Sunday 28 August 2011

सेल: और विश करो

सेल: और विश करो

 
"लूट और समृद्धि का स्रोत सामाजिक संबंधों के मानवीय स्वरूप में नहीं, बिकाऊ माल या सिर्फ़ माल का दबदबा कायम करने वाले बाजार में है।"[1]   अजय तिवारी

आज दुनिया बाजारवाद की गिरफ़्त में है। हम चाहे इसकी जितनी आलोचना कर लें, इस तथ्य से आँख नहीं मूँद सकते हैं कि बाजार सब ओर छाया हुआ है। हम उसमें जीने के लिए शापित हैं। इसके जादू से बच पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। बाजार सदा से था मगर यह इतना अमानवीय कभी न था जितना कि आज है। आज यह मनुष्य-मनुष्य के बीच अलगाव पैदा करता है। मानवीया मूल्यों को निरस्त्र करता है। आज की सच्चाई यह कि जिसे हम संस्कृति के नाम पर जान रहे हैं, अपना रहे हैं वह असल में लोट-खसोट, मुनाफ़े, मतलब और अमानवीयता की संस्कृति है। सोचना होगा क्या इसे संस्कृति के नाम से अभिसिक्त किया जा सकता है? आज न केवल बाजार ने हमारे घर में अपनी पैठ बना ली है वरन वह हमारे रिश्तों में भी सेंध लगा रहा है। बाजारवाद मानवीय संवेदना को सोख रहा है।

अमेरिका में रह रही हिन्दी कहानीकार इला प्रसाद की एक छोटी-सी कहानी है 'सेल', मगर इसके निहितार्थ बड़े हैं। यह कहानी एक भारतीय प्रवासी स्त्री के अमेरिका में रहते हुए मानसिक ऊहापोह को स्पष्ट करती है। यह स्त्री अभी अमेरिकी रंग-ढंग में पूरी तरह से नहीं डूबी है। जब-तब उसके भारतीय मूल्य उसे निर्देशित करते रहते हैं, साथ ही उस पर अपने तत्कालीन समाज का दबाव भी है। उसके बच्चे जो वहीं पैदा हुए हैं, उसी समाज की उपज हैं, उन्हें वह अपने भारतीय मूल्य नहीं दे पा रही है। वह जानती है कि बच्चों को उसी समाज में रहना है अत: वह इस मामले में सजग है और नहीं चाहती है कि वे कुंठित जीवन प्रारंभ करें। मगर इस बात को लेकर भी उसके मन में बार-बार संशय उत्पन्न होता है। एक ओर उसके अपने संस्कार हैं, दूसरी ओर अमेरिकी जीवन शैली है। उसके संस्कार कहते हैं कि जितनी चादर हो उतना ही पैर फ़ैलाना चाहिए और अमेरिकी जीवन पद्धति कर्ज को सामान्य मानते हुए कर्ज से लदा हुआ है। वह अपने चारों ओर समृद्धि का साम्राज्य देखती है। उसे शुरु में असलियत का पता नहीं होता है। सुमि के घर होजे नामक जो व्यक्ति घास काटने आता है, सुमि को वह बहुत अमीर लगता है, वह सोचती है, "होजे इतनी बड़ी गाड़ी कैसे चलाता है। वह गाड़ी तो उसकी अपनी है। नई भी है। वह इतने बड़े घर में रहता है।"[2] तुलना नरक का द्वार है। सुमि इसी नरक में प्रवेश करती है। उसका मन तुरंत तुलना करता है, "सुमि का अपना घर तो उससे छोटा है।"[3] यह कैसे संभव है, इस बात को वह समझ नहीं पाती है। उसका पति रवीश उसे बताता है, "बस इतनी है कि तुम्हारा घर अपना है। कोई लोन नहीं है और वह अगले कई सालों तक लोन भरेगा।"

"घर का?"

"घर का, कार का, सब कुछ का। आम अमेरिकी गले तक कर्ज में डूबा हुआ होता है।"[4] अमेरिका में लोग शादियों के सूट तक भाड़े पर ले आते हैं। "लोग लोन लेकर पढ़ाई करते हैं। लोन में घर, कार और जरूरत की तमाम चीजें मसलन, सोफ़ा, पलंग, टी.वी. वगैरह खरीदते हैं। लोन लेते हैं शादी करने के लिए, बच्चे पैदा करने के लिए। फ़िर बच्चों के खर्चे। यों समझ लो एक अंतहीन सिलसिला, जो दिवालिया होकर सड़क पर आ जाने पर ही खतम होता है। सुमि इनके जैसा नहीं बनना चाहती।"[5] सुमि ऐसा सोचती है कि वह इन लोगों जैसा नहीं बनेगी पर सोचने की बात है कि क्या वह ऐसा कर पाती है? कहानी में हम आगे देखते हैं कि वह खुद को अमेरिकी जीवन पद्धति से नहीं बचा पाती है, भले ही इसके लिए वह अपनी बुद्धिमता का बहाना बनाय या फ़िर बच्चों का मन रखने की बात सोचे। अमेरिकी समाज उपभोक्तावाद का सर्वोत्तम उदाहरण है। सुमि अंतत: इसकी चपेट से नहीं बच पाती है।

बाजार उपभोक्ता को लुभाने के तरह-तरह के हथकंडे अपनाता है। कभी रंगीन, आकर्षक विज्ञापन तो कभी भारी छूट और तो और एक खरीदने पर एक मुफ़्त ले जाने का आकर्षक जाल। सड़क किनारे की होर्डिंग, टीवी, रेडियो, अखबार पटे पड़े होते हैं ऐसे विज्ञापनों से। और अब तो आपके मोबाइल पर हर पाँच मिनट पर कोई न कोई ऑफ़र हाजिर है। आदमी बच नहीं सकता है इन लुभावने-मनभावन खिंचावों से। 'सेल' कहानी का प्रारंभ भी कुछ इसी तरह से होता है। कहानी की शुरुआत एक सुबह सुमि के अखबार उलटने-पलटने से होती है। उनके इलाके में केवल वे ही लोग अखबार लेते हैं औसत अमेरिकी अखबार नहीं पढ़ता है। कोई आश्चर्य नहीं कि औसत अमेरिकी का सामान्य ज्ञान भारतीयों के अनुपात में बहुत कम होता है। सुमि भी अखबार को कचरा समझती है, जब टी.वी., इंटरनेट हैं ही खबरों के लिए तब अखबार में पैसे क्यों जाया किए जाएँ। भारत में भी जब मध्यम वर्ग के लोगों को पैसे बचाने होते हैं तो सबसे पहले तलवार अखबार पर ही गिरती है। और सच पूछो तो अखबार में क्या होता है सिवाय हत्या, लूटपाट और पेज थ्री की खबरों के और उसमें होते हैं अनावश्यक विज्ञापन। जब टीवी, मोबाइल पर सारी खबरें उपलब्ध हैं तो क्यों खरीदे कोई अखबार। मगर अखबार में कूपन होते हैं। न सही खबरों के लिए कूपन के लिए तो अखबार खरीदा ही जाएगा। सुमि भी इसीलिए अखबार देख रही है क्योंकि उसमें 'थैंक्स गिविंग सेल' के कूपन निकले हैं। वैसे "सच पूछो तो साल भर यहाँ साल सेल लगी रहती है। हर चीज की। मिट्टी से लेकार टेलीविजन तक, सब बिकाऊ है यहाँ। कभी-कभी सुमि को लगता है पूरा अमेरिका एक बहुत बड़ा बाजार है। हर चीज बिकाऊ है यहाँ और सेल पर है। फ़िफ़्टी परसेंट ऑफ़, सेवेंटी फ़ाइव परसेंट ऑफ़, बाई वन, गेट वन फ़्री।"[6]

आधुनिकता की एक विशेषता है लोग बहुत जल्दी ऊब जाते हैं और ऊब को दूर करने के लिए बाजार की ओर भागते हैं। सोचते हैं बाजार उनकी ऊब दूर करेगा, बाजार ऐसा आभास देता भी है। मगर वास्तविकता में वह और ज्यादा ऊब पैदा करता है। सुमि का पति रवीश बताता है, "यहाँ लोग बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। थोड़े-थोड़े समय पर नई चीजें खरीदते रहते हैं। पाँच साल में कार बदल ली। दस साल में घर।"[7] कहानी बताती है कि यह सुमि के अमेरिकी समाज में हो रहा है। असलियत यह है कि यह आज पूरी दुनिया में हो रहा है। भारत जैसा गरीब देश भी इसकी चपेट में है। मेरे अपने शहर में यह है। मेरा शहर एक औद्योगिक शहर है। यहाँ साल में एक बार दुर्गा पूजा (दशहरे) के समय कंपनियाँ अपने कर्मचारियों को बोनस बाँटती हैं। बोनस बाद में बँटता है बाजार को पहले हवा लग जाती है। नतीजन ग्राहकों को लुभाने की योजना अपना नंगा नाच दिखाने लगती है। बोनस बैंक या घर की बजाय बाजार की भेंट चढ़ जाता है। लोग जरूरत न हो तब भी खरीददारी करते जाते हैं।

सुमि के इस समाज में लोग नई चीजें खरीदते जाते हैं और पुरानी चीजों को गराज सेल लगा कर बेचते जाते हैं। हर व्यक्ति बाजार की चपेट में है और दूसरों को खुद बाजार बन कर उसकी चपेट में ला रहा है। बाजार और विज्ञापन का चोली दामन का साथ है। "सुमि को पता है। गराज सेल यानि अपने घर के गराज के बाहर दुकान लगा कर बैठ जाओ। पूरे सबडिवीजन में नुक्कड़ों पर, हो सके तो सबडिवीजन की बाहर खुलती मुख्य सड़क पर और तमाम मित्रों-परिचितों के बीच अग्रिम लिखित-अलिखित सूचना चिपका दो, बाँट दो।"[8] शुरु में सुमि को यह सब विचित्र लगता था मगर अब वह इन सबकी आदी हो गई है। अब सब सामान्य लगता है। यह दिखाता है कि वह अपने प्रवासी परिवेश में ढ़लने लगी है। आदमी बहुत देर तक अपने परिवेश से निरपेक्ष नहीं रह सकता है।

प्रारंभ में अमेरिकी जीवन सुमि को चकित करता था उसे वहाँ की हर बात जादू की तरह लगती थी। कूपन भर कर भेज दो और ढ़ेर सारी मुफ़्त की चीजें अनायास आपके पास आ जाती हैं। जरूरत की चीजों के साथ बहुत सारी गैर जरूरी वस्तुएँ भी। मुझे एक चीनी कहावत याद आ रही है, कहावत है कि एक दंपत्ति ने बाजार में एक छोटी सी मेज देखी उन्हें वह अच्छी लगी उन्हें उसकी जरूरत न थी उसके बिना भी उनका काम बखूबी चल रहा था। उन्होंने उसे खरीद लिया। घर ले आए, कुछ दिन बाद लगा इस पर एक मेजपोश होता तो कितना सुंदर लगता। जल्दी ही मेजपोश आ गया। फ़िर लगा कि इसके साथ कुर्सियाँ भी होती तो सेट पूरा हो जाता। दोनों बाजार गए और एक सेट कुर्सियाँ खरीद लाए। फ़िर उनपर कवर चढ़ा। कमरे में रखी खाट खटकने लगी। मेज-कुर्सी के साथ उसका मेल न था। खाट हटी वहाँ दीवान आ गया। खिड़कियों-दरवाजों के मैचिंग परदे लगे। दीवान पर गद्दा-चादर बिछा। अब सब कुछ नया था मगर दीवालों का रंग जम नहीं रहा था। नया रंग रोगन हुआ। इसी बीच एक साइड टेबल आ गई। अब कमरा छोटा लगने लगा। सो विचार बना कि क्यों न एक नया बड़ा घर खरीदा जाए। पति-पत्नी जो कुछ दिन पहले तक आराम से प्रेमपूर्वक जिस घर में रह रहे थे उसे बेचने और नए घर की तलाश में परेशान रहने लगे। और जब उन्होंने नया घर लिया तो... और इस तरह खरीददारी का सिलसिला न चाहते हुए भी बिना आवश्यकता के चलता रहता है।

हाँ तो हम लौटते हैं इला प्रसाद की सेल पर। वह कूपन भर-भर कर जरूरत बेजरूरत की चीजें जमा करती है। "ढ़ेर सारी अनाप-शनाप चीजें, जिनकी उसे बिलकुल जरूरत नहीं थी। बस, मुफ़्त में पाने का मजा! केवल लिपस्टिक, नेलपॉलिश वगैरह ही ढ़ेर सारे जमा करने पर भी बेकार नहीं होने वाले थे। जब वह भारत जाएगी तो अपने मित्रों-परिचितों को बाँट देगी।"[9] रिश्तेदार सोचेंगे कि कितने पैसे खर्च करके उनके लिए उपहार लाई है। उन्हें क्या पता मुफ़्त में जमा की हैं।

"नई विश्व-व्यवस्था में मंडीतंत्र ही मूल आधार है और सूचना-संचार की क्राँति ऊपरी ढ़ाँचा है।"[10] क्यों देते हैं बाजार वाले मुफ़्त का सामान? भला व्यापारी क्यों देने लगा मुफ़्त का सामान। वह अपने गोदाम का पुराना माल सधाता है। क्लियरेंस सेल के नाम पर और चस्का लगाता है अपने माल का जिसे बाद में वह मनचाहे दाम पर बेचता है। यदि कोई चीज पसंद आ गई तो बाद में सेल न होने पर भी लोग खरीदेंगे ही। आलोचक अजय तिवारी अपने निबंध 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और आधुनिकता' में कहते हैं, "उपभोक्तावाद बाजार का ऐसा संगठन है जहाँ हमारे उपभोग का स्वरूप हमारी आवश्यकताएँ नहीं, व्यावसायिक हित निर्धारित करते हैं। वस्तु (कमॉडिटी) हमारी मानवीयता को स्थानांतरित कर देती है और विच्छन्नताबोध (फ़्रैग्मेंटेशन) हमारी चेतना को।"[11]

और क्या होता है हमारी चेतना को इससे? इसे स्पष्ट करते हुए वे अपने इसी निबंध में बताते हैं, "मन में पहला प्रत्यय – कमॉडिटी – बाजारतंत्र से संबद्ध है और दूसरा – फ़्रैग्मेंटेशन – उत्तर-आधुनिकता से। दोनों एक- दूसरे के पूरक हैं और वे एक ही लक्ष्य पूरा करते हैं – हमें अचेतन बना कर 'उपभोक्ता' में बदलना।"[12] इसी का नतीजा है सुमि वही सीरियल खाती है जिसकी उसे लत पड़ गई है और सेल हो या न हो वही सीरियल खरीदती है चाहे जिस भी दाम में मिले।

वह अपने घर में छोटे टीवी पर प्रोग्राम्स देख कर खुश थी मगर उसकी बेटियाँ खुश नहीं थीं उन्हें पड़ोसी का ४२ इंच स्क्रीन का टीवी अच्छा लगता है, उस पर "हैरी पॉटर देखने में बड़ा मजा आया। हम भी वैसा खरीदेंगे। है न मॉम?"[13] सुमि नहीं चाहती है कि उसके बच्चे हीन भावना के शिकार हों अथवा रोज-रोज पड़ोसी के घर जा कर टीवी देखें। सो वह हथियार डालती हुई कहती है, "हाँ बेटे, अभी थैंक्सगिविंग की सेल है न। खरीदेंगे।"[14] बेटियों की आँख की चमक और उनका प्रेम से उसके गले में बाहें डालना सुमि को बहुत अच्छा लगता है। अब रिश्तों की गर्माहट चीजें तय करती हैं। आलोचक अजय तिवारी कहते हैं, "बढ़ता हुआ वस्तुमोह छीजती हुई मनुष्यता का स्त्रोत बन जाता है।"[15]

इस तरह सुमि बच्चों की खुशी का वास्ता देकर पति को सूचित करती है कि वह कल सुबह सेल में बदए स्क्रीन का टीवी खरीदने जा रही है। पति समझाने का प्रयास करता है, "तुम उन्हें समझाती क्यों नहीं? इस तरह तुलना करने की आदत पड़ गई तो कल को सब कुछ बड़ा चाहिए होगा इन्हें। बड़ा घर, बड़ी कार। और अपने सिर पर बड़ा लोन। यहाँ शिक्षा कितनी मँहगी है, जानती तो हो। इनकी पढ़ाई का खर्च जुटाना मुश्किल हो जाएगा।"[16] पति खीजा हुआ है। सवाल उठता है क्या बच्चियों को समझाने का काम केवल माँ का है? । "तुमुल नौ की होने को आई। तनुज छह की। इनके लिए जब वह कपड़े खरीदने जाती है और सेल के बावजूद उनकी ऊँची कीमत देख कर रुक जाती है, तब बहुत खलता है।

और बच्चों को कहाँ समझ है।

तनु को रोली की लेक्सस कार अच्छी लगती है।"[17] वह उसे समझाती है कि अपनी कोरोला भी तो अच्छी है। हम सब कितने आराम से बैठते हैं। इस पर बेटी की निगाहें स्पष्ट कर देती हैं कि माँ झूठ मत बोलो।

पहले सुमि सोचती थी कि वह इन सब चक्करों में नहीं पड़ेगी। "सुमि को नहीं चाहिए यह सब। न ही उसे चार बजे उठ कर लाइन में लगना है। न ही गैस स्टेशन से अखबार के कूपन जमा करने हैं। वह अपने छोटे से घर में, छोटे स्क्रीन का टीवी देखकर खुश है।"[18] पर क्या वह वास्तव में खुश है? क्योंकि अगला ही वाक्य उसकी मन:स्थिति को दिखाता है। वाक्य है, "लेकिन तब भी कुछ खलता है।"[19]

वह तो अपने मन को समझा ले पर  बच्चियों का क्या करे? "बेटियाँ बड़ी हो रही हैं

कहानी प्रवासी की परेशानियों को भी दर्शाती है। अमेरिका में लोगों की नौकरी में स्थायित्व नहीं होता है। न मालूम कब नौकरी से हाथ धोना पड़ जाए। और जब तक नौकरी रहती है गधे की तरह खटना पड़ता है। अमेरिका में भारत की तरह घरेलू कामों के लिए नौकर नहीं मिलते हैं सारा काम खुद ही करना होता है। पति-पत्नी दोनों नौकरी न कर रही हों तब भी पत्नी को चकरघिन्नी सा घूमते रहना होता है। सुमि और उसका पति रवीश भारतीय हैं अत: उन्होंने "जोड़-जोड़ कर इतना जुटा लिया है तो वह कम नहीं है। घर अपना, कार अपनी। सब कुछ तो है और सारे लोन चुक चुके हैं। इसके आगे चाहिए क्या।"[20] मगर क्या सुमि रुक सकी? नहीं उसकी खरीददारी नहीं रुकती है। अब वह अपने लिए नहीं बच्चों की आड़ में खरीददारी करती है। "अब बस इन दोनों की चिंता है। लेकिन इन बच्चों को कौन समझाए। अमेरिका की उपभोक्ता संस्कृति में पल-बढ़ रही उसकी बच्चियाँ रोज ही कुछ देख आती हैं, कुछ सुन आती हैं। अमेरिकी हो रही हैं ये, सुमि सोचती है, रोके तो कैसे! और रोकना मुनासिब है क्या! कहीं हीन भावना की शिकार न हो जाएँ उसकी बच्चियाँ। इतनी बड़ी भी नहीं हैं कि समझ सकें, इतनी बड़ी-बड़ी बातें सोच सकें उस तरह, जिस तरह सुमि सोचती है।"[21]

खैर सुमि पति को बताती है कि वह दुकान से खरीदने नहीं जा रही है सेल में लेने जा रही है। भले ही इसके लिए उसे आधी रात को उठ कर दुकान के सामने लाइन में लगना पड़े। पुराने टीवी का क्या करना है यह भी उसने सोच लिया है वह उसे बेड-रूम में ले लेगी। मतलब,अब बच्चे अलग टीवी देखेंगे और वे लोग अलग। परिवार का रहा-सहा सह-निवास का समय भी बँट जायेगा। माता-पिता और बच्चों के बीच दूरी बढ़ेगी। वे चूँकि पुराने छोटे टीवी का उपयोग कर्रेंगे और बच्चे नए और बड़े टीवी का अत: बच्चों के मन में यह विचार घर करना स्वाभाविक है कि माता-पिता पुराने विचारों के हैं वे बीते जमाने के लोग हैं, ये लोग शीघ्र ही पुराने जमाने की वस्तु में परिवर्तित हो जाएँगे। माता-पिता और बच्चों का मानसिक अलगाव यहीं से प्रारंभ हो जाएगा। आगे चलर जिसकी परिणति बच्चों द्वारा माता-पिता की उपेक्षा और उन्हें ओल्ड-एज होम में भेजने में होगी। मानवीय संबंध जिनकी दुहाई देकर सुमि चीजें खरीदना चाहती है वही मानवीय संबंधों के छीजने का कारण हैं।

"सुमि अखबार देख चुकी है। सीयर्स में सबसे पहले आने वाले पाँच ग्राहकों को बयालीस इंच स्क्रीन वाला टीवी ड़ेढ़ सौ डॉलर में मिलेगा। ड़ेढ़ सौ डॉलर तो वे खर्च कर ही सकते हैं।"[22] और सुमि नवंबर की ठंड की परवाह न करते हुए सुबह चार बजे से सीयर्स के सामने लाइन में लग कर टीवी खरीद लेती है। वह काँपती रहती है मगर लाइन छोड़ कर गर्म कॉफ़ी खरीदने भी नहीं जाती है। जिन बातों के लिए वह दूसरों पर तरस खाया करती थी उन्हीं बातों को जब वह खुद करती है तो जस्टीफ़ाई करती है, न्यायसंगत ठहराती है, "कोई बात नहीं। अभी सुबह हो जाएगी। इतना भी क्या सोचना। वह क्या रोज-रोज आने वाली है।"[23] जिस काम के लिए आदमी दूसरों की हँसी उड़ाता है, आलोचना करता है जब वही काम आदमी खुद करता है तो वह उस काम को जायज ठहराने के लिए दूसरों को तो गढ़-गढ़ कर तर्क देता ही है खुद को भी गढ़ कर तर्क देने लगता है। खुद को और दूसरों को सान्त्वना  देता है, सफ़ाई देता है।

लोग ठंड से बचने के लिए तरह-तरह के उपाय कर रहे हैं। किसी ने मफ़लर से कान-मुँह लपेटा हुआ है किसी ने मोटे कोट की जेब में हाथ डाले हुए हैं। कोई गर्म कॉफ़ी से सर्दी दूर भगा रहा है। कोई एक दूसरे से चिपक कर गर्माहट पाने की कोशिश कर रहा है। कॉफ़ी वालों की भी बन आई है। जहाँ सेल लगती है वहीं "सुबह पाँच बजे से कॉफ़ी और ऐसी ही नाश्ते की कई दुकानें खुल जाती हैं, इस सेल के मद्देनजर। उन दुकानों में काम करने वाले ओवरटाइम कमा लेते हैं। सबका फ़ायदा।

और जो इस तरह सेल लगाते हैं ये, उससे इनका अच्छा-खासा विज्ञापन भी तो होता है। उसे याद आया जब आइकिया फ़र्नीचर का शोरूम उसके शहर में खुला था तो उन लोगों ने पहले पाँच ग्राहकों को कुछ हजार के फ़र्नीचर मुफ़्त में देने की घोषणा की थी और लोग सप्ताह भर पहले से खुले में टेंट गाड़ कर बैठ गए थे।"[24] इन लोगों पर पहले सुमि तरस खाया करती थी और आज सुबह चार बजे से वह स्वयं सर्दी की परवाह न करते हुए लाइन में खड़ी है।

वह अपने मन को समझा रही है कि वह बहुत होशियार है और कम पैसे में थोड़ी-सी मुश्किल उठा कर इतना फ़ायदा उठा लाई है। काश ऐसा होता। मगर ऐसा नहीं हुआ है। वह "टीवी लेकर यों घर लौटी जैसे जंग जीत कर आई हो। बेटियाँ खुशी से नाच उठीं। रवीश भी मुस्कुराए। सुमि ने संतोष की सांस ली।"[25] काश वह संतोष की लंबी सांस ले पाती। सेल चलती रही, जल्द ही थैंक्सगिविंग से शुरु हुई सेल क्रिसमस की सेल में बदल गई। सेल वहीं नहीं रुकी उसे साल भर चलना है। क्रिसमस सेल आफ़्टर क्रिसमस सेल में बदल गई। इस दौड़, इस हवश का कहीं अंत नहीं है। बाजार आपको कहता है, 'थोड़ा और विश करो', थोड़ा और माँगो, थोड़ा क्यों खूब माँगो। बाजार पटा पड़ा है। बाजार का मकसद ही है आपके घर को फ़ालतू की चीजों का गोदाम बनाना। सारे विज्ञापन लालच पैदा, दिमाग में जरूरत उत्पन्न करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। दिमाग पर कब्जा करके ही उनकी दुकान चल सकती है। अजय तिवारी कहते हैं, "प्रवृधि और संचार के उपयोग, खासकर उन समाजों में जहाँ उत्तर-आधुनिकता का विकास हुआ, सीधे तौर पर व्यापारी हितों के लिए और परोक्ष रूप में वैचारिक नियंत्रण के लिए किया जाता है।"[26]

नए टीवी को लेकर पूरा परिवार खुश है मगर कितने दिन? उनकी खुशी बड़ी क्षणिक है। आखीर वह कुछ दिन में पुराना हो जाएगा। असल में जिस दिन बाजार में एक नया टीवी लॉन्च होगा उसी दिन उनका टीवी पुराना हो जाएगा। और बाजार तो रोज कुछ न कुछ लॉन्च करता ही रहता है। साल बीतते न बीतते बेटियाँ अखबार दिखाते हुए बताती और फ़रमाइश करती हैं, "मॉम, पता है आजकल फ़्लैट स्क्रीन एच.डी.टी.वी. की सेल चल रही है। पचास इंच स्क्रीन वाला।"[27] दूसरी बेटी क्यों पीछे रहती वह जोड़ती है, "मॉम पता है, कार की भी सेल होती है,"[28] यह दूसरी बेटी तनुज थी, "थैंक्सगिविंग में खरीद सकते हैं, है न मॉम!"[29] और पिछले साल जिसे सुमि अपनी जीत सोच रही थी उसमें अब उसे अपनी हार का अहसास होने लगता है।

आज एक नए तरह के साम्राज्यवाद का उदय हो चुका है जो लोगों को नहीं उनके दिमाग को गुलाम बनाता है। पहले साम्राज्यवाद का अर्थ था देश को गुलाम बनाना। आज उसका रूप बदल चुका है। अजय तिवारी के अनुसार, "साम्राज्यवाद का रूप भी बदल रहा है। अब वह देशों को नहीं, दिमागों को उपनिवेश बना कर अपने हित सिद्ध करता है।"[30] आज उसका उद्देश्य व्यक्ति को उपभोक्ता बना कर ही पूरा हो सकता है। उत्पादन मशीनों से होता है, मानव श्रम की कोई कीमत नहीं है। जब मशीने उत्पादन करती हैं तो बेशुमार उत्पादन होता है और इस उत्पादन के लिए बाजार चाहिए। बाजार सेचुरेट न हो जाए इसके लिए आवश्यक है कि हर दिमाग को उपनिवेश बना लिया जाए, हर दिमाग गुलाम होगा तो वह वही सोचेगा जो बाजार के हित में होगा अर्थात हर व्यक्ति अधिक से अधिक खरीददारी करता जाएगा।

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संदर्भ:

[1]               तिवारी, अजय, 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और उत्तर-आधुनिकता' आलोचना के सौ बरस भाग २, शिल्पायन, 

दिल्ली ३२, पृष्ठ संख्या २९३ 

[2]               प्रसाद, इला, सेल, इस कहानी का अंत नहीं, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली – २, पृष्ठ संख्या ५८

[3]               वही, पृष्ठ संख्या ५८

[4]               वही, पृष्ठ संख्या ५९

[5]               वही, पृष्ठ संख्या ५८

[6]               वही, पृष्ठ संख्या ५६-५७

[7]               वही, पृष्ठ संख्या ५७

[8]               वही, पृष्ठ संख्या ५७

[9]               वही, पृष्ठ संख्या ५७

[10]             तिवारी, अजय, 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और उत्तर-आधुनिकता' आलोचना के सौ बरस भाग २, शिल्पायन, 

दिल्ली ३२, पृष्ठ संख्या २९३ 

[11]             वही, पृष्ठ संख्या २९४ 

[12]             वही, पृष्ठ संख्या २९४ 

[13]             प्रसाद, इला, सेल, इस कहानी का अंत नहीं, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली – २, पृष्ठ संख्या ६०

[14]             प्रसाद, इला, सेल, इस कहानी का अंत नहीं, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली – २, पृष्ठ संख्या ६०

[15]             तिवारी, अजय, 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और उत्तर-आधुनिकता' आलोचना के सौ बरस भाग २, शिल्पायन, 

दिल्ली ३२, पृष्ठ संख्या ३०७ 

[16]             प्रसाद, इला, सेल, इस कहानी का अंत नहीं, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली – २, पृष्ठ संख्या ६०

[17]             वही, पृष्ठ संख्या ५९

[18]             वही, पृष्ठ संख्या ५९

[19]             वही, पृष्ठ संख्या ५९

[20]             वही, पृष्ठ संख्या ५९-६०

[21]             वही, पृष्ठ संख्या ६०

[22]             वही, पृष्ठ संख्या ६१

[23]             वही, पृष्ठ संख्या ६२

[24]             वही, पृष्ठ संख्या ६२

[25]             वही, पृष्ठ संख्या ६२                                                                     

[26]             तिवारी, अजय, 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और उत्तर-आधुनिकता' आलोचना के सौ बरस भाग २, शिल्पायन, 

दिल्ली ३२, पृष्ठ संख्या ३०६ 

[27]             प्रसाद, इला, सेल, इस कहानी का अंत नहीं, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली – २, पृष्ठ संख्या ६३

[28]             वही, पृष्ठ संख्या ६३

[29]             वही, पृष्ठ संख्या ६३

[30]             तिवारी, अजय, 'कुलीनतावाद, उपभोक्तावाद और उत्तर-आधुनिकता' आलोचना के सौ बरस भाग २, शिल्पायन, 

दिल्ली ३२, पृष्ठ संख्या २९३ 

 

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