Tuesday 24 May 2011

मैकलुस्कीगंज: विलुप्त होती संस्कृति का सागा

मैकलुस्कीगंज एक अनूठा उपन्यास है. अनूठा इस अर्थ में कि यह हिन्दी का पहला उपन्यास है जो एंग्लो इंडियन समाज की कथा कहता है. सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा पर्यावरण की समृद्धि का दस्तावेज. यह स्थानीय एवं सार्वदेशीय समस्याओं से पाठकों को रू-ब-रू कराता है, समाधान की ओर भी इंगित करता है. इंगित करता है कि जमीन, जंगल का संरक्षण किसी एक व्यक्ति की नहीं वरन सामूहिक जिम्मेदारी है.

मैकलुस्कीगंज को झारखंड (पहले के बिहार) के इस भूभाग में इस समुदाय के रहने के लिए विशेष रूप से बसाया गया एक गाँव है जिसे पिछली सदी के तीसरे दशक में यत्नपूर्वक एक खास मकसद के साथ अर्नेस्ट टिमोथी मैकलुस्की ने राँची और पलामू के बीच बसाया था. मगर बीस बाइस साल में ही जो उजड़ने लगता है, ’घोस्ट टाउन’ में बदलने लगता है. गाँव जहाँ हृषिकेश सुलभ के शब्दों में एक-एक साँस के लिए संघर्ष करना पड़ता है. अस्मिता और रोजगार का गहन संबंध है जो बिना संघर्ष के प्राप्त नहीं होता है. यह इसी संघर्ष - स्थानीय तथा बाहर से आकर बसे लोगों के साझा संघर्ष - की गाथा है.

क्षेत्र के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं लेखक विकास कुमार झा. एंग्लो इंडियन समुदाय और आदिवासी समाज के इतिहास को खंगालता यह कथावृत दोनों समुदायों के प्रमुख व्यक्तियों को रेखांकित करता है. रक्त, वीर्य और स्वेद से सम्मिलन से बना ‘गंज’ यूटोपिया नहीं है. जब-जब लेखक कल्पना की उड़ान भरने लगता है, यथार्थ उसे जमीन पर ला पटकता है. इस क्षेत्र में राजनीति के अपराधीकरण (विकास की चर्चित पुस्तक का नाम ही है ‘बिहार राजनीति का अपराधीकरण), मशरूम की तरह उगे और अमरलता की तरह फ़ैलते-बढ़ते, नागफ़नी की तरह काँटेदार एम सी सी को भी लेखक इशारे में ही सही पर समेटता है.

एक विस्तृत काल खंड को समेटे यह उपन्यास एक विशाल फ़लक पर रचा गया है. इसमें मानवीय मूल्यों, अनुभूतियों को प्रमुखता दी गई है. लेखक निरी भावुकता से भी बचता रहा है. डेनिस मेगावन के अनुसार गाँव का मतलब है इंडियननेस, देहातीपन और सादगी. यही सादगी इस उपन्यास की भी विशेषता है. आज एंग्लो-इंडियन समुदाय विलुप्ति के कगार पर है, यही हाल आज के झारखंड के आदिवासियों (अन्य स्थानों के आदिवासियों की भी कमोवेश यही स्थिति है) का है. यह समाप्तप्राय: कौम, विलुप्त होती संस्कृति और विनिष्ट होते पर्यावरण का संवेदनापूर्ण सागा है.

इस उपन्यास का महत्व एक अन्य कारण से भी बढ़ जाता है. सन १९११ में सरकारी तौर पर अंग्रेजों ने एंग्लो इंडियन समुदाय के रूप में इन लोगों को विधिवत मान्यता दी थी. इस तरह यह इनका शताब्दी वर्ष भी है. शताब्दी वर्ष में आए इस अनोखे उपन्यास, एंग्लो इंडियन के महाकाव्य का हिन्दी जगत में स्वागत है.

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