Thursday 9 June 2011

सुषम बेदी: चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे

सुषम बेदी की ‘अन्यथा’ में प्रकाशित कहानी ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’ डोरा जानसन के मन में चल रही बातों को दिखाती है। डोरा न्यूयॉर्क की एक यूनिवर्सिटी में एंथ्रोपोलॉजी पढ़ाती है। वह एक “उदारमना, संवेदनशील और लिबरल किस्म की महिला थी जो मानव अधिकारों के कई मुद्दों के लिए लड़ चुकी थी। इसी सिलसिले में वह अफ़्रीका और भारत पाकिस्तान की यात्रा भी कर चुकी थी। यूं भी भारत पाकिस्तान जैसे देशों से उसका एक तरह से पुश्तैनी संबंध था।” वह न केवल पढ़ाती है वरन पढ़े-पढ़ाए हुए को जीना भी चाहती है। उसे लगता है, “उसे इंसानियत के बारे में सिर्फ़ पढ़ाना और लिखना ही नहीं, कुछ करने की भी जरूरत है।”

उसकी यूनिवर्सिटी का कैम्पस एक ऊँचे भू-भाग पर बसा है। “जैसा कि अक्सर शहरों में होता है अमीरों की बस्ती के आसपास ही झुग्गी झोपड़ियों का इकट्ठा होना शुरु हो जाता है। न्यूयॉर्क के इस हिस्से का विकास इस नजरिए से काफ़ी दिलचस्प और कुछ अपने ढ़ंग का ही है जिसमें हारलम और अभिजात वर्ग का एक उच्चतम शिक्षण संस्थान, दोनों की ही सीमाएँ शामिल हैं, दोनों ही एक साथ फ़ूलते फ़लते हैं।” निचले भू-भाग पर गरीबों अर्थात कालों की बस्ती है। दोनों रिहाइशों के बीच एक पार्क है। पार्क में जगह-जगह पर बनी सीढ़ियाँ ऊपर-नीचे आने-जाने के काम आती हैं। अधिकाँश अमीरों के मन में काले लोगों के प्रति अविश्वास है। उन्हें लगता है कि ये लोग चोर उचक्के हैं और मौका लगते ही छिनतई करते हैं, जरूरत पड़ने पर हत्या भी कर सकते हैं। जब-जब कोई अप्रिय घटना घटती है, कैम्पस में प्रमुख स्थानों और दरवाजों पर सावधान की नोटिस लग जाती है। सब खूब चौकन्ने हो जाते हैं। कुछ दिन पहले एक प्रोफ़ेसर का बटुआ छिन गया था तो ऐसी ही सूचना चिपकी थी।

जातीय श्रेष्ठता का नतीजा हम द्वितीय विश्वयुद्ध में देख-भोग चुके हैं। स्वयं को उच्च और दूसरों को निम्न और हेय मानने की प्रवृति आज भी कायम है। डोरा की बिल्डिंग में ही एक भारतीय महिला पद्मा रहती है। वह उच्च शिक्षा प्राप्त है और बॉयलॉजी पढ़ाती है। वह स्वयं को “गोरों जैसा ही समझती थी। उन्हीं से मिलती जुलती थी और खुद को उन्हीं के साथ जोड़ कर देखती थी।” और तो और गोरों का अपनापन हासिल करने क्रे लिए कालों के खिलाफ़ हो जाती। काले लोगों के प्रति उसके विचार में “इनका न तो कोई ठौर ठिकाना होता है, न कोई वैल्यूज। मां बाप खुद ड्रग्स और शराब में पड़े रहते हैं तो बच्चों को क्या सिखाएँगे।” पद्मा खुद सांवली है पर खुद को कालों से बहुत श्रेष्ठ समझती है। लेखिका ने दिखाया है कि प्रवासी भारतीय कई बार अपनों से मिलने में, उनसे संबंध रखने में हीनता मानता है और उनसे दूर रहने, खुद को उनसे श्रेष्ठ मानने दिखाने की चेष्टा करता है। अपनी हीन भावना छिपाने के लिए वह उन्हें पहचानने से इंकार करता है, गाहे बेगाहे उन्हें नीचा दिखाने से भी बाज नहीं आता है।

एक दिन डोरा ने स्टोर से काफ़ी खरीददारी कर ली तो सामान उठाने के लिए उसे वहीं से एक काला लड़का मिल गया। चढ़ाई चढ़ते हुए रास्ते में वह उससे बातें करने लगी। वह लड़का उसे काफ़ी मेधावी और मेहनती लगा। बातचीत में पता चला कि वह पढ़-लिख कर आगे बढ़ कर अपनी गरीब स्थिति सुधारना चाहता है। डोरा मानवता के नाते उसकी सहायता करना चाहती है। अपने घर की साप्ताहिक साफ़-सफ़ाई के लिए उसे काम देती है। वह खूब मेहनत और ईमानदारी से काम करता है। लेकिन पद्मा जैसे लोग यह सहन नहीं कर पाते हैं। उनके मन में भय है। पद्मा पहले डोरा को समझाती है, बाद में सोसायटी में शिकायत करती है। नतीजा होता है कि उस लड़के का कैम्पस में आना बंद कर दिया जाता है। डोरा को नोटिस मिलती है, “इमारत के रेजीडेंट्स की सुरक्षा हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। किसी अनजान व्यक्ति को इमारत में घुसने देना विपत्ति को आमंत्रित करना है। ऐसे किस्से आम देखे गए हैं कि किसी बहाने से अनपहचाने लोग इमारत के अंदर आ जाते हैं और रहने वालों की सुरक्षा पर सवाल लग जाता है। आपसे निवेदन किया जाता है कि आगे से किसी ऐसे व्यक्ति को इमारत में आने से रोकें।” उसकी शिकायत हो चुकी थी और फ़ैसला भी सुनाया जा चुका था।

इस घटना से वह बहुत आहत होती है, सोचती है, “या तो सिर्फ़ चट्टान के ऊपर रहा जा सकता था, या चट्टान के नीचे। क्या निचले वाले ऊपर के जीवन के भागी कभी नहीं होंगे! या ऊपर वाले चट्टान के नीचे बह रहे जीवन के?” वह सदा सोचती कि इस स्थिति का कुछ इलाज होना चाहिए। अपरिचय भय उत्पन्न करता है, एक बार परिचय हो जाए तो भय दूर हो जाता है, संवेदना जाग्रत होती है। किसी के प्रति असंवेदना होने के लिए उससे जान पहचान होना, उससे घुलना मिलना आवश्यक है। इसीलिए डोरा सोचती है, “डरते हैं लोग, जिनसे हमेशा हमले का खतरा रहता है, उनसे घुला मिला जाए, दोस्ती की जाए तो क्या फ़िर भी यही स्थिति रहेगी? अगर वे भी ऊँचे समाज की संपन्नता के भागीदार हो सकें तो क्यों नफ़रत करेंगे वे।” अभी सारे छोटे काम उनसे करवाए जाते हैं, “य़ूनिवर्सिती में भी सफ़ाई, सेक्योरिटी के सारे काम कालों ने ही संभाले हुए हैं...गोरे हों चाहे एशियाई, बढ़िया नौकरियाँ तो खुद हजम कर जाते हैं।” कहानीकार बौद्धिक जगत का कच्चा चिट्ठा खोलती है, “ सारी एकैडेमिक दुनिया में गंदगी फ़ैलाई हुई है। दूसरों का गला घोंट कर अपनी नौकरी पक्की करते हैं।” हम स्वार्थ के कारण कितने नीचे गिर जाते हैं, दूसरों का हक छीनने में कोई संकोच नहीं करते हैं।

डोरा की सोच भिन्न है। वह अन्याय को सहन नहीं करती है उसके विरुद्ध आवाज उठाती है। पूर्व में उसने ऐसा किया है, इस बार भी “वह खामोश नहीं बैठी रहेगी। कल ही यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट को खत लिखकर विरोध करेगी।”

सुषम बेदी ने जागरुकता जगाने वाली कहानी लिखी है आज जब हम मानव अधिकारों की बातें करते हैं तो इसे कार्य रूप में परिणत करने की भी आवश्यकता है। डोरा मात्र सिद्धांत में नहीं जीती है वह सिद्धांत को कार्यरूप में भी परिणत करती अहि तभी तो वह एक काले लड़के पर विश्वास करके उसे अपना काम सौंपती है और पद्मा जैसे लोगों की बेसिर पैर की बातों पर विश्वास नहीं करती है। कहानी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर गिरने के बाद लिखी गई है। अमेरिका की इस जुडवाँ इमारत पर हमला नफ़रत का फ़ल था। घृणा से घृणा फ़ैलती है। कहानी का परिवेश प्राकृतिक सुषमा से भरपूर है मगर मानवीय रिश्तों की खाई के कारण लोग इसका पूरा आनंद नहीं उठा पाते हैं। अभिजात वर्ग और निचली बस्ती के बीच का पार्क काले लोगों के खतरे से न भरा हो तो भी वहाँ अन्य खतरे हैं। यह पार्क नशीली दवा बेचने वालों का अड्डा है। पुलिस भी वहाँ जाने से घबराती थी। स्थान असुरक्षित है अत: यूनिवर्सिटी का प्रेसिडेंट इस इलाके को छोड़ कर शहर के एक सुरक्षित इलाके में रहता है। कहानी दिखाती है कि यूनिवर्सिटी वास्तुकला का श्रेष्ठ नमूना है, “ग्रीक वास्तुकला के नमूनों से होड़ करती यूनिवर्सिटी की इमारतें, जहाँ बहुत शांति से अध्ययन अध्यापन का कार्य संपन्न होता। यहाँ के विद्यार्थी और प्रोफ़ेसर देश में बड़े बड़े ओहदों पर नियुक्त होते, विश्व में नोबुल पुरस्कार विजेता होते, बड़े बड़े बिजनसों के अधिकारी, संचालक निर्देशक होते और सारे देश की बागडोर संभालने वालों में से होते।” मगर अपने आसपास के लोगों से मेलमिलाप नहीं रख पाते हैं। यह विडंबना है कि इतनी शिक्षा के बावजूद लोगों में मानवीय भावनाओं की कमी है। ये विद्वतजन मनुष्य को मनुष्य नहीं समझ पाते हैं और मात्र रंग के आधार पर लोगों से भेदभाव बरतते हैं।

लेखिका ने छोटी-छोटी घटनाओं और वार्तालाप के द्वारा कहानी बुनी है। आलोचक नामवर सिंह कहते हैं, “जब मैं सार्थकता की बात करता हूँ तो इसका यह अर्थ है कि कहानी हमारे जीवन की छोटी से छोटी घटना में भी अर्थ खोज लेती है या उसे अर्थ प्रदान कर देती है।” इस दृष्टि से ‘चट्टान के ऊप, चट्टान के नीचे’ एक सार्थक कहानी है।
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