर लिखते हुए कहते हैं कि वर्तमान समय में भावुकता के लिए कम-से-कम दया और ज्यादा-से-ज्यादा खीज है। यही खीज बेटे इंद्रेश की बातों में सुनाई देती है। बहु सरोज के मन में अपने स्वसुर के लिए दया है। मगर गोपालदास जैसे लोगों के लिए यह मजबूरी है। जिस ब्रिटिश साम्राज्य को निकाल भगाने के लिए उन्होंने अपनी बाँह में गोली खाई उसी ब्रिटिश नागरिकता के लिए उन्हें महारानी की वफ़ादारी की शपथ उन्हें लेनी पड़ती है। वे शपथ ले तो लेते हैं मगर यह उनकी मानसिक व्यथा का कारण बन जाता है। वे खुद को धिक्कारते हैं। यह आघात उनके मर्म पर लगा है। उनका खाना-पीना सब छूट जाता है।

गोपलदास का चरित्र निर्माण करने के विषय में स्वयं तेजेन्द्र शर्मा का कहना है, “ बाऊजी की यह छवि मेरी बहुत सी कहानियों में दिखाई देती है। ‘पासपोर्ट के रंग’ कहानी के बाऊजी का पूरा चरित्र मैंने अपने बाऊजी पर आधारित किया है जबकि मेरे बाऊजी मेरे ब्रिटेन प्रवास करने से बहुत पहले ही स्वर्गवासी हो गए थे।” पाठक के मन में सहज जिज्ञासा उठती है कि कैसे थे तेजेन्द्र शर्मा के पिता, तेजेन्द्र खुलासा करते हैं, “बाऊजी की खासियत ही उनकी कमजोरी भी थी। बाऊजी जरूरत से ज्यादा ईमानदार व्यक्ति थे। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनकी बाई बाजू में गोली लग गई थी। पाठक देखता है कि यही गोली गोपालदास को भी लगी है।

बेटे की सोच आधुनिक है, वह अधिक व्यावहारिक है। अंग्रेजों ने जो जुल्म भारतीयों पर किए थे उसी को याद करके जीवन को वहीं ठहराए रहने के पक्ष में इंद्रेश नहीं है। पुरानी बातें भूल कर बेटा जब लाइफ़ आगे बढ़ाने की बात कहता है तो पिता का कहना है, “ – बेटा तू नहीं समझ सकता। मेरे लिए ब्रिटेन की नागरिकता लेने से मर जाना कहें बेहतर है। मैंने अपनी सारी जवानी इन गोरे साहबों से लड़ने में बिता दी।...जेल में रहा। मुझे तो फ़ाँसी की सजा तक हो गई थी।” जहाँ पिता के मन में द्वंद्व है, वहीं बेटे के मन में कोई द्वंद्व नहीं है। हाँ, पिता को लेकर वह जरूर चिन्तित है। दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। दोनों के अनुभव भिन्न हैं जीवन का नजरिया भिन्न है। बेटा दूसरी दुनिया में रह रहा है, उसने नए जीवन को सहजता से स्वीकार कर लिया है। उसे ब्रिटिश पासपोर्ट की मात्र अच्छाइयाँ नजर आ रही हैं वह कहता है कि ब्रिटिश पासपोर्ट हो तो वीजा की जरूरत नहीं होती है। मजे से जब चाहो हवाई टिकट लो और किसी भी देश में घूँम आओ। शायद उसके मन में घूँमने-फ़िरने के लिए मौज मस्ती के लिए यूरोप और अमेरिका के तमाम देश हैं। मगर भारत नहीं है, क्योंकि वह भूल जाता है कि भारत आने के लिए वीजा की आवश्यकता पड़ती है। यह बात गोपालदास कैसे भूलते उन्हें तो केवल और केवल भारत आना है। वे भारत लौटने के लिए विझुब्ध हैं। उन्हें यह बात कचोटती है कि अपनी जन्मभूमि के लिए उन्हें वीजा लेना होगा। उन्हें जब इसकी कोई सूरत नहीं नजर आती है तो वे कामना करते हैं कि कोई ऐसी जुगत हो कि दोनों देशों की नागरिकता मिल जाए।

बिल्ली के भागों झींका टूटा। उनकी कामना में अवश्य बल रहा होगा, गोपालदास स्टार टीवी और ज़ी टीवी पर भारत की खबरें सुनते रहते थे। भारत के बारे में भारतवासियों से अधिक गोपालदास जी को खबर रहती। और एक दिन कमाल हो गया, प्रवासी दिवस पर प्रधानमंत्री ने दोहरी नागरिकता की घोषणा कर दी। गोपालदास की खुशी का अंदाजा लगाया जा सकता है। आम आदमी को सत्ताधारी लोग ऐसे ही छोटे-छोटे झुनझुने थमाते रहते हैं जिनसे आम आदमी खुश होकर तमाम उम्मीदें पाल लेता है। पहले पाँच देशों के प्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता की घोषणा होती है, शुक्र है ब्रिटेन उनमें से एक है। गोपालदास जी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। वे आनन-फ़ानन में दोहरी नागरिका लेकर फ़िर से भारत के नागरिक बन जाने के स्वप्न पालने लगते हैं। मगर घोषणाओं को इतनी जल्दी अमली जामा नहीं पहनाया जाता है। बीच में लालफ़ीताशाही भी होती है। एक्ट बनने की लम्बी प्रक्रिया तो होती ही है।

वे उस पीढ़ी के हैं जिसका केवल काँग्रेस पर पहले बड़ा भरोसा था मगर अब काँग्रेस से जिनका भरोसा उठ चुका है। वे कहते हैं, “यार ये कोई काँग्रेसी प्रधानमंत्री नहीं है। यह करेक्टर वाला बंदा है।” मगर समय के साथ-साथ गोपालदास जी का धैर्य चुकने लगता है। अगले प्रवासी दिवस पर वे वीजा लेकर भारत आ जाते हैं, सोचते हैं प्रवासी दिवस में खुद भाग लेकर स्थिति का सही जायजा लेंगे। उन्हें एक और झटका लगता है। प्रवासी दिवस में भाग लेने के लिए तगड़ी फ़ीस लगती है। ऐसा नहीं है कि वे यह फ़ीस नहीं भर सकते हैं मगर यह उन्हें अपमानजनक लगता है। यह बात उन्हें और भी ज्यादा खटकती है कि सारा कार्यक्रम अंग्रेजी में होता है। असल में प्रवासी दिवस उन जैसे आम लोगों के लिए नहीं है वह तो संमृद्ध, व्यवसायी प्रवासियों को देश में पूँजी लगाने के लिए आमंत्रित करने का आयोजन है। आज भारत सरकार और सत्ता संस्थान प्रवासियों को सम्मान दे रहे हैं, परंतु यह आर्थिक कारणों से अधिक हो रहा है। बात आर्थिक मुद्दों पर ही समाप्त हो जाती है। दोहरी नागरिकता का प्रवधान धनी-मानी प्रवासियों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इससे तमाम गरीब प्रवासी जो विभिन्न देशों में बद्तर हालत में रह रहे हैं मेहनत मजदूरी करके किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं, अपना पेट काट कर थोड़ी बहुत रकम अपने घर वालों की सहायता के लिए भेज पाते हैं उनका कोई भला करने के लिए यह या ऐसी कोई भी योजना किसी भी पार्टी की सरकार नहीं बनाती है। उसके एजेंडे पर गरीब-मजबूर प्रवासी नहीं होता है। सरकार और प्रकाशकों का यही नजरिया रचनाकारों के प्रति भी कमोबेश यही है। चूँकि अंग्रेजी रचनाकारों का बाजार है अत: उनकी पूछ है, हिन्दी का लेखक उसका पुअर कजिन है जिसकी ओर कोई ध्यान नहीं देना चाहता है न ही सरकार और न ही प्रकाशक। पासपोर्ट का रंग में लेखक बिना बड़बोलेपन के ये बातें चुपचाप कहानी में इंगित कर देता है।

कहानी तब प्रारंभ होती है जब पासपोर्ट और वीसा के नियम आज से भिन्न थे। कहानी की समाप्ति तक नियमों में काफ़ी बदलाव आ चुका होता है। इस दृष्टि से यह कहानी अपने छोटे कलेवर में एक बड़ी कहानी है। संवेदना और अनुभूति के स्तर पर इसमें सघनता और गहराई दोनों हैं। इस कहानी की वास्तविकता के बारे में चाहे कुछ भी कहा जाए, यह अपने सच होने का पूरा-पूरा अहसास उत्पन्न करती है। रचनाकार जिस भूखंड और समाज से परिचित है उसने उसे ही कहानी का घटना स्थल बनाया है। गौरतलब है कि तेजेन्द्र शर्मा भारत में रहते हुए भी कहानियाँ लिख रहे थे। वे ११ दिसम्बर १९९८ से लंदन में रह रहे हैं और उन्होंने ब्रिटेन की नागरिकता भी ले ली है। इसलिए लेखक के रूप में वे भारत और लंदन दोनों भूखंड़ों और समाज से परिचित हैं। लंदन में अक्सर बहुत से भारतीय अपने-अपने समाजों में ही सिमटे रहते हैं जैसे गुजराती, पंजाबी, हिन्दु, मुसलमान। मगर तेजेन्द्र के अनुसार उनकी मित्र मंडली में हिंदु-मुसलमान तो हैं ही कई अंग्रेज भी हैं। एक साक्षात्कार में वे बताते हैं, “हां, भारतीय लोग जरूर खेमों में बंटे हुए हैं। कोई गुजराती है तो कोई पंजाबी, कोई हिन्दु है तो कोई मुसलमान! मेरे दोस्तों में अंग्रेज भी हैं, काले भी हैं और दक्षिण एशियाई मूल के लोग भी हैं। लंदन के कॉलिडेल क्षेत्र की काउंसलर श्रीमती ज़कीया ज़ुबेरी से उनकी दोस्ती जग-जाहिर है। वे उनके व्यक्तित्व से खासे प्रभावित हैं यह वे स्वयं स्वीकार करते हैं। दोनों मिल कर हिन्दी-उर्दू के प्रसार-प्रचार के लिए कई कार्यक्रम चलाते हैं। वे साफ़ तौर पर स्वीकार करते हैं, “ज़किया जी की दुनिया से हुए परिचय ने ही ‘एक बार फ़िर होली’, ‘कब्र का मुनाफ़ा’, ‘तरकीब’, ‘होमलेस’ जैसी कहानियाँ लिखने की प्रेरणा दी। कई चर्चित और बेहतरीन कहानियाँ लिखी हैं।”

‘पासपोर्ट’ कहानी पर एक बार पुन: लौटें। कहानी में अगले प्रवासी दिवस पर प्रधानमंत्री ने दोहरी नागरिकता के लिए देशों की संख्या बढ़ा अब वह पाँच से बढ़ कर सोलह देशों के भारतीय प्रवासियों के लिए घोषित की जा चुकी थी। गोपालदास जी प्रधानमंत्री से मिलने का प्रयास करते हैं लेकिन प्रजातंत्र के प्रधानमंत्री से मिलना कोई हँसी-खेल नहीं है। खूब भागदौड़ कार्ने के बाद वे अपने नए देश लौट आते हैं। प्रजातंत्र की विशेषता है कि इसके सत्ता समीकरण बदलते रहते हैं कब और कितने दिन कौन-सी पार्टी सत्ता में रहेगी बताना मुश्किल है। सरकार बदलते ही पुरानी सरकार द्वारा किए सारे वायदे झाड़-बुहार कर बाहर कर दिए जाते हैं और नए वायदों की घोषणा होने लगती है। भारत की सरकार भी बदल गई। काँग्रेस पुन: सत्ता पर काबिज हो गई। गोपालदास जी मन को दिलासा देते हैं कि इस बार काँग्रेस है तो क्या हुआ प्रधानमंत्री तो एक खालसा है। “खालसा को प्रधानमंत्री के रूप में देख कर गोपाल दास जी के मन में उम्मीद और गहरी बँधने लगी थी। गुरु साहब ने खालसा बनाया ही इसलिए था कि हमारी रक्षा कर सके।” गोपाल दास जी कुछ दिन और रुक जाते तो देखते कि खालसा कैसा कठपुतली है। वे तर्क के आधार पर व्यक्ति को उतना नहीं परखते हैं जितना कि उसके धर्म, आस्था, पार्टी, मिथकीय कथाओं के आधार पर परखते हैं। उनके लिए व्यक्ति से ज्यादा उसका धर्म, उसकी कौम महत्वपूर्ण है। साथ ही वे अपने अनुभवों का सहारा लेते हैं जो एक तरह से उचित है। मगर वे अपने अनुभवों का साधारणीकरण करते हैं और जीवन तथा परिस्थितियों को उसी चश्मे से देखते हैं। जबकि सामान्यीकरण अक्सर गलत नतीजे देता है। ये सब पर लागू नहीं हो सकते हैं।

गोपालदास जी के जीवन की सूई एक ही स्थान – दोहरी नागरिका – पर रुक गई। वे अब दिन रात यही सोचते-बोलते। कितना सुनते लोग। परिवार चिंतित है मगर बाहर के लोग, दोस्त उन्हें पागल करार देने लगे। इसी बीच खबर आई कि प्रवास मंत्रालय बन गया है और प्रवास मंत्री अपने हाथों से ऑस्ट्रेलिया में दोहरी नागरिकता के फ़ॉर्म बाँट रहे हैं। समाचारों पर से उनका विश्वास उठ गया था अत: उस दिन घर लाकर अखबार खूब ध्यान से पढ़ते हैं। यहाँ मीडिया के बढ़ा-चढ़ा कर खबर को प्रदर्शित करने पर तेजेंद्र कटाक्ष के रूप में प्रस्तुत करते हैं। आम आदमी भी मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर सशंकित है। इस बार खबर सच्ची थी। गोपालदास जी को तसल्ली होती है, “अब मेरा अशोक के शेर वाला नीला पासपोर्ट एक बार फ़िर से जीवित हो उठेगा। केवल पासपोर्ट का रंग नीले से लाल होने पर इंसान के भीतर कितनी जद्दोजहद शुरु हो जाती है।” वे निरंतर आशा-निराशा के झूले में झूल रहे हैं।

किसी तरह बेचैनी में रात कटती है, अगली सुबह वे सीधे भारतीय उच्चायोग के दरवाजे पर थे। मगर वहाँ इस तरह की कोई सुनगुन न थी। ऑफ़िस में दोहरी नागरिकता के लिए कोई फ़ॉर्म उपलब्ध न था। वे इसे अफ़सरशाही की चाल सोचते हैं। उन्हें लगता है कि इन लोगों को सरकार से अपनी कोई माँग मनवानी होगी इसीलिए ये लोग काम रोके हुए हैं। अकसर प्रजातंत्र में सरकार से अपनी माँग मनवाने का तरीका असहयोग है। अब तक गोपालदास जी का धैर्य जवाब दे चुका था। उनका अनुभव करता था कि अफ़सरशाही हमेशा ही आम आदमी की राह में रुकावटें पैदा करती रहती है। वे ऑफ़िस के लोगों से लड़ पड़े। बात इतनी बढ़ गई कि सुरक्षा कर्मचारी उन्हें बाहर निकालने आ गए तभी एक परिचित ने उन्हें बचाया और घर जाने की सलाह दी। वे आहत मन घर की ओर चलते हैं रास्ते में उन्हें तरह-तरह के विचार परेशान करते हैं। वे खुद को इतना परेशान, लाचार और बेबस अनुभव करते हैं कि उनके मन में आत्महत्या का विचार आता है। किसी तरह वे घर पहुँचते हैं। उनके मन में इतनी ग्लानि, हताशा है कि उनका चेहरा बहु सरोज को देश कर और सकपका जाता है उन्हें लगता है कि कहीं सरोज को ऑफ़िस में हुई अपमान जनक स्थिति का पता चल गया तो क्या होगा। वे अपनी ही निगाह में गिर जाते हैं, उनका आत्मसम्मान भहरा चुका है। वे सरोज की लाई चाय पीकर अपने कमरे में चले जाते हैं।

बेटा इंद्रेश जब काम से लौटता है तो सरोज को बताता है, “सरोज, बाऊजी की तबियत शायद ज्यादा बिगड़ती जा रही है। आज हाई कमीशन में जाकर नाटक कर आए हैं। त्रिलोक का फ़ोन आया था मुझे।” बेटे को ऑफ़िस में हुई अप्रिय घटना की सूचना मिल गई है। मगर उसने भी पिता को पागल सोच-समझ लिया है वह पागल शब्द का प्रयोग नहीं करता है मगर बीमारी से उसका स्पष्ट तात्पर्य पागलपन से ही है। पिता ने जो किया वह उसे उनका जायज काम नहीं लगता है, उसे नहीं लगता है कि कोई मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ऐसा काम कर सकता है इसीलिए पिता का काम उसे नाटक लगता है। सरोज ज्यादा संवेदनशील है वह पहले भी इंद्रेश से कहती है, “जब बाऊजी को पसंद नहीं तो क्यों उनकी नागरिकता बदलवाई जाए। लेकिन इंद्रेश ने किसी की नहीं सुनी।” आज भी वह कहती है, “देखिए आज कुछ कहिएगा मत। हाई कमीशन से बहुत परेशान लौटे हैं। मुझे पता नहीं था कि वहाँ गए थे। लेकिन चेहरा देख कर मुझे लगा कि बहुत निराश दिखाई दे रहे हैं। आप कल समझा दीजिएगा। डिनर टेबल पर कुछ मत कहिएगा।”

पाठक सोचता है कि अब बाप बेटे में कुछ बाता-बाती होगी, बेटा अपने अपमान की बात कहेगा, पिता अपने आहत मन को खोलेगा। मगर जब पोती बाबा को खाना खाने के लिए बुलाने के लिए उनके कमरे में जाती है तो वहाँ कोई और ही दृश्य उपस्थित है। जो पाठक की अपेक्षा से बिल्कुल अलग है। “गोपालदास जी एकटक छत को देखे जा रहे थे। उनके दाएँ हाथ में लाल रंग का ब्रिटिश पासपोर्ट था और बाएँ हाथ में नीले रंग का भारतीय पासपोर्ट। उन्होंने ऐसे देश की नागरिकता ले ली थी जहाँ के लिए इन दोनों पासपोर्टों की जरूरत नहीं थी।” उन्होंने ऐसे देश की नागरिकता ले ली थी जहाँ के लिए इन दोनों पासपोर्टों की जरूरत नहीं थी।’ यदि यह वाक्य कहानीकार खुद न लिख कर पाठकों और आलोचकों पर छोड़ देता तो कहानी और सुगठित, सारगर्भित बनती। खैर।

कहानी का अंतिम वाक्य समय, समाज और सत्ता की विडंबना पर एक सटीक वाक्य है। इधर गोपालदास की मृत्यु की बात परिवार को ज्ञात होती है, उधर “स्टार न्यूज पर पगड़ी पहने नए प्रधानमंत्री अपनी मूँछों में मंद-मंद मुस्कुराते हुए घोषणा कर रहे थे कि अब विदेश में बसे सभी भारतीयों को दोहरी नागरिकता प्रदान की जाएगी।” तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री की बड़ी सटीक तस्वीर खींची है लेखक ने।

प्रवासी रचनाकारों पर अक्सर आरोप लगता रहता है कि वे भावुकता की, नॉस्टल्जिया की कहानियाँ लिखते हैं। भारत का गुणगान ही उनका मुख्य विषय होता है। वे रहते विदेश में हैं पर बातें सदा भारत में स्वर्णिम जीवन की करते हैं। उन्हें दूर रह कर यहाँ का सब कुछ बहुत अच्छे रूप में याद आता है। उनकी कहानियों में वहाँ का समाज, वहाँ का जीवन भारत के जीवन को और अच्छा, और महान दिखाने के लिए पृष्ठभूमि के रूप में ही अधिकतर आता है, जैसे सुनार स्वर्णाभूषण प्रदर्शित करने के लिए गहरे रंग के मखमल का प्रयोग करता है ताकि आभूषण खिल कर दिखाई दे। विदेश में सब कुछ बुरा ही है तब मन में प्रश्न उठता है कि ये वहाँ गए ही क्यों जबकि ये मनमर्जी से गए हैं किसी मजबूरी में बँधुआ बन कर नहीं। यह आरोप काफ़ी हद तक कुछ प्रवासी कहानीकारों के विषय में सही भी हैं। मगर सबको एक ही लाठी से नहीं हाँका जा सकता है। तेजेन्द्र ने लंदन में मुहिम चला रखी है। एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, “मैंने एक मुहिम शुरु की कि हिन्दी कथाकारों को अपने साहित्य में ब्रिटेन के सरोकार लाने होंगे। मैंने ब्रिटेन में बसे भारतीयों के जीवन को समझने का प्रयास किया है। यहाँ के श्वेत लोगों से दोस्तियाँ शुरु की ताकि उनके जीवन को समझने का मौका मिल सके। अंग्रेजों के घर को भीतर से देखा। उनके दिल में झाँकने की कोशिश की।”

कहानी के विषय में अजय नावरिया का कहना है कि ‘पासपोर्ट का रंग’ कहानी तेजेन्द्र शर्मा के राजनैतिक दृष्टिकोण का भी परिचय देती है। वे कहते हैं, “इस दृष्टि में एक स्पष्टता है कि राजनीति वित्त प्रेरित और स्वार्थ आधारित है। इसमें कोई दलीय विचारधारा विरोध नहीं रखती।” आज प्रवास के नियम बदल चुके हैं। संचार और यातायात के संसाधनों में भी नित नए परिवर्तन हो रहे हैं। ऐसे समय में प्रश्न उठता है कि भविष्य में इस कहानी का क्या महत्व होगा? तो जरा ध्यान दिया जाए तो देखा जा सकता है कि इस कहानी का ऐतिहासिक तथ्यों को दर्ज करने केलिए सदा-सदा महत्व रहेगा। यह कहानी एक ऐसे कथानक पर आधारित है जो दिखाती है कि एक समय था जब प्रवास के नियम भिन्न थे और उन नियमों का आम आदमी के जीवन पर दारुण प्रभाव पढ़ता था। इसकी संवेदनशीलता पाठक को सदैव विचलित करेगी, उसे प्रवासी के दु:ख-दर्द में भागीदार बनाएगी। तेजेन्द्र शर्मा की कथन की रवानगी और छोटे-छोटे मगर सारगर्भित संवाद कहानी को प्रभावशाली बनाते हैं। कहानी पाठक पर एक विशिष्ट छाप छोड़ती है।

यमुनानगर में इस कहानी पर आधारित नाटक देखना अपने आप में एक भिन्न अनुभव था। डी ए वी कॉलेज की छात्राओं ने भाव प्रवण अभिनय से कहानी को जीवंत कर दिया था।
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Sunday 12 June 2011

अनकही : खूब कही

दु:ख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ जो अब तक नहीं कही. महाकवि ने भले ही यह कहा हो कि वे दु:ख की कथा न कह सके परंतु बहुत सारे दु:ख भरे जीवन की कथा “अनकही” में जयश्री राय ने कही है और खूब कही है. उन्होंने नारी जीवन की दारुण पीड़ा को शब्दों में पिरोया है. नारी की व्यथा कथा ’हरि अंनता हरि कथा अंनत’ की भाँति अंनत है कितनी भी लिखी जाए, कितना भी लिखते जाओ कभी समाप्त नहीं होती है. अपनी बात में वे स्वयं लिखती हैं कि अनकही खुद ही कहानी है. अनकही खुद ही कहेगी... और अनकही अपनी बात कहती है, खूब विस्तार से कहती है, तरह-तरह से कहती है.

इसकी कहानियों में नारी विभिन्न तबके और विभिन्न रूप में आई है. वह अमीर है, गरीब है, मध्यवर्ग से है, वंचित वर्ग की है. वह चौका बासन करने वाली है, कचड़ा बीनने वाली है, जमींदार खानदान से ताल्लुक रखने वाली है. वह माँ है पत्नी है प्रेयसी है, और तो और वह दूसरी औरत भी है. इन कहानियों की नारी आज की, शहरी कामकाजी महिला नहीं है. वह परिवार के बीच की स्त्री है. वह परिवार का जैसे तैसे पालन करने वाली, परिवार के लिए तडफ़ती स्त्री है. परिवार के लिए जीती-मरती, खपती स्त्री है. उसकी जान अपने आदमी, अपने बच्चों में बसती है. जब परिवार बिखरने लगता है, वह परिवार को समेट नहीं पाती है तो दु:खी हो उठती है. जब पाती है कि उसका स्थान कोई और स्त्री ले रही है तो उनका हृदय कसक उठता है, जब उसके बच्चे भूख से बिलबिलाते है तो उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता है और जब उससे अपने बच्चों की व्यथा देखी नहीं जाती है तो वह उन्हें झूठी दिलासा देकर मरने के लिए छोड़ देती है. कभी खुद मर जाती है. कभी परिवार के लिए माँ बनकर उनका लालन पालन करती है तो कभी अपनी संतान के कुकर्म से पत्थर की तरह कठोर हो जाती है. मर जाती है मगर अपने बेटे को मुखाग्नि देने तक से वर्जित कर जाती है. जब तक पति बेटा इंसान है वह उनके लिए मरने तक को तैयार है लेकिन ज्योंहि वह इंसान से हैवान बनता है वह भी कठोरता की प्रतिमा बन जाती है. “अनकही” की स्त्री हर हाल में इंसान बनी रहने की कोशिश करती है. यह इंसान बने रहने की कोशिश सबसे कठिन कार्य है क्योंकि बकौल जयश्री राय हमारी इस दुनिया में इंसानों की किल्लत-सी पड़ गई है. ये कहानियाँ इस किल्लत के समय में इंसान बने रहने की जिद में हैं. ये कहानियाँ यकीन दिलाती हैं कि इंसानियत अभी मरी नहीं है.

पिता और पुत्री का नाता प्राथमिक नाता है. बड़ा यकीन का, रुहानी जरूरत को पूरा करने वाला नाता है. लेकिन जिस दिन पिता पुरुष बन जाता है वह बड़ा त्रासद अनुभव होता है. सारे यकीन टूट जाते है. साथ ही टूट जाती है बेटी, सदा-सदा के लिए. पिता पुरुष बन जाता है क्योंकि उसे अपनी पत्नी को सजा देनी है. पत्नी उपलब्ध नहीं है तो वह बेटी को उसका स्थानापन्न मान कर सजा देता है. उसे नोंच चोंथ कर, लहुलुहान कर, सदा के लिए अभिशप्त कर देता है. पिता ने ऐसा किया है, यह सच्चाई है. पिता ने यह प्रतिकार के लिए किया है, नशे में धुत होकर किया है, ये बातें उसके अपराध की गहनता को किसी दृष्टि से हल्का नहीं करती हैं. होश में आकर वह खुद को गोली मार कर अपना जीवन समाप्त करना चाहता है. अगर वह मर जाता तो भी क्या उसका कृत्य मिटाया जा सकता है. जयश्री राय ने उसे मरने नहीं दिया है. पश्चाताप की आग में जलने के लिए काफ़ी समय बचाए रखा. मगर मैं इस कहानी के जिस किरदार की ओर ध्यान दिलाना चाहती हूँ वह बेटी संदल नहीं है. वैसे कहानी संदल की है. संदल जो अपनी माँ के किए की सजा अपने पिता के हाथों पाती है. हाथ जो उसे खिलाया करते थे. जो उसे सहलाते और गुदगुदाते थे. वही हाथ उसका सर्वस्व लूट लेते हैं. वह मनुष्य के स्पर्श से भी आतंकित रहने लगती है. इस दुर्घटना के बाद रिश्ते उसे डराते हैं. वह चाह कर भी किसी से जूड़ नहीं पाती है. यहाँ तक कि प्रेमी-पति का स्पर्श भी उसे सहन नहीं होता है. और जो व्यक्ति किसी अन्य से नहीं जुड़ सकता है उसके नर्क की कल्पना की जा सकती है. वैसे यह कल्पना आसान और सहज नहीं है. संदल का द्वंद्व है कि वह जीवन के इतने बड़े क्राइसिस के पल में अपने पापा को पुकारना चाहती है और पुकार नहीं सकती है. रक्षक भक्षक बन गया है. भक्षक से रक्षा की गुहार कैसे लगाई जाए? मगर पिता का जाना उसके जीवन में अभाव की एक पूरी दुनिया ले आया है. पापा के साथ उसका सबसे बड़ा संबल, उसकी आस्था, उसकी जमीन, उसका आसमान सब खो गया है. उसकी पूरी दुनिया मर गई है.
मगर संदल से भी ज्यादा जो ध्यान खींचती है वह उसकी दादी है. दादी जो दूसरी सुबह उसे एक खून और आँसू की नदी के बीच से उठाकर अपने पैत्रिक गाँव ले आती है. फ़िर कभी अपने बेटे के पास न लौटाने के लिए, न लौटने के लिए. वही संदल को जीवन दान देती है. हॉस्टल में रखवा कर उसे पढ़ाती है. वह माँ है मगर एक सच्ची माँ है जो अपने बेटे के कुकर्म पर पर्दा नहीं डालती है, वरन घर की दीवार पर से अपने बेटे की सारी तस्वीरें हटवा देती है. अपने जीवन से भी सदा के लिए अपने बेटे को निकाल बाहर करती है. मरते हुए बेटे को देखने नहीं जाती है और तो और बेटे को अपनी चिता में अग्नि देने से भी मना कर देती है. “वह एक सच्ची माँ थी, तभी इतनी कठोर बन सकी.” पढ़ते हुए महाभारत की माँ गांधारी की याद आती है. महाभारत युद्ध के अट्ठारहों दिन दुर्योधन युद्ध के लिए निकलने से पहले युद्ध के लिए तैयार होकर सुबह-सुबह अपनी माँ गांधारी का आशीर्वाद लेने आता है और गांधारी कभी उसे इन अवसरों पर प्रचलित आशीर्वाद “जयी भव” नहीं कहती है. वह युद्ध के लिए जाते अपने बेटे से प्रतिदिन कहती है, “यतो धर्म: ततो जय:” जहाँ धर्म है वहाँ विजय हो. क्योंकि उसे अपने बेटे की सच्चाई ज्ञात है. “पापा मर चुके हैं” की दादी माँ एक ऐसी ही माँ है जिसे अपने बेटे की सच्चाई मालूम है. जो हो चुका है उसे वह अनकिया तो नहीं कर सकती है मगर जो उसके वश में है वह सब वह निर्भीकता के साथ करती है.

बेटे के वियोग में रोती कलपती “बंधन” की माँ है, जिसका बेटा एक छोटी-सी बात पर रूठ कर घर से चला गया है. जो सपूती होते हुए भी निपूती के कष्ट सह रही है. बेटे के जाते ही जिसका सब कुछ उसके अपने देवर ने ही लूट लिया है. देवरानी जिसके मरने की राह देख रही है ताकि एक मात्र टूटी-फ़ूटी झोपड़ी भी हथियाई जा सके. इसी बंधन में बेटे सतरू के संग खेलने वाली डाकिए की बेटी मानू है जो बाहर दालान में बैठ कर रोए जा रही है. काश! सतरू के मरने की खबर की चिट्ठी उसने भी पाँच साल पहले देख ली होती. उसे पता ही नहीं है कि उसका आँचर किसके दु:ख में भींग रहा है. उसका मन आज भी उसे छल रहा है. जिस दिन बेटे के मरने की पाँच साल पुरानी खबर रामरति को मिलती है वह बेटे के पास चल देती है. कौन किसके बंधन से बँधा है, कौन किस बंधन से छूट गया है, कहानी पढ़ कर ही जाना जा सकता है.

“शनिचरी” की शनिचरी भी माँ है. वह भी एक या दो बच्चों की नहीं पूरे सात बच्चों की माँ है. पैंतीस वर्ष की शनिचरी को उसकी पचास साल की मालकिन बुढ़िया कह कर संबोधित करती है. जयश्री राय को गरीबी और गरीबों का चित्रण करने में महारत हासिल है. एक उदाहरण काफ़ी होगा, “जला तवा-सा रंग, बित्ता भर धंसी हुई कोटरगत आँखें, चमड़ी फ़ाड़ कर निकल आने को उद्धत हड्डियाँ, टूटे हुए भगोने से मुड़े-तुड़े गाल...अभाव, अवहेलना ने जहाँ जो सुंदर था, निचोड़ कर रख दिया हो जैसे.’ इन कहानियों में तरह-तरह के रंग और भाव सहजता पिरोए से नजर आते हैं. प्रेम के विभिन्न रंग तो हैं ही विरह, वीभत्स, घृणा, करुणा, सहानुभूति भी यत्र-तत्र नजर आती है.
भूख, थकान गर्मी से बेहाल शनिचरी अपनी बेटी का खेलना कूदना सहन नहीं कर पाती है और उसे धुन कर रख देती है. पति है उसका वह भी गरीबी और बेबसी का मारा है. पुरुष है सो नशे में अपना गम गलत करता है. गरीबी ने उसे तोड़ दिया है. उसका कोई आत्मसम्मान नहीं है. वह आत्म नकार की हद पार कर चुक है. इसीलिए जब रतनबाबू और इंस्पेक्टर के सामने मारपीट कर उसपर अपनी पत्नी की आत्महत्या का अभियोग लगा कर पुलिस की जीप में ठूंस दिया जाता है तब वह बड़े भक्तिभाव से रतन बाबू को प्रणाम करता है. बिना कुछ जाने समझे सुग्गे सा सर हिलाए जाता है. ताड़ी से सुन्न, लात जूतों से बेहाल उसे पता ही नहीं है कि वह किस अपराध की माफ़ी मांग रह है. गरीबी हद से गुजर जाए तो शून्यता पैदा कर देती है आदमी असंवेदनहीन हो जाता है. कहानी पढ़ कर प्रेमचन्द का स्मरण हो आना कोई आश्चर्य नहीं है. इस कहानी का अंत तनिक नाटकीय हो गया है. मानो जबरदस्ती जोड़ा गया हो. इसी तरह “आदमी का बच्चा” में कुछ अंश कहानी के छिटके हुए हैं वे कथानक से मेल नहीं खाते हैं. लगता है कहानीकार जबरदस्ती खींचतान कर समाजविज्ञान और राजनीतिशास्त्र को कहानी में लाने का प्रयास कर रहा हो.

“आदमी का बच्चा” की लालमती भी माँ है. एक ऐसी जमलूम माँ जिसके पहले बच्चे को कुत्ते खा गए क्योंकि वह उसे सुला कर कचरा बीनते हुए जरा दूर निकल गई थी. एक एक कार्के जिससे बच्चे भूख से मर रहे हैं जिन्हें वह झूठे आश्वासन दे रही है कि जल्दी से मर जा. भगवान के घर खूब अनार फ़लते हैं. बेटे को मर कर अनार मिलेगा या नहीं पता नहीं हाँ मर कर बेटा इन लोगों के लिए जरूर भरपेट पूरी तरकारी का इंतजाम कर जाता है. इसी पूरी तरकारी की आशा में ये लोग अगले बच्चे के मरने का इंतजार कर रहे हैं. समाज की दयालुता जिन्दों के साथ हो या न हो मरे हुओं के साथ अवश्य होती है प्रेमचन्द इसे पहले ही दिखा गए हैं.

अनकही में मेहनत मजदूरी करके, कचड़ा बीन कर परिवार पालने वाली माँएं हैं. यहाँ स्त्री का पत्नी रूप भी अपनी संपूर्णता के साथ उपस्थित है. पत्नी जो पति, बच्चों और घर में अपनी संपूर्णता मानती जानती है. “गुलमोहर” की अपराजिता एक ऐसी ही स्त्री है. एक ऐसी ही पत्नी है. अपराजिता के पास प्रेम करने वाला पति प्रबीर है, दो फ़ूल से बच्चे हैं. कोई आर्थिक मजबूरी भी नहीं है. पति अच्छा भला कमाता है. जब तब काम के सिलसिले में विदेश के दौरे पर रहता है. सब कुछ मजे में चल रहा है मगर एक दिन कैंसर उसके शरीर और जीवन पर छा जाता है. उसे ब्रेस्ट कैंसर होता है. इलाज के सिलसिले में अपराजिता को दूसरे शहर में रहना होता है, जहाँ शुरु में पति बराबर बच्चों सहित मिलने आता है. मगर कब तक? “वह रुक गई थी तो का उसके साथ दुनिया भी रुक जाएगी...!”

वह अकेली बीमारी और अकेलेपन से जूझ रही है. अपनों का साथ हो तो इंसान हर विपदा का सामना कर लेता है. मगर यहाँ पति और बच्चे सब दूर होते जा रहे हैं बच्चों को विभा ऑटी के बनाए पित्जा ज्यादा अच्छे लगते हैं. वे उसके लाए खिलौनों की प्रशंसा करते हैं. बीमारी, इलाज, अस्पताल, दर्द तो सहा जा सकता है मगर अपनों की उपेक्षा कैसे सही जाए? अपरजिता टूटने लगती है, ऐसे कठिन समय में डा. विवेक का सानिध्य और संवेदना उसे थोड़ी-सी राहत पहुँचाते हैं. मगर वह एक अनुभवी स्त्री है, उसे इस रिश्ते की वायविता ज्ञात है. फ़िर भी उसका मन इसमें भरमा रहता है. मृत्यु के समय भी उसे डॉ. विवेक के शब्द सुनाई पड़ते हैं. अंत निकट होने की सूचना पाकर विदेश से भाई-भाभी आ जाते हैं. मगर प्रबीर नहीं पहुँचता है, जिसका उसे इंतजार है. जिसकी घर-गिरहस्ती के लिए उसने अपनी रिसर्च और जॉब छोड़ दी थी. यह कहानी कैंसर के मरीज की दशा, इलाज के दौरान होने वाली स्थितियों, तकलीफ़ों से पाठक को रूबरू कराती है. संयोग से इस बीच कैंसर पर आधारित कई कहानियों से गुजरने का अवसर मिला. हिन्दी के चर्चित कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा की तीन कहानियाँ - अपराध बोध का प्रेत, कैंसर, रेत का घरौंदा – कैंसर पर आधारित हैं. तेजेन्द्र की पहली पत्नी इन्दु ब्रेस्ट कैंसर से गुजरी थीं. इसके अलावा कई विदेशी लेखकों ने भी इस रोग को आधार बना कर बेहतरीन कहानियाँ लिखी हैं, जिनसे गुजरने क मौका मिला है, एक लाइलाज बीमारी मगर अपनों का संग साथ मिले तो झेलने में तनिक राहत मिलती है. अंत पता है मगर अपनों की गोद में अपनों के बीच मरना और अस्पताल में अपनों को देखने की आस लिए मरना दोनों में बहुत फ़र्क है. दूसरी तरह की मत्यु की त्रासद स्थिति को “गुलमोहर” में बहुत संवेदनशीलता और धैर्य के साथ प्रस्तुत किया गया है. भूमिका से ज्ञात होता है कि स्वयं जयश्री राय इस बीमारी से जूझ चुकी हैं और शायद अब भी जूझ रही हैं क्योंकि कैंसर नाम ही काफ़ी है भयभीत करने के लिए. सकारात्मक सोच और सकारात्माक रिश्ते इसे सहन करने में सहायता देते हैं यह मैंने भी देखा है.

यहाँ “पिंजरा” की सुजा है जो दिन भर घर का काम करके खुद को बहलाए रखती है ताकि व्यस्त बनी रहे और पति की उपेक्षा का दंश भुलाए रखे. पति गौने के बाद जुम्मा जुम्मा आठ दिन ही घर में बँधा रहा. सुजा को जल्द ही पता चल गया है कि पति का पड़ोस के गाँव की किसी बंजारन से टाँका भिड़ा हुआ है. मगर वह तो कैद है. कहाँ जाए, क्या करे? उसकी जवानी पति के इंतजार में ख्वार हो रही है. पति घर लौटता है तो नशे में चूर. पत्नी के जोबन का सारा सार सरंजाम धरा का धरा रह जाता है. कोढ़ में खाज उसी घर में देवर देवरानी रास रचाते रहते हैं और वह पानी पी पीकर अपनी शारीरिक माँग को ठंडा करती रहती है. यही सुजा जब एक दिन अपने घर में पिंजड़े में बंद तोते को मुक्त कर देती है तो उसे लगता है मानो उसने स्वयं को मुक्त कर लिया है. कंधों पर दो उजले पंख जैसे अनायास उग आते हैं. मगर यह तिलस्मी क्षण कुछ पल ही रह पाता है.

अनकही में दूसरी औरत भी है जिसे बखूबी मालूम है कि वह जिस पुरुष से संबंध रखे हुए है वह शादीशुदा है और वह कभी अपने घर परिवार को नहीं छोड़ेगा. सब जानते समझते हुए भी वह नाटक किए जाती है. नाटक तो पुरुष भी कर रहा है. मगर यह नाटक स्त्री पर भारी पड़ता है. नाटक करते करते वह टूटने लगी है. मगर दिल के हाथों मजबूर है. फ़ोन पर प्रेम-मनुहार की दिखावटी बातों की लत उसे लग चुकी है हालांकि यह बहुत थकाने वाला है. मगर चालीस साल की प्रौढ़ा को किशोरी की तरह ठुनकना अच्छा लगता है. दोनों प्रेम का खेल खेलते हैं. एक दूसरे से कसमें-वादे करते हैं. इसमें बहुत ऊर्जा खर्च होती है, आदमी निचुड़ कर रह जाता है. इस रिश्ते का कोई आधार नहीं है, समाज की गवाही-स्वीकृति नहीं है. मगर वे खेले चले जा रहे हैं. दोनों एक दूसरे की विवशता को जानते समझते हैं. पचासों बार ये झूठ ये छलावे दोहराए जाते हैं. दोनों रटे रटाए डॉयलॉग बोलते रहते हैं. यथार्थ से वाकिफ़ हैं मगर भुलावे में रहने का खेल खेलते रहते हैं.
इन कहानियों में स्त्री विमर्श उभरता है. नारी की व्यथा कथा बयान करती ये कहानियाँ दिखाती हैं कि स्त्री की कंडिशनिंग कुछ ऐसी होती है कि मरखप कर घर के पेट की चिंता करने वाली स्त्री अपनी चिंता नहीं करती है. चुपचाप काँपते हुए पति की मार खाकर उसकी मर्दागनी को मजबूत करती है. “आदमी का बच्चा” का रामधारी “रात के अंधेरे में उसे रौंद कर ही शांत नहीं होता, दिन के उजाले में भी मौका-बेमौका उसे धांसता रहता है...वह भले ही कमजोर हो – सबसे कमजोर हो, मगर अपनी पत्नी से हमेशा ताकतवर है...जब वह उसकी कुटाई करता है और वह उसके सामने खड़ी थरथर काँपती है, उसे बड़ा अच्छा लगता है.” इसी तरह शनिचरी का पति मंगरा की दिनचर्या है, “दारू पीकर पड़े रहना, बच्चों की पिटाई करना या समय-असमय अपनी लस्त-पस्त पत्नी को रौंदना.” वंचित तबके पर भी पुरुष सत्ता हावी है.

ये स्त्रियाँ जूझ रहीं हैं, मर जाती हैं पर टूटती नहीं हैं. ईर्ष्या-द्वेष के बावजूद मानवीयता जिंदा है. ये समाज की नंगी तस्वीर दिखाने के साथ-साथ परिवार के जुड़ाव की कहानियां हैं. जहाँ शहर का अकेलापन है जिसके बदनाम मुहल्ले में अपना घर खोजता “अकेला” आदमी है. प्रदूषण से परेशान “धूप का टुकड़ा” पाने को तरसते लोग हैं. ’औरत जो नदी है” जिसकी थाह पाना सरल नहीं है. जहाँ नारी बार-बार संपूर्णता में स्वयं को देना चाहती है, मगर हर बार उसे लौटा दिया जाता है. संग्रह को पढ़ कर मन में एक टीस उठती है कि प्रेम इतना दु:ख क्यों देता है? और अगर इतना दु:ख देता है तो लोग प्रेम क्यों करते हैं? पर कितना बेमानी और बेतुका है यह प्रश्न. क्या जानबूझ कर प्रेम किया जाता है. क्या माँ या स्त्री अपने बच्चों और परिवार को प्रेम करना मात्र इसलिए छोड़ दे क्योंकि प्रेम दु:ख देता है? प्रेम तो बस होता है और आगे भी बस होता रहेगा और दु:ख भी देता रहेगा.

समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी जयश्री राय के प्रोफ़ेसर भी रहे हैं और दोस्त भी. उस नाते उन्होंने कहानियाँ पहले देखीं. भूमिका में वे कहते हैं कि इन कहानियों को देखकर वे विस्मित हैं. उन्होंने सही कहा है ये अनकही बिल्कुल नहीं हैं – सलीके से कही गई और बड़े ढब से आप तक पहुँचने वाली सीधी-सच्ची कहानियाँ हैं. इनमें नारी-जीवन की त्रासदी है. स्त्री-पुरुष संबंधों को एक खास तरीके से निबेरती हैं ये कहानियाँ. ये कहानियाँ विश्वास जगाती हैं, अपेक्षाएँ उत्पन्न करती हैं. भविष्य में जयश्री राय से और बेहतर कहानियों की माँग पाठकों को रहेगी. उनके अनुसार अभी उनका श्रेष्ठ आना बाकी है. पाठकों को इन श्रेष्ठ कहानियों का इंतजार है.
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पुस्तक : अनकही
(कहानी-संग्रह)
कहानीकार : जयश्री राय
प्रकाशक : शिल्पायन, दिल्ली ११० ०३२
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Thursday 9 June 2011

सुषम बेदी: चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे

सुषम बेदी की ‘अन्यथा’ में प्रकाशित कहानी ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’ डोरा जानसन के मन में चल रही बातों को दिखाती है। डोरा न्यूयॉर्क की एक यूनिवर्सिटी में एंथ्रोपोलॉजी पढ़ाती है। वह एक “उदारमना, संवेदनशील और लिबरल किस्म की महिला थी जो मानव अधिकारों के कई मुद्दों के लिए लड़ चुकी थी। इसी सिलसिले में वह अफ़्रीका और भारत पाकिस्तान की यात्रा भी कर चुकी थी। यूं भी भारत पाकिस्तान जैसे देशों से उसका एक तरह से पुश्तैनी संबंध था।” वह न केवल पढ़ाती है वरन पढ़े-पढ़ाए हुए को जीना भी चाहती है। उसे लगता है, “उसे इंसानियत के बारे में सिर्फ़ पढ़ाना और लिखना ही नहीं, कुछ करने की भी जरूरत है।”

उसकी यूनिवर्सिटी का कैम्पस एक ऊँचे भू-भाग पर बसा है। “जैसा कि अक्सर शहरों में होता है अमीरों की बस्ती के आसपास ही झुग्गी झोपड़ियों का इकट्ठा होना शुरु हो जाता है। न्यूयॉर्क के इस हिस्से का विकास इस नजरिए से काफ़ी दिलचस्प और कुछ अपने ढ़ंग का ही है जिसमें हारलम और अभिजात वर्ग का एक उच्चतम शिक्षण संस्थान, दोनों की ही सीमाएँ शामिल हैं, दोनों ही एक साथ फ़ूलते फ़लते हैं।” निचले भू-भाग पर गरीबों अर्थात कालों की बस्ती है। दोनों रिहाइशों के बीच एक पार्क है। पार्क में जगह-जगह पर बनी सीढ़ियाँ ऊपर-नीचे आने-जाने के काम आती हैं। अधिकाँश अमीरों के मन में काले लोगों के प्रति अविश्वास है। उन्हें लगता है कि ये लोग चोर उचक्के हैं और मौका लगते ही छिनतई करते हैं, जरूरत पड़ने पर हत्या भी कर सकते हैं। जब-जब कोई अप्रिय घटना घटती है, कैम्पस में प्रमुख स्थानों और दरवाजों पर सावधान की नोटिस लग जाती है। सब खूब चौकन्ने हो जाते हैं। कुछ दिन पहले एक प्रोफ़ेसर का बटुआ छिन गया था तो ऐसी ही सूचना चिपकी थी।

जातीय श्रेष्ठता का नतीजा हम द्वितीय विश्वयुद्ध में देख-भोग चुके हैं। स्वयं को उच्च और दूसरों को निम्न और हेय मानने की प्रवृति आज भी कायम है। डोरा की बिल्डिंग में ही एक भारतीय महिला पद्मा रहती है। वह उच्च शिक्षा प्राप्त है और बॉयलॉजी पढ़ाती है। वह स्वयं को “गोरों जैसा ही समझती थी। उन्हीं से मिलती जुलती थी और खुद को उन्हीं के साथ जोड़ कर देखती थी।” और तो और गोरों का अपनापन हासिल करने क्रे लिए कालों के खिलाफ़ हो जाती। काले लोगों के प्रति उसके विचार में “इनका न तो कोई ठौर ठिकाना होता है, न कोई वैल्यूज। मां बाप खुद ड्रग्स और शराब में पड़े रहते हैं तो बच्चों को क्या सिखाएँगे।” पद्मा खुद सांवली है पर खुद को कालों से बहुत श्रेष्ठ समझती है। लेखिका ने दिखाया है कि प्रवासी भारतीय कई बार अपनों से मिलने में, उनसे संबंध रखने में हीनता मानता है और उनसे दूर रहने, खुद को उनसे श्रेष्ठ मानने दिखाने की चेष्टा करता है। अपनी हीन भावना छिपाने के लिए वह उन्हें पहचानने से इंकार करता है, गाहे बेगाहे उन्हें नीचा दिखाने से भी बाज नहीं आता है।

एक दिन डोरा ने स्टोर से काफ़ी खरीददारी कर ली तो सामान उठाने के लिए उसे वहीं से एक काला लड़का मिल गया। चढ़ाई चढ़ते हुए रास्ते में वह उससे बातें करने लगी। वह लड़का उसे काफ़ी मेधावी और मेहनती लगा। बातचीत में पता चला कि वह पढ़-लिख कर आगे बढ़ कर अपनी गरीब स्थिति सुधारना चाहता है। डोरा मानवता के नाते उसकी सहायता करना चाहती है। अपने घर की साप्ताहिक साफ़-सफ़ाई के लिए उसे काम देती है। वह खूब मेहनत और ईमानदारी से काम करता है। लेकिन पद्मा जैसे लोग यह सहन नहीं कर पाते हैं। उनके मन में भय है। पद्मा पहले डोरा को समझाती है, बाद में सोसायटी में शिकायत करती है। नतीजा होता है कि उस लड़के का कैम्पस में आना बंद कर दिया जाता है। डोरा को नोटिस मिलती है, “इमारत के रेजीडेंट्स की सुरक्षा हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। किसी अनजान व्यक्ति को इमारत में घुसने देना विपत्ति को आमंत्रित करना है। ऐसे किस्से आम देखे गए हैं कि किसी बहाने से अनपहचाने लोग इमारत के अंदर आ जाते हैं और रहने वालों की सुरक्षा पर सवाल लग जाता है। आपसे निवेदन किया जाता है कि आगे से किसी ऐसे व्यक्ति को इमारत में आने से रोकें।” उसकी शिकायत हो चुकी थी और फ़ैसला भी सुनाया जा चुका था।

इस घटना से वह बहुत आहत होती है, सोचती है, “या तो सिर्फ़ चट्टान के ऊपर रहा जा सकता था, या चट्टान के नीचे। क्या निचले वाले ऊपर के जीवन के भागी कभी नहीं होंगे! या ऊपर वाले चट्टान के नीचे बह रहे जीवन के?” वह सदा सोचती कि इस स्थिति का कुछ इलाज होना चाहिए। अपरिचय भय उत्पन्न करता है, एक बार परिचय हो जाए तो भय दूर हो जाता है, संवेदना जाग्रत होती है। किसी के प्रति असंवेदना होने के लिए उससे जान पहचान होना, उससे घुलना मिलना आवश्यक है। इसीलिए डोरा सोचती है, “डरते हैं लोग, जिनसे हमेशा हमले का खतरा रहता है, उनसे घुला मिला जाए, दोस्ती की जाए तो क्या फ़िर भी यही स्थिति रहेगी? अगर वे भी ऊँचे समाज की संपन्नता के भागीदार हो सकें तो क्यों नफ़रत करेंगे वे।” अभी सारे छोटे काम उनसे करवाए जाते हैं, “य़ूनिवर्सिती में भी सफ़ाई, सेक्योरिटी के सारे काम कालों ने ही संभाले हुए हैं...गोरे हों चाहे एशियाई, बढ़िया नौकरियाँ तो खुद हजम कर जाते हैं।” कहानीकार बौद्धिक जगत का कच्चा चिट्ठा खोलती है, “ सारी एकैडेमिक दुनिया में गंदगी फ़ैलाई हुई है। दूसरों का गला घोंट कर अपनी नौकरी पक्की करते हैं।” हम स्वार्थ के कारण कितने नीचे गिर जाते हैं, दूसरों का हक छीनने में कोई संकोच नहीं करते हैं।

डोरा की सोच भिन्न है। वह अन्याय को सहन नहीं करती है उसके विरुद्ध आवाज उठाती है। पूर्व में उसने ऐसा किया है, इस बार भी “वह खामोश नहीं बैठी रहेगी। कल ही यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट को खत लिखकर विरोध करेगी।”

सुषम बेदी ने जागरुकता जगाने वाली कहानी लिखी है आज जब हम मानव अधिकारों की बातें करते हैं तो इसे कार्य रूप में परिणत करने की भी आवश्यकता है। डोरा मात्र सिद्धांत में नहीं जीती है वह सिद्धांत को कार्यरूप में भी परिणत करती अहि तभी तो वह एक काले लड़के पर विश्वास करके उसे अपना काम सौंपती है और पद्मा जैसे लोगों की बेसिर पैर की बातों पर विश्वास नहीं करती है। कहानी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर गिरने के बाद लिखी गई है। अमेरिका की इस जुडवाँ इमारत पर हमला नफ़रत का फ़ल था। घृणा से घृणा फ़ैलती है। कहानी का परिवेश प्राकृतिक सुषमा से भरपूर है मगर मानवीय रिश्तों की खाई के कारण लोग इसका पूरा आनंद नहीं उठा पाते हैं। अभिजात वर्ग और निचली बस्ती के बीच का पार्क काले लोगों के खतरे से न भरा हो तो भी वहाँ अन्य खतरे हैं। यह पार्क नशीली दवा बेचने वालों का अड्डा है। पुलिस भी वहाँ जाने से घबराती थी। स्थान असुरक्षित है अत: यूनिवर्सिटी का प्रेसिडेंट इस इलाके को छोड़ कर शहर के एक सुरक्षित इलाके में रहता है। कहानी दिखाती है कि यूनिवर्सिटी वास्तुकला का श्रेष्ठ नमूना है, “ग्रीक वास्तुकला के नमूनों से होड़ करती यूनिवर्सिटी की इमारतें, जहाँ बहुत शांति से अध्ययन अध्यापन का कार्य संपन्न होता। यहाँ के विद्यार्थी और प्रोफ़ेसर देश में बड़े बड़े ओहदों पर नियुक्त होते, विश्व में नोबुल पुरस्कार विजेता होते, बड़े बड़े बिजनसों के अधिकारी, संचालक निर्देशक होते और सारे देश की बागडोर संभालने वालों में से होते।” मगर अपने आसपास के लोगों से मेलमिलाप नहीं रख पाते हैं। यह विडंबना है कि इतनी शिक्षा के बावजूद लोगों में मानवीय भावनाओं की कमी है। ये विद्वतजन मनुष्य को मनुष्य नहीं समझ पाते हैं और मात्र रंग के आधार पर लोगों से भेदभाव बरतते हैं।

लेखिका ने छोटी-छोटी घटनाओं और वार्तालाप के द्वारा कहानी बुनी है। आलोचक नामवर सिंह कहते हैं, “जब मैं सार्थकता की बात करता हूँ तो इसका यह अर्थ है कि कहानी हमारे जीवन की छोटी से छोटी घटना में भी अर्थ खोज लेती है या उसे अर्थ प्रदान कर देती है।” इस दृष्टि से ‘चट्टान के ऊप, चट्टान के नीचे’ एक सार्थक कहानी है।
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सुषम बेदी: चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे

सुषम बेदी की ‘अन्यथा’ में प्रकाशित कहानी ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’ डोरा जानसन के मन में चल रही बातों को दिखाती है। डोरा न्यूयॉर्क की एक यूनिवर्सिटी में एंथ्रोपोलॉजी पढ़ाती है। वह एक “उदारमना, संवेदनशील और लिबरल किस्म की महिला थी जो मानव अधिकारों के कई मुद्दों के लिए लड़ चुकी थी। इसी सिलसिले में वह अफ़्रीका और भारत पाकिस्तान की यात्रा भी कर चुकी थी। यूं भी भारत पाकिस्तान जैसे देशों से उसका एक तरह से पुश्तैनी संबंध था।” वह न केवल पढ़ाती है वरन पढ़े-पढ़ाए हुए को जीना भी चाहती है। उसे लगता है, “उसे इंसानियत के बारे में सिर्फ़ पढ़ाना और लिखना ही नहीं, कुछ करने की भी जरूरत है।”

उसकी यूनिवर्सिटी का कैम्पस एक ऊँचे भू-भाग पर बसा है। “जैसा कि अक्सर शहरों में होता है अमीरों की बस्ती के आसपास ही झुग्गी झोपड़ियों का इकट्ठा होना शुरु हो जाता है। न्यूयॉर्क के इस हिस्से का विकास इस नजरिए से काफ़ी दिलचस्प और कुछ अपने ढ़ंग का ही है जिसमें हारलम और अभिजात वर्ग का एक उच्चतम शिक्षण संस्थान, दोनों की ही सीमाएँ शामिल हैं, दोनों ही एक साथ फ़ूलते फ़लते हैं।” निचले भू-भाग पर गरीबों अर्थात कालों की बस्ती है। दोनों रिहाइशों के बीच एक पार्क है। पार्क में जगह-जगह पर बनी सीढ़ियाँ ऊपर-नीचे आने-जाने के काम आती हैं। अधिकाँश अमीरों के मन में काले लोगों के प्रति अविश्वास है। उन्हें लगता है कि ये लोग चोर उचक्के हैं और मौका लगते ही छिनतई करते हैं, जरूरत पड़ने पर हत्या भी कर सकते हैं। जब-जब कोई अप्रिय घटना घटती है, कैम्पस में प्रमुख स्थानों और दरवाजों पर सावधान की नोटिस लग जाती है। सब खूब चौकन्ने हो जाते हैं। कुछ दिन पहले एक प्रोफ़ेसर का बटुआ छिन गया था तो ऐसी ही सूचना चिपकी थी।

जातीय श्रेष्ठता का नतीजा हम द्वितीय विश्वयुद्ध में देख-भोग चुके हैं। स्वयं को उच्च और दूसरों को निम्न और हेय मानने की प्रवृति आज भी कायम है। डोरा की बिल्डिंग में ही एक भारतीय महिला पद्मा रहती है। वह उच्च शिक्षा प्राप्त है और बॉयलॉजी पढ़ाती है। वह स्वयं को “गोरों जैसा ही समझती थी। उन्हीं से मिलती जुलती थी और खुद को उन्हीं के साथ जोड़ कर देखती थी।” और तो और गोरों का अपनापन हासिल करने क्रे लिए कालों के खिलाफ़ हो जाती। काले लोगों के प्रति उसके विचार में “इनका न तो कोई ठौर ठिकाना होता है, न कोई वैल्यूज। मां बाप खुद ड्रग्स और शराब में पड़े रहते हैं तो बच्चों को क्या सिखाएँगे।” पद्मा खुद सांवली है पर खुद को कालों से बहुत श्रेष्ठ समझती है। लेखिका ने दिखाया है कि प्रवासी भारतीय कई बार अपनों से मिलने में, उनसे संबंध रखने में हीनता मानता है और उनसे दूर रहने, खुद को उनसे श्रेष्ठ मानने दिखाने की चेष्टा करता है। अपनी हीन भावना छिपाने के लिए वह उन्हें पहचानने से इंकार करता है, गाहे बेगाहे उन्हें नीचा दिखाने से भी बाज नहीं आता है।

एक दिन डोरा ने स्टोर से काफ़ी खरीददारी कर ली तो सामान उठाने के लिए उसे वहीं से एक काला लड़का मिल गया। चढ़ाई चढ़ते हुए रास्ते में वह उससे बातें करने लगी। वह लड़का उसे काफ़ी मेधावी और मेहनती लगा। बातचीत में पता चला कि वह पढ़-लिख कर आगे बढ़ कर अपनी गरीब स्थिति सुधारना चाहता है। डोरा मानवता के नाते उसकी सहायता करना चाहती है। अपने घर की साप्ताहिक साफ़-सफ़ाई के लिए उसे काम देती है। वह खूब मेहनत और ईमानदारी से काम करता है। लेकिन पद्मा जैसे लोग यह सहन नहीं कर पाते हैं। उनके मन में भय है। पद्मा पहले डोरा को समझाती है, बाद में सोसायटी में शिकायत करती है। नतीजा होता है कि उस लड़के का कैम्पस में आना बंद कर दिया जाता है। डोरा को नोटिस मिलती है, “इमारत के रेजीडेंट्स की सुरक्षा हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। किसी अनजान व्यक्ति को इमारत में घुसने देना विपत्ति को आमंत्रित करना है। ऐसे किस्से आम देखे गए हैं कि किसी बहाने से अनपहचाने लोग इमारत के अंदर आ जाते हैं और रहने वालों की सुरक्षा पर सवाल लग जाता है। आपसे निवेदन किया जाता है कि आगे से किसी ऐसे व्यक्ति को इमारत में आने से रोकें।” उसकी शिकायत हो चुकी थी और फ़ैसला भी सुनाया जा चुका था।

इस घटना से वह बहुत आहत होती है, सोचती है, “या तो सिर्फ़ चट्टान के ऊपर रहा जा सकता था, या चट्टान के नीचे। क्या निचले वाले ऊपर के जीवन के भागी कभी नहीं होंगे! या ऊपर वाले चट्टान के नीचे बह रहे जीवन के?” वह सदा सोचती कि इस स्थिति का कुछ इलाज होना चाहिए। अपरिचय भय उत्पन्न करता है, एक बार परिचय हो जाए तो भय दूर हो जाता है, संवेदना जाग्रत होती है। किसी के प्रति असंवेदना होने के लिए उससे जान पहचान होना, उससे घुलना मिलना आवश्यक है। इसीलिए डोरा सोचती है, “डरते हैं लोग, जिनसे हमेशा हमले का खतरा रहता है, उनसे घुला मिला जाए, दोस्ती की जाए तो क्या फ़िर भी यही स्थिति रहेगी? अगर वे भी ऊँचे समाज की संपन्नता के भागीदार हो सकें तो क्यों नफ़रत करेंगे वे।” अभी सारे छोटे काम उनसे करवाए जाते हैं, “य़ूनिवर्सिती में भी सफ़ाई, सेक्योरिटी के सारे काम कालों ने ही संभाले हुए हैं...गोरे हों चाहे एशियाई, बढ़िया नौकरियाँ तो खुद हजम कर जाते हैं।” कहानीकार बौद्धिक जगत का कच्चा चिट्ठा खोलती है, “ सारी एकैडेमिक दुनिया में गंदगी फ़ैलाई हुई है। दूसरों का गला घोंट कर अपनी नौकरी पक्की करते हैं।” हम स्वार्थ के कारण कितने नीचे गिर जाते हैं, दूसरों का हक छीनने में कोई संकोच नहीं करते हैं।

डोरा की सोच भिन्न है। वह अन्याय को सहन नहीं करती है उसके विरुद्ध आवाज उठाती है। पूर्व में उसने ऐसा किया है, इस बार भी “वह खामोश नहीं बैठी रहेगी। कल ही यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट को खत लिखकर विरोध करेगी।”

सुषम बेदी ने जागरुकता जगाने वाली कहानी लिखी है आज जब हम मानव अधिकारों की बातें करते हैं तो इसे कार्य रूप में परिणत करने की भी आवश्यकता है। डोरा मात्र सिद्धांत में नहीं जीती है वह सिद्धांत को कार्यरूप में भी परिणत करती अहि तभी तो वह एक काले लड़के पर विश्वास करके उसे अपना काम सौंपती है और पद्मा जैसे लोगों की बेसिर पैर की बातों पर विश्वास नहीं करती है। कहानी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर गिरने के बाद लिखी गई है। अमेरिका की इस जुडवाँ इमारत पर हमला नफ़रत का फ़ल था। घृणा से घृणा फ़ैलती है। कहानी का परिवेश प्राकृतिक सुषमा से भरपूर है मगर मानवीय रिश्तों की खाई के कारण लोग इसका पूरा आनंद नहीं उठा पाते हैं। अभिजात वर्ग और निचली बस्ती के बीच का पार्क काले लोगों के खतरे से न भरा हो तो भी वहाँ अन्य खतरे हैं। यह पार्क नशीली दवा बेचने वालों का अड्डा है। पुलिस भी वहाँ जाने से घबराती थी। स्थान असुरक्षित है अत: यूनिवर्सिटी का प्रेसिडेंट इस इलाके को छोड़ कर शहर के एक सुरक्षित इलाके में रहता है। कहानी दिखाती है कि यूनिवर्सिटी वास्तुकला का श्रेष्ठ नमूना है, “ग्रीक वास्तुकला के नमूनों से होड़ करती यूनिवर्सिटी की इमारतें, जहाँ बहुत शांति से अध्ययन अध्यापन का कार्य संपन्न होता। यहाँ के विद्यार्थी और प्रोफ़ेसर देश में बड़े बड़े ओहदों पर नियुक्त होते, विश्व में नोबुल पुरस्कार विजेता होते, बड़े बड़े बिजनसों के अधिकारी, संचालक निर्देशक होते और सारे देश की बागडोर संभालने वालों में से होते।” मगर अपने आसपास के लोगों से मेलमिलाप नहीं रख पाते हैं। यह विडंबना है कि इतनी शिक्षा के बावजूद लोगों में मानवीय भावनाओं की कमी है। ये विद्वतजन मनुष्य को मनुष्य नहीं समझ पाते हैं और मात्र रंग के आधार पर लोगों से भेदभाव बरतते हैं।

लेखिका ने छोटी-छोटी घटनाओं और वार्तालाप के द्वारा कहानी बुनी है। आलोचक नामवर सिंह कहते हैं, “जब मैं सार्थकता की बात करता हूँ तो इसका यह अर्थ है कि कहानी हमारे जीवन की छोटी से छोटी घटना में भी अर्थ खोज लेती है या उसे अर्थ प्रदान कर देती है।” इस दृष्टि से ‘चट्टान के ऊप, चट्टान के नीचे’ एक सार्थक कहानी है।
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