Sunday 12 June 2011

अनकही : खूब कही

दु:ख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ जो अब तक नहीं कही. महाकवि ने भले ही यह कहा हो कि वे दु:ख की कथा न कह सके परंतु बहुत सारे दु:ख भरे जीवन की कथा “अनकही” में जयश्री राय ने कही है और खूब कही है. उन्होंने नारी जीवन की दारुण पीड़ा को शब्दों में पिरोया है. नारी की व्यथा कथा ’हरि अंनता हरि कथा अंनत’ की भाँति अंनत है कितनी भी लिखी जाए, कितना भी लिखते जाओ कभी समाप्त नहीं होती है. अपनी बात में वे स्वयं लिखती हैं कि अनकही खुद ही कहानी है. अनकही खुद ही कहेगी... और अनकही अपनी बात कहती है, खूब विस्तार से कहती है, तरह-तरह से कहती है.

इसकी कहानियों में नारी विभिन्न तबके और विभिन्न रूप में आई है. वह अमीर है, गरीब है, मध्यवर्ग से है, वंचित वर्ग की है. वह चौका बासन करने वाली है, कचड़ा बीनने वाली है, जमींदार खानदान से ताल्लुक रखने वाली है. वह माँ है पत्नी है प्रेयसी है, और तो और वह दूसरी औरत भी है. इन कहानियों की नारी आज की, शहरी कामकाजी महिला नहीं है. वह परिवार के बीच की स्त्री है. वह परिवार का जैसे तैसे पालन करने वाली, परिवार के लिए तडफ़ती स्त्री है. परिवार के लिए जीती-मरती, खपती स्त्री है. उसकी जान अपने आदमी, अपने बच्चों में बसती है. जब परिवार बिखरने लगता है, वह परिवार को समेट नहीं पाती है तो दु:खी हो उठती है. जब पाती है कि उसका स्थान कोई और स्त्री ले रही है तो उनका हृदय कसक उठता है, जब उसके बच्चे भूख से बिलबिलाते है तो उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता है और जब उससे अपने बच्चों की व्यथा देखी नहीं जाती है तो वह उन्हें झूठी दिलासा देकर मरने के लिए छोड़ देती है. कभी खुद मर जाती है. कभी परिवार के लिए माँ बनकर उनका लालन पालन करती है तो कभी अपनी संतान के कुकर्म से पत्थर की तरह कठोर हो जाती है. मर जाती है मगर अपने बेटे को मुखाग्नि देने तक से वर्जित कर जाती है. जब तक पति बेटा इंसान है वह उनके लिए मरने तक को तैयार है लेकिन ज्योंहि वह इंसान से हैवान बनता है वह भी कठोरता की प्रतिमा बन जाती है. “अनकही” की स्त्री हर हाल में इंसान बनी रहने की कोशिश करती है. यह इंसान बने रहने की कोशिश सबसे कठिन कार्य है क्योंकि बकौल जयश्री राय हमारी इस दुनिया में इंसानों की किल्लत-सी पड़ गई है. ये कहानियाँ इस किल्लत के समय में इंसान बने रहने की जिद में हैं. ये कहानियाँ यकीन दिलाती हैं कि इंसानियत अभी मरी नहीं है.

पिता और पुत्री का नाता प्राथमिक नाता है. बड़ा यकीन का, रुहानी जरूरत को पूरा करने वाला नाता है. लेकिन जिस दिन पिता पुरुष बन जाता है वह बड़ा त्रासद अनुभव होता है. सारे यकीन टूट जाते है. साथ ही टूट जाती है बेटी, सदा-सदा के लिए. पिता पुरुष बन जाता है क्योंकि उसे अपनी पत्नी को सजा देनी है. पत्नी उपलब्ध नहीं है तो वह बेटी को उसका स्थानापन्न मान कर सजा देता है. उसे नोंच चोंथ कर, लहुलुहान कर, सदा के लिए अभिशप्त कर देता है. पिता ने ऐसा किया है, यह सच्चाई है. पिता ने यह प्रतिकार के लिए किया है, नशे में धुत होकर किया है, ये बातें उसके अपराध की गहनता को किसी दृष्टि से हल्का नहीं करती हैं. होश में आकर वह खुद को गोली मार कर अपना जीवन समाप्त करना चाहता है. अगर वह मर जाता तो भी क्या उसका कृत्य मिटाया जा सकता है. जयश्री राय ने उसे मरने नहीं दिया है. पश्चाताप की आग में जलने के लिए काफ़ी समय बचाए रखा. मगर मैं इस कहानी के जिस किरदार की ओर ध्यान दिलाना चाहती हूँ वह बेटी संदल नहीं है. वैसे कहानी संदल की है. संदल जो अपनी माँ के किए की सजा अपने पिता के हाथों पाती है. हाथ जो उसे खिलाया करते थे. जो उसे सहलाते और गुदगुदाते थे. वही हाथ उसका सर्वस्व लूट लेते हैं. वह मनुष्य के स्पर्श से भी आतंकित रहने लगती है. इस दुर्घटना के बाद रिश्ते उसे डराते हैं. वह चाह कर भी किसी से जूड़ नहीं पाती है. यहाँ तक कि प्रेमी-पति का स्पर्श भी उसे सहन नहीं होता है. और जो व्यक्ति किसी अन्य से नहीं जुड़ सकता है उसके नर्क की कल्पना की जा सकती है. वैसे यह कल्पना आसान और सहज नहीं है. संदल का द्वंद्व है कि वह जीवन के इतने बड़े क्राइसिस के पल में अपने पापा को पुकारना चाहती है और पुकार नहीं सकती है. रक्षक भक्षक बन गया है. भक्षक से रक्षा की गुहार कैसे लगाई जाए? मगर पिता का जाना उसके जीवन में अभाव की एक पूरी दुनिया ले आया है. पापा के साथ उसका सबसे बड़ा संबल, उसकी आस्था, उसकी जमीन, उसका आसमान सब खो गया है. उसकी पूरी दुनिया मर गई है.
मगर संदल से भी ज्यादा जो ध्यान खींचती है वह उसकी दादी है. दादी जो दूसरी सुबह उसे एक खून और आँसू की नदी के बीच से उठाकर अपने पैत्रिक गाँव ले आती है. फ़िर कभी अपने बेटे के पास न लौटाने के लिए, न लौटने के लिए. वही संदल को जीवन दान देती है. हॉस्टल में रखवा कर उसे पढ़ाती है. वह माँ है मगर एक सच्ची माँ है जो अपने बेटे के कुकर्म पर पर्दा नहीं डालती है, वरन घर की दीवार पर से अपने बेटे की सारी तस्वीरें हटवा देती है. अपने जीवन से भी सदा के लिए अपने बेटे को निकाल बाहर करती है. मरते हुए बेटे को देखने नहीं जाती है और तो और बेटे को अपनी चिता में अग्नि देने से भी मना कर देती है. “वह एक सच्ची माँ थी, तभी इतनी कठोर बन सकी.” पढ़ते हुए महाभारत की माँ गांधारी की याद आती है. महाभारत युद्ध के अट्ठारहों दिन दुर्योधन युद्ध के लिए निकलने से पहले युद्ध के लिए तैयार होकर सुबह-सुबह अपनी माँ गांधारी का आशीर्वाद लेने आता है और गांधारी कभी उसे इन अवसरों पर प्रचलित आशीर्वाद “जयी भव” नहीं कहती है. वह युद्ध के लिए जाते अपने बेटे से प्रतिदिन कहती है, “यतो धर्म: ततो जय:” जहाँ धर्म है वहाँ विजय हो. क्योंकि उसे अपने बेटे की सच्चाई ज्ञात है. “पापा मर चुके हैं” की दादी माँ एक ऐसी ही माँ है जिसे अपने बेटे की सच्चाई मालूम है. जो हो चुका है उसे वह अनकिया तो नहीं कर सकती है मगर जो उसके वश में है वह सब वह निर्भीकता के साथ करती है.

बेटे के वियोग में रोती कलपती “बंधन” की माँ है, जिसका बेटा एक छोटी-सी बात पर रूठ कर घर से चला गया है. जो सपूती होते हुए भी निपूती के कष्ट सह रही है. बेटे के जाते ही जिसका सब कुछ उसके अपने देवर ने ही लूट लिया है. देवरानी जिसके मरने की राह देख रही है ताकि एक मात्र टूटी-फ़ूटी झोपड़ी भी हथियाई जा सके. इसी बंधन में बेटे सतरू के संग खेलने वाली डाकिए की बेटी मानू है जो बाहर दालान में बैठ कर रोए जा रही है. काश! सतरू के मरने की खबर की चिट्ठी उसने भी पाँच साल पहले देख ली होती. उसे पता ही नहीं है कि उसका आँचर किसके दु:ख में भींग रहा है. उसका मन आज भी उसे छल रहा है. जिस दिन बेटे के मरने की पाँच साल पुरानी खबर रामरति को मिलती है वह बेटे के पास चल देती है. कौन किसके बंधन से बँधा है, कौन किस बंधन से छूट गया है, कहानी पढ़ कर ही जाना जा सकता है.

“शनिचरी” की शनिचरी भी माँ है. वह भी एक या दो बच्चों की नहीं पूरे सात बच्चों की माँ है. पैंतीस वर्ष की शनिचरी को उसकी पचास साल की मालकिन बुढ़िया कह कर संबोधित करती है. जयश्री राय को गरीबी और गरीबों का चित्रण करने में महारत हासिल है. एक उदाहरण काफ़ी होगा, “जला तवा-सा रंग, बित्ता भर धंसी हुई कोटरगत आँखें, चमड़ी फ़ाड़ कर निकल आने को उद्धत हड्डियाँ, टूटे हुए भगोने से मुड़े-तुड़े गाल...अभाव, अवहेलना ने जहाँ जो सुंदर था, निचोड़ कर रख दिया हो जैसे.’ इन कहानियों में तरह-तरह के रंग और भाव सहजता पिरोए से नजर आते हैं. प्रेम के विभिन्न रंग तो हैं ही विरह, वीभत्स, घृणा, करुणा, सहानुभूति भी यत्र-तत्र नजर आती है.
भूख, थकान गर्मी से बेहाल शनिचरी अपनी बेटी का खेलना कूदना सहन नहीं कर पाती है और उसे धुन कर रख देती है. पति है उसका वह भी गरीबी और बेबसी का मारा है. पुरुष है सो नशे में अपना गम गलत करता है. गरीबी ने उसे तोड़ दिया है. उसका कोई आत्मसम्मान नहीं है. वह आत्म नकार की हद पार कर चुक है. इसीलिए जब रतनबाबू और इंस्पेक्टर के सामने मारपीट कर उसपर अपनी पत्नी की आत्महत्या का अभियोग लगा कर पुलिस की जीप में ठूंस दिया जाता है तब वह बड़े भक्तिभाव से रतन बाबू को प्रणाम करता है. बिना कुछ जाने समझे सुग्गे सा सर हिलाए जाता है. ताड़ी से सुन्न, लात जूतों से बेहाल उसे पता ही नहीं है कि वह किस अपराध की माफ़ी मांग रह है. गरीबी हद से गुजर जाए तो शून्यता पैदा कर देती है आदमी असंवेदनहीन हो जाता है. कहानी पढ़ कर प्रेमचन्द का स्मरण हो आना कोई आश्चर्य नहीं है. इस कहानी का अंत तनिक नाटकीय हो गया है. मानो जबरदस्ती जोड़ा गया हो. इसी तरह “आदमी का बच्चा” में कुछ अंश कहानी के छिटके हुए हैं वे कथानक से मेल नहीं खाते हैं. लगता है कहानीकार जबरदस्ती खींचतान कर समाजविज्ञान और राजनीतिशास्त्र को कहानी में लाने का प्रयास कर रहा हो.

“आदमी का बच्चा” की लालमती भी माँ है. एक ऐसी जमलूम माँ जिसके पहले बच्चे को कुत्ते खा गए क्योंकि वह उसे सुला कर कचरा बीनते हुए जरा दूर निकल गई थी. एक एक कार्के जिससे बच्चे भूख से मर रहे हैं जिन्हें वह झूठे आश्वासन दे रही है कि जल्दी से मर जा. भगवान के घर खूब अनार फ़लते हैं. बेटे को मर कर अनार मिलेगा या नहीं पता नहीं हाँ मर कर बेटा इन लोगों के लिए जरूर भरपेट पूरी तरकारी का इंतजाम कर जाता है. इसी पूरी तरकारी की आशा में ये लोग अगले बच्चे के मरने का इंतजार कर रहे हैं. समाज की दयालुता जिन्दों के साथ हो या न हो मरे हुओं के साथ अवश्य होती है प्रेमचन्द इसे पहले ही दिखा गए हैं.

अनकही में मेहनत मजदूरी करके, कचड़ा बीन कर परिवार पालने वाली माँएं हैं. यहाँ स्त्री का पत्नी रूप भी अपनी संपूर्णता के साथ उपस्थित है. पत्नी जो पति, बच्चों और घर में अपनी संपूर्णता मानती जानती है. “गुलमोहर” की अपराजिता एक ऐसी ही स्त्री है. एक ऐसी ही पत्नी है. अपराजिता के पास प्रेम करने वाला पति प्रबीर है, दो फ़ूल से बच्चे हैं. कोई आर्थिक मजबूरी भी नहीं है. पति अच्छा भला कमाता है. जब तब काम के सिलसिले में विदेश के दौरे पर रहता है. सब कुछ मजे में चल रहा है मगर एक दिन कैंसर उसके शरीर और जीवन पर छा जाता है. उसे ब्रेस्ट कैंसर होता है. इलाज के सिलसिले में अपराजिता को दूसरे शहर में रहना होता है, जहाँ शुरु में पति बराबर बच्चों सहित मिलने आता है. मगर कब तक? “वह रुक गई थी तो का उसके साथ दुनिया भी रुक जाएगी...!”

वह अकेली बीमारी और अकेलेपन से जूझ रही है. अपनों का साथ हो तो इंसान हर विपदा का सामना कर लेता है. मगर यहाँ पति और बच्चे सब दूर होते जा रहे हैं बच्चों को विभा ऑटी के बनाए पित्जा ज्यादा अच्छे लगते हैं. वे उसके लाए खिलौनों की प्रशंसा करते हैं. बीमारी, इलाज, अस्पताल, दर्द तो सहा जा सकता है मगर अपनों की उपेक्षा कैसे सही जाए? अपरजिता टूटने लगती है, ऐसे कठिन समय में डा. विवेक का सानिध्य और संवेदना उसे थोड़ी-सी राहत पहुँचाते हैं. मगर वह एक अनुभवी स्त्री है, उसे इस रिश्ते की वायविता ज्ञात है. फ़िर भी उसका मन इसमें भरमा रहता है. मृत्यु के समय भी उसे डॉ. विवेक के शब्द सुनाई पड़ते हैं. अंत निकट होने की सूचना पाकर विदेश से भाई-भाभी आ जाते हैं. मगर प्रबीर नहीं पहुँचता है, जिसका उसे इंतजार है. जिसकी घर-गिरहस्ती के लिए उसने अपनी रिसर्च और जॉब छोड़ दी थी. यह कहानी कैंसर के मरीज की दशा, इलाज के दौरान होने वाली स्थितियों, तकलीफ़ों से पाठक को रूबरू कराती है. संयोग से इस बीच कैंसर पर आधारित कई कहानियों से गुजरने का अवसर मिला. हिन्दी के चर्चित कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा की तीन कहानियाँ - अपराध बोध का प्रेत, कैंसर, रेत का घरौंदा – कैंसर पर आधारित हैं. तेजेन्द्र की पहली पत्नी इन्दु ब्रेस्ट कैंसर से गुजरी थीं. इसके अलावा कई विदेशी लेखकों ने भी इस रोग को आधार बना कर बेहतरीन कहानियाँ लिखी हैं, जिनसे गुजरने क मौका मिला है, एक लाइलाज बीमारी मगर अपनों का संग साथ मिले तो झेलने में तनिक राहत मिलती है. अंत पता है मगर अपनों की गोद में अपनों के बीच मरना और अस्पताल में अपनों को देखने की आस लिए मरना दोनों में बहुत फ़र्क है. दूसरी तरह की मत्यु की त्रासद स्थिति को “गुलमोहर” में बहुत संवेदनशीलता और धैर्य के साथ प्रस्तुत किया गया है. भूमिका से ज्ञात होता है कि स्वयं जयश्री राय इस बीमारी से जूझ चुकी हैं और शायद अब भी जूझ रही हैं क्योंकि कैंसर नाम ही काफ़ी है भयभीत करने के लिए. सकारात्मक सोच और सकारात्माक रिश्ते इसे सहन करने में सहायता देते हैं यह मैंने भी देखा है.

यहाँ “पिंजरा” की सुजा है जो दिन भर घर का काम करके खुद को बहलाए रखती है ताकि व्यस्त बनी रहे और पति की उपेक्षा का दंश भुलाए रखे. पति गौने के बाद जुम्मा जुम्मा आठ दिन ही घर में बँधा रहा. सुजा को जल्द ही पता चल गया है कि पति का पड़ोस के गाँव की किसी बंजारन से टाँका भिड़ा हुआ है. मगर वह तो कैद है. कहाँ जाए, क्या करे? उसकी जवानी पति के इंतजार में ख्वार हो रही है. पति घर लौटता है तो नशे में चूर. पत्नी के जोबन का सारा सार सरंजाम धरा का धरा रह जाता है. कोढ़ में खाज उसी घर में देवर देवरानी रास रचाते रहते हैं और वह पानी पी पीकर अपनी शारीरिक माँग को ठंडा करती रहती है. यही सुजा जब एक दिन अपने घर में पिंजड़े में बंद तोते को मुक्त कर देती है तो उसे लगता है मानो उसने स्वयं को मुक्त कर लिया है. कंधों पर दो उजले पंख जैसे अनायास उग आते हैं. मगर यह तिलस्मी क्षण कुछ पल ही रह पाता है.

अनकही में दूसरी औरत भी है जिसे बखूबी मालूम है कि वह जिस पुरुष से संबंध रखे हुए है वह शादीशुदा है और वह कभी अपने घर परिवार को नहीं छोड़ेगा. सब जानते समझते हुए भी वह नाटक किए जाती है. नाटक तो पुरुष भी कर रहा है. मगर यह नाटक स्त्री पर भारी पड़ता है. नाटक करते करते वह टूटने लगी है. मगर दिल के हाथों मजबूर है. फ़ोन पर प्रेम-मनुहार की दिखावटी बातों की लत उसे लग चुकी है हालांकि यह बहुत थकाने वाला है. मगर चालीस साल की प्रौढ़ा को किशोरी की तरह ठुनकना अच्छा लगता है. दोनों प्रेम का खेल खेलते हैं. एक दूसरे से कसमें-वादे करते हैं. इसमें बहुत ऊर्जा खर्च होती है, आदमी निचुड़ कर रह जाता है. इस रिश्ते का कोई आधार नहीं है, समाज की गवाही-स्वीकृति नहीं है. मगर वे खेले चले जा रहे हैं. दोनों एक दूसरे की विवशता को जानते समझते हैं. पचासों बार ये झूठ ये छलावे दोहराए जाते हैं. दोनों रटे रटाए डॉयलॉग बोलते रहते हैं. यथार्थ से वाकिफ़ हैं मगर भुलावे में रहने का खेल खेलते रहते हैं.
इन कहानियों में स्त्री विमर्श उभरता है. नारी की व्यथा कथा बयान करती ये कहानियाँ दिखाती हैं कि स्त्री की कंडिशनिंग कुछ ऐसी होती है कि मरखप कर घर के पेट की चिंता करने वाली स्त्री अपनी चिंता नहीं करती है. चुपचाप काँपते हुए पति की मार खाकर उसकी मर्दागनी को मजबूत करती है. “आदमी का बच्चा” का रामधारी “रात के अंधेरे में उसे रौंद कर ही शांत नहीं होता, दिन के उजाले में भी मौका-बेमौका उसे धांसता रहता है...वह भले ही कमजोर हो – सबसे कमजोर हो, मगर अपनी पत्नी से हमेशा ताकतवर है...जब वह उसकी कुटाई करता है और वह उसके सामने खड़ी थरथर काँपती है, उसे बड़ा अच्छा लगता है.” इसी तरह शनिचरी का पति मंगरा की दिनचर्या है, “दारू पीकर पड़े रहना, बच्चों की पिटाई करना या समय-असमय अपनी लस्त-पस्त पत्नी को रौंदना.” वंचित तबके पर भी पुरुष सत्ता हावी है.

ये स्त्रियाँ जूझ रहीं हैं, मर जाती हैं पर टूटती नहीं हैं. ईर्ष्या-द्वेष के बावजूद मानवीयता जिंदा है. ये समाज की नंगी तस्वीर दिखाने के साथ-साथ परिवार के जुड़ाव की कहानियां हैं. जहाँ शहर का अकेलापन है जिसके बदनाम मुहल्ले में अपना घर खोजता “अकेला” आदमी है. प्रदूषण से परेशान “धूप का टुकड़ा” पाने को तरसते लोग हैं. ’औरत जो नदी है” जिसकी थाह पाना सरल नहीं है. जहाँ नारी बार-बार संपूर्णता में स्वयं को देना चाहती है, मगर हर बार उसे लौटा दिया जाता है. संग्रह को पढ़ कर मन में एक टीस उठती है कि प्रेम इतना दु:ख क्यों देता है? और अगर इतना दु:ख देता है तो लोग प्रेम क्यों करते हैं? पर कितना बेमानी और बेतुका है यह प्रश्न. क्या जानबूझ कर प्रेम किया जाता है. क्या माँ या स्त्री अपने बच्चों और परिवार को प्रेम करना मात्र इसलिए छोड़ दे क्योंकि प्रेम दु:ख देता है? प्रेम तो बस होता है और आगे भी बस होता रहेगा और दु:ख भी देता रहेगा.

समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी जयश्री राय के प्रोफ़ेसर भी रहे हैं और दोस्त भी. उस नाते उन्होंने कहानियाँ पहले देखीं. भूमिका में वे कहते हैं कि इन कहानियों को देखकर वे विस्मित हैं. उन्होंने सही कहा है ये अनकही बिल्कुल नहीं हैं – सलीके से कही गई और बड़े ढब से आप तक पहुँचने वाली सीधी-सच्ची कहानियाँ हैं. इनमें नारी-जीवन की त्रासदी है. स्त्री-पुरुष संबंधों को एक खास तरीके से निबेरती हैं ये कहानियाँ. ये कहानियाँ विश्वास जगाती हैं, अपेक्षाएँ उत्पन्न करती हैं. भविष्य में जयश्री राय से और बेहतर कहानियों की माँग पाठकों को रहेगी. उनके अनुसार अभी उनका श्रेष्ठ आना बाकी है. पाठकों को इन श्रेष्ठ कहानियों का इंतजार है.
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पुस्तक : अनकही
(कहानी-संग्रह)
कहानीकार : जयश्री राय
प्रकाशक : शिल्पायन, दिल्ली ११० ०३२
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