Saturday 21 June 2014

समकालीन भारतीय अंग्रेजी साहित्य: एक परिदृश्य

जब हम समकालीन भारतीय इंग्लिश साहित्य की बात करते हैं तो सबसे पहले हमारे सामने सलमान रुश्दी तथा अरुंधति राय का चेहरा आता है। दोनों में कुछ समानताएँ हैं, मसलन दोनों का जन्म भारत में हुआ। रुश्दी बंबई (आज के मुंबई) में पैदा हुए तो राय पूर्व के एक चाय बागान में जन्मी। दोनों इंग्लिश में लिखते हैं। दोनों ही विश्व प्रसिद्ध हस्तियाँ हैं। दोनों को बुकर पुरस्कार मिला (राय को अपनी एकमात्र किताब ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ के लिए), (रुश्दी को ‘मिडनाइट्स चिल्ड्र’ के लिए १९८१ में बुकर, १९९२ में बुकर ऑफ़ बुकर्स तथा २००८ में बेस्ट ऑफ़ द बुकर्स अब तक तीन बार)। शायद यहीं दोनों की समानता समाप्त हो जाती है। रुश्दी बहुत पहले भारत छोड़ कर चले गए उन्होंने ब्रिटेन की नागरिकता स्वीकार ली है। वैसे आज संचार और यातायात की सुविधा के कारण भारत से उनका संबंध बराबर बना हुआ है, पूरी दुनिया घूमते हुए वे भारत भी आते-जाते रहते हैं। सारी सुविधाओं और संभावनाओं के बावजूद अरुंधति राय भारत में ही बनी हुई हैं। दुनिया घूमती हैं लेकिन भारत उनका घर है। राय मात्र एक उपन्यास लिख कर, साहित्य से खुद को लगभग काट कर सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन की ओर मुड़ गई, देश की सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों के साथ शिद्दत से जुड़ी हुई हैं। पूर्णकालीन एक्टिविस्ट बन गई हैं। दूसरी ओर सलमान रुश्दी साल-दर-साल निरंतर साहित्यिक कृतियाँ प्रस्तुत करते जा रहे हैं। राय को उपन्यास ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ प्रकाशित होने के पहले ही करोड़ों की रॉयल्टी की बात से दुनिया चौंक गई, रुश्दी पूरी दुनिया के चिंता और चर्चा के विषय बन गए जब उन्होंने ‘सैटानिक वर्सेस’ लिखा और ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी ने इसे इस्लाम और मोहम्मद की अवमानना माना तथा उनकी मौत का फ़रमान जारी कर दिया। उनका सिर लाने वाले को न केवल धार्मिक सबब मिलना था वरन खुमैनी ने उसे एक बड़ी रकाम देने की भी घोषणा की। रुश्दी को भूमिगत होना पड़ा, न मालूम कितने ठिकाने बदलने पड़े, उनकी सुरक्षा के लिए सरकारों को और स्वयं उनको बेतहाशा रकम खर्च करनी पड़ी। आज उनका सर कलम करने का आदेश जारी करने वाला इस दुनिया से खुद जा चुका है और रुश्दी निरंतर साहित्य में डूबे हुए हैं। उनकी जिंदगी को अभी भी खतरा है, न जाने कब कोई सिरफ़िरा खुमैनी की बात पर अमल कर जाए। ‘सैटानिक वर्सेस’ के पहले वे ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’, ‘हारुन रशीद एंड अदर स्टोरीज’, ‘शेम’ आदि लिख कर प्रसिद्धि पा चुके थे। इसके बाद उन्होंने ‘मूर्स लास्ट शाई’, ‘द ग्राउंड विनीथ हर फ़ीट’, ‘शालीमार द क्लाउन’ लिखा है और अभी हाल में उनका ‘द एंचांट्रेस ऑफ़ फ़्लोरेंस’ आया है। जब-जब उनकी कृति आती है साहित्य जगत में लहर उठती है। पाठक और आलोचक दोनों अपनी-अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। वे दोनों के चहेते हैं। वे अपने साहित्य से समाज में हिलोर लाने के साथ ही अपने निजी जीवन से भी कम हिलोरें नहीं उठाते हैं। उनका रहन-सहन, उनके विवाह-तलाक सबकी खूब गर्मागरम चर्चा होती है। सेलेब्रेटी होने का फ़ायदा और खामियाजा दोनों उन्हें उठाना पड़ता है। वे भारतीय भाषाओं के साहित्य पर टिप्पणी करने के लिए भी चर्चित रहे हैं। जब उन्होंने भारत की पचासवीं सालगिरह के अवसर पर ‘द विन्टेज बुक ऑफ़ इंडियन राइटिंग: १९४७-१९९७’, का संपादन किया तो भारतीय भाषा में लिखे साहित्य को उपेक्षा की दृष्टि से देखा था। इसको लेकर भारत में उनकी खूब आलोचना हुई थी, मजे की बात यह थी कि आलोचना में इंग्लिश भाषी भी शामिल थे। इसी तरह जब अमित चौधुरी ने ‘द पिकाडोर बुक ऑफ़ मॉडर्न इंडियन लिटरेचर’ का संपादन किया तो उनके विचार भी भारतीय भाषा-साहित्य तथा लेखकों के प्रति कुछ ऐसे थे कि बहुत आलोचना हुई। इन सबके बावजूद उनके लेखन का लोहा रुश्दी के विपक्षी भी मानते हैं। वे पहले भारतीय इंग्लिश में लिखने वाले साहित्यकार हैं जिसने भारतीय इंग्लिश को उसकी विशिष्टता के साथ स्थापित किया। जिसकी भाषा में भारतीय समाज तथा जीवन के साथ भारतीय भाषा के मुहावरे और शब्द भी समाहित हुए हैं। जिसने इंग्लिश को एक नई खुशबू, एक नई पहचान दी है। इंग्लिश के इस नए रूप को विश्व साहित्य में आधिकारिक पहचान दी है। वे वैश्विक स्तर पर लिखते हैं मगर आज भी उनकी जड़ें भारत में मजबूती से जमी हुई हैं। एक बार सलमान रुश्दी और नोबेल पुरस्कृत जर्मन साहित्यकार गुंटर ग्रास ने बातों के दौरान एक-दूसरे कहा कि जैसे गुंटर ग्रास को अपने शहर डेंजिंग से दूर रहने का दु:ख है वैसे ही रुश्दी को बंबई से दूर रहने का दु:ख है। मगर यह अपने-अपने शहरों से दूर रहना उनके लिए प्रेरणा का काम करता है। जैसे रुश्दी के लिए बंबई सृजनात्मकता का स्रोत है, अपने भीतर की भावनाओं को प्रकट करने का स्थान भी है। वैसे ही ग्रास के लिए उनका अपना शहर डेंजिंग है। भीतर की बात जानने वाले कई लोग इस बात का दावा करते हैं कि रुश्दी का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए कई बार जा चुका है और बस उनको साहित्य का यह सबसे बड़ा पुरस्कार मिलने ही वाला है। पुरस्कार मिले या नहीं पाठ्कों और आलोचकों को रुश्दी की अगली किताब का बेसब्री से इंतजार है। अरुंधति की जड़ें भारत खासकर केरल में हैं। उनके उपन्यास का पूरा मजा उठाने के लिए केरल के समाज और संस्कृति की जानकारी जरूरी है वरना उसकी गहराई, उसकी खुशबू, उसकी रंगत, उसकी बहुआयामी रंगीन छटा के हाथ से फ़िसल जाने का खतरा है। शायद इसी कारण हिन्दी का अधिकाँश पाठक उसकी उतनी सराहना न कर सका जितनी सराहना की यह कृति हकदार है। राय को अपने पुरुष पात्रों पापाची, एस्थर, वेलुथा, चाको को गढ़ने के लिए सदैव याद किया जाएगा। करीब-करीब आत्मकथात्माक उपन्यास ‘द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ दलित, स्त्री, मार्क्सवाद आदि कई मुद्दे शिद्दत के साथ उठाता है। भाषा से खेलना अरुंधति की एक अन्य विशेषता है। इस कारण आज तक उपन्यास ‘द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ के जितने भी अनुवाद हुए हैं, मूल की तुलना में काफ़ी कुछ गँवा बैठे हैं। यहाँ तक कि इसका मलयालम अनुवाद भी। एक लंबे समय तक इंगलैंड का उपनिवेश रहने के कारण अंग्रेजी बहुत समय तक भारत पर शासन की भाषा बनी रही। इसी भाषा में शिक्षित लोगों की रहनुमाई में हमने स्वतंत्रता प्राप्त की, यह बात दीगर है कि ये सारे नेता जनता से संपर्क के लिए हिन्दी भाषा का ही उपयोग करते रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी इंग्लिश यहाँ की प्रमुख भाषा है। यह क्लास विभाजन की एक पहचान भी है। आज यह भाषा विश्व के लगभग सारे देशों में प्रयोग की जाती है। स्वाभाविक सी बात है कि कई लोग अपने सृजनात्मक लेखन, अपनी अभिव्यक्ति के लिए भी इसी भाषा का प्रयोग करते हैं। कुछ समय तक अंग्रेजी में साहित्य रचने वाले भारतीयों की शुमारी अंग्रेजी साहित्य में न के बराबर थी। ले देकर आर के नारायण, मुक्लराज आनंद या राजा राव का नाम लिया जाता था। इंडियन इंग्लिश को पहले ‘दोगलों की भाषा’ कहा जाता था, अक्सर अंगूर खट्टे हैं वाली प्रवृति के लोग इस शब्द का प्रयोग करते थे। ऐसे लोग कहते थे कि अंग्रेज चले गए और अपने पीछे अपनी दोगली संतान छोड़ गए उनका इशारा एंग्लो-इंडीयन्स की ओर होता था। चूँकि ये लोग अपने दैनंदिन जीवन में भी इंग्लिश का प्रयोग करते थे अत: इस भाषा को भी ‘दोगला’ कहा जाने लगा। आज स्थिति बदल गई है। भारत में बोली जाने वाली इंगलिश अब ‘क्वीन्स इंग्लिश’ नहीं रह गई है। इसे हिन्दी के शब्दों की भरमार होने के कारण अब ‘हिंग्लिश’ भी कहा जाता है। समीक्षक मीनाक्षी मुखर्जी भारतीय इंग्लिश लेखन को ‘द्विज’ मानती हैं। आज भारत की अन्य भाषा के समान यह भी भारत की एक महत्वपूर्ण, बल्कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाषा है। जो भी कहा जाए आज इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि भारतीयों द्वारा लिखी जाने वाली इंग्लिश चाहे वह साहित्य हो अथवा साहित्येतर सामग्री उसकी देश के भीतर ही नहीं विश्व में भी माँग बढ़ी है। टीवी, डॉक्यूमेंट्री की माँग है कि इस भाषा में साहित्य के साथ विचार और तथ्य प्रस्तुत किए जाए। विश्व बाजार में भी भारत को लेकर उत्सुकता है, बाहर लोग यहाँ के विषय में जानना चाहते हैं अत: यह एक तथ्य है कि इस भाषा और इसमें रचा गया लेखन भविष्य में रहने वाला है। उसकी माँग बढ़ने वाली है खासकर जब भारत में अगली पीढ़ी के बहुत सारे बच्चे इसी भाषा के माध्यम से शिक्षित हो रही है। अब इसकी साख का पता हर वर्ष होने वाले साहित्य उत्सवों से भी चलता है। साउथ एशियन लेखकों का एक अपना समुदाय है, एक अपनी पहचान है जिसमें भारतीय इंग्लिश साहित्य का विशिष्ट स्थान है। विश्व का कोई साहित्य समारोह इसके बिना सम्पन्न नहीं हो सकता है। जब हम भारतीय अंग्रेजी साहित्य कहते हैं तो इसका तात्पर्य होता है भारत के उन लेखकों का कार्य जो अंग्रेजी में लिखते हैं मगर जिनकी अपनी भाषा यानि मातृभाषा भारत की कोई अन्य भाषा हो सकती है। इसमें हम उस प्रवासी भारतीयों के साहित्य को भी समाहित करते हैं जो भारत के बाहर दुनिया भर में फ़ैले हुए हैं, जैसे सलमान रुश्दी, भारती मुखर्जी, चित्रा बैनर्जी दिवाकर्णी। उनको भी शामिल करते हैं जिनके पूर्वज भारतीय मूल के थे और जिनका जन्म किसी अन्य देश में हुआ है, जैसे वी एस नायपॉल। इसे इंडो-एंग्लिकन और उत्तरोपनिवेशिक (पोस्ट कलोनियल) साहित्य की संज्ञा से भी जाना जाता है। इंडियन इंग्लिश लिटरेचर का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर अंग्रेजी में भी लिखते थे, अनुवाद भी करते थे। वे एशिया के पहले लेखक थे जिसे नोबेल पुरस्कार मिला। विश्वकवि होते हुए भी वे सदैव बाँग्ला के लेखक ही कहलाए। बंकिम चंद्र ने १८६४ में अपना पहला ही उपन्यास ‘राजमोहन्स वाइफ़’ इंग्लिश में लिखा था। मगर अच्छा हुआ वे इसके बाद बांग्ला में ही लिखते रहे वरना पाठक उनके कालजयी साहित्य से वंचित रह जाता और पहला उपन्यास कुछ खास नहीं बन पड़ा था। मुल्कराज आनन्द, राजा राव तथा आर के नारायण को भारतीय इंग्लिश लेखन का जनक माना जाता है। राजा राव को इस क्षेत्र में अग्रणी होने का श्रेय जाता है। जेम्स जॉयस, कार्ल मार्क्स और महात्मा गाँधी से प्रेरित संस्कृत के प्रकांड विद्वान राजा राव का ‘काँतापुरा’, ‘सर्पेन एंड रोप’ अंग्रेजी साहित्य में आदर के साथ स्वीकार किए जाते हैं। उन्होंने भारतीय दर्शन को साहित्य के माध्यम से अंग्रेजी भाषी दुनिया में स्वीकृति दिलाई। इसी तरह आर के नारायण और मुल्कराज आनंद का भी ऐतिहासिक महत्व है। नारायण ने मालगुड़ी को साहित्य में अमर कर दिया और स्वामी के द्वारा भारत के बाहर भारतीय जीवन की छवि पहुँचाई। उनके ‘मालगुड़ी डेज’, ‘स्वामी एंड फ़्रेंडस’ पर सीरियल भी बने हैं। वे अपनी मृत्यु तक लेखन में सक्रिय थे। वे अपने साहित्य में रूढ़ि और आधुनिकता के संघर्ष को प्रस्तुत करते रहे। उनके यहाँ हल्का-फ़ुल्का हास्य मिलता है जो पाठक को गुदगुदाता है साथ ही चिंतन के लिए प्रेरित भी करता है। मुल्कराज आनन्द ने इंग्लैंड में रहते हुए टी एस इलिएट की पत्रिका ‘क्राइटेरियन’ में लिखना प्रारंभ किया। ई एम फ़ोस्टर, जॉर्ज ऑर्वल, हेनरी मिलर से उनकी दोस्ती थी और वे ब्लूमस्बरी के सदस्य थे। ९९ साल की उम्र में जब २००४ में उनकी मृत्यु हुई वे तमाम उपन्यास और अन्य साहित्येत्तर रचना कर चुके थे। सात खंड की आत्मकथा के चार खंड प्रकाशित हो चुके थे। ‘अनटचेबल’ से प्रसिद्धि की सीढ़ियाँ उन्होंने प्रारंभ की और ‘कूली’, ‘टू लीव्स एंड अ बड’ जैसे उपन्यास लिखे। ‘द विलेज’, ‘अक्रॉस द ब्लैक वाटर’ तथा ‘द सोर्ड एंड द सिकेल’ उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। उन्हें ‘मार्ग’ पत्रिका की स्थापना के लिए भी सदैव स्मरण किया जाएगा। मुल्कराज भारत की जाति-प्रथा, धर्म तथा वर्गगत विभाजन पर बहुत कटुता और क्रूरता के साथ लिखते रहे। दूसरी ओर कवि, अनुवादक प्रो. पी लाल ने न केवल महाभारत को फ़िर से ट्रांसक्राइब किया है, वरन कलकत्ता में अपनी प्रेस ‘राइटर्स वर्कशॉप’ स्थापित करके भारतीय अंग्रेजी लेखन को मजबूती प्रदान की। ‘राइटर्स वर्कशॉप’ वन मैन शो होते हुए भी अपने आप में एक इंड्रस्ट्री था। अभी कुछ दिन पहले प्रो. लाल की मृत्यु हो गई है। आज के बहुत सारे लेखकों को गर्व है कि उनकी पहली किताब यहीं से प्रकाशित हुई। ग्रामीण जीवन का चित्रण कमला मारकंडेय के ‘नेक्टर इन ए सीव’ में भी मिलता है। पुरानी पीढ़ी की कमला मारकंडे अपने कॉलेज जीवन से ही लेखन कर रही थीं और बाद में १९४८ में इंग्लैंड जा बसीं। उन्होंने एक इंग्लिशमैन से विवाह किया और बराबर इंग्लिश में लिखती रहीं। ‘नेक्टर इन ए सीव’ के अलावा मारकंडे ने ‘सम इनर फ़्यूरी’, ‘ए साइलेंस ऑफ़ डिजायर’, ‘पैशन’, ‘ए हैंडफ़ुल ऑफ़ राइस’, ‘द कॉफ़र डैम्स’, ‘द नोव्हेयर मैन’, ‘टू वर्जिन्स’, ‘द गोल्डेन हनी कोम’, तथा ‘प्लेजर सिटी’ आदि दस उपन्यास लिख कर स्त्री-व्यथा को स्वर दिया। स्त्री विषयक मुद्दे और उसकी समस्याएँ ही सदैव उनके साहित्य की प्रमुख विषय-वस्तु रही। पुरानी पीढ़ी के लेखकों पर आरोप लगता रहा है कि वे दुनिया को भारत की वही तस्वीर दिखाते थे जो बाहर वाले देखना चाहते थे यानि कि गरीबी, भुखमरी, जातिगत, धर्मगत भेदभाव। छूआछूत, मदारी, जादू टोना यही भारत ये लोग अपने साहित्य में पेश करते रहे। नए लेखकों का दृष्टिकोण व्यापक है। जब हम समकालीन साहित्य की बात करते हैं तो वह मात्र कुछ दशक पुराना है। इस साहित्य को हम पिछली सदी के आठवें दशक से फ़ैलता-फ़ूलता पाते हैं। विश्व के अंग्रेजी साहित्य के मानचित्र पर भारतीय अंग्रेजी साहित्य को स्थापित करने का श्रेय नि:संदेह सलमान रुश्दी को जाता है। आज भले ही वे दूसरे देश के ग्रीन कार्ड होल्डर हैं पर उनकी पैदाइश भारत की है। रुश्दी और राय के अलावा इस परिदृश्य पर अब हमें ढ़ेर सारे साहित्यकार नजर आते हैं। हरेक पर एक पूरा आलेख हो सकता है। इस आलेख की सीमा में सबके साथ न्याय कर पाना कठिन है। बहुत सारे केवल गिनाए गए हैं, कई छूट भी गए हैं, या छूट गए होंगे। हर पाठक की अपनी रूचि और सीमा होती है। अनिता देसाई एक प्रमुख साहित्यकार हैं, ‘इन कस्टडी’ उनका सर्वोत्तम कार्य कहा जा सकता है जिसमें वे भारत की एक अन्य भाषा उर्दू और उससे जुड़ी संस्कृति के पतन की दास्तान सुनाती हैं। इस पर एक बहुत सुंदर फ़िल्म भी बनी है। मरता हुआ अतीत वर्तमान के लिए बोझ होता है ऐसा वे मानती हैं। जर्मन माँ और बंगाली पिता की संतान अनीता का जन्म मसूरी में हुआ। कायदे से उनकी मातृ भाषा जर्मन होनी चाहिए थी या फ़िर उन्हें बाँग्ला में लिखना चाहिए था मगर उनकी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से हुई और उन्होंने सदैव इसी भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त किया। उन्होंने एक गुजराती व्यक्ति से विवाह किया। उनके साहित्य में भारतीय शहरी आदमी के विभ्रम को हम देखते हैं। वे मनुष्यों के आपसी जटिल संबंधों को बखूबी प्रस्तुत करती हैं। ‘इन कस्टडी’ के अलावा ‘क्राई द पिकॉक’, ‘वॉयजेज इन द सिटी’, ‘बाई बाई ब्लैक बर्ड’, ‘व्हेयर शैल वी गो दिस समर?’, ‘फ़ायर ऑन द माउंटेन’ आदि उनके दस उपन्यास उपलब्ध हैं। उन्होंने बच्चों के लिए भी खूब लिखा है। बच्चों के बीच रस्किन बाँन्ड भी बहुत पसंद किए जाते हैं। माँ के नक्शे-कदम पर चलते हुए लेकिन माँ से बिल्कुल भिन्न शैली और कथानक ले कर आती हैं अनीता देसाई की बेटी किरण देसाई। वे आज के दौर में सच में विश्व नागरिक हैं। किरण ने १४ साल की उम्र में भारत छोड़ कर विदेश रहने का फ़ैसला किया। पहले वे इंगलैंड गई फ़िर अमेरिका। आजकल वे नोबेल पुरस्कृत तुर्की लेखक ओरहान पामुक के साथ रह रही हैं। प्रवासी के अनुभव को लेकर उन्होंने ‘द इन्हेरिटेंस ऑफ़ लॉस’ की रचना की। ‘स्ट्रेंज हैप्पनिंग इन द ग्वावा ओचर्ड’ उनकी एक अन्य किताब है। उनके यहाँ भारत का औपनिवेशिक, उत्तर-औपनिवेशिक जीवन, भूमंडलीकरण, क्रूर अत्याचार सब देखने को मिलता है। १९४० में कलकत्ते में जन्मी भारती मुखर्जी पढ़ने के लिए कैनेडा गई। वे वहीं अपने एक साथी से विवाह कर बस गईं। वही की नागरिकता ले ली। मुखर्जी १९६० से १०८० तक कैनेडा में रह कर लेखन तथा अध्यापन करती रहीं। फ़िर वे अमेरिका में बस गई उन्होंने अमेरिका की नागरिकता ले ली। ‘द टाइगर्स डॉटर’, ‘वाइफ़’, ‘डेज़ एंड नाइट्स’, ‘द मिडिलमैन एंड अदर स्टोरीज’, ‘हॉल्डर ऑफ़ द वर्ल्ड’, ‘द सोरो एंड द टेरर’ उनकी रचनाएँ हैं। उनके यहाँ प्रवासी अस्मिता की खोज, प्रवासी मन की द्विविधा, प्रवासी के खंडित व्यक्तित्व पर काफ़ी कुछ पढ़ने-समझने को मिलता है। ‘द टाइगर्स डॉटर’ की तारा स्वयं लेखक के व्यक्तित्व तथा अनुभवों को विस्तार से प्रस्तुत करती है। जिसे न अमेरिका में अपने अमेरिकी पति के साथ चैन मिलता है और न जो भारत अपने परिवार में लौट कर प्रसन्न है। उसे एक ओर अपना मूल परिवेश खींचता है वहीं दूसरी ओर जब वह कलकता परिवार से मिलने आती है तो खुद को परिवार, रिश्तेदारों तथा मित्रों को बीच मिसफ़िट पाती है। सात साल में वह अपने परिवार के कई रीति-रिवाज भूल चुकी है। उसे यह देख कर दु:ख होता है कि भारत में लोग विदेशी चीजों की प्रशंसा करते हैं, उनके पीछे मरते हैं मगर जब कोई किसी विदेशी से विवाह कर लेता है तो उसे अपनाने से कतराते हैं। यहाँ तक कि माँ भी। उसे पूरा माहौल अजनबी लगता है वह जल्द से जल्द अमेरिका अपने पति के पास लौट जाना चाहती है। मगर कहानी यह नहीं स्पष्ट करती है कि वह अमेरिका जा पाती है अथवा नहीं। हाँ, अंत में उसे उत्पातियों से घिरे हुए अवश्य दिखाया गया है। ‘द मिस्ट्रेस ऑफ़ स्पाइसेज’ से प्रसिद्धी पाने वाली चित्रा बैनर्जी दिवाकर्णी अमेरिका में रहते हुए वहाँ के विश्वविद्यालय में क्रिएटिव राइटिंग का शिक्षण करती हैं। उनकी ‘द मिस्ट्रेस ऑफ़ स्पाइसेज’ पर फ़िल्म भी बनी है जिसमें ऐशवर्या राय ने प्रमुख भूमिका की है। ‘सिस्टर ऑफ़ माई हार्ट’, ‘द वाइन ऑफ़ डिजायर’, ‘क्वीन ऑफ़ ड्रीम्स’ दिवाकर्णी के अन्य उपन्यास हैं, ‘अरेंज्ड मैरेज’ तथा ‘द अननोन इरोज ऑफ़ अवर लाइव्स’ इनके कथा संग्रह हैं। दोनों कहानी संग्रह पर उन्हें पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इतना ही नहीं दिवाकर्णी के चार काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। झुम्पा लाहिरी भी एक ऐसी ही लेखिका हैं जो खुद बाहर रहती है और अपने साहित्य में प्रवासी की सांस्कृतिक अस्मिता की खोज करती हैं। अपने पहले ही कार्य ‘दि इंटरप्रेटर ऑफ़ मेलाडीज’ से ही वे खासी चर्चित रही हैं अपनी साहित्यिक समझ के लिए। उन्होंने अपने लेखन में प्रवासी जीवन को उठाया है। इसे २००० का पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उपन्यास ‘द नेमसेक’ एक युवा की दृष्टि से प्रवासी जीवन को दिखाता है। वे प्रशंसा और आलोचना दोनों की शिकार होती रही हैं। भारतीय मूल के नॉयपॉल का साहित्य रुश्दी के साहित्य से बहुत अलग है। उनके पूर्वज भारत से गिरमिटिया के रूप में बाहर ले जाए गए थे। नोबेल पुरस्कृत नॉयपॉल फ़िक्शन से ज्यादा अपने नॉन-फ़िक्शन तथा अपनी टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। भारत के प्रति उनकी धारणा प्रारंभ में बहुत नकारात्मक थी। बार-बार यहाँ की यात्रा करने के कारण अब वे भारत को उसकी जटिलताओं के साथ कुछ-कुछ समझने लगे हैं और उनका नजरिया बदल रहा है। विद्याधर सूरजप्रसाद नॉयपॉल ने ‘द मिस्टिक मैस्यू’, ‘मिग्युअल स्ट्रीट’, ‘हाउस ऑफ़ मिस्टर बिस्वास’, ‘एन एरिया ऑफ़ डार्कनेस’, ‘दि एनिग्मा ऑफ़ एराइवल’, ‘अ वे इन द वर्ल्ड’, ‘मैजिक सीड्स’ आदि कई साहित्यिक और साहित्येत्तर रचनाएँ की हैं। (विस्तार के लिए देखें संवाद प्रकाशन से आई ‘अपनी धरती, अपना आकाश: नोबेल के मंच से’ – विजय शर्मा) कहने को तो ‘नाइनटीन एट्टीफ़ोर’ के प्रसिद्ध जॉर्ज ऑरवल को भी इसी श्रेणी में यानि भारतीय अंग्रेजी लेखकों की श्रेणी में रखा जा सकता है। ऑरवल का जन्म बिहार के मोतीहारी जिले में हुआ था। उन्होंने साहित्य को कई मुहावरे और शब्द दिए हैं। ‘नाइनटीन एट्टीफ़ोर’ के अलावा उन्होंने ‘बर्मीज डेज’, ‘एनीमल फ़ार्म’ भी लिखा। पारसी मूल के रोहिंग्टन मिस्त्री का भारतीय अंग्रेजी साहित्य में विशिष्ट स्थान है। उनकी ‘सच ए लॉन्ग जर्नी’ नेहरू युग के बाद के भारत में पारसी जीवन को बड़ी शिद्दत और खूबसूरती के साथ प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास इंदिरा गाँधी के शासन काल में सामान्य जीवन को चित्रित करती है। उसमें एक दृश्य है जिसमें एक राजनैतिक मीटिंग की तैयारी, मीटिंग और उसके बाद के पूरे परिदृश्य को बहुत विस्तार के साथ चित्रित किया गया है। यथार्थ के वर्णन के लिए वे याद रहते हैं। ‘फ़ैमिली मैटर्स’ तथा ‘ए फ़ाइन बैलेंस’ उनकी अन्य पुस्तकें हैं। इसी तरह बाप्सी सिद्धवा भी पारसी मूल की हैं और इंगलिश में लेखन करती हैं। कहने को वे पाकिस्तानी हैं मगर विभाजन पर उनका साहित्य लाजबाव है। उनके उपन्यास ‘आइस-कैंडी मैन’ में विभाजन को एक छोटी बच्ची की दृष्टि से दिखाया गया है। विभाजन की भयंकरता, शारीरिक और मानसिक अत्याचार और संवेगात्मक रूप से लोगों के टूटने को यह उपन्यास बड़ी बारीकी से दिखाता है। इस पर बनी फ़िल्म भी खूब चर्चित रही। कहानी तथा स्क्रीनप्ले राइटर रुथ परवेज झाबवाला भी प्रवासी की पीड़ा को अपने लेखन में अभिव्यक्त करती हैं। उपमान्यु चैटर्जी ‘इंग्लिश अगस्ट’ बना कर बहुत पहले इस क्षेत्र में स्थापित हो गए थे। जिस पर फ़िल्म बनी मगर दर्शकों ने उसे खास तवज्जो नहीं दी। वे भारतीयों की कमजोरियों का व्यंग्यात्मक रूप से दर्शन करते-कराते हैं। वही दिखाने की कोशिश करते हैं जो पश्चिम अभी भी भारत के विषय में देखना-पढ़ना चाहता है। वैसे आज विश्व में भारत की छवि बहुत बदल चुकी है। आर्थिक उदारवाद, भूमंडलीकरण तथा आईटी सेक्टर ने भारतीयों को उनका उचित स्थान दिलाने में मदद की है। शायद इसीलिए अस्सी के बाद की पीढ़ी के लेखक जैसे चेतन भगत, अरविंद अडिगा, किरन देसाई, मंजु कपूर, पंकज मिश्रा आदि आज के युवा पाठकों की पहली पसंद हैं। भारत की हँसी उड़ा ने के बावजूद उपमान्यु चैटर्जी की ‘द मैमरीज ऑफ़ द वेलफ़ेयर स्टेट’ खूब चर्चित हुई। उपनिवेशवाद ने भारतीयों के जीवन पर क्या प्रभाव डाला है यह जानने के लिए साहित्य अकादमी से पुरस्कृत अमिताव घोष को पढ़ना रोचक होगा। २००१ में जब अमिताव घोष को उनकी किताब ‘द ग्लास पैलेस’ के लिए यूरेशियन कॉमनवेल्थ राइटर्स प्राइज़ देने की पेशकश की गई तो उन्होंने अपने सिद्धांत के तहत इसे लेने से इंकार कर दिया। ‘द सर्किल ऑफ़ रीजन’, ‘द ग्लास पैलेस’, ‘द कलकत्ता क्रोमोसोम: ए नोवेल ऑफ़ फ़ेवेर्स’ तथा ‘द हंग्री टाइड’ उनकी अन्य पुस्तकों के नाम हैं। उन्होंने भारत तथा मिस्र के संबंधों पर ‘इन एन एंटिक लैंड: हिस्त्री इन द गाइज ऑफ़ ए ट्रैवलर्स टेल’ भी लिखा है जो नॉन फ़िक्शन की श्रेणी में आता है। ‘द हंग्री टाइड’ में घोष ने एक ऐसा विषय उठाया है जिस पर आमतौर पर साहित्य नहीं मिलता है। उनकी इस रचना का विषय बंगाल का सुंदरबन का क्षेत्र और वहाँ का जनजीवन है। यहीं पर भारत का प्रसिद्ध बंगाल टाइगर का निवास स्थान भी है जो आज विलुप्ति के कगार पर है। उन्होंने भारतीय मूल की एक शोधकर्ता युवति, सुंदरबन के निवासी तथा एक अन्य व्यक्ति को लेकर अपनी कथा गूँथी है। इस कथा में स क्षेत्र का इतिहास, लोक कथाएँ, लोक विश्वास, भूगोल, पर्यावरण सब समाहित है। विक्रम सेठ का १९९४ में लिखा उपन्यास ‘ए सूटेबल ब्यॉय’ कुछ नहीं तो अपनी लम्बाई के लिए अवश्य याद किया जाएगा। अब सेठ ने इसका अगला भाग भी लिख दिया है। उनकी पहली किताब ‘द गोल्डेन गेट’ सेन फ़्रांसिस्को में रह रहे एक युवा का रोजनामचा है जिसे उन्होंने पद्यात्मक शैली में लिखा। ‘एन इक्वल म्यूजिक’ तथा ‘टू लाइव्स’ उनकी अन्य रचनाएँ हैं। वे बहुत हल्का-फ़ुल्का मनोरंजक लिखने के लिए जाने जाते हैं। उपन्यासकार के साथ-साथ एक अच्छे कवि भी हैं। वैसे उनका कवि रूप काफ़ी कुछ अनजाना ही रहा है। अब तो उनकी माँ लीला सेठ भी अपनी आत्मकथा लेखन के बल पर साहित्यिक हलके में जानी जाने लगीं हैं। १९८० के बाद भारतीय इंग्लिश लेखन में बहुत सारे लोग उभर कर आए। आज भारतीय अंग्रेजी साहित्य का दृश्य बहुत भरा-पूरा है। बहुत सारे लेखक सक्रिय हैं। रातोंरात नए-नए लेखक पैदा हो रहे हैं, कुछ क्षणिक चमक दिखा कर, एक किताब के साथ फ़ुलझड़ी की तरह फ़ुरफ़ुरी पैदा कर के समाप्त हो जा रहे हैं। कुछ लम्बी रेस के घोड़े हैं, जिनसे पाठकों को बहुत उम्मीद हैं। संचार और यातायात के साधनों में आई अभूतपूर्व प्रगति भी इसका एक कारण है। आज प्रकाशकों से संपर्क साधना, अपनी किताब का प्रचार-प्रसार कर पाना काफ़ी आसान हो गया है। बाजार की माँग को देखते हुए प्रकाशकों की संख्या और दृष्टिकोण में भी काफ़ी परिवर्तन आया है। प्रकाशन व्यवसाय न केवल आसान हो गया है बल्कि ग्लोबल हो गया है। खासकर इंग्लिश आधारित प्रकाशन व्यवसाय खूब फ़ल-फ़ूल रहा है। नई पीढ़ी चाहे वह भारत की हो अथवा किसी अन्य विकासशील देश की हो इंग्लिश उसकी संप्रेषण और पढ़ने की भाषा होती जा रही है। ये प्रकाशक अपने लेखकों को समाज के सामने सेलेब्रेटी बना कर प्रस्तुत करते हैं। लेखक भी न केवल लिखता है वरन अपनी किताब के प्रचार-प्रसार का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। इंग्लिश लेखकों को अच्छी-खासी रॉयल्टी, अक्सर अग्रिम रॉयल्टी मिलती है। इस कारण भी इस ओर काफ़ी नए लोगों का झुकाव हुआ है। शायद इसीलिए एक बार प्रवासी हिन्दी लेखकों को हमारे देश के नॉलेज कमीशन के प्रमुख शैम पैट्रोडा ने अपनी अक्ल का नमूना पेश करते हुए सलाह दे डाली कि आप लोग हिन्दी में क्यों लिखते हैं, इंग्लिश में क्यों नहीं लिखते हैं। इस क्षेत्र में नए-नए लोग आ रहे हैं वे न केवल सहित्य से जुड़े लोग हैं वरन अन्य पेशे से जुड़े लोग भी हैं अत: अपने-अपने क्षेत्र के अनुभवों से इसे समृद्ध कर रहे हैं। चेतन भगत के रचे को साहित्यिक गुणों के लिए उतना नहीं जाना जाता है, जितना युवा, उच्च-मध्यम वर्ग के युवा के अनुभवों को शब्द प्रदान करने के लिए जाना जाता है। ‘फ़ाइव पॉइंट समवन’, ‘थ्री मिस्टेक्स ऑफ़ माई लाइफ़’, ‘टू स्टेट्स’, ‘वन नाइट एट द कॉल सेंटर’ उनके उपन्यास हैं। ‘फ़ाइव पॉइंट समवन’ तथा ‘वन नाइट एट द कॉल सेंटर’ पर फ़िल्में भी बनी हैं। अभिजित भादुड़ी की ‘मीडिओकर बट एरोगेंट’ बिजनेस स्कूल जीवन को प्रस्तुत करती है। कॉलेज तथा हॉस्टल को कथानक बना कर लिखे गए चेतन भगत और अभिजित भादुड़ी के ये उपन्यास युवाओं के बीच खूब लोकप्रिय हैं। इनको लिए को पढ़ने के लिए ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ती है। आज का भारतीय शहरी युवा इनसे खुद को सरलता से को रेलेट कर पाता है। जैसे अरुंधति राय की जड़ें केरल में हैं वैसे ही डेविड देवीदार भी अपने लेखन में दक्षिण की खुशबू लेकर आते हैं उनका ‘द हाउस ऑफ़ ब्लू मैंगोस’ तमिलनाडु के समाज और जीवन को बहुत रोचक ढ़ंग से प्रस्तुत करता है। आप पहले एक प्रसिद्ध प्रकाशक संस्थान के एजेंट थे। इसी तरह अपनी जड़ों को लेकर श्रीकुमार वर्मा केरल के अनोखे वैवाहिक संबंध (जिसे मलयालम में संबंधम कहा जाता है) को अपने उपन्यास ‘लैमेंट ऑफ़ मोहिनी’ प्रस्तुत करते हैं। इसमें केरल के उच्च जाति के लोगों खासकर नम्बूदरी लोगों के जीवन उनके वैवाहिक संबंध को चित्रित किया गया है। इस नम्बूदरी समाज में परिवार का केवल बड़ा बेटा ही शादी करता है बाकी लड़के राजकन्याओं अथवा नायर स्त्रियों के अस्थाई संबंध बनाते हैं। केरल का यह प्रमुख रिवाज अब समाप्त हो चुका है। श्रीकुमार वर्मा प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा के पड़पोता हैं। अपने उपन्यास में वे कई पीढ़ियों का जीवन चित्रित करते हैं। ‘क्यू एंड ए’ जिस पर ‘स्मल डॉग मिलिनियर’ फ़िल्म बनी और जिसे ऑस्कर मिले के लेखक विकास स्वरूप भी इंग्लैंड में रहते हैं। अभी तक उनका यही एक मात्र उपन्यास सामने आया है मगर ऐसा एक ही काफ़ी है। वैसे इसकी जम कर आलोचना भी हुई क्योंकि उन्हें भी भारत में गरीबी, भिखमंगी ही नजर आई है। विकास भारतीय उच्चायोग, लंदन में काम करते हैं। एक समय के उनके मित्र स्वयं कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा इस उपन्यास को लिखे जाने के समय की बात बताते हुए कहते हैं, कि बातों केदौरान उन्होंने कहा था, “विकास जी जो उपन्यास आप लिख रहे हैं, इसमें बेस्टसेलर होने की सभी खूबियाँ हैं। आप इसे साहित्य समझने के चक्कर में मत पड़िएगा। यह उपन्यास आपको शीर्ष के पापूलर लेखकों की कतर में ला खड़ा करेगा।” और कोई शक नहीं कि ऐसा हुआ। किताब से भी ज्यादा फ़िल्म के साथ ऐसा अवश्य ही हुआ। अभी-अभी अपने विवाह तथा क्रिकेट संबंधित बातों के लिए चर्चित शशि तरूर सरकारी उच्च सेवा में अक्सर भारत से बाहर रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले महाभारत से अपने विचार लिए और व्यंग्यात्मक लहजे में ‘द ग्रेट इंडियन नोवेल’ लिखा और साहित्यकारों की जमात में शामिल हो गए। ‘शो बिजनेस’ तरूर का एक अन्य कार्य है। वे अपने साहित्येत्तर लेखन के लिए भी खूब जाने जाते हैं। अभी हाल-फ़िलहाल भारत के अतीत को खंगालते हुए और उसके भविष्य की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए उन्होंने ‘इंडिया: फ़्रॉम मिडनाइट टू मिलेनियम’ लिखा है। संचार और यातायात की सुविधा ने कई लोगों को रातोंरात सेलेब्रेटी बना दिया है। कई बार साहित्यिक दृष्टि से उच्च कोटि का न होने पर भी किताब खूब चर्चित हो जाती है। उसे फ़टाफ़ट पुरस्कार और सम्मान भी मिल जाते हैं। भारतीय इंग्लिश लेखन के बढ़ते बाजार की माँग के कारण प्रकाशक भी लेखक को काफ़ी सम्मान देते हैं। असल में दोनों मिलकर काम करते हैं। आज मात्र अच्छा लिखना ही काफ़ी नहीं है। बाजार के दबाव के कारण लेखक को भी पुस्तक के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी वहन करनी पड़ती है। खर्च प्रकाशक उठाता है मगर श्रम और समय लेखक का भी लगता है। यह उसके करारनामे की शर्त होती है। कभी-कभी राजनैतिक और कूटनीतिज्ञ कारणों से भी पुरस्कार दिए जाते हैं। मगर तब पुरस्कार \ सम्मान की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। अरविंद अडिगा को जब अपने व्हाइट टाइगर’ के लिए बूकर मिला तो कुछ ऐसा ही हुआ। भारतीय इंग्लिश रचनाकारों को बुकर मिलना अब सामान्य बात हो गई है लेकिन जब अडिगा को यह मिला तो काफ़ी गर्मागरम चर्चा और आलोचना भी हुई। यहाँ तक कि पुरस्कार की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगने की नौबत आ गई। अरविंद अडिगा का ‘व्हाइट टाइगर’ एक रेसी क्राइम थ्रिलर की तरह है, जिसे पत्र शैली में लिखा गया है। (विस्तार के लिए विजय शर्मा का नया ज्ञानोदय नवम्बर २००८ का अंक देखा जा सकता है।) इस आलेख की सीमा है। यहाँ केवल उन्हीं रचनाकारों पर की बात हुई है जो गद्य, उसमें भी मुख्य रूप से कहानी-उपन्यास की रचना करते हैं। आज इतनी ज्यादा संख्या में भारतीय इंग्लिश साहित्य उपलब्ध है कि सबको एक आलेख में समेटना संभव नहीं है। बच्चों के चहेते देहरादून में रहने वाले प्रसिद्ध रस्किन बॉण्ड को छोड़ने का कोई औचित्य नहीं है पार छोड़ा गया है। गद्य की अन्य विधाओं तथा पद्य रचनाकारों को नहीं लिया गया है। ए के रामानुजम जैसे प्रसिद्ध कवि ने इस विधा को समृद्ध किया है वहीं केकी दारूवाला, नसीम इजाकल, डॉम मोरिस, अरुण कोलाटकार, दिलीप चित्रे जैसे कवि इस साहित्य के अंतरगत आते हैं। और जयंत महापात्र को कैसे छोड़ा जा सकता है। करीब सौ वर्ष की लम्बी आयु पाने वाले तथा ‘द लास्ट इंग्लिश मैन’ के नाम से प्रसिद्ध नीरद चटर्जी ‘दि ऑटोबायग्राफ़ी ऑफ़ एन अननोन इंडियन’ एक बहुत उम्दा किताब है। परंतु वे ताजिंदगी वे भारत के विषय में अपने विचारों के कारण आलोचना के पात्र बने रहे। जिद के साथ उनका कहना है कि भारत की अपनी कोई संस्कृति न कभी थी न है। जो है वह सारा कुछ समय-समय पर बाहर से आए हुए लोगों के द्वारा आया है। इनकी लिखी मैक्समूलर की जीवनी ‘द स्कॉलर एक्स्ट्राऑडिनरी’ भी पढ़ने लायक है। वेद मेहता को नहीं समाहित किया गया है। क्रूर तथा दयापूर्ण अनुभवों को वेद मेहता एक नेत्रहीन युवा के रूप में प्रस्तुत करने के लिए सदा याद किए जाते रहेंगे। जिस तरह नॉयपॉल उपन्यास से ज्यादा अपने नॉन-फ़िक्शन के लिए जाने जाते हैं, ठीक उसी तरह सुकेतु मेहता भी नॉन फ़िक्शन ही अधिक लिखते हैं। लोक-साहित्य भी आज दिखाई दे रहा है। संस्मरण भी इस साहित्य में उपलब्ध हैं। नयनतारा सहगल ने ‘ए टाइम टू बी हैप्पी’ तथा ‘दिस टाइम ऑफ़ मॉर्निंग’ जैसे उपन्यासों के साथ-साथ संस्मरण भी लिखे हैं। भारत के पर्यटन उद्योग के विकास के साथ पर्यटन संबंधित साहित्य भी रचा जाने लगा। बशारत पीर का ‘कर्फ़्यूड नाइट’, सामंत सुब्रमनियन का ‘फ़ोलोइंग फ़िश’, सोनिया फ़लेरिओ का ‘ब्यूटिफ़ुल थिंग’ तथा सिद्धार्थ देब का ‘द ब्यूटिफ़ुल‘ एंड द डैम्ड’ इसी तरह का साहित्य है। इंटरनेट, ब्लॉगिंग ने लिखना-प्रकाशित होना सरल कर दिया है अत: जिसको भी लिखने का जरा भी शऊर है वह लिख रहा है जिसमें कचड़ा और मोती दोनों होने की संभावना है। इंटरनेट, ब्लॉगिंग ने लेखन को स्वायत्तता प्रदान की है अब लेखक प्रकाशक या पत्रिका के संपादकों का मोहताज नहीं है वह जब चाहे, जितना चाहे लिख कर खुद प्रकाशित कर सकता है। प्रकाशन के क्षेत्र में एक तरह का जनतंत्र आया है जिसके अपने खतरे भी हैं। ब्लॉगिंग ने बहुत सारे भारतीय मूल के इंग्लिश रचनाकारों को स्पेस और पाठक दिए हैं। नाटक को भी इस आलेख में स्पर्श नहीं किया गया है जबकि महेश दत्तानी बराबर इस क्षेत्र में नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। मृणालिनी साराभाई का ‘कैप्टिव सोल’, और गुरुचरण दास का ‘लैरिन्स साहेब’ अलग आलेख की माँग करता है। प्रसिद्ध कॉलमनिस्ट खुशवंत सिंह को भी छोड़ दिया है जबकि उन्होंने विभाजन पर आधारित ‘लास्ट ट्रेन टू पाकिस्तान’ जैसा उपन्यास लिखा है जिस पर फ़िल्म भी बनी है। यह जितना सीरियस है उतनी ही खेतों के बीच युवाओं की मस्ती को भी दिखाता है। मस्ती खासकार शराब, औरत की मस्ती खुशवंत सिंह की विशेषता है। वे लाइट रीडिंग करते हैं मगर साहित्य के साथ-साथ अन्य कई विषयों के जानकार हैं, कुशल संपादक तो वे थे ही। उम्र के आखिरी पड़ाव पर रह रहे इस लेखक के साप्ताहिक कॉलम का पाठकों को बेसब्री से रहता है। उन्हीं की लाइन में हम शोभा डे को भी याद कर सकते हैं। लाइट, पेज थ्री लेखन उनकी विशेषता है। नयनतारा सहगल पिछली पीढ़ी की लेखक हैं। उन्हें न केवल इसलिए कि वे जवाहरलाल नेहरू की भाँजी के रूप में बल्कि उनके जीवंत और गरिमापूर्ण साहित्य के लिए सदैव याद किया जाएगा। उनके संस्मरण ‘प्रिजन एंड चॉकलेट केक’ में लिपिबद्ध हैं। ‘एवरेस्ट होटल’ तथा ‘टोटर-नामा’ के एलन सेली भी यहाँ नहीं हैं। गीता मेहता (ए रिवर सूत्र’ तथा राज’), गीता हरिहरन (‘द थाउजंड फ़ेसेज ऑफ़ नाइट’), मंजु कपूर और कई महिला रचनाकारों की उपस्थिति इस साहित्य में है। इस लेख में भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में रह रहे इंग्लिश लेखकों को भी नहीं लिया गया है। उस पर फ़िर कभी और। अभी मुझे उनकी पूरी जानकारी नहीं है इंदिरा गोस्वामी के अलावा किसी को नहीं पढ़ा है। एक लम्बी सूचि है जिन रचनाकारों को यहाँ समाहित किया जा सकता है, किया जाना चाहिए। समकालीन भारतीय अंग्रेजी लेखन में कई पीढ़ियाँ संलग्न हैं। फ़िर भी यह अपेक्षाकृत एक युवा साहित्य है। अभी इसे बहुत आगे जाना है। हाँ, एक बात तय है कि यह रहने वाला है, टिकने वाला है। दिनोंदिन इसका प्रचार-प्रसार होने वाला है। एक विडंबना ही कही जाएगी कि भारतीय इंग्लिश साहित्य, उसके रचनाकारों तथा भारत की अन्य भाषाओं और उनके रचनाकारों के बीच न के बराबर संबंध है। वे एक दूसरे को शायद ही कभी पढ़ते हैं, एक दूसरे को पहचाना और प्रशंसा करना तो दूर की बात है। कहीं यह उच्च मनोग्रंथि (superiority complex) और हीन मनोग्रंथि (inferiority complex) का मामला नहीं है? जबकि अधिकाँश अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों की मातृभाषा शायद ही इंग्लिश है। अच्छे अनुवाद का अभाव भी इस दूरी का एक कारण है। स्वयं रुश्दी इस बात को स्वीकार करते हैं कि एक व्यक्ति के रूप में हिन्दी-उर्दू, यानि कि उत्तर भारत की हिन्दुस्तानी से उनकी पहचान है। एक लेखक के रूप में, उनके मन के कुछ हिस्से की निर्मिति भारत की तमाम भाषाओं के मुहावरों, लय, पैटर्न, संगीत और आदतों के विचार से हुई है। वे कहना चाहते हैं कि कोई कारण नहीं है, कोई कारण नहीं होना चाहिए कि इंग्लिश भाषा के साहित्य और भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य के बीच विरोधी संबंध ही हो। आशा है कि आने वाले समय में यह खाई पटेगी और दोनों तरह के रचनाकार एक दूसरे के नजदीक आएँगे। इनमें आदान-प्रदान होगा। दोनों में भरपूर अनुवाद कार्य होगा एवं इस तरह साहित्य और संपन्न होगा। ०००

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