Thursday 19 June 2014

इनटू द वाइल्ड: युवा का जनून

कुछ फ़िल्में इतनी सघन संवेदना संप्रेषित करती हैं कि आप उन्हें एक बार में पूरी नहीं देख सकते हैं। अगर सिनेमा हाल में बैठे हैं तो शायद आप आँख बंद कर लेंगे या फ़िर सिर झुका कर कुछ दृश्यों के समाप्त होने का इंतजार करेंगे। अब जबकि घर में बैठ कर फ़िल्म देखने की सुविधा है और रिमोट कंट्रोल आपके अपने हाथ में होता है जब भी ऐसी गहन भावनापूर्ण फ़िल्म देख रहे होते हैं बटन दबा कर फ़िल्म रोक सकते हैं। थोड़ा विराम देकर पुन: देख सकते हैं। ये बातें मैं कुछ फ़िल्म देखते समय हुए अपने अनुभवों के आधार पर लिख रही हूँ। ‘लाइफ़ इज ब्यूटीफ़ुल’, ‘स्टोनिंग सोरया एम’, ‘ब्यॉय इन स्ट्राइप पैजामा’ तथा ‘इन टू द वाइल्ड’ देखते हुए एक बार में पूरी फ़िल्म देखने की मेरी हिम्मत न पड़ी। लेकिन एक बार जब आप इन फ़िल्मों को देखना शुरु करते हैं तो बीच में भले ही रोकें मगर पूरी फ़िल्म देखे बिना भी नहीं रहा जा सकता है। ये ऐसी फ़िल्में हैं जो आपको उद्वेलित करती हैं, सोचने- विचारने पर मजबूर करती हैं। ‘लाइफ़ इज ब्यूटीफ़ुल’ तथा ‘ब्यॉय इन स्ट्राइप पैजामा’ नात्सी जीवन-काल, यातना शिविरों पर आधारित हैं। नात्सी अत्याचारों पर काफ़ी कुछ लिखा गया है और बहुत सारी फ़िल्में इस विषय पर बनी हैं। ‘स्टोनिंग सोरया एम’ ईरान के एक गाँव में सोरया एम नामक एक स्त्री को झूठे इल्जाम के तहत सामूहिक रूप से पत्थरों से मार-मार कर समाप्त करने की हृदय-विदारक फ़िल्म है। जिसका अंतिम दृश्य फ़िल्म निर्माण के इतिहास में अपनी खास जगह रखता है। बीस मिनट तक चलने वाले इस दृश्य को देखने के लिए कलेजा चाहिए। न केवल फ़िल्म का एक पात्र उल्टी करता है आपके पेट में भी हलचल पैदा हो सकती है, आप भी वमन कर सकते हैं। सत्य घटना पर आधारित यह फ़िल्म शब्दों में बयान नहीं की जा सकती है इसे तो देख कर ही अनुभव किया जा सकता है। यह आज के तथाकथित सभ्य समाज पर प्रश्न-चिह्न खड़े करती है। मगर मैं जिस फ़िल्म के बारे में लिखने जा रही हूँ वह इन सबसे भिन्न है। युवाओं के जीवन पर हिन्दी-इंग्लिश में बहुत सारी अच्छी-बुरी फ़िल्में बनी हैं। वास्तविक घटनाओं और जीवन पर भी फ़िल्मों की कमी नहीं हैं। मगर ‘इन टू द वाइल्ड’ एक बिल्कुल अलग ढ़ंग की फ़िल्म है। इसे देखकर ही अनुभव किया जा सकता है। शब्दों में इसका केवल कंकाल ही प्रस्तुत हो सकता है। ‘इन टू द वाइल्ड’ नात्सी यातना शिविर के भीतर घटित होती फ़िल्म न होते हुए भी उससे कम दारुण नहीं है। इसमें किसी गाँव या कबीले अथवा शहर के समुदाय के लोग भी किसी पर जुल्म नहीं ढ़ाते हैं मगर दर्शक का कलेजा फ़िल्म देखते हुए बार-बार मुँह को आ जाता है। यह फ़िल्म भी सत्य जीवन पर आधारित है। जैसे सोरया की कहानी को एक फ़्रांसिसी-इरानी पत्रकार फ़्राइडन साहेबजाम ने किताब का रूप दिया जो बेस्ट सेलर सिद्ध हुई। इस किताब पर साइरस नोरस्टेह ने फ़िल्म बनाई। इसी तरह जॉन क्राकोर की प्रसिद्ध किताब पर शोन पेन ने ‘इन टू द वाइल्ड’ का निर्माण किया है। यह भी अमेरिका के वर्जीनिया प्रदेश के एक युवक क्रिस्टोफ़र मैककैंडलेस के जीवन की सत्य कहानी है। अटलांटा में एमोरी यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करके क्रिस्टोफ़र प्रकृति के सानिध्य के लिए सब छोड़-छाड़ कर निकल पड़ा। चार साल बाद १९९२ में मात्र २४ साल की उम्र में उसे अलास्का के जनशून्य इलाके में मृत पाया गया था। वह हेनरी डेविड थोरो, लियो टॉल्सटॉय और जैक लंडन जैसे महान लेखकों और आदर्शवादियों-प्रकृति प्रेमियों से प्रभावित था। वह और की रैट-रेस में नहीं पड़ना चाहता था। अपने अंतिम दिनों में क्रिस्टोफ़र टॉल्सटॉय पढ़ रहा था। उसके लिखे जरनल्स से ही इस नॉन-फ़िक्शन पुस्तक की सामग्री बनाया गई है। इसी को हॉलीवुड के प्रर्सिद्ध अभिनेता तथा निर्देशक पेन ने स्वयं स्क्रीन-प्ले में रूपांतरित किया और इस पर यह हृदय-विदारक फ़िल्म बनाई। यात्रा मुख्य उद्देश्य होने पर भी यह न तो मात्रा यात्रा-पर्यटन फ़िल्म है, न ही रोड मूवी है। यह इनसे अलग जॉनर की फ़िल्म है। फ़िल्म लॉर्ड बायरन की एक कविता की पंक्तियों से प्रारम्भ होती है। युवावस्था अपने आप में एक नशा होती है, इसे किसी अन्य नशे की आवश्यकता नहीं होती है। यह एक ऐसा नशा है जिसके सामने अन्य सारे नशे व्यर्थ होते हैं। कुछ समय पहले तक हमारे देश में लोग जवान नहीं होते थे वे इस बीच की अवस्था को बिना जीए ही बचपन से बुढ़ापे में प्रवेश कर जाते थे। हाँ आज जवानों के लिए तरह-तरह की जिंदगी उपलब्ध है और आर्थिक रूप से समर्थ युवा उसका भरपूर मजा उठाते भी हैं। मगर क्या पैसे से ही जवानी का आनंद उठाया जाता है। ऐसा होता तो गौतम सब ठुकरा कर न चले जाते, बुद्ध न बन जाते। व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को सामाजिक उत्थान के लिए निछावर न कर देते। एक नए धर्म का प्रणयन किया। जवानी नाम है रोमांचक अनुभवों का, कुछ कर गुजरने का। जिंदगी के रहस्य को जानने-समझने का। रोमांच शहर की भीड़ भरी जिंदगी में मिल सकता है। तमाम तरह के यथार्थ और वायवी (वर्चुअल) खेल उपलब्ध है आज के बाजार के दौर में। मगर कुछ लोगों को ये रोमांचकारी खेल नहीं रुचते हैं। उन्हें प्रकृति का रोमांचक जीवन अपनी ओर शिद्दत से खींचता है और वे सब छोड़-छाड़ कर इस रोमांच को जीने-अनुभव करने निकल पड़ते हैं। क्रिस्टोफ़र मैककैंड्लस (फ़िल्म में इस किरदार को एमिल हिर्स ने बखूबी निभाया है) एक ऐसा ही युवक था। वह १९९० में ग्रेजुएशन करता है, उसे आगे पढ़ने की सुविधा भी मिलती है। लेकिन वह बचपन से अपने माता-पिता (फ़िल्म में ये भूमिकाएँ विलियम हर्ट तथा मार्शिया गे हार्डेन ने निभाई हैं) की मतलबी, भौतिक सुख-सुविधा में डूबे रहने की आदतों को लेकर परेशान रहता था। उसके माता-पिता बहुत महत्वाकांक्षी हैं। उन्होंने उस पर बहुत आशाएँ केंद्रित कर रखी हैं। वे उसे अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप ढ़ालना चाहते हैं। अधिकाँश माता-पिता की भाँति अपनी अधूरी कामनाएँ उसके द्वारा पूरी होती देखना चाहते हैं। परिवार में उसके अलावा केवल उसकी छोटी बहन (अभिनेत्री जेना मलोन) बहुत संवेदनशील है। वह अपने भाई से बहुत सहानुभूति रखती है। उसी की आवाज फ़िल्म की कहानी को प्रस्तुत करती है। जिस दिन वह ग्रेजुएट होता है उसी दिन वह मतलबी माता-पिता की सारी संपत्ति, सारी सुख-सुविधा से मुँह मोड़ लेता है। उसे अपने माता-पिता से न तो कोई अपेक्षा है न ही वह उनकी राह पर चलकर दूसरों का फ़ायदा उठाने वाला बनना चाहता है। वह अपने सारे सर्टिफ़िकेट, सारे क्रेडिट कार्ड्स नष्ट कर डालता है, सारी जमा-पूँजी २५,००० डॉलर ओक्सफ़ेम इंटरनेशनल को दान कर देता है। पूरी भौतिक सभ्यता से मुँह मोड़ कर एक अनंत यात्रा पर चल देता है। इतना ही नहीं वह माता-पिता के दिए नाम क्रिस्टोफ़र को भी उतार फ़ेंकता है और ‘एलेक्जेंडर सुपरट्रैम्प’ नाम अपना लेता है। वह जीवन का उद्देश्य पाना चाहता है। उसे कई महान लेखकों के जीवन और कृतित्व ने प्रेरित किया है। वह कुछ ऐसा खोजना-पाना चाहता है जो अनूठा हो, जो अर्थपूर्ण हो। इसी खोज के तहत क्रिस्टोफ़र या यूँ कहें एलेक्जेंडर सुपरट्रैम्प एक साहसिक, एडवेंचरस यात्रा पर निकल पड़ता है। वह अलास्का के बर्फ़ीले दुर्गम प्रदेश को अपनी यात्रा का लक्ष्य बनाता है। अंत तक वह अपने माता-पिता से कोई संबंध नहीं रखता है। शुरु में वह अपनी गाड़ी से यात्रा करता है। उसे तरह-तरह के अनुभव होते हैं। वह प्रकृति के विभिन्न रूप देखकर प्रसन्न है, चकित है। लेकिन प्रकृति जितनी मोहक और आकर्षक है उतनी ही निर्मम और क्रूर भी है। एलेक्जेंडर का मार्ग दुर्गम तो था ही। नदी की भयंकर बाढ़ में उसकी गाड़ी उससे छूट जाती है। इससे वह हिम्मत नहीं हारता है और पैदल ही आगे बढ़ता जाता है। कोलोराडो नदी पार करके वह मैक्सिको में प्रवेश करता है। कभी पैदल, कभी मालगाड़ी की सवारी करते हुए वह लॉस एंजेल्स पहुँचता है। राह में मिली एक किशोरी से उसे प्रेम होता है मगर वह उसे बाँध नहीं पाती है। किशोरी से बिछुड़ना बहुत दु:खदायी था, वह यह वियोग-दु:ख सहता हुआ आगे चलता चला जाता है। एक हिप्पी दल भी उसे मिलता है कुछ दिन वह उन्हीं की जीवन शैली अपनाए रहता है। फ़िर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आगे चल देता है। एक समय राह में उसे एक बूढ़ा रॉन फ़्रैंज़ (हाल होलब्रुक ने यह अभिनय बड़ी सहजता से किया है) मिलता है। दोनों एक-दूसरे के बहुत अच्छे साथी बन जाते है। मिलकर खूब साहसिक कारनामें करते हैं। बूढ़ा युवक के मोह में पड़ जाता है, उसे अपनाना चाहता है लेकिन इस युवक को इसके उद्देश्य से डिगाना सरल नहीं है। क्रिस्टोफ़र फ़िर आगे चल देता है। युवक बूढ़े के प्रस्ताव को ठुकरा कर अपनी राह पर आगे बढ़ जाता है। और निरंतर दो साल चलकर युवक अलास्का के बर्फ़ीले, जनशून्य प्रदेश में रहना प्रारंभ करता है। इसी समय से वह अपना अनुभव लिपिबद्ध भी करने लगता है। वास्तविक युवक ने जो अनुभव लिपिबद्ध किए थे वे ही दस्तावेज इस पर आधारित बेस्ट सेलर की सामग्री बने। ऐसा लगता है क्रिस्टोफ़र के मन में मनुष्य के संग-साथ को लेकर गहरी विमुखता है तभी तो वह किसी का नहीं हो पाता है। वह बहुत आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक है लोग उससे मिलते ही उसे पसंद करने लगते हैं मगर उसे उन्हें छोड़ कर जाने में जरा भी समय नहीं लगता है। वह जब बूढ़े रॉन फ़्रैंज़ से विदा लेता है तो उसके शब्द हैं: “तुम गलत हो यदि सोचते हो कि जिंदगी की प्रसन्नता मनुष्य के रिश्तों से आती है।” फ़िर कहाँ से आती है जीवन की प्रसन्नता? क्या जन विहीन जीवन से? क्या मात्र प्रक्रुति के संसर्ग से? क्या पशु-पक्षी का संग-साथ जीवन को सुखी बना सकता है? क्या करने से और क्या नहीं करने से जीवन में प्रसन्नता मिलेगी? क्या क्रिस्टोफ़र को भरपूर प्रसन्नता नहीं मिली? क्या क्रिस्टोफ़र का सोचना सही था? जीवन में कौन गलत है और कौन सही है यह गणित की भाँति नहीं है, जहाँ दो और दो मिल कर सदैव चार ही होते हैं। फ़िल्म अपनी समाप्ति पर बहुत सारे प्रश्न छोड़ जाती है। जीवन की प्रसन्नता कहाँ है, कैसे है? यह युवक एकांत में भी बहुत शांत और प्रसन्न था मगर अंत काल में उसे दूसरों की आवश्यकता अनुभव होती है। मगर क्या जब हम जब जो चाहते हैं वह हमें मिलता है? इस यात्रा में उसे कई बार भूख, सर्दी, भावात्मक हताशा-निराशा, दु:ख-दर्द का सामना करना पड़ा। पार वह चलता चला गया। हंसते-खेलते बेफ़िक्र युवक के जीवन की विडम्बना यह है कि जब लोग उसके पास थे वह उनसे दूर भागता रहा। और जब वह चाहता है कि कोई तो उसे मिले, जिससे वह रिलेट कर सके, जिससे वह कुछ कह-सुन सके, जिसको वह सुन सके, जो उससे कुछ कह सके। मगर इस समय उसके आसपास चिड़िया का पूत भी नहीं है। वह जीवन को जानने-समझने, उसका उद्देश्य पाने निकला था। मगर क्या लगा उसके हाथ? क्या संदेश दे सका वह? क्या पा सका वह? पर प्रश्न यह भी है कि क्या पाना चाहते हैं हम जीवन से? क्या पाने-खोने का नाम ही जीवन है? क्या उसे अपनी यात्रा में जो विभिन्न अनुभव मिले वे जीवन के लिए काफ़ी नहीं हैं? क्या उसने जो रोजनामचा लिखा वह कोई मायने नहीं रखता है? व्यक्तिगत प्रसन्नता में सामाजिक जीवन का क्या स्थान है। अगर क्रिस्टोफ़र समाज नहीं छोड़ता, अपनी अनोखी यात्रा पर न निकलता तो क्या वह सुखी रहता। उसके इस निर्णय से समाज को क्या लाभ या हानि हुई? एक हानि तो अवश्य हुई। एक प्रतिभाशाली, जीवंत व्यक्ति की उपस्थिति से समाज वंचित हुआ। माता-पिता यदि बच्चों पर दबाव न बनाएँ तो शायद क्रिस्टोफ़र जैसे कई जीवन व्यर्थ होने से बच जाए। गौतम की तरह ही उसे अपनी यात्रा में तरह-तरह के भावात्मक और संवेदनात्मक अनुभव होते हैं। दोनों वर्तमान जीवन से ऊब कर घर से निकल पदए थे। फ़िर क्या फ़र्क है उसके और गौतम के घर छोड़ने में? असल में दोनों के गृह त्याग में मूलभूत अंतर है। दोनों दो भिन्न संस्कृतियों की उपज हैं। होस्टिड (Hofstede) जैसे समाजशास्त्री दुनिया को दो तरह के समाजों में बाँटते हैं। ये विचारक मानते हैं कि पूरी दुनिया में दो तरह की संस्कृतियाँ हैं, जीवन के प्रति दो तरह के दृष्टिकोण हैं। व्यक्तिवादी संस्कृति तथा समूहवादी संस्कृति। क्रिस्टोफ़र अमेरिकी समाज-संस्कृति की पैदाइश है। अमेरिकी समाज व्यक्तिवादी समाज है जहाँ व्यक्ति केवल अपने विषय में सोचता है, बहुत संकुचित दायरे में जीता है। उसके लिए अपनी सुख-सुविधा, अपनी महत्वाकांक्षाएँ ही मायने रखती हैं, वह दूसरों की परवाह नहीं करता है। दूसरी ओर गौतम भारतीय या यूँ कहें पूरब की संस्कृति में पैदा हुए। आज के समाजशास्त्री मानते हैं कि पूरब की संस्कृति समूहवादी संस्कृति है। जहाँ व्यक्तिगत लाभ-हानि से पहले व्यक्ति का समाज आता है। व्यक्ति अपना हित त्याग कर दूसरों के लिए जीता-मरता है, समूह की चिंता खुद से पहले करता है। गौतम ने घर छोड़ा था ताकि वे समाज के दु:ख-दर्द को दूर करने का उपाय खोज सकें। वे सामाजिक चिंता के तहत यह निर्णय लेते हैं। एक और भी अंतर है दोनों के निर्णय में, गौतम ने जीवन के तीसरे दशक में घर त्यागा जबकि क्रिस्टोफ़र मात्र बीस साल का अनुभवहीन युवक है। जो भी हो एक दुनिया को बदलने में नई दिशा देने में सफ़ल हुआ। एक नए धर्म, बौद्ध धर्म का प्रणेता बना। बौद्ध धर्म आज विश्व एक बड़ा धर्म है। दूसरे के जीवन की कुल पूँजी मात्र उसकी डायरी है। मैं यहाँ किसी को बड़ा या छोटा सिद्ध करने का प्रयास नहीं कर रही हूँ। मात्र दो भिन्न जीवन दृष्टियों को प्रस्तुत कर रही हूँ। हाँ दोनों में एक समानता है कि दोनों जीवन में जो निर्णय लेते हैं उस पर अंत तक कायम रहते हैं। भले ही क्रिस्टोफ़र के लिए यह मजबूरी बन गया, उसके पास कोई विकल्प बचा ही नहीं था। गौतम आज से दो हजार छ: सौ वर्ष पहले पैदा हुए थे। उन पर भी अपने माता-पिता का दबाव था। पर तब आज की तरह बाजार न था, सामाजिक प्रतिद्वंद्विता न थी, आगे बढ़ने की अंधी दौड़ न थी। क्रिस्टोफ़र रैट रेस, अंधी दौड़ में नहीं पड़ना चाहता है। क्या इसका विकल्प समाज विमुख हो जाना है? क्या इसके उलट कुछ नहीं सोचा-किया जा सकता है। वह दृढ़ निश्चयी और साहसिक युवक था। कैसे कहा जा सकता है कि उसने गलत निर्णय लिया था? ये सारे अगर-मगर अब क्रिस्टोफ़र के संदर्भ में कोई मायने नहीं रखते हैं। वह इन सबसे दूर जा चुका है। हाँ दूसरे इस पर अवश्य विचार कर सकते हैं अपने निर्णय लेते समय इन बातों पर सोच सकते हैं। सार्त्र का कहना है, “आदमी बिल्कुल अकेला है और पूरी तरह स्वतंत्र; चूँकि वह स्वतंत्र है, अपनी सारी संभावनाओं के साथ वह कोई भी निर्णय ले सकता है और हर लिए हुए निर्णय के साथ प्रतिबद्धता उसकी अपनी है।” क्रिस्टोफ़र चरम स्वतंत्रता’ का वरण करता है। दो घंटे २७ मिनट की इस फ़िल्म ‘इन टू द वाइल्ड’ में प्रकृति की क्रूरता कहीं भी नहीं दिखाई गई है। मौसम आते-जाते हैं अपनी पूरी शिद्दत के साथ। मौसम के साथ बदलती प्रकृति को पर्दे पार देखना एक सुखद अनुभव सिद्ध होता है। क्रिस्टोफ़र के साथ-साथ दर्शक भी प्रकृति के मनमोहक दृश्यों का आनंद उठाता है। हाँ नि:शंक प्रकृति में प्रवेश करना बहुत रोमांचक है, यह काम बहुत साहस की माँग करता है। इस निर्जन, वर्जिन, नीरव, वीराने बर्फ़ीले प्रदेश का अपना निराला जीवन है। यहाँ तमाम तरह के छोटे बड़े जीव-जन्तु हैं। युवा क्रिस्टोफ़र को यह जीवन प्रारंभ में बहुत लुभाता है। समय बीतने के साथ-साथ उसे ज्ञात होता है कि वह नितांत अकेला पड़ गया है और प्रक्रुति बहुत निष्ठुर है। लेकिन अब यदि वह चाहे भी तो सामाजिक जीवन, मनुष्य की संगति नहीं पा सकता है। वह समाज के लिए तड़फ़ता है, उसकी तड़फ़ समाज तक जब पहुँचती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। लौटने के उसके सारे मार्ग बंद हो चुके थे। वह खुद ही अपने पैरों के निशान मिटा आया था। उसने वापसी की सीढ़ी नष्ट कर दी थी। किसी को मालूम न था वह कहाँ है और किस हालत में है, है भी या नहीं। बाद में एक खोज-पार्टी को उसका शव मिलता है। एक समय ऐसा आता है कि खाने के लिए शिकार मिलना बंद हो जाता है। भूख से वह इतना कमजोर हो जाता है कि उसके लिए चलना-फ़िरना मोहाल हो जाता है। स्थानीय विरल वनस्पति जिसे वह किताब के बल पर पहचानता था और जिससे अपनी क्षुधा शांत करता था वही उसके विनाश का कारण बन जाती है। वह सब छोड़ आया था मगर किताबों, लिखने-पढ़ने का मोह नहीं छोड़ सका था। अंत तक वह लिखता-पढ़ता है। एक दिन एक गलत पौधा खाने के कारण उसकी पाचन शक्ति नष्ट हो जाती है, उसका पाचन-तंत्र रुक जाता है। वह अपनी जादूई-बस में भूख से तड़फ़-तड़फ़ कर मौत के मुँह में तिल-तिल करके जाता है। किसी एडवेंचर पार्टी के द्वारा त्यागी गई टूटी-फ़ूटी बस जो उसका आश्रय थी वही उसकी कब्रगाह बनती है। उसके अंतिम दिनों का विवरण जिसे वह बराबार दर्ज करता जाता है, इतना त्रासद है कि फ़िल्म देखने वालों का दिल दहल जाता है। दर्शक प्राणप्रण से चाहता है कि वह बच जाए, कहीं से कोई सहायता पहुँच जाए, कोई चमत्कार हो जाए। चमत्कार सस्ती फ़िल्मों में होते हैं जीवन में शायद ही कभी ऐसे कठिन समय में चमत्कार होता हो। इस फ़िल्म में अंत तक कोई चमत्कार नहीं होता है और वास्तविक फ़्रिस्टोफ़र की भाँति ही फ़िल्म का नायक मर जाता है। यह फ़िल्म मात्र कोरी कल्पना नहीं है, न ही निर्देश और स्क्रीनप्ले राइटर का दिमागी खलल। सच्ची जीवनी पर आधारित इसको पर्दे पर उतारने के लिए शूटिंग का ज्यादातर हिस्सा अलास्का के उस स्थान से करीब ६० मील दक्षिण में शूट किया गया था जहाँ असली क्रिस्टोफ़र भूख से ऐंठ-ऐंठ कर मरा था। अपने अनुभवों को अपनी डायरी में अंत-अंत तक संजोते हुए मरा था। फ़िल्म से जुड़ी टीम अलग-अलग मौसम को फ़िल्माने के लिए उस स्थान पर चार बार गई ताकि यथार्थ को यथासंभव प्रदर्शित कर सके। इसमें वे सफ़ल हुए हैं। फ़िल्म मात्र इसके प्राकृतिक दृश्यों की लाजवाब सुंदरता के लिए बार-बार देखी जा सकती है। कैमरा प्रकृति की विशालता और खूबसूरती को कैद करता है। एरिक गोटियर का कैमरा नायक तथा अन्य पात्रों के विभिन्न भावों और मन:स्थिति को भी बखूबी पकड़ पाने में कामयाब हुआ है। नायक की भूमिका में एमिल हिसर्च के अभिनय को समीक्षक अभिनय से बहुत आगे की चीज का दर्जा देते हैं। इस फ़िल्म को कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए जिसकी यह हकदार है। ऐसी जोखिम भरी फ़िल्म बनाना हँसी-खेल नहीं है इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए, साथ ही लीक से हट कर काम करने का जनून भी चाहिए। सोन पेन एक ऐसे ही व्यक्ति हैं। उन्होंने सदा वही किया-कहा है जो उन्हें उचित लगता है। जब अधिकाँश अमेरिकी खासकर हॉलीवुड के लोग ईराक पर अमेरिकी हमले के पक्ष में थे पेन ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने मुखरता से बुश प्रशासन की आलोचना की। सत्ता के खिलाफ़ जाने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। वे हॉलीवुड की दुनिया में अछूत बना दिए गए। इससे पेन के इरादों में कोई अंतर नहीं आया। आज भी वे अपने देश अमेरिका की दादागिरी के कटु आलोचक हैं। ऐसे निर्भीक लोग ही इस तरह की साहसिक फ़िल्म बनाने का जोखिम उठा सकते हैं और इतिहास में स्वयं को दर्ज करा सकते हैं। जब भी युवाओं के जीवन पर बनी फ़िल्मों की बात होगी ‘इनटू द वाइल्ड’ का नाम लिया जाएगा। पर्दे पर रची गई, विभिन्न मनोभावों को प्रस्तुत करती, प्रकृति की कोमल-कठोर नययनाभिराम रंगों-छटाओं के दिखाती यह एक खूबसूरत कविता है जिसे देख कर ही अनुभव किया जा सकता है, किया जाना चाहिए। ०००

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